मज़दूर संगठनकर्ता राजविन्दर को लुधियाना अदालत ने एक फर्जी मामले में दो साल क़ैद की सज़ा सुनायी

विशेष संवाददाता

Rajvinder26 फ़रवरी 2014 को लुधियाना ज़िला अदालत ने एक फ़ैसले में राजविन्दर और गौरी शंकर नाम के एक रिक्शा चालक को दो-दो साल क़ैद और हज़ार-हज़ार रुपये जुर्माने की सज़ा सुनायी है। इनका दोष यह था कि इन्होंने एक फ़ैक्टरी में ब्वायलर विस्फोट होने के बाद ध्वस्त हुई फ़ैक्टरी इमारत के मलबे से दबे हुए मज़दूरों को निकालने के लिए आवाज़ उठायी थी। राजविन्दर इस समय टेक्सटाइल-हौज़री कामगार यूनियन, पंजाब (रजि.) के अध्यक्ष हैं और बिगुल संवाददाता भी हैं। दोनों की जमानत करवायी गयी है और इस फ़ैसले के खि़लाफ़ हाईकोर्ट में अपील की गयी है।

वर्ष 2008 की 21 अप्रैल की शाम को साढे़ सात बजे लुधियाना के टिब्बा रोड पर स्थित वीर गारमेण्ट नामक एक डाइंग कारख़ाने में ब्वायलर फटा था जिसके कारण कारख़ाने की इमारत मलबे का ढेर बन गयी थी। सूचना मिलने पर राजविन्दर घटना-स्थल पर पहुँचे। वहाँ जमा हुए लोगों के बताने के मुताबिक़ यह हादसा कारख़ाना मालिक की लापरवाही के कारण हुआ था। मामले को दबाने के लिए मालिक ने किसी भी सरकारी विभाग में सूचना तक नहीं दी। वहाँ पर सिर्फ़ स्थानीय पुलिस चौकी के मुलाज़िम थे जो मालिक का सरेआम साथ देते हुए लोगों को भगा रहे थे। वहाँ मौजूद मज़दूरों का कहना था कि उस कारख़ाने में 15 मज़दूर काम कर रहे थे जिनमें से दो बच्चे (उम्र 12 से 13 साल) और तीन अन्य मज़दूर ज़ख़्मी हालत में मुहल्ले के लोगों द्वारा एक अस्पताल में दाखि़ल कराये गये थे। उस कारख़ाने के एक मज़दूर ने बताया कि वह और एक अन्य मज़दूर चाय पीने बाहर आये थे इसलिए बच गये। लेकिन जब उससे पूछा गया कि कारख़ाने के अन्दर कितने लोग मौजूद थे तब उसने कोई स्पष्ट जवाब नहीं दिया और घबरा गया। ज़ाहिर था कि वह मालिक के दबाव में था। घटना के कुछ देर बाद ही मालिकों की यूनियन डाइंग एसोसिएशन के सदस्य फ़ैक्टरी मालिक भी वहाँ पहुँच गये थे। वे भी लोगों को वहाँ से हटने के लिए कह रहे थे। इससे शक और भी पुख्ता होता था कि अगर 15 मज़दूर काम करते थे, लेकिन उसमें से सिर्फ़ सात के बारे में ही जानकारी मिल रही थी तो बाक़ी आठ कहाँ गये? वहाँ इकट्ठा लोगों का कहना था कि मलबा हटाया जाना चाहिए, ताकि अगर कोई दबा हो तो उसे बचाया जा सके।

इसी के अगले दिन 22 अप्रैल को उच्च अधिकारियों की मौजूदगी में और स्थानीय लोगों की मदद से जल्दी मलबा हटाने की माँग कर रहे राजविन्दर को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया। इस कार्रवाई का लोगों ने विरोध किया। इस पर पुलिस ने भारी लाठीचार्ज किया और लोगों को वहाँ से खदेड़ दिया। घटना के दो दिन बाद राजविन्दर को संगीन धाराएँ – 307, 382, 392, 323, 324, 427 आदि लगाकर जेल भेज दिया। एक रिक्शा चालक गौरीशंकर, जो वहाँ लोगों को पानी पिला रहा था, उसे भी आरोपी बनाया गया। गौरीशंकर को मालिक द्वारा मारने के इरादे से बुरी तरह पीटा गया था और मरा समझकर खेतों में फेंक दिया था। कुछ और भी लोगों पर यह झूठा केस डाल दिया गया। इस केस को पुलिस ने डाकाज़नी की वारदात बनाकर पेश किया। कहा गया कि राजविन्दर अपने साथियों सहित कारख़ाने में डाका डालने आया था। कारख़ाना मालिक के दोस्त के रोकने पर उस पर हमला किया, लोहे की छड़ से उसकी गाड़ी का शीशा तोड़कर पचास हज़ार कैश वाला बैग लेकर भाग गया। पुलिस ने कहानी बनायी कि इस डाके के लगभग पाँच घण्टे बाद विजय नगर चौक के नाके से मालिक की निशानदेही पर राजविन्दर को गिरफ़्तार किया गया और उससे लूटा हुआ सामान बरामद किया गया।

ग़ौरतलब है कि ब्वायलर विस्फोट की घटना और अगले दिन राजविन्दर की गिरफ़्तारी की अख़बारों और टी.वी- चैनलों में ख़बरें आयी थीं। इनमें भी डाके की कोई बात नहीं कही गयी थी और घटना-स्थल पर ही सैकड़ों लोगों के बीच राजविन्दर की गिरफ़्तारी के बारे में लिखा गया था। बचाव पक्ष के वकील ने भी लुधियाना सेशन कोर्ट के सामने ये तथ्य रखे थे कि पुलिस एफ़.आई.आर. में साढे़ नौ बजे की गिरफ़्तारी दिखायी गयी थी। सारे चश्मदीद गवाहों, जिसमें ख़ुद वीर डाइंग का मालिक भी था, ने राजविन्दर को घटना-स्थल से ही साढ़े चार बजे गिरफ़्तार करने का बयान दिया था। टूटी गाड़ियों की मरम्मत के बिल जो पुलिस ने पेश किये वे भी 20-21 दिन पहले 30 मार्च के थे। केस फ़ाइल में टूटी गाड़ियों और भीड़ की जो तस्वीरें लगायी गयी थीं, उनमें न तो किसी गाड़ी का शीशा टूटा था, जिसमें से हाथ डालकर बैग निकाला जा सके और न ही तथाकथित हमलावरों के चेहरे दिखायी दे रहे थे। जो फोटोग्राफर गवाह के बतौर पेश किया गया उसने कहा ये तस्वीरें उसने दोपहर लगभग एक बजे खींची थीं जबकि विवाद चार बजे हुआ था। इस तरह के कई और तथ्य थे जिनसे अदालत के सामने भी यह स्पष्ट था कि यह मामला फ़र्जी है।

लेकिन जज ने बचाव पक्ष की किसी भी दलील को ध्यान में नहीं रखा। उसने 307 और 302 धाराओं के तहत दो-दो साल क़ैद और पाँच-पाँच सौ रुपये जुर्माने की सज़ा सुनायी। इस मामले में सबसे बड़ा आघात गौरीशंकर को पहुँचा जिसका दोष इतना था कि वह हादसा स्थल पर लोगों को पानी पिला रहा था। उसका घर घटना स्थल के पास ही है। उस पर भी पुलिस ने डाकाज़नी, कत्ल का इरादा, तोड़फोड़ आदि धाराएँ लगायी थीं। इस बेबुनियाद मामले में राजविन्दर और गौरीशंकर को एक महीना जेल में भी काटना पड़ा था। विभिन्न जनसंगठनों द्वारा चलाये गये संघर्ष के दबाव में उनकी एक महीने बाद ज़मानत हो पायी थी। पिछले पाँच साल और दस महीनों में उन्हें अदालतों के असंख्य चक्कर लगाने पड़े। जज के फ़ैसले के बाद बचाव पक्ष के वकील ने पुनर्विचार करने के लिए अपील की तो जज ने कहा – “वकील साहिब, हमारी भी कुछ मजबूरियाँ हैं। आप हाईकोर्ट में अपील कर लो, मामला निपट जायेगा”!!

अदालत के इस फ़ैसले से कुछ बातें एक बार फिर साफ़ हो गयीं। अगर मुद्दा मज़दूरों और पूँजीपतियों के बीच टकराव का हो तो मज़दूरों को सबक सिखाने के लिए उनके खि़लाफ़ ही फ़ैसले सुनाये जाते हैं ताकि वे भविष्य में मालिकों से टक्कर लेने की न सोचें। जज-अफ़सर भी तो अपने “सगे-सम्बन्धी” पूँजीपतियों का ही पक्ष लेंगे। इनके अपने भी तो कारख़ाने आदि होते हैं। ये कभी नहीं चाहेंगे कि मज़दूर मालिकों के खि़लाफ़ आवाज़ उठायें। पंजाब में तो पिछले समय में मज़दूरों, किसानों, अध्यापकों, बिजली मुलाज़िमों के संगठनों के नेताओं को झूठे केसों में फँसाकर उलझाये रखने का रुझान बहुत बढ़ चुका है। मज़दूर संगठनकर्ता राजविन्दर को सुनायी गयी सज़ा भी सरकार की इसी रणनीति का हिस्सा है।

पिछले दिनों लुधियाना के एक बड़े अस्पताल डी.एम.सी. के 22 कर्मचारियों को तीन-तीन साल की सज़ा सुनायी गयी है। सन् 2002 में डी.एम.सी. में चली साढ़े तीन महीने की हड़ताल के दौरान इन मुलाज़िमों पर हत्या का प्रयास, तोड़फोड़ जैसे संगीन दोष लगाकर झूठा केस बनाया गया था। दूसरी बात, अदालतें ग़रीबों और मज़दूरों के प्रति पूर्वाग्रहों की शिकार हैं कि उनमें तो अपराधी प्रवृत्तियाँ होती ही हैं और इनको ठीक करने के लिए जेलों में ठूँसकर “सुधारा” जाना चाहिए। गुड़गाँव में मारुति सुज़ुकी के 147 मज़दूर हर क़ानून को धता बताकर पिछले दो वर्ष से जेल में रखे गये हैं और उनकी ज़मानत तक नहीं होने दी जा रही है। इसके अलावा, ऊपर से नीचे अदालतों में फैले भ्रष्टाचार के बारे में तो सब जानते ही हैं।

कहने को क़ानून की निगाह में सब बराबर हैं, लेकिन सच यही है कि न्याय भी यहाँ पैसे पर बिकता है। भारतीय न्याय व्यवस्था का असली तराज़ू ऐसा ही है जो अमीरों के लिए अलग और ग़रीबों के लिए अलग न्याय तौलता है।

 

 

मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2014

 


 

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