श्रीलंका में मई दिवस और मज़दूर आन्दोलन के नये उभार के सकारात्मक संकेत

कविता कृष्णपल्लवी

बाला ताम्पोई

बाला ताम्पोई

क्या आपको बाला ताम्पोई का नाम याद है? या, क्या आपने यह नाम सुना भी है? ये वही बाला ताम्पोई हैं जिनके नेतृत्व में 1953 में हुई ज़बरदस्त हड़ताल ने पूरे श्रीलंका को एकबारगी ठप्प सा कर दिया था।

बाला ताम्पोई इस माह 92 वर्ष के हो जायेंगे। वे भले-चंगे हैं, आज भी ‘सीलोन मर्केन्टाइल यूनियन’ के महासचिव हैं और देश के सर्वाधिक सक्रिय ट्रेडयूनियन नेताओं में से एक हैं।

श्रीलंका में इस बार अधिकांश ट्रेडयूनियनों ने एक साथ मिलकर बड़े स्तर पर मई दिवस की रैलियाँ आयोजित कीं और संसदीय राजनीतिक पार्टियों को इससे एकदम दूर रखा। बाला ताम्पोई का मानना है कि संसदीय राजनीति और नवउदारवादी राज्य से बढ़ते जुड़ाव ने गत दशकों के दौरान श्रीलंका के मज़दूर आन्दोलन को लगातार कमज़ोर बनाया है। श्रीलंका की अधिकांश वाम पार्टियाँ आज राष्ट्रपति महिन्दा राजपक्षे के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ गठबन्धन के साथ हैं जो निरंकुश सर्वसत्तावादी तौर-तरीक़ों से नवउदारवाद की नीतियों को लागू कर रहा है और जिसने तमिलों के विरुद्ध सर्वाधिक बर्बर दमनकारी सिंहल अन्धराष्ट्रवाद का परचम थाम रखा है। वाम संसदीय पार्टियों की इस नग्न-घृणित पतनशीलता ने अतिशोषण, अनौपचारिकीकरण, छँटनी, बेरोज़गारी, महँगाई और अनिश्चितता का कहर झेल रही मज़दूर आबादी को इन पार्टियों से एकदम दूर कर दिया है और भारी जनदबाव के चलते श्रीलंका का ट्रेडयूनियन आन्दोलन आज शुद्धीकरण और ‘रैडिकलाइज़ेशन’ की प्रक्रिया से गुज़र रहा है। एक ग़ौरतलब बात यह भी है कि पूरे श्रीलंकाई समाज में तमिल और सिंहल आबादी के बीच जो पार्थक्य और अन्तरविरोध पैदा हो गये हैं, उनसे मज़दूर आन्दोलन और ट्रेड यूनियनें अभी भी काफ़ी हद तक अछूती बची हुई हैं।

jvp-may-day2बाला ताम्पोई का मानना है कि नवउदारवादी नीतियों, उनकी पोषक राज्यसत्ता और संसदीय राजनीति के विरुद्ध देशव्यापी स्तर पर, नयी ज़मीन पर एक नया जुझारू मज़दूर आन्दोलन संगठित करना होगा। ‘युनाइटेड वर्कर्स फ़ेडरेशन’ के अध्यक्ष लीनस जयतिलके ने भी उनसे सहमति रखते हुए, मई दिवस की संयुक्त तैयारियों के दौरान एक पत्रकार मीरा श्रीनिवासन को बताया कि सभी सेक्टरों के मज़दूरों के बढ़ते अतिशोषण ने उनके आपसी सरोकारों और एक साथ मिलकर लड़ने की ज़रूरत के अहसास को बढ़ाया है। ‘सीलोन वर्कर्स रेड फ्ऱलैग यूनियन’ के महासचिव मेनाहा कण्डास्वामी के अनुसार, प्लाण्टेशन (बागान) मज़दूर (जिनमें भारी संख्या में तमिल मज़दूर हैं) काम के निर्धारित आठ घण्टों से बहुत अधिक काम करते हैं और श्रम क़ानूनों का वस्तुतः उनके लिए कोई मतलब नहीं रह गया है, इसलिए, अब एक बार फिर मज़दूर अधिकारों को लेकर नये सिरे से संघर्ष की शुरुआत करनी होगी।

ज़ाहिर है कि पतित होने के मामले में श्रीलंका की संसदीय वाम पार्टियाँ भी भारत की भाकपा, माकपा, भाकपा (माले) लिबरेशन, सोशलिस्ट यूनिटी सेण्टर, आर.एस.पी. और प़फ़ॉरवर्ड ब्लॉक आदि जैसी ही हैं। लेकिन दोनों देशों के मज़दूर आन्दोलनों में एक बुनियादी फ़र्क़ यह है कि भारत की सभी बड़ी ट्रेड यूनियनें जहाँ संसदीय वाम पार्टियों की पुछल्ली हैं और उनके नेतृत्व पर नीचे तक भ्रष्ट, पतित, दलाल ट्रेडयूनियन नौकरशाह कुण्डली मारकर बैठे हुए हैं, वहीं श्रीलंका की कई अग्रणी ट्रेड यूनियनें आज संसदीय वाम दलों से स्वतन्त्र स्टैण्ड ले रही हैं और एक साथ मिलकर नवउदारवाद के विरुद्ध रैडिकल मज़दूर संघर्ष संगठित करने के बारे में सोच रही हैं।

बाला ताम्पोई

बाला ताम्पोई

निश्चय ही यह एक महत्वपूर्ण आगे का क़दम है और राष्ट्रीयता के आधार पर श्रीलंका की आम आबादी में पैदा हुए शत्रुतापूर्ण बँटवारे को भी एकजुट संघर्ष ही दूर कर सकता है। लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है। रैडिकल से रैडिकल ट्रेड यूनियन आन्दोलन अपने आप में मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन को पूरा करने का साधन नहीं हो सकता। मज़दूर वर्ग की एक बोल्शेविक साँचे-खाँचे वाली हरावल पार्टी होना अनिवार्य है।

श्रीलंका में षण्मुगथासन के नेतृत्व में संशोधनवाद के विरुद्ध कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के संघर्ष और मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी के गठन का इतिहास आधी सदी से भी अधिक पुराना है। लेकिन षण्मुगथासन के जीवनकाल में भी वहाँ पार्टी मज़दूर वर्ग में अपना व्यापक आधार नहीं बना सकी थी, न ही किसानों का कोई व्यापक संघर्ष खड़ा कर पाने में ही सफल हुई थी। आज भी वहाँ पुरानी पार्टी की उत्तराधिकारी एक माओवादी पार्टी है, लेकिन मेहनतकशों के बढ़ते आक्रोश को पहलक़दमी लेकर संगठित कर पाने में यह पार्टी विफल है।

आज का श्रीलंका एक पिछड़ा ही सही, लेकिन पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों वाला देश है, न कि अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक या नवऔपनिवेशिक। प्लाण्टेशन और चाय उद्योगों का लगातार विकास हुआ है और भूमि सम्बन्धों के क्रमिक रूपान्तरण (प्रशियाई मार्ग) की प्रक्रिया तो पचास के दशक में भी शुरू हो गयी थी। इन सच्चाइयों को समझे बग़ैर, दुनिया के अधिकांश माओवादी संगठनों की ही तरह श्रीलंका के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी भी चीन की नवजनवादी क्रान्ति के फ़्रेमवर्क को कठमुल्लावादी ढंग से श्रीलंका पर लागू करने पर बल देते रहे हैं, जबकि श्रीलंका भी वस्तुतः साम्राज्यवाद-विरोधी पूँजीवाद-विरोधी, नये प्रकार की समाजवादी क्रान्ति के दौर में प्रविष्ट हो चुका है। भूमि क्रान्ति के कार्यभार को प्रधान बताते हुए (हालाँकि ग़लत आकलन के कारण वे उस दिशा में भी कुछ नहीं कर पाये) श्रीलंका के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों ने भारी मज़दूर आबादी में काम करने पर कभी विशेष ध्यान नहीं दिया और वस्तुगत तौर पर उन्हें संशोधनवादियों के रहमोकरम पर छोड़ दिया।

अभी तो श्रीलंका की माओवादी पार्टी में और भी विचारधारात्मक विचलन के संकेत मिल रहे हैं। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी, यू.एस.ए. के चेयरमैन बॉब अवाकिएन लेनिनवाद और माओवाद के “विकास की अगली कड़ी” के रूप में ‘न्यू सिंथेसिस’ नामक जो नया सिद्धान्त लेकर आये हैं (जो मार्क्सवाद की कुछ बुनियादी विचारधारात्मक अवस्थितियों से भटकाव है) उसे श्रीलंका की माओवादी पार्टी भी स्वीकार रही है।

लेकिन श्रीलंका का मज़दूर वर्ग यदि स्वयं अपने अनुभव से संसदवाद, अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद से लड़ते हुए नवउदारवादी नीतियों और राज्यसत्ता के विरुद्ध एकजुट संघर्ष की ज़रूरत महसूस कर रहा है तो कालान्तर में उसकी हरावल पार्टी के पुनस्संगठित होने की प्रक्रिया भी अवश्य गति पकड़ेगी, क्योंकि श्रीलंका की ज़मीन पर मार्क्सवादी विचारधारा के जो बीज बिखरे हुए हैं, उन सभी के अंकुरण-पल्लवन-पुष्पन को कोई ताक़त रोक नहीं सकेगी। यदि कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की एक पीढ़ी अपना दायित्व नहीं पूरा कर पायेगी, तो दूसरी पीढ़ी इतिहास के रंगमंच पर उसका स्थान ले लेगी।

 

मज़दूर बिगुल, मई 2014

 


 

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