प्रधानमन्त्री जी, देश की सुरक्षा को खतरा आतंकवाद से नहीं, ग़रीबी-भुखमरी-बेरोजगारी से है!

सुखदेव (पंजाबी पत्रिका ‘ललकार’ से साभार)

गुजरे 14-15 सितम्बर 2009 को नयी दिल्ली में विभिन्न राज्यों के पुलिस अध्‍यक्षों तथा अन्य पुलिस अफसरों का वार्षिक दो रोजा सम्मेलन हुआ। पहले दिन इस सम्मेलन को गृह मन्त्री चिदम्बरम और दूसरे दिन प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने मुख्य वक्ता के तौर पर सम्बोधित किया। दोनों ने इस देश को अन्दरूनी तथा बाहरी आतंकवाद से खतरे की चर्चा करते हुए, इससे निपटने के उपायों की चर्चा की। प्रधानमन्त्री ने अपने भाषण में कुछ दिलचस्प और आधी सच्ची बातें कहीं। उन्होंने नियन्त्रण रेखा के पार से और नेपाल, बांग्लादेश से देश में हो रही घुसपैठ की चर्चा की। उन्होंने कश्मीर और उत्तर पूर्वी राज्यों में सरकार के हथियारबन्द दस्तों की हथियारबन्द आतंकवादियों से टक्करों में हो रही बढ़ोतरी की चर्चा की। प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह पिछले कई वर्षों से नक्सलवाद को देश की अन्दरूनी सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे के तौर पर पेश करते आ रहे हैं। उपरोक्त सम्मेलन में दिये अपने भाषण् में उन्होंने फिर इस बात को दोहराया। उन्होंने माना कि, ”नागरिक समाज, बुद्धिजीवियों और नौजवानों के एक अच्छे-खासे हिस्से में इस आन्दोलन का प्रभाव है। उन्होंने यह भी माना कि उनके प्रयासों के बावजूद प्रभावित राज्यों में हिंसा में बढ़ोत्तारी जारी है।”

आगे उन्होंने कहा कि हमें यह अच्छी तरह समझना पड़ेगा कि किस तरह नौजवानों को इन आन्दोलनों में हिस्सा लेने के लिए उत्तोजित किया जाता है, कैसे भर्ती किया जाता है और कैसे शिक्षित किया जाता है। सामाजिक सामंजस्य को तोड़ने वाले और अलगाव पैदा करने वाले कारकों की स्पष्ट पहचान करनी पड़ेगी, ताकि उन्हें दूर करने के लिए काम किया जा सके।

लेकिन मौजूदा सामाजिक व्यवस्था में सामाजिक सामंजस्य सम्भव नहीं है। हमारा समाज दो धड़ों में बँटा हुआ है। देश की बड़ी संख्या मेहनतकश लोगों की है, जो हाड़-तोड़ मेहनत करते हैं लेकिन फिर भी पेट से भूखे हैं, करोड़ों के पास रहने के लिए बसेरा नहीं है, तन ढकने को कपड़ा नहीं है। वे ग़रीबी, भुखमरी, बेरोजगारी की चक्की में हमेशा पिसते रहते हैं। दूसरा धड़ा उन जोंकों का है जो इन मेहनतकशों के शरीरों पर चिपका हुआ है। यह धड़ा परजीवियों का है जो मेहनतकशों की कमाई खा रहा है। देश के करोड़ों मेहनतकश लोगों की दुर्दशा की वजह इन्हीं परजीवियों द्वारा हो रहा लूट-शोषण है। प्रधानमन्त्री जी पता नहीं कौन से ‘सामाजिक सामंजस्य’ के टूटने की बात कर रहे हैं। वर्गों में बँटे, लोगों और जोंकों के हिस्सों में बँटे समाज से सामाजिक सामंजस्य हो ही नहीं सकता, फिर इसके पैदा होने के कारकों को ढूँढ़ने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता।

आजादी के बाद कश्मीर और उत्तर पूर्वी राज्यों में लगातार राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन जोर पकड़ते जा रहे हैं। इन आन्दोलनों को इन राष्ट्रों की विशाल जनता का समर्थन हासिल रहा है। बाद में इनमें कई आन्दोलन भटकावग्रस्त भी हुए। आज कई जगहों पर धार्मिक मूलवादी और कई जगहों पर अति-राष्ट्रवादी संगठन इन आन्दोलनों में सक्रिय हैं। आज इन आन्दोलनों का नेतृत्व करने वाले संगठनों के सिद्धान्त और काम करने के ढंग से असहमति हो सकती है, लेकिन एक बात पक्की है कि कश्मीर और उत्तर पूर्व में बड़े पैमाने पर जिस सामाजिक बेचैनी का समय-समय पर फूटना लगा रहता है, उसकी मुख्य वजह भारतीय राज्यसत्ता द्वारा इन राष्ट्रों का बर्बर दमन ही है। यही वजह है कि इन राष्ट्रीयताओं की जनता भारतीय राज्य और इसके प्रतीक चिन्हों को नफरत करती है। अपनी तबाह हाल अर्थव्यवस्थाओं के चलते ये लोग बेरोजगारी, भुखमरी से जूझ रहे हैं और भारतीय राज्यसत्ता के खिलाफ उठने वाले हर आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।

आजादी के बाद देश के भीतर अमीर-ग़रीब के बीच की खाई और चौड़ी हो गयी है। नयी आर्थिक नीति की शुरुआत (1991) के बाद तो यह खाई और भी तेजी से चौड़ी हुई है। देशी-विदेशी धनकुबेरों ने दोनों हाथों से देश की दौलत लूटी है। नयी आर्थिक नीति के बाद बने करोड़पतियों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तारी हुई है। यहाँ तक कि देश के उच्च मध्‍यवर्ग के पास बेहिसाब धन इकट्ठा हुआ है। इस लूट के माल पर यह छोटी सी आबादी ऐश कर रही है। कुछ वर्ष पहले प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने इन धनकुबेरों को धन का दिखावा न करने की सलाह दी थी और चेतावनी दी थी कि धनवालों का ऐशो-आराम देखकर ग़रीबों के दिलों में बेचैनी जन्म ले सकती है। लेकिन किसी ने भी प्रधानमन्त्री की सलाह और चेतावनी पर कान न रखा।

दूसरी तरफ देश में 35 करोड़ लोग रात को भूखा सोते हैं। बचपन होटलों, ढाबों, भट्ठों, कारखानों में मजदूरी करते बरबाद हो रहा है। देश की लगभग एक तिहाई आबादी बेरोजगारी- अर्धाबेरोजगारी, छँटनियों, तालाबन्दियों, की मार झेल रही है। प्राइवेट सेक्टरों में करोड़ों नौजवान बेहद कम वेतन पर काम करते हुए अनेक मानसिक तनावों में उलझे रहते हैं।

यही वे कारक हैं जो देश के विभिन्न भागों में सामाजिक बेचैनी को जन्म दे रहे हैं। लोगों का गुस्सा देश के कोने-कोने में कहीं छोटे पैमाने पर और कहीं बड़े पैमाने पर फूट रहा है। अगर प्रधानमन्त्री के सामाजिक सामंजस्य टूटने और अलगाव के पैदा होने का अर्थ इस बेचैनी से है तो इसके कारणों को ढूँढ़ने के लिए किसी गहरे सिद्धन्त की जरूरत नहीं है। सभी इसके कारणों को जानते हैं। कुछ दिन पहले चण्डीगढ़ की एक कालोनी में प्रचार के दौरान मिले एक साधारण मध्‍यवर्गीय नागरिक ने प्रधानमन्त्री के उपरोक्त भाषण का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि ‘देश की सुरक्षा को खतरा आतंकवाद से नहीं बल्कि आलू से है। जहाँ आलू ही 25 रुपये किलो मिलते हैं, वहाँ लोग आतंकवादी नहीं बनेंगे तो क्या बनेंगे।’ देश के करोड़ों लोग पहले ही भुखमरी के शिकार हैं, लेकिन पिछले दो वर्षों से लगातार बढ़ रही महँगाई ने उन करोड़ों लोगों से भी रोटी छीन ली है जिन्हें थोड़ी-बहुत मिलती थी। फल-दूध तो पहले ही देश के करोड़ों लोगों के लिए सपना थे, अब दाल-सब्जी भी उनकी पहुँच के बाहर हो गयी है। ग़रीबों की खुराक माने जाने वाले प्याज-आलू भी आज उनसे छीन लिये गये हैं। यह हो ही नहीं सकता कि प्रधानमन्त्री जी यह सारा कुछ न जानते हों। वे सब जानते हैं। लेकिन जिस कुर्सी पर वे बैठे हैं, वहाँ बैठकर वे उससे अधिक कुछ बोल ही नहीं सकते, जितना उन्होंने बोला है।

एक तरफ वे ‘सामाजिक सामंजस्य’ के टूटने और बढ़ रहे अलगाव के जिम्मेदार कारकों को ढूँढ़ने और उन्हें दूर करने के लिए काम करने की बात कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ इन्हीं कारकों की बदौलत पैदा हो रहे जनान्दोलनों को दमन के जोर पर दबा देने की जोरदार वकालत करते हैं। अपने उपरोक्त भाषण में प्रधानमन्त्री ने देश की सुरक्षा की गारण्टी करने के लिए पुलिस में बड़े पैमाने पर नयी भर्ती करने और पुलिस को आधुनिक तकनीक से लैस करने की वकालत की। देश के हुक्मरानों के पास यही राह बचती भी है, जो ख़ुद उनकी मौत की तरफ जाती है। प्रधानमन्त्री अच्छी तरह जानते हैं कि इस व्यवस्था, जिसके रक्षकों के मुखिया वे ख़ुद हैं, के अन्दर ही अन्दर सामाजिक बेचैनी (जनता की ग़रीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, लूट, दमन) को दूर नहीं किया जा सकता। इसलिए लूट-शोषण के शिकार मेहनतकशों और राष्ट्रीयताओं में खौल रही बेचैनी को रोकने के लिए वे राज्यसत्ता के दाँत तीखे किये जा रहे हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि जोर-जुल्म-दमन के दम पर जनता के जायज संघर्षों को दबाया नहीं जा सकता।

बिगुल, अक्‍टूबर 2009


 

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