एक मज़दूर की ज़िन्दगी

रामकिशोर, गुड़गाँव, अनाज मण्डी

मैं रामकिशोर (आजमगढ़ यू.पी.) का रहने वाला हूँ। गुड़गाँव की एक फ़ैक्टरी में काम करता हूँ। मुझे मज़दूर  बिगुल अख़बार पढ़ना बहुत ज़रूरी लगता है, क्योंकि यह हम मज़दूरों की ज़िन्दगी की सच्चाई बताता है और इस घुटनभरी ज़िन्दगी से लड़ने का तरीक़ा बताता है, और मैं तो अपने बीवी-बच्चों को भी यह अख़बार पढ़कर सुनाता हूँ। मुझे ज़रूरी लगा इसलिए अपनी यह चिट्ठी ‘मज़दूर बिगुल’ कार्यालय में सम्पादक जी को भेज रह हूँ।

मैं तीन साल से गुड़गाँव में काम कर रहा हूँ और जैसे-तैसे ज़िन्दगी की गाड़ी खींच रहा हूँ। मेरे चार छोटे बच्चे हैं, तीन लड़कियाँ और एक लड़का। पहले मैं अपने सगे, सम्बन्धियों के साथ अकेले गुड़गाँव आया था और दिन-रात मेहनत करके अपने बीवी-बच्चों के लिए गाँव में अपने बड़े भाई के पास रुपये भेजता था। पिछले साल मैं अपने बीवी-बच्चों को भी गुड़गँाव ले आया। अब पति, पत्नी व 4 बच्चों के लिए पाँच हज़ार रुपये की तनख़्वाह बहुत कम है। मेरे दिन-रात ओवरटाइम लगाने के बाद भी मैं अपने बच्चों को दूध व अच्छा खाना नहीं खिला सकता था। इसलिए पाँच महीने पहले मजबूरी में मैंने अपनी पत्नी को भी ज़बरदस्ती फ़ैक्टरी भेजना शुरू किया, क्योकि इसके अलावा मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था। लोगों ने बहुत उल्टा-सीधा कहा, नाक, मूँछों और मर्यादा का ख़याल दिलाया। मगर आर्थिक मदद नहीं की, इसलिए मैंने यही निर्णय किया कि नाक, मूँछें जो कटें तो कटती रहें, कोई बात नहीं मगर मेरे बीवी-बच्चे अच्छी तरह ज़िन्दगी बितायें। अब ओवरटाइम लगाकर करीब 6500 रुपये मैं और आठ घण्टे के 4500 रुपये मेरी पत्नी तनख़्वाह उठा लेते हैं और तब जाकर मुश्किल से अपने बच्चों को दूध, खाना व कपड़े दे पाता हूँ। अभी सबसे छोटा लड़का डेढ़ साल का ही है, उसको माँ की गोद की ज़रूरत है। मगर मेरी यह मजबूरी है। मैं यह सीख गया हूँ कि यह दौलतवालों की सरकार मेरे किसी काम की नहीं है। मज़दूरों की भी अपनी सरकार होनी चाहिए जो मज़दूरों की ज़िन्दगी में ख़ुशहाली ला सके।

 

मज़दूर बिगुल, जून 2014

 


 

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