सभी बिरादर संगठन के साथियों के नामः ‘इंकलाबी मज़दूर केन्द्र’ के नये कुत्साप्रचार-पत्र के “तथ्यों” का सतथ्य व सप्रमाण खण्डन

साथियो!

ज्ञात हो कि पिछले 6 जून से लेकर 6 जुलाई तक ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के नेतृत्व में और ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ की सक्रिय भागीदारी के साथ वज़ीरपुर के गरम रोला कारखानों के मज़दूरों ने एक सफल हड़ताल चलायी और 8 जुलाई तक सभी श्रम कानूनों को सफलतापूर्वक लागू करवा लिया। इस हड़ताल के बारे में पूरी जानकारी, इसके वीडियो, फोटोग्राफ आदि के लिए और साथ ही 27 व 28 जून को हुए कानूनी समझौते की प्रतिलिपि के लिए आप ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ का ब्लॉग (garamrolla.blogspot.in) देख सकते हैं। इसी आन्दोलन के दौरान ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के नेतृत्व में गरम रोला मज़दूरों ने तमाम चुनावी पार्टियों की दल्ली यूनियनों, एनजीओ और साथ ही एक लेबर इंस्पेक्टर से साँठ-गाँठ के ज़रिये मज़दूरों के संघर्ष को तोड़ने का प्रयास करते हुए पकड़े गये ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ के कार्यकर्ताओं को आन्दोलन से खदेड़ दिया। इस आन्दोलन से 20 जून और 29 जून को मज़दूरों द्वारा खदेड़े जाने के बाद से ही इस आन्दोलन के ख़िलाफ़ और इसमें महती भूमिका निभाने वाले ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के ख़िलाफ़ ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ के लोगों ने एक कुत्साप्रचार की मुहिम चला रखी है। इस पूरे मामले का खुलासा करते हुए ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ ने अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट डाली थी जिसे आप देख सकते हैं साथ ही ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ की ओर से भी सभी बिरादर संगठनों को एक मेल भेजा गया था, जिसमें इंमके की दलाली भरी हरक़तों का खुलासा किया गया था। इसके जवाब में इंमके के लोगों ने अपना स्पष्टीकरण देने के नाम पर एक झूठों और भ्रामक बातों से भरा एक पुलिन्दा जारी किया है, जिसका जवाब देना हम ज़रूरी समझते हैं। यह जवाब पैरावार होगा ताकि साथियों के लिए हमारे नुक्ते साफ़ हों। चूँकि जवाब पैरावार है, इसलिए सभी तथ्यों और प्रमाणों को खोलकर रखने के कारण यह लम्बा है। हमें उम्मीद है आप कुछ समय निकालकर इसे पढ़ेंगे ताकि पूरी स्थिति आपके सामने स्पष्ट हो सके।

1. पत्र के पहले पैराग्राफ़ में यह दावा किया गया है कि हमने यह दम्भपूर्ण घोषणा की है कि हम इंमके को बिरादराना संगठन नहीं मानते हैं और इसलिए हम उनके साथ कोई मंच या टेबल साझा नहीं करेंगे। यह सच है। हम इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ को अब किसी भी रूप में क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों की बिरादरी का हिस्सा नहीं मानते हैं। लेकिन इंमके के लोगों का यह दावा है कि हमने यह “दम्भपूर्ण” घोषणा इसलिए कि है कि हमारे “कपट” का पर्दाफाश हो जायेगा! अगर हमें ऐसा कोई भय होता तो फिर हम साथ में यह प्रस्ताव नहीं रखते कि हम अन्य सभी बिरादर संगठनों के सामने अपनी अवस्थिति प्रमाणों और तथ्यों समेत स्पष्ट करने को तैयार हैं और हम मानते हैं कि ये बिरादर संगठन इंमके के लोगों से भी उनकी अवस्थिति जान लें, और उसके बाद स्वयं तथ्यों की जाँच-पड़ताल कर लें। हम इंमके के साथ कोई मंच साझा क्यों नहीं करना चाहते इसके तीन प्रमुख कारण हैं– (1) वज़ीरपुर आन्दोलन में इनकी खुली ग़द्दारी और दलाली के बाद हम किसी मंच पर इनके साथ बैठना अपनी कम्युनिस्ट गरिमा के ख़िलाफ़ मानते हैं; आगे हम इस बिन्दु को और स्पष्ट करेंगे। (2) इंमके के एक कार्यकर्ता दीपक गुप्ता द्वारा हमारे संगठन की एक ज़िम्मेदार स्त्री कॉमरेड के बारे में निहायत आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल करने के बाद इंमके के लोगों ने इस पर न तो कोई माफ़ी माँगी है और न ही उस आपत्तिजनक पोस्ट को हटाया है जिसमें कि घटिया किस्म की शब्दावली का प्रयोग किया गया है, ऐसे में, इनके साथ किसी मंच पर साथ बैठने का प्रश्न ही नहीं उठता है; (3) इंमके के लोग ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के ख़िलाफ़ प्रचार करने और अपने संकीर्ण सांगठनिक हितों की सेवा में इस कदर अन्धे हो गये कि ‘जनज्वार’ नामक एक गिरोह की गोद में जा बैठे जिसे कि अजय प्रकाश नाम का भगोड़ा, पतित और सन्दिग्ध तत्व चलाता है और जो कि लगातार स्तालिन और माओ के विरुद्ध प्रचार करता रहता है; यह ‘जनज्वार’ वही वेबसाइट है जिसने कि माले आन्दोलन पर लगातार बेहद आपत्तिजनक लेख और टिप्पणियाँ प्रकाशित की हैं और साथ ही तमाम पतित त्रत्स्कीपंथियों जैसे कि राजेश त्यागी के स्तालिन पर कीचड़ उछालने वाले लेख छापे हैं। एक ऐसे कम्युनिस्ट-विरोधी गिरोह के साथ गलबहिंयाँ करने वाले लोगों के साथ एक मंच पर बैठने का प्रश्न ही नहीं उठता है।

2. व 3. दूसरे व तीसरे पैरा में इंमके के पत्र में यह दावा किया गया है कि वे ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के मेल में लगाये गये आरोपों के जवाब में नहीं बल्कि कुछ साथियों के आग्रह पर स्पष्टीकरण दे रहे हैं! यह भी एक बड़ा झूठ है। दरअसल इस पत्र में इनका सारा कच्चा-चिट्ठा खोलकर रख दिया गया है इसलिए वे इसका एक छद्म-उत्तर देने का प्रयास कर रहे हैं। इस पैराग्राफ में अतीत का एक लम्बा-चौड़ा तथ्यात्मक ब्यौरा देने का दावा किया गया है, जो वास्तव में अपने हालिया अपराधों और ग़द्दारी को छिपाने का ‘इंमके’ द्वारा किया गया एक दयनीय और हास्यास्पद प्रयास है। आगे हम तथ्यों और प्रमाणों समेत इस बात को दिखलायेंगे।

4. व 5. चौथे और पाँचवें पैरा में यह दावा किया गया है कि 2013 में ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ का गठन इंमके की पहल पर किया गया था और तब इंमके के लोगों को रघुराज की पृष्ठभूमि के बारे में कुछ पता नहीं था। इन्होंने यह भी दावा किया है कि मुन्ना प्रसाद और रघुराज को संयुक्त संरक्षक नियुक्त किया गया। यह सब कोरी गप्प है। 2013 में वज़ीरपुर के गरम रोला मज़दूरों ने ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ का गठन अपनी पहल पर किया था और इंमके इसमें शामिल हुआ था। रघुराज को इसका संयोजक बनाया गया था और मुन्ना प्रसाद को सह-संयोजक। यह बताया गया है कि रघुराज व कुछ मज़दूरों के गिरफ्तार होने पर मज़दूरों ने थाने का घेराव किया और पुलिस के “हल्के” लाठी चार्ज के बावजूद वहाँ से हटे नहीं और फिर जब रघुराज ने एक समझौता करके मज़दूरों में आकर उसका एलान किया तो मज़दूरों ने “उन परिस्थितियों में” इस समझौते को मान लिया। यह पूरी बात कितनी अन्तरविरोधी है यह कोई भी समझ सकता है। एक ओर मज़दूर इस उत्साह में थे कि उन्होंने थाने का घेराव लाठी चार्ज के बावजूद नहीं छोड़ा, वहीं दूसरी ओर उन्होंने एक बुरे समझौते को मान लिया! जब परिस्थितियों के बारे में बताया गया है तो बताया गया है कि मज़दूर ज़बर्दस्त जुझारूपन से लड़ रहे थे, लेकिन इसी जुझारूपन में उन्होंने एक शर्मनाक समझौते को स्वीकार कर लिया। वास्तव में, उस समय आन्दोलन में मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को उन्नत करने का कोई कार्य इंमके के लोगों ने किया ही नहीं था। सारा काम रघुराज के ज़रिये होता था और इंमके के लोग ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के कार्यालय में बैठकर कानाफूसी, जोड़-तोड़ और दाँव-पेच के अलावा कुछ करते ही नहीं थे। यही कारण था कि 2014 के आन्दोलन के दौरान मज़दूरों की व्यापक बहुसंख्या ने खुले तौर पर मंच से उनका बहिष्कार किया और दो-दो बार इन्हें दौड़ा लिया। यदि इंमके के लोगों ने कोई राजनीतिक कार्य किया होता तो मज़दूरों में उनका आधार होता। तब क्या ऐसी स्थिति पैदा होती? 2014 के आन्दोलन ने ही दिखला दिया कि इंमके का कभी गरम रोला मज़दूरों में कोई आधार था ही नहीं। अन्यथा, आन्दोलन के बीच से बेइज्जत करके खदेड़े जाने की कोई अन्य सम्भव व्याख्या नहीं है। किसी अफवाह या कुत्साप्रचार के आधार पर दो-चार मज़दूर इंमके के ख़िलाफ़ हो सकते थे, एक पूरे पेशे के मज़दूर नहीं। इसी से इंमके के झूठों की सच्चाई सामने आ जाती है।

6. छठें पैरा में इंमके के लोगों ने अपना प्रचार करने पर ध्यान दिया है कि मई दिवस पर इलाके में कार्यक्रम हुआ, एक मज़दूर की मौत पर संघर्ष किया गया, एक रैली का आयोजन किया गया, वगैरह। यह भी बताया गया है कि इस समय तक ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ कहीं पृष्ठभूमि में भी नहीं था, और फिर यह बोला गया है कि उसके कुछ कार्यकर्ता “पर्चा बाँटने और भाषण देने” आये थे! ज़ाहिर है, यह बात ही अन्तरविरोधी है। दूसरी बात, इन सारे कार्यक्रमों का श्रेय इंमके के लोग बेवजह लेने की कोशिश कर रहे हैं। ये सारे कार्यक्रम ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के नेतृत्वकारी मज़दूरों की टोली आयोजित कर रही थी और उसमें इंमके की भी भागीदारी थी। लेकिन यहाँ यह झूठ फैलाने की कोशिश की जा रही है कि यह सारे कार्यक्रम इंमके चला रहा था। कोई भी साथी गरम रोला मज़दूरों के बीच जाकर इन तथ्यों की जाँच-पड़ताल कर सकता है और देख सकता है कि इंमके के लोग किसी बेशर्मी से झूठ बोलते हैं।

7. सातवें पैरा में एक गल्प कथा गढ़ी गयी है कि किन सैद्धान्तिक और राजनीतिक मुद्दों पर इंमके और रघुराज के बीच विवाद पैदा हुआ। इसमें इन्होंने वित्तीय पारदर्शिता, एनजीओ व बीजेपी से रिश्ते, सामूहिक नेतृत्व आदि के सवालों को गिनाया गया है। वास्तव में, सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है। इंमके के लोगों से विवाद वास्तव में मात्र रघुराज का नहीं बल्कि ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के सभी नेतृत्वकारी मज़दूरों का हुआ था। इस विवाद के मूल में कोई राजनीतिक प्रश्न नहीं था बल्कि इंमके के लोगों की सांगठनिक संकीर्णता थी। इंमके के लोगों ने ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के लोगों पर इस बात का दबाव डालना शुरू किया कि समिति के दफ्तर के बोर्ड, बैनरों और झण्डों पर ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के साथ ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ का नाम भी होना चाहिए। कई मज़दूरों को इंमके में शामिल करने के लिए हरीश और मुन्ना बेतरह ज़ोर डाल रहे थे। इसी बीच 7 नवम्बर को इंमके के लोगों ने इलाके में एक पर्चा निकाला और ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के किसी भी सदस्य से पूछे बिना उस पर समिति का नाम डाल दिया गया। इसका कारण यह था कि इंमके का खुद कोई आधार नहीं था और वह ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के नाम का इस्तेमाल करना चाहता था। मज़दूर पहले से ही नाराज़ थे और अन्ततः उन्होंने स्पष्ट रूप में इंमके के लोगों को बता दिया कि ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ को इंमके से जुड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं है। आन्दोलन व संघर्ष में यदि इंमके साथ देना चाहता है तो वह आये लेकिन वह अपने नाम और पहचान को ज़बरन गरम रोला मज़दूरों पर थोपने का प्रयास न करे। नतीजतन, इंमके के लोग ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ से क्रमिक प्रक्रिया में बाहर होते चले गये। यह प्रक्रिया 2013 के समाप्त होने से पहले पूरी हो चुकी थी। इस बात को सिद्ध करने के लिए हम एक छोटा-सा तथ्य आपके समक्ष रखेंगे, जिसकी जाँच कोई भी साथी स्वयं वज़ीरपुर के गरम रोला मज़दूरों के बीच जाकर कर सकता है। 2013 के अन्त तक ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ गरम रोला के मज़दूरों के बीच स्थापित हो चुका था। आपको शायद पता होगा कि ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के आह्वान पर 6 फरवरी को हज़ारों मज़दूरों ने तत्कालीन मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल के विरुद्ध दिल्ली सचिवालय पर प्रदर्शन किया था। जब जनवरी माह में इस प्रदर्शन की तैयारी वज़ीरपुर में हम कर रहे थे उस समय मुन्ना प्रसाद और हरीश ने इसे नाकाम करने के लिए तोड़-फोड़ की कई कार्रवाइयाँ कीं। 6 फरवरी के प्रदर्शन को नाकाम करने के लिए इंमके के लोगों ने वज़ीरपुर के मज़दूरों के बीच जाकर प्रचार करना शुरू किया कि प्रदर्शन 6 फरवरी को नहीं बल्कि 29 जनवरी को किया जा रहा है। 29 जनवरी को ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ द्वारा भी अलग से वज़ीरपुर के मज़दूरों का प्रदर्शन था। 29 जनवरी को मुन्ना प्रसाद ऊधमसिंह पार्क (वज़ीरपुर) में पहुँचा और मज़दूरों को चलने के लिए बोलने लगा। इसके जवाब में दर्ज़नों मज़दूरों ने मुन्ना प्रसाद को दौड़ा लिया। इसलिए 2014 का आन्दोलन वह पहला मौका नहीं था जब इंमके के लोगों को मज़दूरों ने दौड़ा लिया था। मज़दूरों के बीच इंमके के प्रति इस रवैये का एक कारण यह भी था कि मुन्ना प्रसाद समिति के दफ्तर से समिति के कानूनी कागज़ात को चुराकर भाग गया था। इस बात से इंमके के लोग इंकार कर रहे हैं। लेकिन इनका झूठ एक ही बात से साबित हो जाता हैः अगर वे समिति के कानूनी कागज़ात चुराकर नहीं भागे थे तो फिर उन्होंने जारी आन्दोलन के दौरान मज़दूरों द्वारा झिड़के जाने पर कौन-से कागज़ात 13 जून को वापस किये थे? वास्तव में, इन्हें 11 जून से पहले समिति के सदस्यों ने अल्टीमेटम दिया था कि अगर चुराये हुए कागज़ात वापस नहीं किये गये तो कल से हड़ताल में नज़र मत आना। इस अल्टीमेटम के बाद मुन्ना प्रसाद और हरीश ने खुद रघुराज को कागज़ वापस किये थे। इस तथ्य की जाँच भी कोई भी साथी वज़ीरपुर के मज़दूरों के बीच कर सकता है।

8. व 9. इन दोनों पैराग्राफों में भी इंमके के लोगों ने अपनी गल्पकथा जारी रखी है। इनका कहना है कि रघुराज से मतभेद के बाद इन्होंने रघुराज को ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ से हट जाने को कहा या फिर कमेटी की बैठक को बुलाने के लिए कहा। रघुराज दोनों बातों से मुकर गया तब इंमके के लोगों ने कमेटी की बैठक बुलाने का प्रयास किया लेकिन वह असफल हो गया। यह पूरी बात इस कदर अन्तरविरोधों से भरी हुई है कि इसके झूठ को कोई भी समझ सकता है। इंमके के लोगों ने पिछले पैराग्राफों में यह दावा किया कि समिति का गठन उन्होंने किया था और वास्तव में सभी मज़दूरों को कमेटी में उन्होंने अलग-अलग कारखानों से लिया था। ऐसे में, उन्हें रघुराज को समिति छोड़ने का आग्रह करने या उसे समिति की बैठक बुलाने को कहने की क्या ज़रूरत थी? यदि समिति का गठन ही इंमके ने किया था तो वह समिति की बैठक बुलाकर रघुराज को बाहर करने का प्रस्ताव रख सकती थी। लेकिन इंमके वालों ने अपनी बनायी कमेटी की ही बैठक बुलाने की अपील रघुराज से की! क्या यह अजीबो-ग़रीब “तर्क” इंमके के झूठ के पुलिन्दे की पोल नहीं खोल देता? इसके बाद इन्होंने ढपोरशंखी हरक़त जारी रखते हुए दावा किया है कि इंमके ने रघुराज से सम्बन्ध-विच्छेद के बाद अपनी अलग गरम रोला समिति बनाने के बारे में सोचा लेकिन बाद में मज़दूरों की एकता टूटने के भय से इस पर विचार करना छोड़ दिया। इसमें दो झूठ हैं। पहली बात तो यह कि कुछ ही पंक्तियों के पहले इंमके वालों ने यह दावा किया था कि समिति के कुछ सदस्य काम छोड़ चुके थे और बाकी अन्यमनस्क हो गये थे। अगर यह सच है तो फिर इंमके वालों को एकता टूटने का भय नहीं होना चाहिए था और उन्हें अपनी अलग समिति बनाने का प्रस्ताव रखना चाहिए था। दूसरा झूठ यह है कि इन्होंने दूसरी समिति नहीं बनायी। वास्तव में, इंमके वालों ने अपनी अलग समिति बनाने का एक फ्लॉप प्रयास किया। इन्होंने स्टील वर्कर्स समिति के तौर पर अपनी अलग समिति बनाने का प्रयास किया। लेकिन इस समिति में मुन्ना और हरीश के अलावा कोई जुड़ा नहीं! यही कारण था कि जब 29 जनवरी को इन्होंने ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के कार्यक्रम को असफल बनाने के लिए एक अलग प्रदर्शन करने का प्रयास किया और मज़दूरों को बुलाने के लिए राजा पार्क गये तो कोई भी मज़दूर इनके साथ नहीं गया और ये कुछ अपने लोगों के साथ कुछ देर तक इलाके में घूमते रहे और बाद में मुन्ना प्रसाद को लोगों ने ही वहाँ से खदेड़ दिया। इंमके के लोगों ने आत्मरक्षा में जो पत्र जारी किया है अगर उसके झूठ उन्होंने थोड़ा सोच समझकर गढ़े होते तो उनके लिए बेहतर होता। यहाँ तो उन्होंने अपना हरेक झूठ खुद ही बेनक़ाब कर दिया है।

10. दसवें पैरा में इंमके ने दावा किया है कि उन्होंने कानूनी कागज़ात रघुराज को लौटाने से इंकार कर दिया और इसे कमेटी के दस लोगों की बैठक में समिति के हवाले करने की बात की। इन्होंने अपनी कहानी ग़लत जगह से शुरू कर दी है। पहले इन्हें यह बताना चाहिए कि अगर कानूनी कागज़ात समिति की संपत्ति थे, तो वह समिति के दफ्तर में न होकर इंमके के मुन्ना प्रसाद के पास क्यों थे? इंमके ही तो गरम रोला मज़दूर एकता समिति था नहीं? उसमें तो मज़दूरों की एक लीडिंग कोर बनी थी, जिसे स्वयं इंमके मानता है। तो फिर कागज़ात भी उस लीडिंग कमेटी के दफ्तर में होने चाहिए थे, वे मुन्ना प्रसाद के पास कैसे पहुँचे? इसका कारण हम आपको बताते हैं। कागज़ात वास्तव में पहले दफ्तर में ही रखे थे, जिसे एक दिन मुन्ना प्रसाद धोखे से चुराकर भाग गया था। इसीलिए दस्तावेज़ों को लौटाने का प्रश्न उपस्थित हुआ। यहाँ इन्होंने यह भी दावा किया है कि समिति के लोगों की बैठक रघुराज ने इसलिए नहीं बुलाई क्योंकि इससे रघुराज को इंमके के साथ अन्तरविरोधों के कारण मज़दूरों के सामने आ जाते! सवाल तो यह है कि समिति पर अगर इंमके की इतनी ही पकड़ थी तो इन्होंने स्वयं ही समिति की बैठक बुलाकर रघुराज से सम्बन्ध-विच्छेद और उसके कारणों का खुलासा क्यों नहीं कर दिया? इंमके का यह पत्र इस बात का उदाहरण है कि एक झूठ को छिपाने के लिए कई झूठ गढ़ने के मामले में इंमके वालों ने गोयबल्स को भी पीछे छोड़ दिया है।

11. ग्यारहवें पैरा में इंमके के लोगों का दावा है कि ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ को जैसे ही इंमके और रघुराज के सम्बन्ध-विच्छेद की भनक लगी वैसे ही उसने रघुराज से सम्बन्ध जोड़ लिए! मानो ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ इसी फ़िराक में बैठा था! ऐसी मनोहर कहानियों पर हँसा ही जा सकता है। ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ 2013 के उत्तरार्द्ध से ही वज़ीरपुर में मज़दूर बिगुल अखबार को लेकर काम कर रहा था और उसका एक साथी 2014 के शुरू से इसी इलाके में रहने भी लगा था। ‘बिगुल’ का स्वतन्त्र कार्य पहले से ही जारी था। दूसरा झूठ इन्होंने यह बोला है कि बिगुल ने रघुराज को एनजीओ कार्यकर्ता बोलकर इंमके के अवसरवाद पर कटाक्ष करते थे। लेकिन इसका इन्होंने कोई स्रोत नहीं बताया है और साथ ही इसका एक अन्तरविरोधी तथ्य खुद ही बता दिया है। वह यह कि बिगुल ने 2013 में गरम रोला मज़दूर एकता समिति के आन्दोलन के बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें रघुराज और गरम रोला मज़दूर एकता समिति को नेतृत्वकारी भूमिका में बताया गया! अब आप खुद ही समझिये इस बौड़मपन की बात का क्या मतलब है। हम एक ओर रघुराज को एनजीओवादी बता रहे थे (जिसका कोई स्रोत नहीं बताया गया है!) और दूसरी ओर हम उसे गरम रोला मज़दूर आन्दोलन का नेता बता रहे थे (इसका स्रोत बिगुल में छपी रिपोर्ट के रूप में उपलब्ध है)। ज़ाहिर है कि पहला दावा बकवास है और इंमके के लोग झूठ पर झूठ बोल रहे हैं।

12. व 13. इन पैराग्राफों में पाठकों को इस बात पर यक़ीन करने के लिए बाध्य करने का प्रयास किया गया है कि ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ ने पहले से इलाके में जमे हुए संगठन इंमके के लोगों को षड्यन्त्र करके परिधि पर पहुँचा दिया! लेकिन इंमके के पत्र को ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं पढ़ना चाहिए जिन्हें परिकथाएँ, गल्पकथाएँ और किवदन्तियाँ बोर करती हैं! इनका दावा है कि गरम रोला मज़दूर एकता समिति में उस समय ‘बिगुल’ के लोगों की कोई पकड़ नहीं थी ओर इसीलिए मज़दूरों पर शुरुआत में हमारे “भ्रामक प्रचार” का कोई फर्क नहीं पड़ा। लेकिन यहाँ एक प्रश्न है। अगर ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के साथियों की ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ में कोई विशेष उपस्थिति नहीं थी, तो 6 जून को आन्दोलन शुरू होने के बाद रोज़ मंच संचालन की ज़िम्मेदारी ‘बिगुल’ के साथी और बाद में ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ की नेतृत्वकारी समिति में चुने गये सनी को क्यों दी गयी थी? इंमके के सारे झूठों की तरह यह झूठ भी कमज़ोर था, अन्तरविरोधों से भरा था, इसलिए पकड़ा गया। वास्तव में, जब तक इंमके के लोगों ने खुले तौर पर आन्दोलन में दलाली और ग़द्दारी का रास्ता नहीं अख्‍ति‍यार किया था तब तक मंच संचालन करने वाले साथी सनी ने स्वयं ही इंमके और ऐक्टू के लोगों को मंच पर संबोधित करने के लिए आमन्त्रित किया था। लेकिन अपनी पीठ थपथपाने की आदत से मजबूर इंमके के लोगों ने अपनी गल्पकथा का नायक अपने आपको बना लिया है। ये लिखते हैं कि “सन्नी द्वारा उन्हें नज़रन्दाज़ करने की कोशिशों के बावजूद मज़दूरों ने उनका स्वागत किया तथा एक मज़दूर साथी द्वारा खुद मंच पर जाकर उन्हें मार्गदर्शन के लिए आमन्त्रित किया।” और 20 जून को “मार्गदर्शन का यह आमन्त्रण” अचानक मज़दूरों द्वारा दिये जाने वाले धक्कों में तब्दील हो गया! क्यों? क्योंकि ‘बिगुल’ के लोगों ने इनके ख़िलाफ़ कुत्साप्रचार और सन्देह का माहौल बना दिया! यह पिटे हुए दलाल प्यादों की आह से ज़्यादा और कुछ नहीं है। चूँकि इन्हें मज़दूरों ने स्वयं ही दलाली और ग़द्दारी करते हुए रंगे हाथों पकड़ा था और फिर निकाल बाहर किया था, इसलिए पहले तो ये अपनी खुन्नस पहले सारे के सारे मज़दूरों पर निकाल रहे थे और पूरे आन्दोलन को ही अपनी गाली-गलौच का निशाना बना रहे थे, और अब इन्होंने अपनी खुन्नस और झूठ का निशाना हमें बना लिया है। इसके बाद इंमके के लोगों ने झूठ पर झूठ बोलना शुरू कर दिया है। मिसाल के तौर पर, यह झूठ कि 11 जून को आन्दोलन के आगे की रणनीति तय करने के लिए सारे संगठनों के साथ गरम रोला मज़दूर एकता समिति ने जो बैठक बुलायी वह इंमके की स्वीकार्यता के कारण था। ऐसा कैसे था यह बताने की इंमके के पत्र में कोई ज़रूरत नहीं समझी गयी है; साथ ही, अगर इंमके की इतनी स्वीकार्यता थी तो 20 जून को इन्हीं मज़दूरों ने इंमके के लोगों को बेइज़्ज़त करके भगा क्यों दिया? बहरहाल, 11 तारीख की बैठक में 12 तारीख के प्रतिनिधि मण्डल में शामिल होने के प्रश्न पर बिगुल मज़दूर दस्ता के साथी शुरू से ही तैयार थे, बल्कि 12 तारीख को श्रम आयुक्त से मुलाकात का समय बिगुल मज़दूर दस्ता की शिवानी ने ही लिया था। इसके बाद इंमके के लोगों ने दावा किया है कि हमें किसी और संगठन के प्रतिनिधि मण्डल में शामिल होने से दिक्कत थी। सच्चाई यह है कि बिगुल मज़दूर दस्ता की अवस्थिति यह थी कि प्रतिनिधि मण्डल की अगुवाई स्वयं समिति के लोगों को करनी चाहिए और ऐसा ही हुआ भी था। समिति की अगुवाई मुख्य तौर पर समिति के दो लोगों बाबूराम और अम्बिका ने की और साथ में इंमके से मुन्ना प्रसाद, एक्टू से सौरभ और बिगुल मज़दूर दस्ता से शिवानी इस प्रतिनिधि मण्डल में शामिल हुए। इंमके के लोगों को हमेशा की तरह यह गँवारा नहीं था कि समिति के लोग अगुवाई करें क्योंकि उनका बैर पहले से ही समिति से था और वे प्रतिनिधि मण्डल की बागडोर मुन्ना प्रसाद को सौंपने पर आमादा थे।

14., 15. व 16. इन तीनों पैराग्राफ में इंमके के लोगों ने 12 जून की श्रम आयुक्त से हुई वार्ता और मुलाकात का एक काल्पनिक ब्यौरा दिया है। उनके मुताबिक शिवानी के प्रतिनिधि मण्डल में शामिल होने के बाद से इंमके के लोगों के बारे में षड्यन्त्र, कुत्साप्रचार आदि शुरू हो गया! साथ ही, एक्टू के बारे में भी कुत्साप्रचार किया गया। सच्चाई यह है कि 12 तारीख से इंमके के लोगों ने अपनी असली नस्ल मज़दूरों के सामने ज़ाहिर करनी शुरू कर दी। 12 तारीख को एडिशनल श्रमायुक्त से मुलाकात का समय लेने से लेकर बातचीत करने की भूमिका में शिवानी की भूमिका अग्रणी थी, यह बात कोई भी साथी मज़दूर प्रतिनिधि मण्डल के अन्य सदस्यों से पता कर सकता है। शिवानी बादाम मज़दूरों और निर्माण मज़दूरों के आन्दोलन और मेट्रो रेल कर्मचारियों के न्यूनतम मज़दूरी के मसले पर एडिशनल श्रमायुक्त से पहले ही मिल चुकी थीं और इस वजह से एडिशनल श्रमायुक्त उन्हें जानते थे। इंमके के लोगों का एक मज़ाकिया प्रचार यह है कि शिवानी और संयुक्‍त श्रमायुक्त एक गाँव के हैं और इस आधार पर उनमें साँठ-गाँठ हुईं। एडिशनल श्रमायुक्त उसी राज्य के बाशिन्दे हैं जिस राज्य से शिवानी हैं और इससे न तो पहले की वार्ताओं में कोई फर्क पड़ा था और न ही मौजूदा वार्ता में। मौजूदा एडिशनल श्रमायुक्त ने पहले भी बादाम मज़दूरों और मेट्रो मज़दूरों के मसले में यूनियन की सकारात्मक सहायता की थी और इस मसले पर भी उन्होंने वार्ता के दौरान ही वज़ीरपुर मज़दूरों के पूरे मसले को कार्रवाई हेतु अनुशंसा के साथ उप श्रमायुक्त, नीमड़ी कॉलोनी को दे दिया जो कि उस समय श्रमायुक्त कार्यालय, शामनाथ मार्ग पर ही मौजूद थे। शामनाथ मार्ग पर मुन्ना प्रसाद ने जब एडिशनल श्रमायुक्त से कहा कि सभी कानूनी दस्तावेज़ों पर समिति की ओर से वह दस्तख़त करेगा तो मज़दूर समिति सदस्यों अम्बिका और बाबूराम ने ही उसे रोक दिया और कहा कि समिति की कानूनी सलाहकार के तौर पर शिवानी ही सभी दस्तावेज़ों पर दस्तख़त करेंगी। उसी समय से मज़दूर समिति सदस्य मुन्ना प्रसाद के कारगुज़ारियों पर सवाल उठाने लगे थे। बहरहाल, इसके बाद इस मसले पर एडिशनल श्रमायुक्त ने प्रतिनिधि मण्डल के मज़दूर समिति सदस्यों अम्बिका और बाबूराम की सहमति से शिवानी को समूची कानूनी कार्रवाई में समिति के आधिकारिक सदस्य के तौर पर प्राधिकृत किया। इसके बाद इस प्रतिनिधि मण्डल के तीन सदस्य शिवानी, मुन्ना प्रसाद और रामभुवन उप श्रमायुक्त कार्यालय गये और वहाँ पर मज़दूरों की शिकायत के आधार पर उप श्रमायुक्त ने सभी मालिकों को एक नोटिस जारी किया जिस पर समिति की अधिकृत प्रतिनिधि के तौर पर शिवानी के दस्तख़त हुए। इसके बाद मुन्ना प्रसाद ने उस नोटिस की प्रतिलिपि स्वयं लेने की कोशिश की लेकिन उसे शिवानी ने समिति के दफ्तर में पहुँचा दिया। स्पष्ट था कि पहले भी कानूनी कागज़ातों को चोरी करके भागने वाले मुन्ना प्रसाद की चाल यह थी कि किसी तरह नोटिस की मूल प्रति उसके हाथ लग जाये। लेकिन मज़दूर सदस्यों की निगरानी के कारण इस बार ऐसा नहीं हो सका। 12 जून की शाम को समिति की लीडिंग कोर की बैठक में इंमके के इस रवैये पर चर्चा हुई और यह तय किया गया कि आगे से किसी भी आधिकारिक प्रतिनिधि मण्डल में इंमके के मुन्ना प्रसाद या हरीश को शामिल नहीं किया जायेगा, और उसमें मुख्य तौर पर तीन सदस्य मौजूद रहेंगे-रघुराज, सनी और शिवानी। अब इस पूरे ब्यौरे को कोई भी व्यक्ति प्रतिनिधि मण्डल में शामिल ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के लीडिंग कोर के दो सदस्यों अम्बिका और बाबूराम से भी जाँच सकते हैं और बाकी मज़दूर साथियों से भी। जब प्रतिनिधि मण्डल वापस लौटा तो शिवानी ने सिर्फ़ वार्ता की रिपोर्टिंग की; अम्बिका और बाबूराम ने सभा में बात रखते हुए चलते-चलते यह ज़िक्र किया कि शिवानी और एडिशनल श्रमायुक्त एक राज्य के निवासी हैं जिसे इंमके के लोगों ने शिवानी पर आरोपित कर दिया है। इस तथ्य की जाँच भी मज़दूरों के बीच की जा सकती है। बहरहाल, 12 जून को मालिकों को जारी नोटिस में उप श्रमायुक्त, नीमड़ी कॉलोनी ने मालिकों को 14 जून को वार्ता में बुलाया था।

17. व 18. इन पैराग्राफ़ों में इंमके के लोगों ने पहली बार अर्द्धसत्य बोलने का प्रयास किया है। 14 जून को पिछली रात की समिति बैठक में लिये गये निर्णय के अनुसार प्रतिनिधि मण्डल में मुन्ना प्रसाद या हरीश को शामिल न करने के निर्णय के बारे में इंमके के लोगों को सूचित कर दिया गया। इसके बाद हरीश और मुन्ना प्रसाद काफ़ी देर तक रघुराज के आगे-पीछे घूमते रहे। आज इंमके के लोग बता रहे हैं कि वे पिछले वर्ष ही रघुराज के “असली चरित्र” को समझ गये थे और उससे रिश्ते तोड़ लिए थे! तो फिर 6 जून से लेकर 20 जून तक वे रघुराज के आगे-पीछे मंच से बोलने और प्रतिनिधि मण्डल में शामिल किये जाने के लिए क्यों घूम रहे थे? 14 तारीख को जब सख़्ती से समिति का निर्णय उन्हें बता दिया गया तो फिर वे नगेन्द्र को लेकर आये क्योंकि इंमके के लिए शब्दों में नगेन्द्र “आन्दोलन के लिए नये थे”! अब खुद सोचिये! मज़दूर इंमके के पुराने लोगों के प्रतिनिधि मण्डल में शामिल होने पर प्रतिबन्ध क्यों लगा रहे थे? क्योंकि उनकी असलियत एक वर्ष से मज़दूर देख चुके थे। नगेन्द्र को आगे करने पर समिति के लोगों ने राय-मशविरा करके नगेन्द्र को प्रतिनिधि मण्डल में जगह दे देने का निर्णय लिया। नतीजतन, 14 जून की वार्ता के लिए चुने गये प्रतिनिधि मण्डल में समिति से रघुराज के अलावा ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ से शिवानी, एक्टू से सौरभ और इंमके से नगेन्द्र को शामिल किया गया। इसके अतिरिक्त, कमेटी के कुछ मज़दूर साथी भी प्रतिनिधि मण्डल में चुने गये। इंमके ने कहा है कि उन्होंने इस बात पर प्रतिरोध दर्ज़ कराया कि इंमके का कौन व्यक्ति प्रतिनिधि मण्डल में होगा यह इंमके तय करेगी या समिति? इस पर रघुराज ने, बकौल इंमके, स्पष्ट कर दिया कि समिति का निर्णय अन्तिम है। अब आप स्वयं इस अन्तरविरोध को देखिये! इंमके का पत्र दावा करता है कि आम मज़दूर इंमके को प्रतिनिधि मण्डल में शामिल करने के लिए दबाव डाल रहे थे! तो फिर उन्होंने रघुराज और समिति के निर्णय के विरोध में कुछ बोला क्यों नहीं? वास्तव में, कोई मज़दूर इंमके के लोगों को प्रतिनिधि मण्डल में नहीं चाहता था, लेकिन इंमके के लोग रघुराज और समिति के अन्य सदस्यों के पीछे पड़ गये थे और आरजू-मिन्नत कर-करके उन्हें परेशान कर दिया था। ऐसे में, बीच का रास्ता निकाला गया और मुन्ना प्रसाद या हरीश को न शामिल करते हुए नगेन्द्र को जगह दी गयी। अगर इंमके के पत्र में बताये गये “तथ्यों” को ध्यान से पढ़ा जाय तो इंमके का सफ़ेद झूठ आसानी से पकड़ा जाता है। पैरा के अन्त में कहा गया है कि 15 जून को राजा पार्क में सभा चली और उसमें कारखानों के शिकायत पत्र तैयार करके मज़दूरों के हस्ताक्षर कराये गये और इसमें इंमके के लोगों ने भी भाग लिया! डूबते को तिनके का सहारा होता है। पत्र में और कुछ साबित नहीं कर सकते तो यही साबित कर रहे हैं कि शिकायत पत्र पर हस्ताक्षर कराने में इंमके की भी भूमिका थी 15 जून को। अवश्य रही होगी! इंमके की बाकी भूमिकाएँ भी चार दिनों में ही सामने आने वाली थीं। इसके बाद इंमके के लोगों ने दावा किया है कि 15 जून के बाद ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के लोगों ने निर्णय किया कि जब तक इंमके को किनारे नहीं लगाया जाता तब तक ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ का एकछत्र वर्चस्व आन्दोलन पर नहीं स्थापित होगा! मानो इंमके के लोग हमारी बैठक में आए थे और हमारा यह फैसला सुनकर गये थे! कोई भी विवेकवान कॉमरेड जानता है कि यदि किसी संगठन की किसी इलाके या आन्दोलन में जड़ें हैंतो कोई कुत्साप्रचारक उन्हें ख़त्म नहीं कर सकता। हम इसे अपने अनुभव से इस प्रकार जानते हैं कि आज इंमके के लोग जिस ‘जनज्वार’ कुत्साप्रचार गिरोह और स्तालिन-विरोधी और माओ-विरोधी एजेण्टों के साथ गलबहियाँ कर रहे हैं, उन्होंने पिछले कई वर्षों से हमारे संगठन के विरुद्ध घटिया किस्म के कुत्साप्रचार की मुहिम चला रखी है, लेकिन वे किसी भी इलाके में हमारे राजनीतिक कार्य और सांगठनिक प्रसार का बाल भी बाँका नहीं कर सके। वास्तव में, इंमके का यह आरोप कि हम उन्हें “अलगाव” चाहते थे, वैसे भी ग़लत है क्योंकि इंमके शुरू से ही आन्दोलन में अलगाव में ही था और परिधि से भी अगर मज़दूरों ने उसे मार भगाया तो यह इंमके के लोगों की अपनी दलाली और ग़द्दारी के कारण हुआ, न कि किसी अन्य संगठन के षड्यन्त्र के कारण।

19., 20. ओर 21. इन पैराग्राफ़ों में यह दावा किया गया है कि 16 जून को उप श्रमायुक्त को जो शिकायत पत्र देने थे उसके प्रतिनिधि मण्डल में इंमके के लोगों को शामिल नहीं किया गया और इसका कारण भी नहीं बताया गया और बस मंच से बता दिया गया कि समिति का यही निर्णय है। वास्तव में, 13 और 14 जून को ही इंमके के मुन्ना प्रसाद को बता दिया गया था कि समिति के चुराये गये कानूनी कागज़ात को वह अगर वापस नहीं करता तो इंमके के किसी भी व्यक्ति को मंच पर बोलने या फिर किसी भी प्रतिनिधि मण्डल में शामिल होने की आज्ञा नहीं दी जायेगी। मुन्ना प्रसाद सारे कानूनी कागज़ात वापस करने की बजाय चन्द कानूनी कागज़ात लेकर आया जिसे उस समय समिति के लोग पूरी तरह नहीं देख पाये और कहा गया कि इंमके के कागज़ वापस करने के बाद वह समर्थन देने के लिए आ सकता है। लेकिन जैसे ही कागज़ों की पड़ताल की गयी तो पता चला कि कई ज़रूरी कानूनी कागज़ात अभी भी मुन्ना प्रसाद ने अपने पास ही रखे थे। इसके बाद 15 जून को समिति ने निर्णय लिया कि अब इंमके के मुन्ना प्रसाद या हरीश ही नहीं बल्कि किसी भी व्यक्ति को मंच पर बोलने या प्रतिनिधि मण्डल में शामिल नहीं होने दिया जायेगा। यह पूरी घटना थी, जिसे इंमके ने तोड़-मरोड़कर पेश किया है। 16 जून को शिवानी, रघुराज व कुछ समिति सदस्यों का प्रतिनिधि मण्डल उप श्रमायुक्त से शिकायतों के साथ मिला और उप श्रमायुक्त को 16 जून की शाम को औचक निरीक्षण के लिए राज़ी कर लिया। 16 जून को शाम करीब 4 बजे श्रम निरीक्षकों व कारखाना निरीक्षकों की तीन टीमें इलाके में आयीं। इंमके के लोगों को पहले ही समिति के किसी भी प्रतिनिधि मण्डल या आधिकारिक निकाय में घुसपैठ से सख़्त मनाही की गयी थी, लेकिन इसके बावजूद इंमके के मुन्ना प्रसाद और हरीश ज़बरन गजेन्द्र के पीछे लग लिये जो कि एक जाँच टीम के साथ था। गजेन्द्र के मना करने पर भी वे सी-58 कारखाने से नहीं गये और वहीं अड़े रहे। इसके बारे में इंमके के लोगों ने फिर एक गल्प कथा गढ़ी है और कहा है कि हरीश और मुन्ना प्रसाद वहाँ मज़दूरों का उत्साह बढ़ा रहे थे! वास्तव में, मज़दूर लगातार इनसे वहाँ से जाने को बोल रहे थे। इसके बाद, इंमके का हरीश एक लेबर इंस्पेक्टर की गाड़ी में बैठ कर जाने लगा। इस पर जब सवाल उठाया गया तो इंमके के लोगों ने पहले तो इस घटना से ही इंकार कर दिया। बाद में, इन्होंने सभा में बोला कि वह लेबर इंस्पेक्टर हरीश का पड़ोसी था इसलिए उसे गाड़ी में बैठाकर ले गया। और अब ये बोल रहे हैं कि लेबर इंस्पेक्टर ने उन्हें इंस्पेक्शन पर साथ ले जाने के लिए गाड़ी में बिठाया था! जब कोई इस कदर बात बदल रहा हो तो उसकी बातों की सच्चाई के बारे में समझा जा सकता है। इसके बाद इन्होंने झूठ पर झूठ बोला हैं। इनका दावा है कि इंमके के लोगों ने छह कारखानों में जाकर दबाव डालकर मज़दूरों का नाम लिखने और उनका बयान लेने के लिए लेबर इंस्पेक्टर को बाध्य किया और एक कारखाने का दरवाज़ा खुलवाया, बाद में हरीश ने नारेबाज़ी शुरू की और मज़दूरों ने उनके साथ आकर एक जुलूस निकाला! ये सारी बातें कही ही ऐसे गयी हैं कि कोई भी समझ सकता है कि यह इंमके के लोगों की कपोल कल्पना की पैदावार है। सच यह था कि सारे इंस्पेक्शन के दौरान ये ज़बरन एक जाँच टोली की पूँछ बन कर घूमते रहे और मज़दूर बार-बार इन्हें झिड़कते रहे। बाद में 16 जून की रात में हुई समिति बैठक में इंमके वालों की बेशर्मी पर समिति के मज़दूर सदस्यों ने अपनी बात रखी और उनके आचरण पर कड़ी आपत्ति जताई और इनके ख़िलाफ़ कड़े फैसले लेने की बात की।

22. इस पैरा से इंमके के लोगों के लिए थोड़ी मुश्किल हो गयी है क्योंकि 17 जून से आम मज़दूरों ने इंमके को बाहर निकालने की बातें शुरू कर दी थीं। ये दावा करते हैं कि 17 जून को सभा में 3-4 मज़दूर इन्हें सभा से जाने को कहने के लिए आये। यह एकदम झूठ है। इन्हें मज़दूरों का पूरा हुजूम भगा रहा था। सिर्फ़ एक मज़दूर रामभुवन जो कि डी-3 में काम करता है लेकिन वज़ीरपुर क्षेत्र में नहीं रहता है, वह उनके निकाले जाने पर आपत्ति कर रहा था और यह धमकी दे रहा था कि अगर इंमके के लोगों को निकाला जायेगा तो फिर वह डी-3 के सारे मज़दूरों को आन्दोलन से बाहर जाने को कहेगा। इस शख़्स के बारे में भी जान लेना ज़रूरी है। इस शख्‍़स ने 20 तारीख के बाद ही मालिकों से अपने कारखाने में समझौता कर लिया और 12 घण्टे के काम और 1500 रुपये बढ़ोत्तरी को स्वीकार लिया, जो कि मालिक शुरू से कह रहा था। वास्तव मेंजो एक मज़दूर इंमके के पक्ष में बोला वह भी इनकी ही तरह आन्दोलन का ग़द्दार और दलाल था। 17 जून को समिति के लोगों ने ही स्थिति को सम्भाला और डी-3 के रामभुवन को वापस बुलाया ताकि आन्दोलन में कोई कमज़ोरी न आये। इंमके के पत्र में किया गया यह दावा कि वे आन्दोलन को टूटने से बचाने के लिए तमाम मज़दूरों को वापस लाये, एकदम झूठ है। एक तो, एक मज़दूर के अलावा बाकी सभी कारखानों के मज़दूर इंमके के लोगों को जाने को बोल रहे थे। अगर सारे मज़दूर इस बात पर नाराज़ होते तो 2 दिन बाद ही सारे मज़दूरों ने इंमके के लोगों को धक्के मारकर आन्दोलन स्थल से क्यों भगा दिया? स्वयं सोचिये। 17 जून की घटना में एक वाकया यह भी था कि इंमके का एक व्यक्ति कमलेश मंच के सामने आकर ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के बारे में घटिया आरोप लगा रहा था (जो कि ‘जनज्वार गन्दगी केन्द्र’ द्वारा किये गये कुत्साप्रचार से लिये गये थे, जैसे कि हम मकान कब्ज़ा करते हैं, किताबें छापते हैं, वगैरह!)। यही वह घटना थी जिसकी वजह से कुछ मज़दूरों ने पहले कमलेश का कॉलर पकड़कर वहाँ से भगाया और बाद में सारे मज़दूर इंमके के लोगों को खदेड़ने लगे। इस घटना के बाद से ही इंमके के लोग डी-3 के मज़दूरों में यह प्रचार करने लगे थे कि तुम लोग बेरोज़गार हो जाओगे क्योंकि आन्दोलन तो खत्म हो रहा है और तुम मालिकों की शर्तों को मान लो। आन्दोलन को तोड़ने के लिए इंमके के प्रयासों का खुलासा इस बात से भी होता है कि जब इंमके के लोगों को सभी कानूनी प्रतिनिधि मण्डलों से बाहर कर दिया तो फिर इंमके का हरीश लेबर इंस्पेक्टर से फोन पर सम्पर्क करके वार्ता को असफल बनाने का प्रयास करने लगा। दलाली की यह कुत्सित हरक़त इसलिए पकड़ में आ गयी क्योंकि जिस दिन उप श्रमायुक्त के कार्यालय में वार्ता हो रही थी, उस दिन वार्ता ख़त्म होने से पहले ही हरीश ने लेबर इंस्पेक्टर के पास यह समझकर फोन किया कि अब तक वार्ता ख़त्म हो गयी होगी। लेकिन लेबर इंस्पेक्टर से शिवानी द्वारा पूछने पर यह बता दिया गया कि हरीश का फोन था और वह पूछ रहा था कि वार्ता में कौन-कौन आया है, क्या बात हो रही है, कोई समझौता हो रहा है या नहीं, वगैरह। जब ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ की लीडिंग कोर ने स्वयं ही इंमके के लोगों को इस सारी प्रक्रिया से बाहर कर दिया था, तो फिर हरीश किस मंशा से ये सारी जानकारियाँ हासिल करने की कोशिश कर रहा था? ज़ाहिर है, वार्ता में जो भी होता वह शाम की सभा में बताया जाता! लेकिन हरीश को यह समाचार डी-3 के मालिकों तक रामभुवन के द्वारा पहुँचाना था और इसीलिए उससे शाम तक इन्तज़ार नहीं हो पा रहा था। दो घण्टे इन्तज़ार न कर पाने के इस अधैर्य का असल कारण यही था। इन्होंने ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ की लीडिंग कोर पर प्रश्न खड़ा किया कि वह चुनी हुई नहीं है और उसमें रघुराज के कुछ करीबी चमचे और शिष्य हैं। यह समूची कमेटी में शामिल तजुरबेकार मज़दूर साथियों जैसे कि अम्बिका, फिरोज़, बाबूराम, रामसेवक, रामप्रीत का अपमान है। ये सारे सदस्य कमेटी में उसी भूमिका में हैं जिस भूमिका में रघुराज व सनी हैं। जब इंमके के नगेन्द्र ने यह बात समिति के सदस्यों के सामने कही कि तो समिति के सदस्यों ने उसे वहाँ से भगा दिया।

23. इस पैरा में इंमके ने दावा किया है कि “शिवानी और रघुराज की चाल उलटी पड़ गयी!” ढिठाई के साथ झूठ बोलने में इंमके का पत्र कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। वास्तव में, आम मज़दूरों द्वारा दलाली पकड़ लिये जाने और फिर बेइज़्ज़त करके भगा दिये जाने को और फिर 29 जून को दौड़ा लिये जाने को इंमके के लोग अभी भी ठीक तरीके से पचा नहीं पाए हैं और ‘डिनायल मोड’ में चले गये हैं। इन्होंने कहा है कि शिवानी 17 जून के बाद से मंच से “इंमके की ओर इशारा करके” आन्दोलन से ग़द्दारों, दलालों को गालियाँ देने लगीं। पहली बात तो यह है कि किसी भी हड़ताल में नेतृत्व के लोग मंच से आन्दोलन के भितरघातियोंदलालों और ग़द्दारों को खदेड़ने की बात करते हैं और उनके लिए उपयुक्त शब्दावली का भी इस्तेमाल करते हैं। लेकिन 17 जून तक इंमके की ओर इशारा नहीं किया जा रहा था, क्योंकि अभी नेतृत्व को इंमके की भूमिका पर केवल शक़ था। 19 जून की वार्ता में जब इंमके के हरीश ने वार्ता के दौरान ही लेबर इंस्पेक्टर के पास फोन किया तब हमें इंमके की दलाली का प्रमाण मिला। उस दिन प्रतिनिधि मण्डल में हर कारखाने से दो-दो मज़दूर भी गये थे और उनके सामने ही लेबर इंस्पेक्टर से फोन के बारे में पूछा गया और ये पता चला कि हरीश वार्ता में क्या चल रहा है, यह जानने के लिए फोन कर रहा था; मज़दूरों में भयंकर गुस्सा था और उसी समय समिति के सभी लोगों और मौजूद मज़दूरों ने यह निर्णय लिया कि कल सभा से इंमके के लोगों को खदेड़ दिया जायेगा। 19 जून की रात हरीश ने रघुराज को बार-बार फोन किया और सफ़ाई देने लगा। रघुराज ने बात करने से इंकार कर दिया तो भी हरीश फोन कर-करके गिड़गिड़ाता रहा। 20 जून के बाद से ही पहली बार इंमके के लोगों ने रघुराज को एनजीओ कार्यकर्ता और भाजपा के लोगों से सम्बन्ध रखने वाला बताना शुरू किया। लेकिन इस मुद्दे पर आगे आएँगे। अगले दिन 20 जून को मज़दूरों ने इंमके के दलालों को बेइज्जत करके सभा से भगा दिया। इंमके के लोगों का दावा है कि बिगुल के लोगों ने रघुराज और उसके लम्पट चेलों के द्वारा पुलिस से मदद लेकर इंमके के लोगों को भगा दिया! ज़रा सोचिये कि यह किस प्रकार का दावा है। इंमके के लोगों को बताना चाहिए कि उस समय सभा में मौजूद सैंकड़ों मज़दूर क्या कर रहे थे? उन्होंने उन्हें खदेड़े जाने का विरोध क्यों नहीं किया? यह ऐसा झूठ है जिसे कोई बच्चा भी बेनक़ाब कर सकता है। आप वीडियो देख सकते हैं (https://www.youtube.com/watch?v=S11KvcKXsoo) कि जो लोग हरीश को धक्के मारकर भगा रहे हैं उनमें एक भी ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ का कार्यकर्ता नहीं है; वे सभी आम मज़दूर साथी थे जिन्होंने अपने सामने इंमके के ग़द्दारों की हरक़तों को देखा था। इंमके का दावा कि है मंच से लोगों को उकसाया गया! तो लोग क्यों इसके बहकावे में आ गये? दस-बारह मज़दूर नहीं बल्कि सैंकड़ों मज़दूरों ने मिलकर उन्हें खदेड़ा, यह बात इंमके के लोग गोल कर जाते हैं। जहाँ तक पुलिस की भूमिका का सवाल है, जब पार्क के गेट पर पहुँचकर मुन्ना प्रसाद और हरीश उछल-कूद मचाने लगे तो वहाँ खड़े एक पुलिस वाले ने उन्हें यह कहकर जाने को कहा कि अगर मज़दूर तुम्हें पार्क में नहीं चाहते हैं तो तुम लोग यहाँ से चले जाओ। अब देखें कि इस पूरी घटना को किसी तरह से पेश किया गया है। और जिस तरह पेश किया गया हे उसमें मानवीय कल्पना के इस्तेमाल को आप साफ़ तौर पर देख सकते हैं! 20 जून को भगा दिये जाने के बाद इंमके के लोगों ने रघुराज को एनजीओ कार्यकर्ता और भाजपा का आदमी बताना शुरू किया। क्या इंमके के लोग इसके पहले कभी यह बात बोल रहे थे? किसी भी फेसबुक पोस्ट में या लिखित रूप में उन्होंने 20 जून के पहले रघुराज को एनजीओ कार्यकर्ता या भाजपा का आदमी कहा है? आप में से कोई भी साथी जाँच कर सकता है। 20 जून को भगा दिये जाने के बाद ही इंमके के लोगों को रघुराज के बारे में इलहाम हुआ, उसके पहले तक इंमके के दलाल मंच और प्रतिनिधि मण्डल में जगह के लिए रघुराज की ही गणेश परिक्रमा कर रहे थे।

24., 25., 26., 27., 28. व 29. इन पैराग्राफ़ों में इंमके के लोगों ने 29 जून की घटना का एक कल्पनाशील ब्यौरा दिया है ताकि अपनी खुली दलाली को छिपा सकें। बाद के घटनाक्रम मे डी-3 फैक्टरी में इनकी दलाली को खोलकर सामने भी रख दिया। 27 और 28 जून को जब समझौता उप श्रमायुक्त के तत्वावधान में हुआ तो उसमें स्पष्ट तौर पर लिखा गया कि 8 घण्टे और न्यूनतम मज़दूरी के कानून को लागू किया जायेगा और काम पूर्ववत होगा। यह ‘पूर्ववत’ का प्रावधान काफी लड़कर मज़दूरों ने समझौते में डलवाया था, जिसका कारण यह था कि 8 घण्टे भट्ठी पर लगातार काम हो ही नहीं सकता और एक साथ चलने वाली दो शिफ्टों की मौजूदगी रहेगी ताकि हर मज़दूर का आधे-आधे घण्टे पर रिलीवर मिल सकें। समझौते में कोई अस्पष्टता नहीं थी; मालिकों को यह समझौता नहीं लागू करना था और उन्होंने अपनी मर्जी से किया भी नहीं। इसमें समझौते का कोई दोष नहीं था, समझौता मज़दूरों के पक्ष में था और एक ज़बर्दस्त जीत थी। इस समझौते पर भी इंमके वालों ने अपनी अवस्थिति बार-बार बदली। पहले 27 जून को इन्होंने प्रचार किया कि यह समझौता “शर्मनाक” है; फिर जब समझौते की स्कैण्ड कॉपी गरम रोला मज़दूर एकता समिति के ब्लॉग पर डाल दी गयी और हर किसी ने उसे देख लिया, तो फिर इंमके वाले इसे “भ्रामक” बोलने लगे; और अब इस पत्र में उन्होंने समझौते पर दोषारोपण नहीं किया है और “मालिकों द्वारा मनमानी व्याख्या” की बात की है! इसका कारण यह है कि प्रगतिशील साथियों के बीच भी आन्दोलन के ख़िलाफ़ कुत्साप्रचार करने के लिए इंमके के लोगों की काफ़ी निन्दा हुई। लेकिन अभी भी ये बात बदलते-बदलते अपनी बात में उलझ गये हैं। मालिकों ने कोई मनमानी व्याख्या नहीं की है बल्कि पिछले 1 हफ्ते में कई मालिकों ने लिखित तौर पर श्रम विभाग के लेबर इंस्पेक्टर के सामने माना है कि वह 9 घण्टे डबल शिफ्ट के समझौते को नहीं मान सकता है। कुछ मालिकों ने श्रम विभाग में लिखित तौर पर दिया है कि वह समझौते का सम्मान कर रहे हैं और अभी तक 4 कारखानों में इस समझौते का वाकई सम्मान किया गया है; करीब 9 कारखानों में मज़दूरों ने अपना हिसाब ले लिया है; 10 कारखानों में से अधिकांश में चन्द पुराने मज़दूर और अधिकांश बाहर के मज़दूर उत्पादन को आधे स्तर पर चला रहे हैं और वहाँ भी मज़दूरों का संघर्ष जारी है। समझौते पर गोलमाल करने के अलावा 29 जून को डी-3 पर वास्तव में इंमके के लोग क्या करने गये थे, जबकि मज़दूर उन्हें एक बार 20 जून को न आने की चेतावनी देकर खदेड़ चुके थे? हम अभी भी इस बात को सिद्ध कर सकते हैं कि डी-3 में रामभुवन और शेरसिंह नाम के दो मालिकों के दलालों के ज़रिये इंमके के लोग मज़दूरों में सिंगल शिफ्ट में काम करने या फिर 12 घण्टे ओर 1500 रुपये पर मान जाने का प्रचार कर रहे थे। यह बात बाद में सिद्ध भी हो गयी क्योंकि इंमके के लोगों को 29 जून को दोबारा खदेड़े जाने के बाद रामभुवन और शेरसिंह ने डी-3 में 12 घण्टे पर समझौता कर भी लिया। कोई भी साथी इस बात की जाँच कर सकता है। 29 जून को जब इंमके के लोग यह दलाली की कार्रवाई कर रहे थे उसी समय मेवालाल नाम के मज़दूर साथी ने अन्य मज़दूरों के साथ मिलकर डी-3 से उन्हें भगा दिया। इन लोगों ने 29 जून पर अपने पत्र में एक लघुकथा लिखी है, जिसके तथ्यों पर ही ठीक से ग़ौर किया जाय तो उसकी असत्यता का पता चल जाता है। इंमके के लोगों ने दावा किया है कि 29 जून को जब मज़दूरों ने उन्हें डी-3 से खदेड़ दिया तो उनके पास एक नम्बर से फोन आया और फिर बाद में उन्हें शक़ हुआ कि ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के लोग उन्हें पीटने की साज़िश कर रहे हैं क्योंकि 27 जून की रात उनके पास अभिनव का धमकी भरा फोन आया था। फोन क्यों आया था, इस तथ्य को ये लोग गोल कर गये हैं। पहली बात तो यह कि 27 जून को इंमके के एक दलाल ने गरम रोला मज़दूर एकता समिति की कानूनी सलाहकार शिवानी के प्रति निहायत आपत्तिजनक अपशब्द का प्रयोग अपनी एक फेसबुक पोस्ट में रात 9 बजकर 53 मिनट पर किया था। इस पर न सिर्फ़ अभिनव ने बल्कि शिवानी ने भी इंमके के ज़िम्मेदार लोगों को फोन करके आपत्ति दर्ज़ करायी और पोस्ट हटाने और माफी माँगने के लिए कहा। इसके जवाब में वास्तव में इंमके के दीपक और हरीश ने गाली-गलौच की और कहा कि जो कर सकते हो कर लो। इसके बाद, ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ की तरफ़ से यह सांगठनिक निर्णय लिया गया कि इंमके का पूर्ण बहिष्कार किया जायेगा और अब उसे एक बिरादर संगठन नहीं माना जायेगा। जब कई अन्य संगठनों के कॉमरेडों ने इंमके के दीपक से एक स्त्री कॉमरेड के प्रति अपशब्द इस्तेमाल करने का कारण पूछा तो वह लगातार अलग-अलग वजहें बताता रहा। पहले उसने कहा कि गरम रोला मज़दूर आन्दोलन में शिवानी मंच से ग़द्दारों और दलालों को गालियाँ दे रही थीं। इस पर हमारा सवाल है कि इंमके को क्यों दर्द हो रहा था? 20 जून की सुबह से पहले, जब कि उनकी ग़द्दारी खुद मज़दूरों ने पकड़ ली थी, तब तक किसी ने भी मंच से इंमके का नाम तक नहीं लिया था। ग़द्दारों-दलालों के बारे में एक नारा लगाया जा रहा था ग़द्दारों की एक दवाई-जूता चप्पल और पिटाई’। इस पर भी इंमके को काफ़ी तक़लीफ़ थी। एक कहावत है-‘चोर की दाढ़ी में तिनका’। इंमके वालों पर यहाँ सटीक लागू होती है। जब दीपक का यह कारण ख़ारिज किया गया तो उसने एक फेसबुक पोस्ट में लिखा कि उसने शिवानी के प्रति अपशब्द का

गोरखपुर में दिशा छात्र संगठन के पर्चों पर पछास के कारनामे

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इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि 27 जून को रात 10 बजकर 3 मिनट पर शिवानी का फोन आया और शिवानी ने दीपक को गालियाँ और धमकी दी। हम दीपक के स्तर पर गिरकर उन काल्पनिक गालियों का यहाँ ज़िक्र कर अपने पत्र के स्तर को नीचे नहीं गिराएँगे। लेकिन यहाँ दीपक का झूठ फिर पकड़ा गया क्योंकि दीपक ने फेसबुक की जिस पोस्ट में अपशब्द का इस्तेमाल किया था, उसका समय 27 जून रात 9 बजकर 53 मिनट था, जबकि शिवानी के कॉल का समय दीपक ने स्वयं उसके बाद यानी कि 27 जून रात 10 बजकर 3 मिनट पर बताया है। इसी से पता चलता है कि यह आदमी किस कदर झूठ बोलता है और अपनी एक नापाक हरक़त को छिपाने के लिए झूठ पर झूठ बोलता है। इसके बाद इंमके के पत्र में एक और झूठ बोला गया है कि हमने 2010 में इनके एक कार्यकर्ता चक्रपाणि की पिटाई कर दी थी। वास्तव में, चक्रपाणि को बुलाकर चेतावनी दी गयी थी कि वह दिशा के पर्चों पर पछास के स्टैम्प मारकर बाँटना, दिशा की वॉल राइटिंग और पोस्टरों पर दिशा का नाम काटकर पछास का नाम लिखना और इसी प्रकार की निकृष्ट हरक़तें बन्द कर दे। हमने इनके संगठन के ज़िम्मेदार लोगों को भी बार-बार इस बारे में शिकायत की थी, लेकिन इनके संगठन ने कोई कार्रवाई नहीं की। अन्त में, चक्रपाणि को बुलाकर हमने सख़्त चेतावनी दी थी, जिसे इंमके के लफ्फाजों ने मारपीट के रूप में प्रचारित किया। बाद में, जब हमने चक्रपाणि द्वारा पछास का स्टैम्प लगाकर बाँटे गये दिशा के पर्चों और हमारी वॉलराइटिंग और पोस्टरों पर से हमारे नाम काटकर पछास का नाम लिखने की कुत्सित हरक़तों के फोटोग्राफ अन्य सारे कॉमरेडों के पास भेजे तो स्थिति स्पष्ट हो गयी और लोगों को पूरी बात समझ में आयी। कुछ ही महीने बाद इस पतित तत्व चक्रपाणि को इंमके के लोगों ने खुद ही निकाल दिया। ये फोटोग्राफ़ इस पत्र के साथ भी हम लिंक कर रहे हैं, ताकि इंमके के राजनीतिक दीवालियापन का अन्दाज़ा चल सके। (गाेरखपुर में किस तरह इनके लोग ‘दिशा छात्र संगठन’ के नारों पर दिशा का नाम मिटाकर अपना नाम डालते थे, उसकी फोटो के लिये ये लिंक देखें – https://www.facebook.com/satya.narayan.522/posts/10204152080623482)

गोरखपुर में दिशा छात्र संगठन की वाल राइटिंग पर पछास के कारनामे

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बहरहाल, 29 जून को जब डी-3 के मज़दूरों ने इंमके के दलालों को खदेड़ा तो ये भागते हुए रेलवे पटरी की ओर जाने लगे। बिगुल मज़दूर दस्ता के नवीन को यह बात पता चली तो वे भी उस तरफ़ रवाना हुए ताकि इंमके के लोगों को बस वहाँ से बिना चोट पहुँचाये खदेड़ दिया जाय। जब नवीन को इंमके के लोग नहीं मिले तो उन्होंने सुनील से पूछा कि वे लोग कहाँ है। बाद में, जिस भीड़ को लम्पट तत्वों की भीड़ करार दिया गया है उनकी संख्या 50-60 तक बतायी गयी है! आप स्वयं सोचें कि क्या एक जारी हड़ताल के दौरान जिस पर कि इलाके के लम्पट और गुण्डा तत्व लगातार हमला कर रहे हैं वे मज़दूरों के साथ शामिल हो जाएँगे? दूसरी बात यह कि भीड़ 50-60 की नहीं बल्कि 100 से 125 लोगों की थी। नवीन और नितिन उस भीड़ के पास पहुँचे तो इंमके के भागते हुए लोग सीधे पीसीआर वैन पर पहुँच गये और उन्होंने नवीन, नितिन, अम्बिका और एक अन्य मज़दूर साथी को गिरफ्तार करवा दिया। अब इंमके के लोग कह रहे हैं कि उन्होंने रिपोर्ट में मज़दूरों का नाम नहीं लिखवाया था। अगर ऐसा था तो वे पुलिस को उसी वक़्त रोक सकते थे, जब वह मज़दूर साथियों को गिरफ्तार कर रही थी। रिपोर्ट में उन्होंने सिर्फ़ नवीन और नितिन का नाम लिखवाया क्योंकि वे जानते थे कि मज़दूरों का नाम लिखवाएँगे तो मज़दूर बाद में उन्हें उचित जवाब भी देंगे। लेकिन उन्होंने मज़दूर साथियों को रिहा भी नहीं करवाया, उन्हें भी थाने में फँसाये रखा, जबकि हड़ताल एक नाजुक मोड़ पर थी। यह ग़द्दारी और दलाली नहीं है तो और क्या है? वास्तव में, इन्हें पता था कि अगर ये वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में 29 जून को जाएँगे तो मज़दूर इन्हें दौड़ा लेंगे और ये जानबूझकर वहाँ गये ताकि ऐसी घटना घटे और फिर इसमें पुलिस को संलग्न कर आन्दोलन को नुकसान पहुँचाया जा सके। इसीलिए ये मॉडल टाउन की पुलिस पर बेहद प्रफुल्लित हैं कि “पुलिस को बात तुरन्त समझ में आ गयी”! वास्तव में, बाद में जब पुलिस को वाकई बात समझ में आयी तो हरीश के लाख कहने के बावजूद पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज़ नहीं की और हरीश को काफ़ी डाँट लगाते हुए पूछा कि तुम्हारी शिकायत में तो जान पर हमले की बात की गयी है, जबकि तुम्हारे शरीर पर एक निशान तक नहीं है। इसके बाद पुलिस ने दोनों पक्षों का बयान दर्ज़ कर उन्हें जाने दिया।

30. और 31. इन दोनों पैराग्राफों में 29 जून को मॉडल टाउन के पुलिस थाने में के घटनाक्रम की एक पैरोडी पेश की गयी है। 29 जून को थाने में बहुत-कुछ हुआ था जो कि इंमके के पत्र में बताया ही नहीं गया है। मिसाल के तौर पर, जब ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ की कविता थाने पर पहुँची तो इंमके के नगेन्द्र ने उनके सामने माना कि दीपक ने अपने फेसबुक पोस्ट में शिवानी के प्रति जिन शब्दों का इस्तेमाल किया वह ग़लत है और हरीश को बात करने का सलीका नहीं पता है। लेकिन इसके बावजूद इंमके के लोग माफ़ी माँगने से इंकार करते रहे। जब अन्य संगठनों के कॉमरेड थाने पर आये और उन्होंने वार्ता का प्रस्ताव रखा तो हमने उनके सामने पूरा घटनाक्रम और इंमके के दीपक गुप्ता की धृष्टता के बारे में बताया। अभिनव ने ‘करेस्पॉण्डेंस’ के परेश और ‘मज़दूर पत्रिका’ के सन्तोष से स्वयं बात की और स्पष्ट किया कि चूँकि हम 28 तारीख को इंमके के पूर्ण बहिष्कार का निर्णय ले चुके हैं कि इसलिए किसी एक मंच पर उनके साथ बैठने का प्रश्न नहीं उठता, लेकिन साथ ही हमने यह बात भी अन्य संगठनों के कॉमरेडों को उस समय भी और बाद में भी सम्प्रेषित कर दी थी कि अगर अन्य संगठन हमारी अवस्थिति जानना चाहते हैं तो फिर हम उनके सामने अलग से अपनी अवस्थिति रख सकते हैं। जब तक इंमके के लोग अपनी निकृष्ट हरक़तों, कुत्साप्रचार, स्त्री कॉमरेड के प्रति अपशब्दों के इस्तेमाल और ‘जनज्वार’ जैसे कुत्साप्रचार गिरोह के साथ गलबहियाँ करने के लिए लिखित माफी नहीं माँगते तब तक उनसे किसी भी मंच पर प्रत्यक्ष संवाद का प्रश्न ही नहीं उठता है। थाने में जब पुलिस ने हरीश का पक्ष लेने से इंकार कर दिया तो शिवानी ने पूछा कि आखिर क्या कारण था कि मज़दूरों ने उन्हें दौड़ा लिया, तो हरीश ने कहा कि “मज़दूर तो बेवकूफ और लम्पट होते हैं और भाजपा के साथ भी खड़े हो जाते हैं।” इस कथन से मज़दूरों के प्रति इंमके के दलालों के रवैये का भी पता चलता है। अभी भी जारी आन्दोलन में मज़दूरों ने दिखला दिया है कि वे क्या कर सकते हैं। 

32., 33., 34., 35., 36., 37. और 38. इन पैराग्राफ़ों में इंमके ने कथित तौर पर हमारे आरोपों का “खण्डन” किया है! निश्चित तौर पर, इनके पास कोई बुरा शब्दकोश है जिसकी वजह से इन्हें ‘खण्डन’ शब्द का सही अर्थ पता नहीं है। आइये इनके “खण्डन” की पड़ताल करें। इनके पहले तथाकथित खण्डन, कि तहरीर में मज़दूर साथियों अम्बिका और मनोज का नाम नहीं है, का हम पहले ही खण्डन कर चुके हैं, कि तब उन्हें पुलिस को स्पष्ट शब्दों में बोल देना चाहिए था कि उन्हें छोड़ दें और उनकी शिकायत सिर्फ़ नवीन और नितिन के ख़िलाफ़ है। लेकिन इन्होंने ऐसा कुछ भी क्यों नहीं किया? अम्बिका और मनोज का नाम शिकायत में क्यों नहीं लिखवाया गया, इसका कारण हम ऊपर बता चुके हैं। ‘प्रतिध्वनि’ के सुनील ने बिरादर संगठनों की बैठक में क्या बात रखी, ये तो स्वयं साथी सुनील ही बता सकते हैं, लेकिन नवीन और सुनील में क्या बात हुई थी, इसका ब्यौरा भी हम ऊपर दे चुके हैं। इंमके के लोग कह रहे हैं कि 8 घण्टे भट्ठी के सामने लगातार खड़े होने की सलाह कोई मूर्ख ही मज़दूरों को दे सकता है। वास्तव में, ऐसे मूर्ख दलाल इंमके के लोग ही नहीं हैं बल्कि इस समय वज़ीरपुर मज़दूर इलाके में ऐसे कई मूर्ख दलाल घूम रहे हैं जिनका रोज़ ही मज़दूर उचित इलाज भी कर रहे हैं। इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि डी-3 के दलाल रामभुवन और शेरसिंह ने बाद में यही प्रस्ताव मज़दूरों के सामने रखा जो कि 29 जून को इंमके के दलाल डी-3 के सामने रख रहे थे, जिसकी वजह से मज़दूरों ने उन्हें वहाँ से खदेड़ दिया। इसलिए इंमके के लोग अपनी इस दलाली को एक आश्चर्यजनक बात बनाकर यह पूछ रहे हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई यह सलाह दे? हम इसके जवाब में यही कह सकते हैं कि सारे मालिकों के दलाल और मज़दूरों के ग़द्दार वज़ीरपुर में पिछले 14 दिनों से यही सलाह दे रहे हैं और इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है।

39., 40., 41. और 42. इन पैराग्राफ़ों में इंमके के लोगों ने अपना “दोष-मुक्ति” अभियान जारी रखा है! इनका कहना कि हम दो दिनों की, यानी 16 जून और 19 जून की घटनाओं को मिला रहे हैं। आपको हमारे पुराने पत्र में ऐसी कोई बात नहीं मिलेगी क्योंकि उसमें हमने सिर्फ़ इन दोनों हरक़तों का ज़िक्र किया है न कि उनके समय का। यह बिल्कुल सही बात है कि इनकी दलाली की दोनों हरक़तों दो अलग दिनों की है। गाड़ी में लेबर इंस्पेक्टर के साथ घूमने की बात 16 जून की है, लेकिन इसमें इन्होंने एक मज़दूर साथी मनोज को बेवजह साथ में घसीट लिया है ताकि उसे बदनाम किया जा सके। 19 जून को जब हरीश ने लेबर इंस्पेक्टर के पास फोन करके जानकारी लेने की कोशिश की, तो लेबर इंस्पेक्टर ने वार्ता में मौजूद मज़दूर साथियों के कहने पर कोई भी जानकारी देने से इंकार कर दिया। अगले दिन सुबह जब हरीश से पूछा गया कि वह लेबर इंस्पेक्टर को फोन क्यों कर रहे थे, तो उसने पहले यह नहीं कहा कि उसने मेवालाल के फोन पर फोन किया और उसे स्विच ऑफ पाया तो लेबर इंस्पेक्टर के फोन पर फोन किया। हरीश ने उस दिन सुबह पहले बोला कि उसने पहले शिवानी और रघुराज को फोन किया और दोनों का फोन स्विच ऑफ था, जबकि शिवानी, रघुराज और सनी के फोन उस समय काम कर रहे थे; फिर उसने कहा कि उसकी मेवालाल से बात हुई थी। और अब कह रहे हैं कि मेवालाल का फोन स्विच ऑफ था। किसी भी सूरत में लेबर इंस्पेक्टर के पास फोन करने की क्या ज़रूरत थी? कुछ ही घण्टों में राजा पार्क में उन्हें पता चल जाता कि प्रबन्धन और मालिकान की ओर से कोई आया या नहीं। फिर वार्ता के दौरान ही ये सारी जानकारियाँ क्यों हासिल करनी थीं? इसका कारण है कि मालिकों की भी दो लॉबियाँ हैं और दोनों लॉबियाँ एक-दूसरे के बारे में पता कर रही थीं कि वार्ता में कौन गया है और कौन नहीं। मालिक स्वयं कई मज़दूरों के पास फोन करके जानने का प्रयास कर रहे थे कि वार्ता में क्या चल रहा है। आप स्वयं ही देख सकते हैं कि वार्ता ख़त्म होने से पहले तीन ही किस्म के लोगों को वार्ता की कार्रवाई जानने में दिलचस्पी थीः पहला, मालिकों की भाजपा-समर्थक लॉबी, दूसरा, मालिकों की कांग्रेस-समर्थक लॉबी और तीसरा, इंमके के दलाल। बाकी कोई भी समझदार व्यक्ति स्वयं ही समझ सकता है। इन्होंने यहाँ एक और झूठ बोला गया है। 16 जून के इंस्पेक्शन में एक्टू का कोई भी सदस्य मौजूद नहीं था, जैसा कि इंमके के लोग दावा कर रहे हैं। 20 जून की घटना के बारे में फिर इंमके वालों ने बोला है कि रघुराज के कुछ लम्पट चेलों ने पुलिस के साथ मिलकर उन्हें बाहर कर दिया; ऐसा कैसे हो सकता है कि सारे मज़दूर चुपचाप यह देखते रहे हों? इंमके वालों ने तो पिछली ही पंक्ति में दावा किया है कि 17 को जब कई मज़दूर उन्हें बाहर निकाल रहे थे तो बाकी मज़दूरों ने बग़ावत कर दी, जबकि सिर्फ़ एक दलाल रामभुवन ने आन्दोलन में फूट डालने की धमकी देकर विरोध किया था! ऐसे में 20 तारीख को बाकी मज़दूर तमाशबीन क्यों बने रहे? इंमके के लोगों को तथाकथित लम्पटों से बचाया क्यों नहीं? क्या इसी से इंमके के दलालों के झूठ का पता नहीं चलता है?

43., 44., और 45. इन तीनों पैराग्राफों में इंमके के लोगों की बौखलाहट खुलकर सामने आयी है। लेकिन बौखलाहट में इंसान अच्छा झूठ नहीं बोल पाता और पकड़ा जाता है। ये फिर पकड़े गये हैं! इनका दावा है कि ज्वाइण्ट लेबर कमिश्नर से शिवानी ने अपने गाँव के सम्बन्ध बताये, ज्वाइण्ट लेबर कमिश्नर से अलग से मिलने गयीं, वगैरह। पहली बात तो यह कि ज्वाइण्ट लेबर कमिश्नर से शिवानी की कोई मुलाकात ही नहीं थी। शिवानी की मुलाकात एडिशनल लेबर कमिश्नर राजेन्द्र धर से हुई थी। दूसरी बात यह कि शिवानी ने यह बात किसी मंच से नहीं कही थी, बल्कि वार्ता में साथ गये मज़दूर साथी बाबुराम और अम्बिका ने यह बात एक बार मंच से कही थी, क्योंकि उनके सामने एडिशनल लेबर कमिश्नर ने कहा था कि मेट्रो रेल और बादाम मज़दूरों के मसले के कारण वह शिवानी को पहले से जानते हैं और वह उनके राज्य की भी है। शिवानी को एडिशनल लेबर कमिश्नर ने खुद ही पहले बुलाया था और फिर उन्होंने खुद ही कहा कि सिर्फ़ मज़दूर प्रतिनिधियों को साथ लेकर आओ। इसके बाद शिवानी दो मज़दूर प्रतिनिधियों को अन्दर लेकर गयीं, जबकि पीछे-पीछे मुन्ना प्रसाद भी अन्दर आ गया। बाकी वार्ता में क्या हुआ था, इसकी जानकारी हम ऊपर दे चुके हैं। अब इस पूरे वाकये को इंमके के लोग अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ रहे हैं। और अगर उन्हें यह साँठ-गाँठ लग रही थी तो उन्हें पहले बोलना चाहिए था; लेकिन जब इंमके के लोगों की साँठ-गाँठ सबके सामने आ गयी, तब वे बदले में यह आरोप लगा रहे हैं। यह बचकाना बर्ताव ही उनकी मंशा को साफ़ करने के लिए पर्याप्त है।

46. इस पैराग्राफ़ में इंमके का दावा है कि उसने रघुराज से ‘महान बहस’ चलायी थी और बाद में रघुराज से रिश्ते तोड़ लिये! अगर इन्होंने वास्तव में ऐसा किया था तो इस संघर्ष के बारे में उन्होंने कहाँ पर लिखा? अगर यह एक राजनीतिक संघर्ष था तब तो इसके बारे में लिखने और मज़दूर वर्ग को शिक्षित करने के बारे में कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए; अगर इन्हें 2013 के नवम्बर में ही समझ आ गया था कि रघुराज और “उसके चेले” लम्पट हैं, एनजीओ कार्यकर्ता हैं और भाजपा से रिश्ते रखते हैं, तो 6 जून को वे आन्दोलन में रघुराज से कोई भी रिश्ता क्यों रख रहे थे? उससे मंच पर बोलने के लिए क्यों गिड़गिड़ा रहे थे? और अगर 6 जून के आन्दोलन के समय उनके सवालात रघुराज के बारे में हल हो गये थे, तो उन्होंने 20 जून को धक्के मारकर भगाये जाने के बाद अचानक ये सवाल उठाने क्यों शुरू किये? इन्होंने यह भी नहीं बताया कि ‘बिगुल’ ने किस रिपोर्ट या लेख में रघुराज को एनजीओवादी बताया? उल्टे इंमके वाले ही बिगुल की एक रपट का हवाला देते हैं जिसमें यह लिखा गया था कि रघुराज और ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के नेतृत्व में 2013 का आन्दोलन हुआ था। अब इनमें से कोई एक बात ही सही हो सकती है, दोनों तो नहीं सही हो सकती। जहाँ तक हमारे रवैये का प्रश्न है हम किसी दलाल संगठन के कहने पर किसी व्यक्ति के बारे में फैसला नहीं ले सकते। हम रघुराज के बारे में इस बात से फैसला कर सकते हैं कि आन्दोलन के दौरान उसने मंच से क्या कहा, कौन-सी राजनीति को लागू किया। रघुराज ने मंच से बार-बार घोषणा की कि आन्दोलन के दरवाज़े चुनावी पार्टियों से जुड़ी ट्रेड यूनियनों, एनजीओ, फण्डिंग एजेंसियों के लिए बन्द हैं। इस बारे में एक आधिकारिक घोषणा भी लागू की गयी और उसे गरम रोला मज़दूर एकता समिति के ब्लॉग पर डाला गया। ये सारे निर्णय मज़दूरों की आम सभा में पास किये गये। यहाँ तक कि यह भी घोषणा की गयी कि इन संस्थाओं से कोई आर्थिक सहयोग तक नहीं लिया जायेगा। अतीत में रघुराज की राजनीति के बारे में किसी दलाली करते पकड़े गये संगठन के दावों के आधार पर हम फैसला नहीं लेंगे, बल्कि आन्दोलन के दौरान किसी के भी आचरण के आधार पर फैसला लेंगे। यदि कोई व्यक्ति आन्दोलन में ट्रेड यूनियन जनवाद, वित्तीय पारदर्शिता, सामूहिक निर्णय, और क्रान्तिकारी मज़दूर राजनीति के बुनियादी पैमानों का उल्लंघन नहीं कर रहा है, तो क्या इंमके जैसे लोगों के कहने पर हम किसी व्यक्ति पर निर्णय सुना सकते हैं, जबकि रघुराज से तथाकथित राजनीतिक संघर्ष के दावों का कोई तथ्य या प्रमाण मौजूद नहीं है? यदि कोई भी इन बुनियादी पैमानों के अमल में कोताही करता है, तो मज़दूर स्वयं अपनी आम सभा में उसका बहिष्कार करेंगे, ठीक वैसे ही जैसे इंमके के लोगों को खदेड़ा गया। वैसी सूरत में व्यक्ति चाहे कोई भी हो, मज़दूर उसके साथ ऐसा ही बर्ताव करेंगे। इसलिए रघुराज के बारे में इंमके के दावों से कोई फर्क नहीं पड़ता; फर्क पड़ता है आन्दोलन के भीतर किसी भी व्यक्ति आचरण से। इंमके की जो गति हुई है, वह उनके आचरण के चलते हुई है; किसी के कुत्साप्रचार, षड्यन्त्र आदि के चलते नहीं। मज़दूर बेवकूफ़ नहीं होतेजैसा कि इंमके के हरीश ने मॉडल टाउन थाने में कहा था।

47., 48., 49., 50., 51., 52. और 53. इन पैराग्राफ़ों में इंमके ने दावा किया है कि मुन्ना प्रसाद ने समिति के दफ्तर से कोई कागज़ नहीं चुराये थे। तो फिर उन्होंने 13 जून को वापस क्या किया था? इंमके का यह दावा कि कागज़ मुन्ना प्रसाद के पास थे, कितना बड़ा झूठ है यह इस बात से समझा जा सकता है कि नवम्बर 2013 में ही ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ ने इंमके से रिश्ता तोड़ लिया था, ऐसे में समिति की लीडिंग कोर मुन्ना प्रसाद के पास कानूनी कागज़ात क्यों रहने देती? सच यह है कि कानूनी कागज़ात समिति के दफ्तर में थे जिसे 2013 में ही मुन्ना प्रसाद चोरी करके भाग गया था। आपमें से कोई भी ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के किसी भी आम मज़दूर से इस तथ्य की जाँच करने के लिए आमन्त्रित हैं। इसके बाद यह पूछा गया है कि 6 जून के आन्दोलन के शुरू होने के बाद जब इंमके के लोग आन्दोलन में गये तो मज़दूरों ने उन्हें तरजीह क्यों दी! अगर सवाल ही ग़लत हो तो उत्तर कैसे दिया जा सकता है? मिसाल के तौर पर, कोई पूछे कि सूरज पृथ्वी के चारों ओर क्यों घूमता है, तो आप क्या जवाब देंगे? सच बात यह है कि इंमके के दलालों की ग़द्दारी सामने आने से पहले आन्दोलन में शुरू से मंच संचालक की भूमिका निभाने वाले सनी ने स्वयं ही तमाम संगठनों के प्रतिनिधियों को आमन्त्रित किया था। न सिर्फ़ इंमके के बल्कि ‘निर्माण मज़दूर संघ’, ‘पीपुल्स एलायंस फॉर डेमोक्रेसी एण्ड सेक्युलरिज़्म’, ‘एक्टू’, छत्तीसगढ़ से आये ट्रेड यूनियन प्रतिनिधि, ‘केएनएस’, ‘डीएसयू’ के प्रतिनिधियों को भी सनी ने आमन्त्रित किया था और उन्होंने भी बात रखी थी। इस बात को अपना गाल सहलाते हुए इंमके वाले यह कह रहे हैं कि मज़दूरों ने उन्हें “मार्गदर्शन के लिए आमन्त्रित किया”! और एक हफ्ते बाद धक्के मारकर भगा दिया! इससे बड़ा कोई मज़ाक नहीं हो सकता। 11 जून को हुई संयुक्त बैठक में ज्ञापन लिखने की ज़िम्मेदारी इंमके को देने का प्रस्ताव स्वयं रघुराज ने ही रखा था, क्योंकि अभी तक इंमके से कोई अन्य बर्ताव करने का कोई कारण नहीं था। 17 जून को जब मज़दूरों ने इंमके के लोगों को सभा से चले जाने के लिए कहा था, तो इंमके के झूठे दावों के विपरीत, केवल डी-3 के एक दलाल रामभुवन ने इसकी मुख़ालफ़त की थी और आन्दोलन में फूट डालने की धमकी दी थी। इसकी वजह से स्वयं लीडिंग कोर के लोगों ने मज़दूरों को शान्त कराया था, क्योंकि जिस भी कॉमरेड ने कभी किसी हड़ताल को संगठित किया है या उसमें शिरकत की है, वे जानते हैं कि महज़ एक कारखाने के मज़दूरों के टूटने की अफ़वाहों का कितना प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। 17 जून को मज़दूरों के गुस्से की वाजिब वजह थी, और वह यह थी कि इंमके के लोगों ने पिछले ही दिन इंस्पेक्शन पर आये लेबर इंस्पेक्टर से साँठ-गाँठ करके इस पूरी कार्रवाई को प्रभावहीन बनाने का पूरा प्रयास किया था। 17 जून के बाद 19 जून की घटना घटी जब हरीश ने एक लेबर इंस्पेक्टर के पास जारी वार्ता के दौरान फोन किया था; इसके बाद 20 जून को जब इंमके के नगेन्द्र, हरीश, मुन्ना प्रसाद आदि को मज़दूरों ने धक्के मारकर बाहर किया तो कोई उनके पक्ष में बोलने वाला नहीं था क्योंकि आन्दोलन के दलाल पूरी तरह बेनक़ाब हो चुके थे और अगर कोई अन्य दलाल भी उसके पक्ष में बोलता तो मज़दूर उसका भी उचित इलाज कर सकते थे। अगर इंमके के लोग सच बोल रहे हैं तो उन्हें बताना चाहिए कि अगर 17 जून को 3-4 लोगों ने उन्हें बाहर करने की कोशिश की और मज़दूरों ने उसे रोक दिया था, तो फिर 20 जून को भी तो इंमके के अनुसार “रघुराज को कुछ लम्पट चेले” उन्हें बाहर कर रहे थे, तब मज़दूरों ने कुछ क्यों नहीं बोला? सच यह है कि मज़दूर स्वयं उन्हें बाहर कर रहे थे, और जब इंमके के लोगों को गेट से बाहर कर दिया गया तो फिर वे गालियाँ बकने लगे जिसके कारण पुलिस ने उन्हें यह कहकर भगा दिया कि अगर मज़दूर नहीं चाहते कि तुम लोग राजा पार्क में रहो, तो यहाँ से चले जाओ। इसी बात को इंमके ऐसे पेश कर रहा है मानो 3-4 लम्पट तत्वों ने पुलिस के साथ सैंकड़ों मज़दूरों के सामने उन्हें निकाल बाहर किया और मज़दूर चुपचाप देखते रहे। वैसे अगर यह ब्यौरा भी सच्चा होता तो प्रश्न उठता है कि सैंकड़ों मज़दूर जो “इंमके के साथियों को तरजीह दे रहे थे” और उन्हें “मार्गदर्शन के लिए आमन्त्रित” कर रहे थे, उन्हें बचाने क्यों नहीं गये? क्या इंमके के सफेद झूठ को पकड़ना यहाँ कोई मुश्किल काम है? इंमके के लोगों ने हड़ताल से निकाले जाने के बाद ही हड़ताल की रणनीति और रघुराज पर प्रश्न उठाना शुरू किया। क्या इंमके का कोई व्यक्ति एक भी सन्दर्भ दे सकता है जिसमें उसने 20 जून से पहले रघुराज और हड़ताल की रणनीति के बारे में कोई प्रश्न उठाया हो? 20 जून के बाद अचानक इंमके वाले बोलने लगे कि रघुराज ने जानबूझकर हड़ताल 6 जून को शुरू की क्योंकि 10 जून को वेतन का भुगतान होना था, और रघुराज ने ग़लत समय पर हड़ताल इसलिए शुरू की कि मज़दूर जल्दी थककर हार जाएँ! एक तो मज़दूरों ने इन दलालों के कुत्साप्रचार और निरूत्साहन की कार्रवाई के बावजूद अपने संघर्ष को जारी रखकर और जीतकर इनके मुँह पर एक करारा तमाचा मारा ही है, लेकिन उससे बड़ा सवाल एक दूसरा है। 6 जून से 20 जून तक तो मज़दूरों ने इंमके के मुताबिक उन्हें बड़ी “तरजीह दी और मार्गदर्शन के लिए बुलाया”, तो फिर उन्होंने 6 जून को हड़ताल शुरू करने के बारे में एक बार भी कुछ क्यों नहीं बोला? उन्होंने रघुराज के बारे में अपने कुत्साप्रचार का एक शब्द भी वहाँ तब क्यों नहीं बोला? यही दिखलाता है कि 20 जून को भगा दिये जाने के बाद इंमके के दलाल पूरे मज़दूरों पर ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ की आड़ में अपनी खुन्नस निकाल रहे हैं। भोजपुरी में एक कहावत होती है“न खेलब न खेले देब”। हर पिटा हुआ दलाल यही काम करता है और इंमके के लोग भी लगातार यही काम कर रहे हैं।

एक पैराग्राफ़ में इन्होंने कमेटी के सदस्य एक काल्पनिक मज़दूर चरित्र की रचना की है जिसने मंच पर से दलालों और ग़द्दारों को कोसने और गाली दिये जाने पर आपत्ति करते हुए मंच की गरिमा का हवाला दिया और मंच के “परमेश्वर” होने की बात की। कमेटी के किसी सदस्य ने ऐसा कभी कुछ कहा ही नहीं था। ये सरासर झूठ बोल रहे हैं और अजीबो-ग़रीब गल्प कथाएँ गढ़ रहे हैं। अगर ऐसा कोई कमेटी सदस्य होता तो इंमके के लोग पत्र में उसका नाम भी बताते, क्योंकि अन्य सभी वाकयों पर तो उन्होंने नामों का ज़िक्र किया है। तो फिर यहाँ क्यों नहीं? क्योंकि ऐसा कोई मज़दूर कमेटी सदस्य है ही नहीं। इसके बाद इंमके वाले बोलते हैं कि उनके द्वारा प्रस्तुत गल्पकथा को उनकी सही होने का प्रमाण मान लिया जाय! ऐसी मज़ाकिया ज़िद पर जितना कम कहा जाय उतना अच्छा है। कानूनी कागज़ात को मुन्ना प्रसाद द्वारा चोरी किये जाने के तथ्य को ये बार-बार नकारते हैं लेकिन अपनी बात को सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण उपस्थित नहीं करते। इन्हें यह प्रस्ताव रखना चाहिए कि निष्पक्ष कॉमरेडाना संगठनों का एक प्रतिनिधि मण्डल खुद जाकर इस बात की जाँच गरम रोला मज़दूरों में कर लें। लेकिन ये बस हवाई खण्डन कर देते हैं। दूसरी बात यह कि मुन्ना प्रसाद को उसकी कारगुज़ारी के बावजूद आन्दोलन की शुरुआत में प्रतिनिधि मण्डल में शामिल किया गया था, क्योंकि उससे पहले उसे कागज़ों को वापस करने की चेतावनी दी गयी थी, जिस पर उसने अपनी ग़लती मानी थी और कागज़ों को वापस करने का वायदा किया था। इस बुनियादी तथ्य को इंमके का पत्र गोल कर जाता है। इन्होंने कुछ कागज़ 13 जून को वापस किये भी थे जिनकी बाद में जाँच पर पता चला कि कुछ ज़रूरी कागज़ात की जमाखोरी अभी भी मुन्ना प्रसाद करके बैठा हुआ है। 29 जून को मज़दूरों द्वारा दौड़ाये जाने का एक कारण यह धोखा भी था।

54. इस पैराग्राफ में इंमके के लोगों ने ग़लती से यह स्वीकार कर लिया है कि ‘जनज्वार गन्दगी केन्द्र’ के साथ उनके प्रणय सम्बन्ध कितने गहरे हैं। पैरा के शुरू में रघुराज को धंधेबाज़ कहने की अपनी हरक़त को ये सही ठहराते हैं और कहते हैं कि एनजीओ कार्यकर्ता और भाजपा से रिश्ते रखने वाले को और क्या कहा जाय! हमारा बस एक मासूम सा सवाल है कि इंमके के धुरियाझार “क्रान्तिकारियों” ने यह सवाल 20 जून से पहले कभी क्यों नहीं उठाया? यह एकमात्र सवाल इनके घटिया और मौकापरस्त इरादों को साफ़ कर देते हैं। इंमके ने अपने पहले कुत्साप्रचार पत्र को ‘जनज्वार’ वेबसाइट पर भेजा जिससे क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन का कोई भी संजीदा समूह या व्यक्ति सुरक्षित दूरी बनाकर चलते हैं। कारण साफ़ है। इस वेबसाइट पर स्तालिन और माओ-विरोधी प्रचार के लेख और कुछ पतित त्रत्स्कीपंथियों से इनकी प्रणय लीला की जानकारी सभी को है। स्तालिन और माओ को सर्वहारा वर्ग का महान शिक्षक मानने वाला कोई भी ग्रुप ऐसे एजेण्ट-सरीखे पतित तत्वों के कुत्साप्रचार गिरोह से दूर ही रहता है। इंमके के लोगों पर जब ‘जनज्वार’ से रिश्ते रखने पर सवाल उठे तो ये उससे इंकार करने लगे। लेकिन देखिये कि इनकी असलियत किस प्रकार सामने आ गयी। इस पैराग्राफ में यह लिखते हैं कि हमारे संगठन के प्रकाशन संस्थानों की असलियत सारे “आन्दोलन” को पता है! हमसे तो आन्दोलन में सक्रिय किसी समूह या व्यक्ति ने हमारे प्रकाशन संस्थानों के बारे में कोई नकारात्मक बात साझा नहीं की है। हाँ, कुछ कुत्साप्रचारक, कुण्ठित भगोड़े ज़रूर हैं, तो एक क्रान्तिकारी मार्क्सवादी प्रकाशन संस्थान को व्यवसाय बताने का काम करते रहते हैं। इनमें से एक-एक की जाँच की जाय तो ये सब आन्दोलन से भागकर अपने-अपने घोंसलों में समाये हुए एजेण्ट हैं। इंमके वालों ने हमारे प्रकाशनों पर कीचड़ उछालने का गुर ‘जनज्वार गन्दगी केन्द्र’ से ही सीखा है और इस बात को अनजाने में अपनी बौखलाहट में वे बोल भी गये हैं। मज़ेदार बात यह है कि अभी कुछ समय पहले तक ये खुद अपने कार्यकर्ताओं को मार्क्सवाद पढ़ाने के लिए हमारे पास से ही किताबें लेने आते थे। दूसरी बात यह कि ये खुद भी ‘सर्वहारा प्रकाशन’ नामक प्रकाशन चलाने का प्रयास कर रहे हैं (इसे प्रयास ही कहा जा सकता है)। ऐसे में, इनके ओछे आरोपों पर कोई जवाब देना हम अपनी कम्युनिस्ट गरिमा के विरुद्ध समझते हैं। हमारे द्वारा यह फैसला लिया जाना कि हम अब इंमके को क्रान्तिकारी बिरादरी से बाहर मानते हैं, उसका पूर्ण बहिष्कार करते हैं और उसके साथ कोई मंच साझा नहीं करेंगे, इस कारण से भी है कि इंमके संदिग्ध भगोड़ों के साथ एक रज़ाई के भीतर बरामद हुआ है और उनके सुर में सुर मिलाकर कुत्साप्रचार की गन्द फैलाने में लगा हुआ है।

27 और 28 जून के समझौते को हम अभी भी ऐतिहासिक मानते हैं और सिर्फ़ हम ही नहीं मानते, अगर आप ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ का फेसबुक ग्रुप, ऑस्ट्रेलियाई ट्रेड यूनियन नेटवर्क, न्यूज़क्लिक की वेबसाइट, ‘दि हिन्दू’, ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ जैसे अखबारों को देखें और साथ ही श्रम मामलों के विशेषज्ञों जैसे कि प्रभु महापात्र की राय भी जानें तो आपको पता चला जायेगा कि वे इस समझौते को ऐतिहासिक क्यों मानते हैं। अगर आप खुद भी इस समझौते को देखना चाहते हैं तो आप समिति के ब्लॉग पर देख सकते हैं। पिछले वर्ष के आन्दोलन में एक अनौपचारिक समझौता हुआ था जिसका श्रम कानूनों के कार्यान्वयन से कोई रिश्ता नहीं था। आजकल आम तौर पर ज़्यादातर समझौते इसी प्रकार हो रहे हैं, जिसमें श्रम कानूनों का कोई सन्दर्भ नहीं होता, बल्कि वह मालिकों और मज़दूरों के बीच एक कानूनेतर समझौता होता है जिसमें कि आम तौर पर मालिकों का हाथ ही ऊपर होता है। इसके विपरीत, इस समझौते में सभी बुनियादी श्रम कानूनों के कार्यान्वयन पर मालिकों को मजबूर किया गया। यह आज के सन्दर्भ में एक ऐतिहासिक जीत नहीं तो क्या है? इंमके के लोग यहाँ यह बात भी गोल कर रहे हैं कि इन्होंने इसी समझौते को पहले शर्मनाक समझौता बताया था और मज़दूरों को शर्मनाक समझौते के इन्तज़ार में बताया था। बाद में, जब इसकी वजह से आन्दोलन के भीतर इन पर काफ़ी थू-थू हुई तब इन्होंने पहले इसे “भ्रामक” बोला और बाद में कहा कि मालिक इसकी मनमानी व्याख्या कर रहे हैं। अपने नये पत्र में अपनी मेढक समान अवस्थिति के बारे में इंमके ने एक शब्द भी नहीं लिखा है। क्या इसी से इनका अवसरवाद नंगा नहीं हो जाता है?

55., 56., 57., 58., 59., और 60. पत्र के अन्त आते-आते इंमके के लोगों की बौखलाहट उनके झूठों के शब्दों से ज़ाहिर हो जाती है। पहले यह एक कानूनी बिन्दु गिनाते हैं कि दीपक इंमके नहीं बल्कि पछास का कार्यकर्ता है! हम मान लेते हैं। वैसे हमें लगता है कि इस पत्र को पढ़ने वाले सारे साथी इस हुज्जत भरे सवाल को समझ ही रहे हैं। ये लिखते हैं कि दीपक ने शिवानी द्वारा मंच से इशारों में इंमके को एजेण्ट, दलाल आदि कहने के कारण उन्हें लम्पट कार्यकर्ता कहा था। इसमें दो बातें हैं। पहली बात तो यह कि इनका कार्यकर्ता दीपक खुद इस मसले पर अपनी बातें बार-बार बदलता रहा है। पहले उसने कहा कि उसने अपशब्द का इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि शिवानी ने उन्हें फोन पर धमकी दी; लेकिन गलती से वह खुद ही बता गया कि उसने अपशब्द पहले कहे थे, जबकि शिवानी का फोन बाद में आया था। जब यह झूठ पकड़ा गया तो उसने कहा कि मंच से शिवानी द्वारा अपशब्दों के इस्तेमाल के कारण उसने अपशब्द का इस्तेमाल किया! अब आप खुद ही सोचिये कि जो इस धड़ल्ले से झूठ बोल रहा हो, उसकी किस बात पर यक़ीन किया जा सकता है? दूसरी बात यह है कि 20 जून से पहले जो ग़द्दार और दलाल स्पष्ट तौर पर सामने थे, हर हड़ताल की तरह इस हड़ताल में भी उन्हें एजेण्ट, बिचौलिया, दलाल, ग़द्दार आदि कहा गया। इसमें न तो इंमके का नाम था और न ही उन पर इशारा। हमें इशारों में बात करने की कोई ज़रूरत नहीं थी। जब 20 जून तक इनकी दलाली उजागर हो गयी तो हम सीधे कहते हैं कि हमने मंच से इंमके के लोगों को दलाल और ग़द्दार कहा; लेकिन हम ही क्यों हर मज़दूर साथी मंच से और मंच से बाहर उनके लिए ये ही शब्द इस्तेमाल कर रहा था, क्योंकि ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’! इन्होंने अपनी नस्ल खुद ही उजागर कर दी थी। यह तो नंगे राजा वाली कहानी हुई कि राजा नंगा तो है लेकिन कोई उसे नंगा न बोले! हमें नहीं लगता इसमें कुछ भी आपत्तिजनक है क्योंकि यह किसी संगठन के राजनीतिक चरित्र पर टिप्पणी है। ‘लम्पट’ कहना एक व्यक्ति के चरित्र हनन का प्रयास है और यहाँ हम एक स्त्री कॉमरेड की बात कर रहे हैं, जिसके लिए इंमके के दीपक ने यह शब्द इस्तेमाल किया है। ऐसे में, इस किस्म के लोगों के साथ क्या करना चाहिए, यह साथियों को खुद सोचना चाहिए। हमने किसी भी ‘क्विड प्रो कुओ’ से थाने में इंकार किया था यह सत्य है। हमने स्पष्टतः कहा था कि अपनी इस गलीज़ हरक़त के लिए इंमके बिना शर्त लिखित माफ़ी माँगे तो हम इस बात के कारण विस्तार से किसी भी मंच पर बताने के लिए तैयार हैं कि हमने इंमके को 20 जून के बाद से आन्दोलन का ग़द्दार और दलाल क्यों कहा है। हम अभी भी इस बात पर अटल हैं। हम अभी भी इस बात पर भी अडिग हैं कि 27 जून की रात दीपक द्वारा अपशब्द वाली फेसबुक पोस्ट के बाद शिवानी और अभिनव ने इंमके के लोगों को फोन करके यह पोस्ट हटाने के लिए कहा था, जिससे इन लोगों ने इंकार कर दिया था। इसके बाद ही 28 जून को हमने इनके प्रति अपना रवैया तय कर लिया था। जहाँ तक अन्य बिरादर संगठनों द्वारा मध्यस्थता करने और सुलह कराने की बात थी, तो इंमके एक अर्द्धसत्य बोल रहा है। शिवानी ने थाने में ही स्पष्ट किया था कि यह मसला ऐसा है जिस पर सुलह का कोई प्रश्न ही नहीं है, अगर ये पहले लिखित माफी नहीं माँगते। अगर ये लिखित माफ़ी माँगते हैं, तो हम उनके बातचीत के प्रस्ताव पर विचार करेंगे, लेकिन ऐसी बातचीत सीधे भी हो सकती है, न कि किसी के मध्यस्थता के। लेकिन साथ ही शिवानी ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि सारे तथ्यों को हम अलग से सभी बिरादर संगठनों के समक्ष रखने को तैयार हैं। बाद में भी बिगुल के प्रतिनिधि अजय स्वामी द्वारा भी यह बात अन्य बिरादर संगठनों को सम्प्रेषित कर दी थी। इसमें हमारी अवस्थिति बिल्कुल निरन्तरतापूर्ण है और उसमें पहले दिन से अभी तक कोई परिवर्तन नहीं आया है। अब बिरादर संगठनों के रवैये पर भी हम अपनी बात स्पष्ट कर दें। बिरादर संगठनों में से जिन भी संगठनों से हमारी सीधे बातचीत हुई (पीयूडीआर, ‘हमारी सोच’ से कॉ- सुभाषीश, ‘करेस्पॉण्डेंस’ से परेश, ‘मज़दूर पत्रिका’ से सन्तोष, आदि) उन्होंने हमें स्पष्ट तौर पर बताया कि वे इस मसले पर कोई फैसला या पक्ष नहीं लेंगे, बस वे यह चाहते हैं कि दोनों संगठनों के बीच रिश्ते सामान्य हो जायें और इसलिए एक बार कॉफ़ी हाउस में संयुक्त बैठक में हम भी आएँ। 2 जुलाई को किस संगठन ने क्या कहा यह तो वे संगठन ही बता सकते हैं, लेकिन हमें इन संगठनों ने जो संयुक्त पत्र भेजा था उसमें उन्होंने हम पर कोई आरोप नहीं लगाया है और न ही हमें ग़लत तथ्य देने वाला बताया है। बिरादर संगठनों के संयुक्त पत्र में हमसे सिर्फ़ साझा बैठक में आने को कहा गया है जिस पर हमने अपने संगठन की आधिकारिक अवस्थिति उन्हें सम्प्रेषित कर दी है। हम समझते हैं कि हमारे इस सांगठनिक निर्णय का सभी बिरादर संगठनों को सम्मान करना चाहिए कि हम इंमके को क्रान्तिकारी बिरादरी का हिस्सा न मानें। वैसे भी इंमके तो पहले से ही हमारा बहिष्कार कर रहा था। जब गोरखपुर में चक्रपाणि की निकृष्ट हरक़तों पर हमने उसे चेतावनी दी थी, तो इंमके के लोगों ने तमाम संगठनों के बीच यह प्रचार किया था कि हमने मारपीट की है और उसके बाद हमारा बहिष्कार करने का एलान किया था! ऐसे में, अब इंमके के लोग सभी संगठनों के सामने साझा बातचीत के लिए क्यों उतावले हो रहे हैं? जहाँ तक फोन पर हमारे द्वारा दी गयी कथित धमकी को गीदड़भभकी कहने कहने की बात है, तो काल्पनिक चीज़ों को इंमके के लोग कौन सा नाम देते हैं, इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता!

पीयूडीआर के प्रतिनिधि के मॉडल टाउन में जाने के बारे में इंमके के लोग फिर झूठ बोल रहे हैं। पीयूडीआर के सचिव श्री मंजीत से बिगुल मज़दूर दस्ता के अजय स्वामी की बात 29 जून को ठीक उसी समय हुई थी जब नवीन और नितिन मॉडल टाउन थाने में थे। साथी मंजीत ने अजय को स्पष्ट कर दिया था कि इसमें पीयूडीआर कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा क्योंकि वह इसमें कोई फैसला लेने की स्थिति में नहीं है, लेकिन अगर कोई भी संगठन उनसे अलग से बात करना चाहता है तो वह कर सकता है। अब इंमके के लोग यह झूठ बोल रहे हैं कि प्रतिध्वनि के सुनील मॉडल टाउन थाने में ‘पीयूडीआर’ के सचिव के “निर्देश” पर बात कर रहे थे! उस समय तमाम संगठन के लोगों ने पीयूडीआर के पास फोन किया होगा लेकिन पीयूडीआर ने सुनील या किसी को भी अपना आधिकारिक प्रतिनिधि नियुक्त नहीं किया था। आप स्वयं इस तथ्य की जाँच कर लें, कि यह सत्य है या असत्य। सच यह है कि पीयूडीआर ने स्पष्ट तौर पर यह सम्प्रेषित कर दिया था कि वह इस मसले में कोई अवस्थिति या पक्ष नहीं लेगा, जो कि एकदम सही अवस्थिति है, और साथ ही यह इच्छा प्रकट की थी कि अगर मामला सुलट सकता है तो सुलटा लिया जाय, लेकिन खुद पीयूडीआर ने एक उचित अवस्थिति अपनाते हुए प्रत्यक्ष तौर पर कोई भी हस्तक्षेप करने या पक्ष लेने से इंकार किया था। मॉडल टाउन थाने में हमने अपना बयान दर्ज़ कराया था न कि शिकायत की थी; और वह भी इसलिए क्योंकि हमारे ख़िलाफ़ झूठी शिकायत की गयी थी। यह बयान दिया जाना पुलिस की सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा था, जिसे इंमके के लोग शिकायत बनाकर पेश कर रहे हैं।

‘जनज्वार गन्दगी केन्द्र’ से अपने रिश्तों के बारे में भी इंमके के पास कोई सफ़ाई नहीं है सिवाय एक खोखले खण्डन और इस प्रश्न के कि हमारे पास इस रिश्ते पर प्रश्न उठाने का क्या नैतिक अधिकार है! ‘जनज्वार’ के बारे में एक बार इनके एक कार्यकर्ता योगेश ने ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’, हरियाणा के साथियों से कहा था कि उनके आरोप सही हैं। इस पर ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के अजय स्वामी ने फरवरी, 2013 इंमके के नगेन्द्र से अवस्थिति पूछी थी तो उसने कहा था कि वे ‘जनज्वार’ के कुत्साप्रचार को सही नहीं मानते हैं। और अब इस पत्र में ‘जनज्वार’ के कुत्साप्रचार के केन्द्रीय बिन्दु को इंमके के लोगों ने भी अपना लिया है, जिसके बारे में हम ऊपर लिख चुके हैं। दरअसल, आन्दोलन के तमाम संजीदा लोगों ने इस बात को देखा है कि किस प्रकार इंमके के पत्र ‘जनज्वार’ पर छप रहे हैं, किस प्रकार इंमके के लोगों ने स्तालिन और माओ-विरोधी प्रचार करने वाले ‘जनज्वार’ के बारे में एक भी नकारात्मक बात न तो कही है और न ही लिखी है। इस वजह से अब इंमके ‘जनज्वार गन्दगी केन्द्र’ से अपने सम्बन्धों को नकार रहा है। सच्चाई से सभी वाकिफ़ हैं।

अन्त में, अपने पत्र की गल्पकथा को इंमके के लोगों ने “तथ्यों की रोशनी” क़रार देकर सभी लोगों से यह अपील की है कि वह हमसे अपने सम्बन्धों के बारे में पुनर्विचार करें। हम समझते हैं कि इनके “तथ्यों” पर ही नज़दीकी से ग़ौर करिये, इनके झूठ, फरेब और लफ्फ़ाज़ी को उजागर करने के लिए वही काफ़ी है। अन्य तथ्य और प्रमाण हमने अपने इस पत्र में आपके सामने रख दिये हैं। इसके अलावा, इन सभी तथ्यों और प्रमाणों की जाँच आप में से कोई भी स्वयं मज़दूरों के बीच जाकर कर सकता है।

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ,

बिगुल मज़दूर दस्ता

दिनांकः 14.07.2014


 

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