आपस की बात
पूँजीपतियों को श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाने की और भी बड़े स्तर पर खुली छूट

 इमान, लुधियाना

मज़दूरों को पहले ही श्रम क़ानूनों के तहत अधिकार नहीं मिल रहे, ऊपर से श्रम क़ानूनों को सरल बनाने के नाम पर क़ानूनी तौर पर भी श्रम अधिकार ख़त्म करने की कोशिश हो रही है। जैसाकि हम जानते ही हैं कि राजस्थान की भाजपा सरकार ने पिछले दिनों श्रम अधिकारों पर बड़ा हमला किया है। पहले यह क़ानून था कि 100 से अधिक श्रमिकों को रोज़गार देने वाली कम्पनी को बन्द करने से पहले श्रम विभाग से स्वीकृति लेनी होती थी। राजस्थान सरकार ने इसे बढ़ाकर 300 कर दिया है। मज़दूरों के अधिकारों पर ऐसे हमले करने की तो सभी राज्यों की सरकारों और केन्द्र सरकार की पूरी तैयारी है। पूँजीवादी लेखकों से इसके पक्ष में लेख लिखवाकर श्रम अधिकारों को क़ानूनी तौर पर ख़त्म करने का माहौल बनाया जा रहा है। इसका एक उदाहरण है झुनझुनवाला का 8-7-14 को दैनिक जागरण में छपा लेख। वह लिखता है कि श्रम क़ानूनों का ढीला करने से रोज़गार बढ़ेंगे, मज़दूरों का भला होगा। वह कहता है कि मनरेगा योजना भी ख़त्म कर दी जानी चाहिए और इस पर सरकार के सालाना ख़र्च होने वाले चालीस करोड़ रुपये पूँजीपतियों को सब्सिडी के रूप में देने चाहिए। उसके हिसाब से इस तरीके से रोज़गार बढ़ेगा। वह मोदी सरकार को कहता है कि राजस्थान की तरज पर तेज़ी से श्रम क़ानूनों में बदलाव किया जाये। झुनझुनवाला की ये बातें पूरी तरह मुनाफ़ाख़ोरों का हित साधने के लिए हैं। मज़दूर हित की बातें तो महज़ दिखावा है।

1990 के दशक में कांग्रेस सरकार नवउदारवादी नीतियाँ लेकर आयी और मज़दूरों को निचोड़ने के लिए देशी-विदेशी पूँजीपतियों को खुली छूट दी गयी। नवउदारवादी नीतियों के तहत श्रम क़ानूनों में बदलाव होने लगे। श्रम विभागों में अफ़सरों-कर्मचारियों की कमी कर दी गयी। श्रम क़ानून तो पहले ही बहुत लचीचे थे और इनका पहले ही बहुत उल्लंघन होता था। लेकिन अब पूँजीपतियों को श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाने की और भी बड़े स्तर पर खुली छूट दी गयी। उससे भी आगे बढ़कर भाजपा सरकार यह कुकर्म करने पर लगी हुई है। नवउदारवादी नीतियों का नतीजा अमीर-ग़रीब की खाई के और अधिक चौड़ा होने के रूप में निकला_ मज़दूरों की ज़िन्दगी बहुत बदतर हो गयी, आमदनी में बहुत कटौती हुई, बेरोज़गारी बहुत बढ़ गयी।

आज कारख़ानों में हालत यह है कि अधिक से अधिक उत्पादन के लिए मज़दूर पर बहुत दबाव डाला जाता है। मज़दूरों के साथ होने वाले हादसे बहुत बढ़ गये हैं। उँगली-हाथ कटना आम बात बन चुकी है। मुआवज़ा भी नहीं मिलता है। न्यूनतम वेतन भी नहीं मिलता। सिंगल रेट में ओवरटाइम करवाया जाता है। फ़ण्ड-बोनस लागू नहीं है। झुनझुनवाला जैसे लेखकों को यह सब दिखायी क्यों नहीं देता! उन्हें दिखायी तो सब देता है, लेकिन पूँजीपतियों का पक्ष लेते हुए वे सच्चाइयों पर परदा डालने की कोशिश करते हैं। लेकिन इन सच्चाइयों को पूँजीपतियों का प्रचार कभी भी ढँक नहीं सकता।

बिगुल में श्रम क़ानूनों के मुद्दे पर काफ़ी अच्छी सामग्री छपी है, जो पूँजीपतियों के दावों की पोल खोलती है। इससे मज़दूरों को पूँजीपतियों की चालों को समझने में मदद मिलती है। मज़दूर वर्ग को अपना क्रान्तिकारी प्रचार मज़बूती से संगठित करना होगा, ताकि पूँजीपति वर्ग के झूठे प्रचार का मुक़ाबला किया जा सके। मज़दूर बिगुल इसमें अच्छी भूमिका अदा कर रहा है।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2014

 


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments