आधुनिक संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष को दिशा देने वाली ‘महान बहस’ के 50 वर्ष

राजकुमार

china postersमज़दूर आन्दोलन के विचारधारात्मक विकास और व्यवहारिक प्रयोगों के पूरे दौर में नेतृत्व के बीच से संशोधनवादी भितरघाती पैदा होते रहे हैं जो क्रान्तियों के सबसे बड़े दु्श्मन सिद्ध हुए। मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन से लेकर स्तालिन तथा माओ तक कम्युनिस्ट आन्दोलन का सैद्धान्तिक विकास वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा में तोड़-मरोड़ की कोशिशों और संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष करते हुए ही हुआ है।

आज पूरी दुनिया के मज़दूरों के सामने स्तालिन-कालीन सोवियत संघ के समाजवादी प्रयोग, ख्रुश्चेवी संशोधनवाद से दुनिया के कम्युनिस्ट आन्दोलन को हुए नुकसान और माओ के नेतृत्व में हुई चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के महान अनुभव मौजूद हैं। इन अनुभवों ने आने वाले समय में मज़दूर वर्ग को समाजवादी क्रान्ति के महान लक्ष्य को पूरा करने और पूँजीवाद से कम्युनिस्ट समाज तक के लम्बे संक्रमण काल के दौरान क्रान्तिकारी संघर्ष चलाने की सैद्धान्तिक समझ को आधुनिक हथियारों से लैस किया है।

1953 में स्तालिन की मृत्यु के बाद 1956 में आधुनिक संशोधनवादियों ने सोवियत संघ में पार्टी और राज्य पर कब्ज़ा कर लिया और ख्रुश्चेव ने स्तालिन की “ग़लतियों” के बहाने मार्क्सवाद-लेनिनवाद के बुनियादी उसूलों पर ही हमला शुरू कर दिया। उसने “शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व, शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता और शान्तिपूर्ण संक्रमण” के सिद्धान्त पेश करके मार्क्सवाद से उसकी आत्मा को यानी वर्ग संघर्ष और सर्वहारा अधिनायकत्व को ही निकाल देने की कोशिश की। मार्क्सवाद पर इस हमले के ख़ि‍लाफ़ छेड़ी गयी “महान बहस” के दौरान माओ ने तथा चीन और अल्बानिया की कम्युनिस्ट पार्टियों ने मार्क्सवाद की हिफ़ाज़त की। दुनिया के पहले समाजवादी देश में पूँजीवादी पुनर्स्थापना की शुरुआत दुनियाभर के सर्वहारा आन्दोलन के लिए एक भारी धक्का थी, लेकिन महान बहस, चीन में जारी समाजवादी प्रयोगों और चीनी पार्टी के इर्द-गिर्द दुनियाभर के सच्चे कम्युनिस्टों के गोलबन्द होने पर विश्व मजदूर आन्दोलन की आशाएँ टि‍की हुई थीं।

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा 1963 से 1964 के बीच चलायी गयी महान बहस ने मार्क्सवाद-लेनिनवाद और आधुनिक संशोधनवाद के बीच एक विभाजक रेखा खींचकर निर्णायक संघर्ष का आरम्भ किया था। इस दौर में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी तीन “शान्तिपूर्ण” सिद्धान्तों, “समूची जनता का राज्य” तथा “समूची जनता की पार्टी” जैसे सिद्धान्तों को पेश कर अपनी संशोधनवादी नीतियों को एक पूर्ण व्यवस्था के रूप में लागू करने तथा मज़दूर वर्ग से साम्राज्यवादी शक्तियों के सामने हथियार डालकर आत्मसमर्पण करवाने का काम कर रही थी। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध विचारधारात्मक संघर्ष का आरम्भ किया और संशोधनवादी सोवियत पार्टी द्वारा चीनी पार्टी पर किये जा रहे सभी प्रहारों का जवाब देते हुए क्रान्तिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी कार्यदिशा को पूरी दुनिया के कम्युनिस्टों के सामने स्पष्ट किया।

china posters 1चीन और रूस के बीच चल रही आरम्भिक बहसों को पूरी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों के सामने नहीं रखा गया था और 1956 से 1962 के बीच चीनी पार्टी ने ख्रुश्चेवी संशोधनवादी नीतियों के विरुद्ध खुला संघर्ष आरम्भ नहीं किया था, लेकिन 1963 से 1964 के बीच चीनी पार्टी ने पूरे कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास का समाहार प्रस्तुत किया और समाजवादी संक्रमणकाल की समझ को गुणात्मक रूप से विकसित करते हुए मार्क्सवादी-लेनिनवादी आम कार्यदिशा के विकास में ऐतिहासिक भूमिका निभायी। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने 14 जून 1963 को 25 सूत्रीय कार्यक्रम का प्रस्ताव सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के नाम प्रकाशित किया और इसके बाद 14 जुलाई 1964 तक इस 25 सूत्रीय कार्यक्रम की व्याख्या करते हुए एक के बाद एक 9 टिप्पणियाँ प्रकाशित कीं जिन्हें ‘महान बहस’ के नाम से जाना जाता है।

महान बहस के दौरान चीनी पार्टी ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्तों की सुस्पष्ट समझ के साथ पूरी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों के सामने यह रेखांकित किया कि ख्रुश्चेव जिस संशोधनवादी लाइन का नेतृत्व कर रहा था वे सोवियत संघ में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना करने की नीतियाँ थीं। चीनी पार्टी ने स्पष्ट किया कि समाजवादी संक्रमण के दौरान सर्वहारा अधिनायकत्व के तहत सतत् वर्ग-संघर्ष जारी रखना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि समाजवाद कम्युनिज़्म की ओर आगे बढ़ने का एक संक्रमण काल है। इस दौरान वर्गों और वर्ग संघर्ष को नकारने का अर्थ है संशोधनवाद का रास्ता अख्तियार कर पूँजीवादी पुनर्स्थापना के लिए ज़मीन तैयार कर देना। मार्क्सवाद बताता है कि समाजवादी समाज पूँजीवाद और साम्यवाद के बीच की एक काफ़ी लम्बी अवधि होती है। इस पूरी अवधि में वस्तुओं का बाज़ार-मूल्य बना रहता है, माल-अर्थव्यवस्था का अस्तित्व क़ायम रहता है, बाज़ार एवं मूल्य के नियम काम करते रहते हैं और लम्बे समय तक, कम्युनिज़्म के निकट पहुँचने तक, ‘हरेक को उसके काम के अनुसार’ का सिद्धान्त लागू रहता है, यानी श्रम एक माल ही बना रहता है। इस पूरे दौर में वर्ग मौजूद रहते हैं और वर्ग संघर्ष जारी रहता है। समाजवाद के इस पूरे दौर में ऊपरी ढाँचे में मौजूद वर्गीय धाराएँ-प्रवृत्तियाँ भी कम्युनिज़्म की ओर प्रगति की दिशा उलट देने के लिए सक्रिय भौतिक शक्ति के रूप में लम्बे समय तक मौजूद रहती हैं। शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के बीच, शहर और देहात के बीच तथा उद्योग और कृषि के बीच अन्तर बने रहते हैं, और समाज में बुर्जुआ अधिकार मौजूद होते हैं। इन अन्तरों को एक लम्बे दौर में ही समाप्त किया जा सकता है। सोवियत संघ तथा चीन के समाजवादी अनुभवों का निचोड़ भी यही साबित करता है कि समाजवादी समाज एक अत्यन्त लम्बी ऐतिहासिक मंज़ि‍ल तक मौजूद रहता है। इस पूरे दौर में पूँजीपति और सर्वहारा के बीच वर्ग-संघर्ष जारी रहता है तथा पूँजीवादी रास्ते और समाजवादी रास्ते में से कौन विजयी होगा, यह तय नहीं होता। इस पूरे दौर में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना का ख़तरा बना रहता है।

महान बहस ने यह स्पष्ट किया कि ख्रुश्चेव ने सोवियत संघ में सर्वहारा अधिनायकत्व को पूँजीवादी अधिनायकत्व में रूपान्तरित कर दिया था, जहाँ पैदा हो चुके मुठ्ठीभर विशेषाधिकार प्राप्त पूँजीवादी तबके पार्टी पदाधिकारियों से मिलकर विशेष सुविधाएँ हासिल कर रहे थे, व्यक्तिगत फायदों के लिए सार्वजनिक उद्योगों से चोरी कर रहे थे, और सार्वजनिक उपक्रमों पर अपने व्यक्तिगत अधिकार के लिए ज़मीन तैयार कर चुके थे। यह विशेषाधिकार प्राप्त पूँजीवादी तबका अपने व्यक्तिगत हितों के लिए मज़दूरों का शोषण करने लगा था। पार्टी और राज्य के पदाधिकारियों तथा जनता के बीच सम्बन्ध शोषक और शोषित के सम्बन्धों में बदल चुके थे और समाजवादी उत्पादन सम्बन्ध पुनः पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों में रूपान्तरित हो चुके थे।

इस विश्लेषण को आगे विकसित करते हुए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने समाजवादी समाज में पार्टी के अन्दर पैदा होने वाले पूँजीवादी तत्वों के विरुद्ध सतत् वर्ग संघर्ष चलाने और व्यापक जन-चौकसी को मज़बूत बनाने की आवश्यकता को रेखांकित किया। इससे पहले सोवियत संघ में स्तालिन काल तक यह माना जा रहा था कि समाजवाद में पूँजीवादी पुनर्स्थापना का मुख्य स्रोत साम्राज्यवादी हस्तक्षेप ही हो सकता है। सांस्कृतिक क्रान्ति की आवश्यकता के बारे में लेनिन द्वारा दिये गये सूत्र को आगे बढ़ाते हुए माओ के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने आर्थिक मूलाधार और अधिरचना में मौजूद पूँजीवादी पुनर्स्थापना के कारक तत्वों की गतिकी को समझा और समाजवाद में वर्ग संघर्ष के संचालन और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के लिए प्रयत्नशील बुर्जुआ तत्वों के आधारों को नष्ट करने तथा कम्युनिज़्म तक संक्रमण के बारे में विचारधारात्मक निष्कर्ष प्रस्तुत किये। इसके आधार पर महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के ऐतिहासिक प्रयोग ने “सर्वहारा वर्ग के सर्वतोमुखी अधिनायकत्व के अन्तर्गत सतत् क्रान्ति” और “अधिरचना में क्रान्ति” के सिद्धान्तों को विकसित किया।

महान बहस में माना गया कि स्तालिन ने कुछ उसूली भूलें कीं और कुछ व्यावहारिक कार्यों के दौरान ग़लतियाँ हुई, जिनमें से कुछ ग़लतियों से बचा जा सकता था। विचारधारात्मक ग़लतियों के मामले में स्तालिन द्वन्दात्मक भौतिकवाद से विचलित हुए और कुछ सवालों पर आधिभौतिकवाद और मनोगतवाद के शिकार हुए। पार्टी के अन्दर के तथा पार्टी के बाहर के, दोनों ही प्रकार के संघर्षों में, कुछ मौकों और कुछ सवालों पर, हमारे और शत्रु के बीच तथा जनता के अपने अन्दर के, इन दो प्रकार के अन्तर्विरोधों से निपटने के अलग-अलग तरीकों के बारे में भी वे भ्रान्तियों के शिकार हुए। यह घोषित करना कि सोवियत संघ में वर्ग और वर्ग-संघर्ष समाप्त हो गया है, स्तालिन की एक विचारधारात्मक ग़लती थी। लेकिन आज अमेरिकी शोधकर्ता ग्रोवर फर और रूसी शोधकर्ता यूरी ज़ोखोव जैसे कई इतिहासकारों ने स्तालिन कालीन सोवियत संघ के पुराने दस्तावेज़ों के अध्ययन के आधार पर अनेक सबूतों के साथ कई नये खुलासे किये हैं जिनके आधार पर उस दौर में हुई व्यावहारिक ग़लतियों की पृष्ठभूमि समझने में मदद मिलती है कि किन परिस्थितियों में पार्टी में मौजूद पूँजीवादी तत्वों के विरुद्ध स्तालिन के नेतृत्व में संघर्ष किया जा रहा था।

अक्टूबर 1917 में क्रान्ति होने के बाद सोवियत संघ में पार्टी के अन्दर विशेषाधिकार प्राप्त पूँजीवादी पथगामी लगातार पैदा हो रहे थे और पहले समाजवादी राज्य की रक्षा में इन भ्रष्ट तत्वों के विरुद्ध लेनिन और स्तालिन के दौर में लगातार संघर्ष चलाया गया। लेकिन संघर्ष के सही विचारधारात्मक स्वरूप का विस्तार न कर पाने के कारण पूरा भरोसा राज्य के पदाधिकारियों पर किया गया और उनकी मदद से सजा देने का काम किया गया जिससे पार्टी में मौजूद षडयन्त्रकारियों को अतिशय रूप से सजा देकर स्तालिन तथा राज्य को बदनाम करने का मौका मिल गया। इन सभी ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर देखें तो पार्टी और दुश्मन तथा जनता के बीच अन्तरविरोधों को हल करने की जो विचारधारात्मक समझ चीनी पार्टी ने महान बहस में प्रस्तुत की वह सही है कि स्तालिन उस दौर में इन अन्तरविरोधों को हल करने की सही लाइन विकसित नहीं कर सके, यह स्तालिन की ग़लती नहीं बल्कि उस दौर की एक व्यवहारिक सीमा थी। चूँकि सोवियत संघ में पहली बार समाजवादी निर्माण का प्रयोग किया जा रहा था जिसका कोई अनुभव मौजूद नहीं था, ऐसे में उस समय स्तालिन का मुख्य सैद्धान्तिक भटकाव यह था कि वे पार्टी में पैदा हो रहे षड्यन्त्रकारियों और पूँजीवादी पथगामियों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए उनके पैदा होने की विचारधारात्मक जमीन की तलाश नहीं कर सके।

इन सैद्धान्तिक ग़लतियों के साथ ही यह भी सच है कि 1917 में अक्टूबर क्रान्ति के बाद सोवियत संघ में समाजवादी निर्माण के पहले ऐतिहासिक प्रयोग के दौरान लेनिन और फिर स्तालिन के नेतृत्व में सर्वहारा की संगठित शक्ति ने प्रतिक्रान्तिकारियों द्वारा क्रान्ति का तख्तापलट करने के मंसूबों पर पानी फेरने से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध तक पूरी दुनिया को हिटलर और फासीवाद से मुक्ति दिलाने में अभूतपूर्व सफलता के साथ नेतृत्व किया था। सोवियत संघ में जनता के जीवन स्तर में गुणात्मक वृद्धि हुई थी, बेरोज़गारी और ग़रीबी जैसी पूँजीवादी बीमारियों को जड़ से समाप्त कर दिया गया था, महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा किसी भी अन्य पूँजीवादी देश से बेहतर रूप में मिला हुआ था, शिक्षा और स्वास्थ्य का समान अधिकार हर व्यक्ति को मिल चुका था और नाममात्र की जनसंख्या अशिक्षित बची थी, औद्योगिक, तकनीकी तथा वैज्ञानिक विकास के क्षेत्र में सोवियत संघ अनेक सफलताएँ हासिल कर रहा था। सोवियत संघ के समाजवादी प्रयोगों ने पूरी दुनिया की मेहनतकश जनता के सामने यह सिद्ध कर दिया था कि सर्वहारा वर्ग की समाजवादी सत्ता, जो एक वर्गहीन समाज के निर्माण के लिए संघर्षरत है, मानव समाज के विकास में सभी पुराने वर्ग समाजों की तुलना में आगे की ओर एक लम्बी छलांग है।

इन महान सफलताओं के दौर में स्तालिन के नेतृत्व की मान्यता के रहते ख्रुश्चेव के चारों ओर संगठित हुए विशेषाधिकार प्राप्त भ्रष्ट गुटों और पूँजीवादी पथगामियों के लिए अपनी संशोधनवादी नीतियाँ लागू करना सम्भव नहीं था। 1953 में स्तालिन की मृत्यु के बाद पार्टी के नेतृत्व पर काबिज़ हो गये इस गुट के लिए ज़रूरी था कि अपनी सर्वहारा विरोधी नीतियों पर पर्दा डालने के लिए वे पहले स्तालिन और स्तालिन के पूरे दौर को बदनाम करें। 1953 से 1956 तक ख्रुश्चेव ने सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के अन्दर इस संशोधनवादी खेमे के समर्थन आधार का विस्तार किया और 1956 की 20वीं पार्टी कांग्रेस में अपना गुप्त भाषण पढ़ा जिसमें “व्यक्ति पूजा” समाप्त करने के नाम पर स्तालिन पर अनेक झूठे आरोप लगाये और सोवियत संघ में समाजवादी संक्रमण के दैरान हुई सभी ग़लतियों के लिए स्तालिन को दोषी ठहराया। स्तालिन पर कीचड़ उछालकर ख्रुश्चेव ने सर्वहारा वर्ग के नेता के रूप में स्तालिन को ही नहीं बल्कि उस पूरे दौर में लागू की गयी नीतियों, सर्वहारा अधिनायकत्व और समाजवादी संक्रमण के मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्त को पूरी दुनिया में बदनाम करने की धूर्ततापूर्ण कोशिश की। इसने पूरे विश्व के मज़दूर आन्दोलन में सैद्धान्तिक स्तर पर एक विभ्रम की स्थिति पैदा कर दी।

साम्राज्यवादियों द्वारा परमाणु बम की गीदड़ भभकियों से भयभीत होकर ख्रुश्चेव समाजवादी खेमे में यह प्रचार कर रहा था कि साम्राज्यवादी देशों के साथ समाजवादी देशों का शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व सम्भव है। और यदि समाजवादी अपनी तरफ से इस “शान्ति” के लिए प्रयास नहीं करेंगे तो आने वाले समय में परमाणु युद्ध से पूरी मानवता का भविष्य नष्ट हो जायेगा। ख्रुश्चेव ने साम्राज्यवाद के साथ कई समझौते किये, और क्रान्तिकारी सोवियत जनता द्वारा साम्राज्यवादियों के सामने हथियार डलवा देने के अपने नीचतापूर्ण मंसूबों को अंजाम दिया। यह ख्रुश्चेव का एक बेहद कायरतापूर्ण क़दम था और मेहनतकश जनता की अनेक कुर्बानियों के साथ खुली ग़द्दारी थी।

महान बहस में युद्ध और शान्ति के सवाल को स्पष्ट करते हुए बताया गया कि वैश्विक स्तर पर शान्ति तब तक हासिल नहीं की जा सकती और साम्राज्यवादी युद्धों के खतरों को तब तक नहीं टाला जा सकता जब तक पूरी दुनिया के सभी देशों के मेहनतकश मज़दूर समाजवाद की स्थापना नहीं कर लेते। लेनिन ने पहले ही कहा था कि विदेश नीति का बुनियादी उसूल सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद है जो साम्राज्यवादी आक्रमण और युद्ध की नीति के विरुद्ध है। ख्रुश्चेव की नीतियों को बेपर्दा करते हुए चीनी पार्टी ने महान बहस में स्पष्ट किया कि साम्राज्यवाद के मौजूद रहते विश्व शान्ति हासिल नहीं की जा सकती। हर समाजवादी राज्य का अन्तिम लक्ष्य पूरी दुनिया के स्तर पर एक साम्यवादी समाज की स्थापना करना है, अकेले एक देश में कम्युनिस्ट समाज की स्थापना सम्भव नहीं है और पूरी दुनिया के सभी देशों में एक साथ समाजवादी क्रान्ति भी सम्भव नहीं है इसलिए एक देश में समाजवादी क्रान्ति होने के बाद समाजवादी राज्य की ज़ि‍म्मेदारी होगी कि वह अन्य देशों में संघर्षरत मज़दूरों की मदद करे। समाजवाद सभी देशों में एक साथ विजयी नहीं हो सकता। वह पहले किसी एक देश में या कुछ देशों में विजयी होगा, जबकि बाकी देश कुछ समय तक पूँजीवादी या पूर्व-पूँजीवादी ही रहेंगे। एक देश में समाजवाद की स्थापना का दूरगामी उद्देश्य है कि वह समाजवादी देश पूरी दुनिया के स्तर पर कम्युनिस्ट आन्दोलनों की मदद करने में अपनी भूमिका निभाये।

लेकिन इसके साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया कि सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद के तहत अलग-अलग समाज व्यवस्थाओं वाले देशों के साथ समाजवादी देश के शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व का यह अर्थ नहीं है कि वह उनके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करे। वर्ग-संघर्ष, राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष तथा विभिन्न देशों में पूँजीवाद से समाजवाद में संक्रमण– ये सब संघर्ष कटु और जीवन-मरण के संघर्ष हैं, जिनका उद्देश्य समाज-व्यवस्था को बदलना है। शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व जनता के क्रान्तिकारी संघर्षों की जगह नहीं ले सकता। किसी भी देश में पूँजीवाद से समाजवाद में संक्रमण केवल उस देश की सर्वहारा क्रान्ति और सर्वहारा अधिनायकत्व के ज़रिए ही हो सकता है। विश्व युद्ध और परमाणु बमों से डरकर युद्ध को नहीं रोका जा सकता, बल्कि क्रान्तियों के माध्यम से साम्राज्यवादी होड़ को ध्वस्त करने के बाद ही विश्व शान्ति स्थापित की जा सकती है।

महान बहस के दौरान माओ के नेतृत्व में चीनी पार्टी ने आगे चलकर हुई महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की पूर्वपीठिका तैयार की और सभी अनुभवों का सार-संकलन करते हुए मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सैद्धान्तिक विकास में एक ऐतिहासिक भूमिका निभायी। सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति माओ के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा संचालित एक महान राजनीतिक-विचारधारात्मक क्रान्ति थी जिसमें व्यापक मेहनतकश जनता की भागीदारी का आह्वान करते हुए बहसों,  आलोचना और राजनीतिक लामबन्दी के साथ वर्ग-संघर्ष को संचालित करने के लिए सर्वतोंमुखी सर्वहारा अधिनायकत्व लागू करने का महान प्रयोग किया गया।

10 वर्ष तक चली सांस्कृतिक क्रान्ति में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में मेहनतकश जनता की अपार शक्ति की मदद से आर्थिक जगत, सामाजिक संस्थाओं, संस्कृति और मूल्यों के साथ-साथ कम्युनिस्ट पार्टी के रूपान्तरण का काम शुरू किया गया था। पूँजीवादी पथगामियों के विरुद्ध संघर्ष की शुरुआत करते हुए माओ ने व्यापक जनसमूह का आह्वान किया और ‘बुर्जुआ हेडक्वार्टर को ध्वस्त करने’ और समाज को वापस पूँजीवाद के चंगुल में धकेलने में लगे ‘मुठ्ठीभर पूँजीवादी पथगामियों को,  उखाड़ फेंकने’ का नारा दिया।

सांस्कृतिक क्रान्ति के तहत कलाकारों, डाक्टरों, तकनीशियनों, वैज्ञानिकों तथा सभी तरह के शिक्षित लोगों को मज़दूरों और किसानों के बीच जाने और क्रान्तिकारी आन्दोलनों में शामिल होने का आह्वान किया गया। समाज में मौजूद मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच, शहर और देहात के बीच, उद्योग और कृषि के बीच और पुरुष और स्त्री के बीच अन्तर को समाप्त करने के लिए सामाजिक स्तर पर बहसों को प्रोत्साहित किया गया। नये समाजवादी मूल्यों का प्रसार करने और पूँजीवादी व्यक्तिवादी मान्यताओं के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए ‘जनता की सेवा करो’ और देहात की ओर चलो का नारा दिया गया और बड़ी संख्या में नौजवानों और विशेषज्ञों ने इस आह्वान का स्वागत किया। शिक्षा में आमूलगामी परिवर्तन किये गये, पहले शिक्षा और योग्यता को दूसरों से आगे रहने और दूसरों की तुलना में अधिक सुविधा और विशेषाधिकार प्राप्त करने का एक माध्यम माना जाता था, सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान शिक्षा और योग्यता को सामूहिक हितों के लिए लगाने को प्रोत्साहित किया गया। फैक्टरियों में एक व्यक्ति द्वारा प्रबन्धन को समाप्त कर दिया गया और उसकी जगह मज़दूरों, तकनीशियनों और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों की तीन-पक्षीय समितियों ने दैनिक प्रबन्धन को अपने हाथ में ले लिया।

महान सर्वहारा क्रान्ति के दौरान व्यापक जनसमूह की भागीदारी को प्रोत्साहित करने तथा सही विचारों को परखने के लिए सार्वजनिक बहसें आयोजित की जाती थीं, जिससे पार्टी के लोगों और समाज में मौजूद पूँजीवादी विचारों को जनता के सामने लाकर उन पर चोट की जा सके। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान यह सिद्धान्त अपनाया कि सहयोगियों के साथ एकता को सुदृढ करो, ढुलमुल तत्वों को अपने पक्ष में लो, और विरोधी तत्वों को सार्वजनिक वाद-विवाद करते हुए जनता के सामने उजागर करो और अलगाव में डाल दो। सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान विचारधारात्मक संघर्ष के महत्व को रेखांकित करते हुए माओ ने बताया कि राजनीतिक सत्ता को उखाड़ फेंकने से पहले अनिवार्य रूप से इस बात की कोशिश की जाती है कि ऊपरी ढाँचे और विचारधारा पर अपना प्रभुत्व कायम कर लिया जाय, ताकि लोकमत तैयार किया जा सके, तथा यह बात क्रान्तिकारी वर्गों और प्रतिक्रियावादी वर्गों दोनों पर लागू होती है। इस आधार पर माओ ने आह्वान किया कि सर्वहारा तत्वों का पालन-पोषण करने के लिए और पूँजीवादी तत्वों को नेस्तनाबूद कर देने के लिए विचारधारा के क्षेत्र में वर्ग-संघर्ष चलाएँ।

समाज के आर्थिक और वैचारिक रूपान्तरण के लिए व्यापक मेहनतकश जनता की राजनीतिक भागीदारी मानव इतिहास में इससे पहले कभी नहीं देखी गई थी। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति में आर्थिक सम्बन्धों, राजनीतिक और सामाजिक संस्थाओं, और संस्कृति, आदतों तथा विचारों को बदलने में इतिहास का सबसे मौलिक प्रयोग किया गया। महान सर्वहारा क्रान्ति ने 10 साल (1966 से 1976) तक चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना को रोके रखा और कई सामाजिक तथा संस्थागत बदलावों के साथ ‘जनता की सेवा करो’ के आधार पर समाज को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

1976 में माओ की मृत्यु के बाद देंग-सियाओ-पिंङ के नेतृत्व में संशोधनवादी तख्तापलट करके एक बार फिर सोवियत संघ के ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के इतिहास को दोहराया गया और पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के लिए रास्ते खोल दिये गये। वर्तमान संशोधनवादी चीनी पार्टी चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना को पूरी तरह से अंजाम दे चुकी है। चीन में संशोधनवादियों द्वारा तख्तापलट कर पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के साथ सर्वहारा क्रान्तियों का पहला ऐतिहासिक चक्र पूरा हो चुका है। आज साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण का यह दौर पूरी दुनिया में विभिन्न रूपों में पूँजीवाद की सुरक्षा पंक्ति बनकर पूँजीपतियों और साम्राज्यवादियों की गोद में बैठे सभी संशोधनवादी ग़द्दारों और साम्राज्यवाद द्वारा पाले-पोसे जा रहे अनेक संशोधनवादी सिद्धान्तकारों के विरुद्ध वैचारिक संघर्ष की माँग कर रहा है ताकि आने वाले समय में सही विचारधारात्मक समझ के साथ क्रान्तियों का नया एक चक्र शुरू हो सके। सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान माओ ने कहा था कि पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग तथा पूँजीवाद और समाजवाद में “दो वर्गों और दो लाइनों के बीच संघर्ष एक, दो-तीन या चार सांस्कृतिक क्रान्तियों से तय नहीं हो पायेगा बल्कि वर्तमान महान सांस्कृतिक क्रान्ति के परिणामों को कम से कम पंद्रह वर्षों तक सुदृढ़ करना होगा। हर सौ साल में दो या तीन सांस्कृतिक क्रान्तियाँ पूरी करनी होगी। इसलिये हमें संशोधनवाद को उखाड़ फेंकने और किसी भी वक़्त संशोधनवाद का विरोध करने के लिए अपनी ताकत मजबूत करने के काम को याद रखना होगा।”

 

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर 2014

 


 

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