नकली ट्रेड यूनियनों से सावधान!

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मज़दूरों के जितने बड़े दुश्मन फ़ैक्टरी मालिक, ठेकेदार और पुलिस-प्रशासन होते हैं उतनी ही बड़ी दुश्मन मज़दूरों का नाम लेकर मज़दूरों के पीठ में छुरा घोंपनेवाली दलाल यूनियनें होती हैं। ये दलाल यूनियनें भी मज़दूरों के हितों और अधिकारों की बात करती हैं पर अन्दरखाने पूँजीपतियों की सेवा करती हैं। ऐसी यूनियनों में प्रमुख नाम सीटू, एटक, इंटक, बी एम एस, एच एम एस और एक्टू का लिया जा सकता है। इनका काम मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को गड्ढे में गिराना तथा मज़दूरों और मालिकों से दलाली करके अपनी दुकानदारी चलाना है। जहाँ कहीं भी मज़दूरों की बड़ी आबादी रहती है ये वहाँ अपनी दुकान खोलकर बैठ जाते हैं और अपनी रस्म अदायगियों द्वारा दुकान चलाते रहते हैं। जब किसी मज़दूर के साथ कोई दुर्घटना हो जाये या उसके पैसे मालिक रोक ले या उसे काम से निकाल दिया जाये तो इन यूनियनों का असली चेहरा सामने आ जाता है। सबसे पहले तो 100-200 रुपये अपनी यूनियन की सदस्यता के नाम पर लेते हैं, उसके बाद काम हो जाने पर 20-30 प्रतिशत कमीशन मज़दूर से लेते हैं। ज़्यादातर मामलों में मज़दूरों को कुछ हासिल नहीं होता है। कुछ मामलों में थोड़ी-बहुत रकम मालिकों से दिलवा देते हैं ताकि मज़दूरों में थोड़ा भ्रम कायम रह सके और इनका धन्धा चलता रहे। इसके अलावा बीच-बीच में कभी-कभी सरकार के मज़दूर विरोधी रवैये के खि़लाफ़ रैली और प्रदर्शन भी कर देते हैं। यह सब फ़रेब है। वास्तविकता तो यह है कि यह सब करने के पीछे इनका मकसद होता है मज़दूरों को भ्रम में फँसाकर रखना और उन्हें कोई भी क्रान्तिकारी क़दम उठाने से रोकते रहना। इनका मकसद होता है मज़दूरों को दुअन्नी-चवन्नी की लड़ाई में उलझाये रखना ताकि चोर दरवाजे से पूँजीपतियों की सेवा होती रहे। एक वाक्य में कहा जाये तो से दलाल यूनियनें मज़दूरों के अन्दर मालिकों और व्यवस्था के खि़लाफ़ उबल रहे गुस्से पर ठण्डे पानी का छींटा मारने का काम करती हैं ताकि मज़दूरों का क्रान्तिकारीकरण रोका जा सके।

अब हम इस देश की प्रमुख दलाल यूनियनों के बारे में जानेंगे। इण्डियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस (इण्टक) कांग्रेस पार्टी से जुड़ी यूनियन है और यह भी मज़दूर हितों की बात करती है – यह सबसे बड़ा मज़ाक़ है। इस देश में सबसे ज़्यादा समय शासन करने वाली पार्टी काँग्रेस है जो यहाँ के बड़े-बड़े पूँजीपतियों की नुमाइन्दगी करती है। इण्टक फिर किस मुँह से कहती है कि वह मज़दूरों के हितों की रक्षा करेगी! इण्टक की यूनियनें ज़्यादातर बीमा, बैंक और ऊँचा वेतन पाने वाले कर्मचारियों के बीच हैं। अगला नाम भारतीय मज़दूर संघ (बी.एम.एस.) का है जो दावा करती है कि सबसे ज़्यादा सदस्य इस यूनियन में हैं। यह यूनियन भाजपा की है। भाजपा का घोर मज़दूर विरोधी और फासिस्ट चरित्र किसी से छुपा नहीं है। मज़दूरों के खि़लाफ़ सबसे ज़्यादा दमनकारी क़ानून बनाना और मज़दूरों का सबसे बर्बर दमन भाजपा के ही शासनकाल में होता है। अभी हाल में ही नरेन्द्र मोदी की सरकार ने जो पहला प्रमुख काम किया है वह है श्रम क़ानूनों में बदलाव का प्रस्ताव। यानी पूँजीपतियों द्वारा मुनाफ़ा निचोड़ने की प्रक्रिया में आनेवाली सारी बाधाओं को हटा देना और मज़दूरों पर मुनाफ़े की चक्की को थोड़ा और तेज़ घुमा देना। बी.एम.एस. अपनी पार्टी की नीतियों के खि़लाफ़ नहीं जा सकती है, हाँ दिखावे के लिए कुछ भीख ज़रूर माँग सकती है। बी.एम.एस. जैसी यूनियनें पूँजीपतियों की सबसे ज़्यादा वफ़ादार होती हैं इसलिए ज़्यादातर सरकारी उपक्रमों में बी.एम.एस. की यूनियन है जिसे सरकार द्वारा भी स्वीकृति मिलती है। इसका दूसरा काम होता है जब देश में महँगाई और बेरोज़गारी चरम सीमा पर हो तो ऐसे में मज़दूरों के एक हिस्से को जो वेतनभोगी होता है उसे हमेशा सरकार के पक्ष में बनाये रखा जाये और निचले तबके की बहुसंख्यक मज़दूर आबादी के खि़लाफ़ लड़ने के लिए खड़ा किया जा सके। यह यूनियन मज़दूरों में वर्ग चेतना नहीं जगाती बल्कि उन्हें धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के सवाल पर बाँटने का काम करती है। बी.एम.एस. जैसी यूनियनें मज़दूरों के बीच रंगा सियार हैं। इसे जितनी जल्दी हो मज़दूरों के बीच से निकाल दिया जाना चाहिए।

इसके बाद ऑल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) का नाम है। एटक भाकपा (सी.पी.आई.) की मज़दूर यूनियन है। 1947 के पहले सी.पी.आई. मज़दूर राज की बात करती थी लेकिन 1952 से यह पार्टी चुनावी राजनीति में आयी और जल्दी ही काँग्रेस पार्टी की ‘टीम बी’ बन गयी। 1958 में सी.पी.आई. ने अपने संविधान से ‘क्रान्तिकारी हिंसा’ शब्द भी हटा दिया और खुले तौर पर संशोधनवादी बन गयी। इसी तरह एटक भी अपनी पार्टी की राह पर चलते हुए मज़दूरों को सिर्फ़ क़ानूनी दायरे में बाँधकर मालिकों से कुछ टुकड़े माँगने का काम करती रहती है। अभी हाल ही में श्रीराम पिस्टन (भिवाड़ी) के मज़दूरों का शानदार आन्दोलन लड़ा जा रहा था लेकिन एटक ने इसे सिर्फ़ क़ानूनी दायरे तक सीमित करके और मज़दूरों को शान्तिपूर्वक धरने पर बिठाये रखकर मज़दूरों को थका दिया और पूरे आन्दोलन को गड्ढे में गिरा दिया। श्रीराम पिस्टन के मज़दूर जिन माँगों को लेकर लड़ रहे थे वह पूरे ऑटो सेक्टर के मज़दूरों की माँगें हैं। अगर इसका एक जुझारू और सही समझ वाला नेतृत्व होता तो यह पूरे ऑटो सेक्टर के मज़दूरों का आन्दोलन बन सकता था। ऐसा आन्दोलन मालिकों और सरकार को झुका सकता था और अपनी माँगें मनवा सकता था। लेकिन एटक की ग़द्दारी ने पूरे आन्दोलन का सत्यानाश कर दिया। यह एक आन्दोलन नहीं बल्कि देशभर में अनगिनत आन्दोलनों की कहानी है। एटक मज़दूरों का नाम लेकर लाल झण्डे के तले मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी कर रही है।

अब कहने को इस देश की सबसे बड़ी यूनियन सेण्टर ऑफ़ इण्डियन ट्रेड यूनियन्स (सीटू) का इतिहास और वर्तमान जान लेते हैं। सीटू माकपा यानी सी.पी.एम. की मज़दूर यूनियन है। सी.पी.एम. का गठन 1964 में हुआ और उसी समय से चुनावी राजनीति में पार्टी ने भागीदारी शुरू कर दी। बंगाल में इनकी सरकार 34 सालों तक कायम रही और वहाँ भी मज़दूरों के हालात देश के अन्य हिस्सों के मज़दूरों से अलग नहीं थे। इनका असली चेहरा तब और खुलकर सामने आया जब बंगाल के सिंगुर और नन्दीग्राम में टाटा की फ़ैक्टरी लगवाने के लिए ग़रीब किसानों को गोलियों से भून दिया गया। अभी हाल के वर्षों में पूरे देश और दुनिया भर में चर्चा का विषय बना मारुति सुजुकी के मज़दूर आन्दोलन को सीटू ने ऐसा बेच खाया कि बहुत से मज़दूरों की ज़ि‍न्दगी तबाह हो गयी। आज भी मारुति सुजुकी के 147 मज़दूर जेलों में बन्द हैं। इस पूरे आन्दोलन के दौरान सीपीएम के सांसद लोकसभा में सोते रहे। मारुति का आन्दोलन सही तरीके से लड़ा जाता तो इसे गुड़गाँव के ऑटो सेक्टर के लाखों मज़दूरों का व्यापक आन्दोलन बनाया जा सकता था। लेकिन सीटू ऐसा कभी नहीं चाहेगी क्योंकि वह भी मालिकों की सेवा करती है। वैसे, सच तो यह है कि अब मज़दूर वर्ग के ये ग़द्दार चाहकर भी कोई व्यापक और जुझारू आन्दोलन नहीं खड़ा कर सकते। न तो उनमें ऐसा करने का दम रह गया है और न ही उतनी ऐसा करने की औकात रह गयी है। सीटू की ग़द्दारी की कहानी इतनी ही नहीं है। साहिबाबाद के एलाइड निप्पोन की घटना से लेकर ई.आई.डी. गाजियाबाद (जिसमें 300 से ज़्यादा मज़दूर अपनी उँगलियाँ कटवा चुके हैं) तक मज़दूर सीटू के नेताओं की दग़ाबाज़ी के शिकार हुए हैं। सीटू को अगर देश की ग़द्दार नम्बर वन ट्रेड यूनियन कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। बंगाल और केरल में जहाँ सीपीएम की सरकारें लम्बे-लम्बे समय तक रहीं वहाँ सीटू का मुख्य काम था मज़दूरों को इतना दबाकर रखना कि वे कुछ बोल ही न सकें।

ऐक्टू सीपीआई (एम.एल, लिबरेशन) की मज़दूर यूनियन है। यह पार्टी भी पिछले करीब तीस वर्ष से चुनावी राजनीति में है। अब ये सीपीआई, सीपीएम के साथ गठबन्धन करके चुनाव लड़ रही है। इसके विधायक ऐसे हैं जिन्हें कुछ पैसे देकर लालू यादव खरीद लेते हैं। चुनावी राजनीति के कीचड़ में लोट लगाते हुए उसका लाल रंग धुल चुका है। ऐक्टू की ग़द्दारी दिल्ली के करावलनगर में बादाम मज़दूरों के आन्दोलन और हाल में हुए वजीरपुर के गरम रोला मज़दूरों के आन्दोलन में दिखायी दी। करावलनगर के मज़दूरों ने वहाँ ऐक्टू के स्थानीय नेता को भगा दिया और अब वह नेता नीतीश कुमार की पार्टी में शामिल हो गया है। भवन निर्माण से जुड़े मज़दूरों का जो सरकारी कार्ड बनाया जा रहा है उसमें भी इनके स्थानीय नेता मज़दूरों से 500-1000 रुपये तक वसूलते हैं, जबकि कार्ड बनवाने का सरकारी ख़र्च मात्र पच्चीस रुपये है। इनके अलावा छोटी-छोटी स्थानीय यूनियनें भी अपनी दुकानदारी चला रही हैं। इन सबका एक ही काम है थोड़ी-बहुत रस्म अदायगी करना और अन्दरखाने मालिकों की सेवा में जुटे रहना। ट्रेड यूनियन वर्ग संघर्ष के लिए मज़दूरों की प्रारम्भिक पाठशाला है और इसके माध्यम से उन्हें राजनीतिक तौर पर प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। यूनियन मज़दूरों को संगठित करने, उनमें वर्ग चेतना जगाने और उनके आर्थिक हितों की रक्षा करने के लिए भी है। लेकिन ये तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें मज़दूरों से ग़द्दारी कर चुकी हैं। इसलिए मज़दूर आन्दोलन को बिखराव और हताशा के दलदल से निकालकर एक क्रान्तिकारी दिशा और जुझारू धार देने के वास्ते इन धन्धेबाज़ों और दलालों का पर्दाफाश करना और मज़दूर वर्ग के बीच से इनको जड़मूल समेत उखाड़कर फेंक देना ज़रूरी है।

 

 

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर 2014

 


 

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