सावधान! कहीं आप मालिकों की भाषा तो नहीं बोल रहे?

तपीश मैन्दोला

एक पुरानी लेकिन प्रसिद्ध कहावत है – ‘डूबते को तिनके का सहारा’। मगर काश कि तिनके डूबते हुए लोगों को सचमुच में बचा पाते। सुरसा के मुँह की तरह फैलती महँगाई, बढ़ती बेरोज़गारी, अमीर-ग़रीब का बढ़ता अंतर, जहरीली होती हवा और पानी तथा शोषण की बढ़ती हुई रफ्तार के भँवर में फंसे आम मेहनतकश जन दु्र्भाग्य से झूठ-मूठ की आशा के तिनकों के सहारे इस संकट से उभरने की बचकाना उम्मीदें पाले बैठे हैं। बात यह नहीं है कि मज़दूर और आम मेहनतकश जन बुद्धिहीन हैं या बातों को सुनते-समझते नहीं हैं। असली समस्या यह है कि वो अपने आस-पास की दुनिया, अर्थव्यवस्था तथा राजनीति में होने वाले हर छोटे-बड़े बदलाव को मालिक वर्ग के नज़रिये से देखने की आदत के गुलाम हैं। इसी लिए मज़दूर वर्ग तथा अन्य मेहनतकश संसदीय नेताओं और चुनावी पार्टियों द्वारा उछाले जाने वाले नारों के वास्तविक मर्म को समझने में असफल रहते हैं और काफ़ी समय बीतने के बाद ही सच्चाई को समझ पाते हैं। तब तक मौका उनके हाथ से निकल चुका होता है।

अभी हाल के महीनों में भाजपा की मोदी सरकार ने श्रम क़ानूनों में कई बड़े बदलाव किए हैं। मीडिया, नेता और पूँजीपतियों सहित सारा धनिक समाज इन क़ानूनी परिवर्तनों के बाद खुशी से गिल्ल है। दावा किया जा रहा है कि अब करोड़ों की संख्या में नये रोज़गार पैदा होंगे, मज़दूरों की आमदनी बढ़ेगी, उत्पादन बढ़ेगा और समाज में खुशहाली आयेगी। अगर पाठकों को याद हो तो 1990-91 में नरसिंह राव की कांग्रेसी सरकार के समय नयी आर्थिक नीतियों को लागू करते वक़्त देश की जनता को यही सबकुछ बताया-सिखाया गया। लेकिन असलियत में हुआ यह कि पिछले 24 सालों में सारा विकास और सम्पन्नता देश के ऊपरी 15-20 करोड़ लोगों तक ही सीमित होकर रह गयी। आबादी के सबसे बड़े हिस्से यानी मज़दूर, ग़रीब किसान, निम्न मध्यवर्ग को इस विकास की जूठन से ही संतोष करना पड़ा है। कांग्रेस की सरकार यह बात समझती थी और उसे इस बात का भी अन्देशा था कि अगर आर्थिक सुधारों के नाम पर ऊपर की मुट्ठीभर आबादी द्वारा मज़दूरों-मेहनतकशों के श्रम को लूटने का काम इसी गति से जारी रहा तो देश में जन-असंतोष भी फैल सकता है। इसी लिए अपने शासन के अन्तिम वर्षों में उसने इस बेलगाम लूट की रफ्तार को एक हद तक धीमा करने की कोशिश की। पूँजीपति वर्ग की सबसे पुरानी और वफ़ादार पार्टी से भला और क्या उम्मीद की जा सकती थी। कांग्रेस की इन कारगुज़ारियों के दो परिणाम निकले। पहला यह कि धनी समाज और पूँजीपति वर्ग कांग्रेस से नाराज़ हो गया। दूसरा, महँगाई तथा जीवन के लगातार कठिन होते हालातों के कारण आम जनता भी कांग्रेस से रूठ गयी। ठीक इन्हीं हालातों का फायदा उठाते हुए भाजपा ने मोदी के नेतृत्व में “विकास”, “सुशासन”, “चुस्त” सरकार और “अच्छे दिन आयेंगे” जैसे नारे उछाले। जनता को लगा कि मोदी देश के मेहनतकशों के लिए विकास और अच्छे दिनों का वायदा कर रहे हैं। उन्हें लगा कि सुशासन और चुस्त सरकार बनाने का लक्ष्य आम जनता की सेवा करना है। दिमागी गुलामी की बेड़ियों में जकड़े हुए आम जन भला इससे इतर सोच भी क्या पाते। पूँजीपति वर्ग अच्छी तरह जानता था कि मोदी असल में पूँजी के विकास, पूँजी के लिए सुशासन तथा पूँजी के लिए ही अच्छे दिनों को लौटाने का वायदा कर रहे हैं। थोड़े में कहा जाए तो सारे वायदे पूँजीपतियों से किए गये थे न कि जनता से। मोदी की 100 दिन की सरकार ने साबित कर दिया है कि वो देशी-विदेशी पूँजी की सेवा में दिनों-रात पसीना बहा रहे हैं।

यहाँ यह जानना दिलचस्प होगा कि चुनाव से पहले और फिर भाजपा सरकार के गठन के बाद देश का पूँजीपति वर्ग और उनकी शीर्ष संस्थाएँ मोदी तथा सरकार से क्या-क्या माँग कर रही थीं। इस संबंध में हम अपने-आपको श्रम क़ानून तथा अर्थव्यवस्था के दायरे तक ही सीमित रखेंगे। इसके साथ ही यह भी जानना-समझना ज़रूरी है कि आखिर देश और दुनिया के हालातों में वे कौनसे परिवर्तन हुए हैं जिनके कारण सारा पूँजीपति वर्ग और उसके लग्गू-भग्गू श्रम क़ानूनों में बदलाव की माँगें उठा रहे हैं और हम देख रहे हैं कि वास्तव में ये बदलाव किए भी जा रहे हैं।

आज हमारे देश में 44 केन्द्रीय श्रम क़ानूनों के साथ-साथ 100 से अधिक राज्य स्तरीय श्रम क़ानून अस्तित्व में हैं। इन क़ानूनों के निर्माण की शुरुआत ब्रिटिश काल में ही हो चुकी थी। अगर विश्व के पैमाने पर देखें तो श्रम क़ानूनों का जन्म पूँजीवादी उत्पीड़न के खि़लाफ़ मज़दूरों के जुझारु संगठित संघर्षों के साथ जुड़ा हुआ है। 1886 का शिकागो मज़दूर आन्दोलन, जिसने मई दिवस को जन्म दिया, इस मायने में मील का पत्थर साबित हुआ। इसके बाद से ही मज़दूर आन्दोलनों के दबाव में पूँजीवादी सरकारों को तेज़ गति से श्रम क़ानूनों का निर्माण करना पड़ा। यहाँ यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि आज हम श्रम क़ानूनों को जिस रूप में देखते समझते हैं उनका निर्माण द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के वर्षों में शुरू हुआ। इससे पहले के क़ानूनों में मज़दूर और मालिक के बीच का संबंध आम तौर पर बेहद लचीला रखा जाता था और उसे क़ानूनी दायरे से बाहर माना जाता था। सीधी-साधी भाषा में कहें तो मालिक मज़दूरों को अपनी ज़रूरत मुताबिक़ काम पर रखते थे और काम ख़त्म होने पर उन्हें उतनी ही आसानी से निकाल दिया करते थे। लेकिन विश्वयुद्ध के बाद पहली बार ऐसे क़ानून बनाये गये जिनमें रोज़गार की सुरक्षा के प्रावधान थे। अब मालिक महीने भर की नोटिस और हरजाना दिये बिना मज़दूरों को काम से न निकाल सकते थे। मज़दूरों को यह अधिकार भी मिला कि वो गलत तरीकों से निकाले जाने पर मालिकों के खि़लाफ़ श्रम अदालतों में जा सकें और उनपर मुक़दमा कर सकें। ऐसा नहीं था कि मालिकों या सरकारों ने मज़दूरों के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित करते हुए उन क़ानूनों को बनाया हो। असल में इन क़ानूनों को बनाने के पीछे दो कारण सक्रिय थे। पहला राजनीतिक कारण था और दूसरा अधिक बुनियादी आर्थिक कारण था। राजनीतिक कारण यह था कि पूरी दुनिया के पूँजीपति कम्युनिस्ट सत्ताओं यानी मज़दूरों द्वारा शासन, सत्ता और अर्थव्यवस्था की बागडोर अपने हाथों में लिए जाने की घटनाओं से बूरी तरह डरे हुए थे। “लाल आतंक” का डर उन्हें सोने नहीं देता था इसीलिए अपने-अपने देश के मज़दूरों का शोषण जारी रखते हुए भी उनके लिए कुछ रियायतें देना ज़रूरी हो गया था। दूसरा कारण उस समय की पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली से जुड़ा हुआ था। यह वह समय था जब उद्योग की नयीं-नयीं शाखाओं का विकास हो रहा था। नयीं मशीनें काफ़ी आधुनिक होते हुए भी इस तरह से बनी थीं कि उन्हें चलाने का हुनर साधना आसान काम न था। काफ़ी मेहनत और समय ख़र्च करने के बाद ही कुशल कारीगरों की एक पीढ़ी तैयार हो पाती थी। ऐसे में मज़दूरों को काम से निकाल बाहर करना मालिकों के लिए घाटे का सौदा था। इन कारणों से श्रम क़ानूनों में रोज़गार सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा, महँगाई भत्ता, छुट्टियों का प्रावधान, काम के घंटों का सख्ती से नियंत्रण आदि कई प्रावधान शामिल किए गये। यह अलग बात है कि सहूलियतें हासिल होने के बाद मज़दूरों ने अपने आन्दोलन के जुझारुपन और क्रान्तिकारी चेतना को गँवाकर इन सुधारों की कीमत भी चुकाई।

समय मज़दूरों के लिए ठहरा नहीं रह सकता था। पूँजीवादी उत्पादन लगातार विकसित होता रहा और मुनाफ़े की अन्धी हवस ने उसे नयी-नयी तक्नोलोजी और अत्याधुनिक मशीनों के निर्माण के लिए प्रेरित किया। उधर क्रान्तिकारी चेतना से रिक्त मज़दूर आन्दोलन कमज़ोर होकर बिखरने लगा था। मज़दूर सत्ताएँ भी वर्ग संघर्ष के पहले चक्र की शुरुआती सफलताओं के बावजूद अपनी बढ़त को कायम न रख सकीं। विश्व इतिहास में मज़दूरों द्वारा शासन-सत्ता सँभालने का यह पहला अवसर था। इस विकट वर्ग संघर्ष के दौरान उनसे कई राजनीतिक ग़लतियाँ भी हुईं। समय रहते इन राजनीतिक भूलों को न सुधार पाने के परिणामस्वरूप वे अपने शासन-सत्ता की रक्षा न कर सके। इस तरह पूरी दुनिया के पैमाने पर मज़दूर सत्ताओं को पीछे की ओर क़दम हटाने पड़े। 1970 का दशक आते-आते पूँजीवाद अपने आर्थिक संकटों में बूरी तरह फंस चुका था लेकिन मज़दूर आन्दोलन की ओर से चुनौती भी करीब-करीब ख़त्म हो रही थी। पूँजीवाद के सामने अतिरिक्त उत्पादन यानी मन्दी का भयानक संकट था। इस संकट से उबरने के लिए ज़रूरी था कि पूँजी नये बाज़ारों की तलाश करती यानी वहाँ पूँजी निवेश किया जाता जहाँ अभी भी इसकी गुँजाइश बाकी थी। दूसरे, मज़दूरों के श्रम को ज़्यादा से ज़्यादा निचोड़ने की आज़ादी भी ज़रूरी थी क्योंकि तभी गिरते हुए मुनाफ़े की दरों को बढ़ाया जा सकता था। यह वही समय था जब दुनिया के तमाम पूँजीवादी देश आपसी झगड़ों और खींचातानी के बावजूद पूँजी की आवाजाही को आसान बनाने के लिए पुराने क़ानूनों को बदल रहे थे और नयी व्यवस्था का निर्माण कर रहे थे। इसके तहत विदेश व्यापार, वित्त व्यवस्था, विदेशी पूँजी निवेश तथा श्रम क़ानूनों के पुराने ढाँचों में बदलाव किए जाने लगे। हमारे देश में इन तथाकथित सुधारों की तैयारी 1980 के दशक से ही होने लगी थी। 1990 में इन्हें उदारीकरण-निजीकरण के नाम से देश भर में जारी कर दिया गया। आज मोदी की सरकार जिन श्रम क़ानूनों को बदलकर पूँजीपतियों की वाहवाही लूट रही है असल में उसकी पूरी तैयारी का काम कांग्रेस के शासन काल में ही हो चुका था। मज़दूरों को यह भी समझना होगा कि पिछले कुछ दशकों में पूँजीवादी उत्पादन में ऐसे कई बदलाव हुए हैं जिनके कारण पूँजीपति वर्ग को श्रम क़ानूनों की ज़रूरत यूँ भी नहीं रह गयी है। यही वजह है कि वो इस मसले पर इतना अधिक शोर मचा रहे हैं। आज से 50 साल पहले की अपेक्षा आज एक मज़दूर को तैयार करने की कीमत काफ़ी कम हो चुकी है। उत्पादन का ज़्यादातर काम ऑटोमैटिक या सेमी-ऑटोमैटिक मशीनों से होने लगा है। ऐसे में पूरी उत्पादन प्रक्रिया में मज़दूर की भूमिका में बदलाव आया है। अब उसे बेहद मुस्तैदी के साथ मशीन की तेज़ गति से तालमेल करते हुए मशीन की निगरानी का काम करना होता है या फिर ज़्यादातर समय उत्पादन प्रक्रिया के एक छोटे से हिस्से की देख-रेख करनी होती है। घंटों तक लगातार खड़े रहकर पूरे चौकन्नेपन के साथ काम करने का गुण आज कौशल से भी अधिक उपयोगी बन गया है और उतनी ही आसानी से हासिल भी किया जा सकता है। हालांकि आज भी उद्योग के ऐसे क्षेत्र मौजूद हैं जहाँ हुनरमन्द मज़दूरों की ज़रूरत पड़ती है और वहाँ उनके बिना उत्पादन सम्भव नहीं है। इसी लिए पूँजीपतियों को स्थायी मज़दूर रखने की या तो ज़रूरत ही नहीं रह गयी है या फिर उनकी ज़रूरत पहले के मुकाबले काफ़ी कम हो गयी है।

आज मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार पूँजीपति वर्ग और धनिक तबकों की इस ज़रूरत को सबसे अधिक समझ रही है और जी-जान से उनकी ज़रूरतों को पूरा करने में लगी है। इसी लिए सभी सरकारी दफ्तरों और मन्त्रालयों को विशेष निर्देश जारी किए गये हैं ताकि कोई भी काहिल मंत्री, विभाग, अधिकारी या कर्मचारी नयी आर्थिक नीतियों तथा सुधारों की गति को धीमा न कर सके। चुनाव से पहले ही फिक्की (पूँजीपतियों की सबसे बड़ी संस्था) ने नरेन्द्र मोदी को एक कार्यसूची सौंपी थी उसमें बहुत सी माँगों के साथ यह माँग भी शामिल थी कि नयीं सरकार फ़ैक्टरी क़ानून 1948, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 तथा ठेका प्रथा क़ानून में तत्काल बदलाव करे। 1 जुलाई 2014 को फिक्की ने कपड़ा मंत्री को संबोधित एक पत्र में लिखा – “सिलाई उद्योग की मौसमी (सीज़नल) प्रकृति को देखते हुए ओवरटाइम की समय सीमा बढ़ाये जाने की ज़रूरत है।” इसी पत्र में यह भी कहा गया कि – “मज़दूरों को काम पर रखने और निकाले जाने की पूरी आज़ादी होनी चाहिए।” पूँजीपतियों ने ट्रेड यूनियन बनाने की प्रक्रिया को पहले से ज़्यादा कठिन बनाने और मज़दूरों द्वारा मालिकों पर किए जाने वाले मुक़दमों की संख्या पर लगाम लगाये जाने की भी माँग की।

मोदी सरकार इनमें से सभी माँगों को मान चुकी है। इन तथाकथित सुधारों के बाद फिक्की ने देश के उद्योगपतियों का एक सर्वेक्षण करवाया। इसके नतीजों में यह बात सामने आयी कि 93 प्रतिशत उद्योगपतियों को मोदी की नीतियों पर पूरा भरोसा है। यही कारण है कि पूरा कॉरपोरेट मीडिया, अख़बार, धनिक समाज और पूँजीपति वर्ग मोदी की माला जप रहा है। यहाँ यह ध्यान रखने की ज़रूरत है कि मामला भाजपा या कांग्रेस का नहीं है बल्कि आज हर रंग की चुनावी पार्टीआर्थिक नीतियों के मामले पर पूँजीपति वर्ग के साथ एकमत है। ऐसे में अगर मज़दूर और आम मेहनतकश आबादी इन चुनावी मदारियों से किसी भी किस्म की उम्मीदें लगाती है तो इसे कहा जाये? यह बताते चलें कि 2008 की मन्दी से उबरने के लिए जर्मनी ने भी श्रम क़ानूनों में बदलाव किए थे। इसके परिणामस्वरूप वहाँ की मज़दूरियों में गिरावट आयी और जर्मनी के पूँजीपतियों का माल विश्व मण्डी में फिर से होड़ करने लगा। यही हाल स्पेन, इटली, ग्रीस आदि यूरोप के कई मुल्कों में देखा गया।

स्पष्ट है कि देश का पूँजीपति वर्ग राजनीतिक तौर पर बेहद जागरूक और संगठित है। उसे पता है कि अपने वर्ग के आम हितों की रक्षा कैसे की जाती है। अब दारोमदार इस बात पर है कि हमारे देश के मज़दूर भी अपने साझा वर्ग हितों को समझने की शुरुआत कब तक करेंगे। हालांकि इसके समय की भविष्यवाणी करना तो काफ़ी कठिन है लेकिन एक बात तय है कि उनके पास गँवाने के लिए बहुत अधिक वक़्त नहीं है।

 

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर 2014

 


 

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