हर देश में अमानवीय शोषण-उत्पीड़न और अपमान के शिकार हैं प्रवासी मज़दूर

लता

जब घर पर कुछ नहीं बचता सिवाय भूख, ग़रीबी, बीमारी, तंगहाली और बेरोज़गारी के, तो बेबस होकर मेहनतकश आबादी घर, गाँव, शहर और अपने लोगों को छोड़कर रोज़गार की तलाश में महानगरों या औद्योगिक क्षेत्रों की ओर पलायन करती है। कुछ लोग ज़्यादा बेहतर भविष्य की तलाश में दूसरे देश चले जाते हैं। देश हो या विदेश, प्रवासी मज़दूरोंकी ज़िन्दगी कहीं भी अच्छी नहीं होती। पराये मुल्क या पराये माहौल में रह रही इस मेहनतकश आबादी को अपने घर-परिवार की हालत, जिम्मेदारियों का बोझ हर पल सालता रहता है। जैसा भी काम मिलता है उसे करने के सिवा इनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता। निश्चित ही इनसे काम कराने वालों को भी यह बात पता होती है। इसलिए ये प्रवासी मज़दूर भयंकर शोषण और उत्पीड़न का शिकार होते हैं। कई मामलों में तो दलाल, एजेन्ट या तस्कर इन्हें फुसलाकर, बेहतर ज़िन्दगी के सपने दिखाकर दूर दूसरे शहर या देश ले जाते हैं और फिर ऐसे बेरहम मालिकों के हवाले कर देते हैं जो फैक्ट्रियों में, होटलों में या घरों में इन्हें गु़लामों की तरह खटाते हैं, जानवरों से भी बदतर हालत में रखते हैं। बहुत-सी औरतों को नर्स या आया बनने के सपने दिखाकर ले जाया जाता है पर उन्हें वेश्यावृत्ति में धकेल दिया जाता है। प्रवासी मज़दूरों से बारह-बारह, सोलह-सोलह घंटे काम कराना आम बात है, सुपरवाइज़रों की गन्दी गालियाँ, छोटी-छोटी बातों पर पगार से पैसे काट लेना, बीमार होने पर देखभाल और इलाज तो दूर सीधे नौकरी से निकाल दिया जाना आम बात है। जोखिम भरे कारख़ानों या वर्कशॉपों में बिना किसी सुरक्षा उपकरण के ख़स्ताहाल मशीनों पर लम्बे समय तक काम कराया जाता है, जिसके चलते मज़दूरों के साथ दुर्घटना होना मानो उनके काम का हिस्सा बन जाता है। कोई भयंकर दुर्घटना होने पर मुआवज़ा भी नहीं मिलता और कई बार तो मौत हो जाने पर लाश तक ग़ायब कर दी जाती है।

प्रवास, यानी एक जगह से दूसरी जगह जाकर रहना, काम करना, हमेशा से मानव इतिहास का हिस्सा रहा है। लेकिन मध्ययुगीन समाज की तुलना में पूँजीवादी समाज में प्रवास का चरित्र भिन्न होता है। आज जो प्रवास हो रहा है वह ज़मींदारों के भय से बँधुआ मज़दूरों का प्रवास या अमानवीय सामाजिक रीति-रिवाजों से बच निकलने के लिए किया गया प्रवास नहीं है। आज गाँवों में पूँजी की मार से ग़रीब किसान अपनी जगह-ज़मीन से उजड़ रहे हैं और जीने के लिए किसी भी काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। देश के पिछड़े और ग़रीब हिस्सों से महानगरों की ओर प्रवास एक आम बात है। एजेन्ट और दलाल इन ग़रीब और पिछड़े हिस्सों में सबसे ज़्यादा सक्रिय होते हैं। इसके अलावा पूरी दुनिया में पिछड़े हुए देशों से रोज़गार की तलाश में ग़रीब लोग अमीर मुल्कों में जाकर खट रहे हैं। आज मेहनतकश आबादी मुक्त है अपनी हड्डि‍याँ घिसवाने, अपना ख़ून निचुड़वाने को और अपना माँस गलाने को। वह किसी ज़मींदार से बँधी नहीं है। वह आज़ाद है अपना श्रम बेचने को।

कतर में प्रवासी निर्माण मज़दूर

कतर में प्रवासी निर्माण मज़दूर

विदेशों में काम करने वाले प्रवासी मज़दूर काम और जीने की तमाम बदतर परिस्थितियों के साथ ही कुछ दूसरी परेशानियों का भी सामना करते हैं, जैसे भाषा और संस्कृति का भेद। खाड़ी देशों में भारत, पाकिस्तान और नेपाल से गये प्रवासी मज़दूर और चीन से यूरोपीय देशों में गए प्रवासी मज़दूरों को इसका सामना करना पड़ता है साथ ही रंगभेद संबंधी अपमान और हिंसा भी झेलनी पड़ती है। विदेशों में भी प्रवासी मज़दूरों की दो श्रेणियाँ हैं – क़ानूनी प्रवासी मज़दूर और ग़ैर-क़ानूनी प्रवासी मज़दूर। ग़ैर-क़ानूनी प्रवासी मज़दूरों की स्थिति ज़्यादा जोखिमभरी और ख़तरनाक होती है क्योंकि किसी भी अधिकार का दावा करने के लिए इनके पास कोई ज़मीन नहीं होती और तो और ये हमेशा पकड़े जाने के भय में जीते हैं जिसका फ़ायदा इनसे काम कराने वाले उठाते हैं।

प्रवासन के लिए अन्तरराष्ट्रीय संगठन (आईओएम) की एक रिपोर्ट के अनुसार अभी पूरे विश्व में प्रवासियों की कुल संख्या 23 करोड़ 20 लाख है। निश्चित ही प्रवासियों की वास्वविक संख्या इससे कहीं ज़्यादा होगी। यदि इसमें ग़ैर-क़ानूनी प्रवासियों को शामिल किया जाये तब तो यह संख्या बहुत अधिक होगी।

हम इस लेख में आम मेहनतकश आबादी के प्रवास की बात कर रहे हैं। खाते-पीते मध्यवर्ग और उच्च मध्य वर्ग के जो लोग अपना देश छोड़कर दूसरे देशों में काम करने जाते हैं उनके लिए यह वैसा ही है जैसेकि अगर कोई तीन सितारा होटल से सन्तुष्ट नहीं हैं तो पाँच सितारा होटल जाना चाहता है। लेकिन आम मेहनतकश आबादी के लिए प्रवास के बुनियादी कारण होते हैं आर्थिक तंगी, ग़रीबी, बीमारी, बेरोज़गारी आदि। इसके अलावा ऐसे भी देशों से लोग भारी तादाद में प्रवास करते हैं जहाँ राजनीतिक अस्थिरता लगातार बनी रहती है। लम्बी राजनीतिक उथल-पुथल और युद्ध की वजह से उद्योग-धन्धे उजड़ जाते हैं। फिलिस्तिीन, सीरिया, तुर्की, अफ्रीकी देश सोमालिया, इरीट्रिया आदि इनमें शामिल हैं। इन देशों की ग़रीब आबादी मिस्र के तट से भूमध्यसागर को ग़ैरक़ानूनी रूप से पारकर यूरोप पहुँचने का प्रयास करती है। यूरोप के लगातार सख़्त होते आप्रवासन क़ानूनों के कारण प्रवासी मज़दूरों के लिए बड़ी संख्या में यूरोप में क़ानूनी तौर पर प्रवेश कर पाना बेहद कठिन है। मजबूरन दूभर आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियों की मार झेल रही जनता को जान जोख़ि‍म में डाल कर ख़तरनाक समुद्री रास्तों से यूरोप के देशों में पहुँचने का प्रयास करना पड़ता है। ग्यारह बार भूमध्यसागर के रास्ते यूरोप जाने का प्रयास कर चुके सीरियाई मज़दूर मोताज ने अपने जैसे दूसरे मज़दूरों की हालत को एक कहावत से सही बयान किया है – “आगे समुद्र है और पीछे दुश्मन”।

आईओएम की एक रिपोर्ट के अनुसार भूमध्यसागर के रास्ते यूरोप पहुँचने के प्रयास में वर्ष 2014 में सितम्बर माह तक 3000 मौतें हो चुकी हैं। पिछले 14 सालों में ग़ैर-क़ानूनी प्रवास के विभिन्न रास्तों (जैसे भूमध्यसागर, अमेरिका- मेक्सिको सीमा, ईरान-अफगानिस्तान सीमा आदि) पर 40,000 प्रवासी मज़दूरों की जानें जा चुकी हैं जिनमें औरतें और बच्चे भी शामिल हैं। अकेले 22,000 लोगों की मौत यूरोप के रास्ते में हो चुकी है। यदि सभी रास्तों पर होने वाली मौतें देखी जाय तो इस साल सितम्बर महीने तक 4,077 जानें जा चुकी हैं। वास्तविक संख्या इससे कहीं ज़्यादा ही होगी इसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल नहीं है।

एक बात तो तय है कि गु़लामों के व्यापार के युग से आज के युग में मज़दूरों की हालत में बस इतना परिवर्तन आया है कि पहले लोगों को जबरन गु़लाम बनाया जाता था और आज पूँजीवादी व्यवस्था ने ऐसी परिस्थितियाँ तैयार कर दी हैं कि लोग ख़ुद गु़लामों जैसी ज़िन्दगी चुन रहे हैं क्योंकि उनके पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं होता। मार्क्स ने सही कहा था कि पूँजीवादी व्यवस्था में सर्वहारा आज़ाद है सिर्फ़ अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए!

सीरिया, तुर्की, लेबनान, अफ्रीकी देशों आदि से यूरोप में होने वाला प्रवास

सीरिया, तुर्की, फ़ि‍लिस्तीन, लेबनान, सब-सहारा अफ्रीका के देशों से बड़ी संख्या में मज़दूर आबादी यूरोप जाती है। इसमें ग़ैर-क़ानूनी प्रवासियों की संख्या बहुत अधिक होती है। इंग्लैण्ड में ग़ैर-क़ानूनी प्रवासियों की संख्या 430,000 है। कैनरी द्वीप पर सब-सहारा देशों से आने वाले ग़ैर-क़ानूनी प्रवासियों की संख्या वर्ष 2013 में 31,000 हज़ार थी जो वर्ष 2005 से छह गुना अधिक है। 2004-05 के बाद से सभी यूरोपीय देशों ने अपने आप्रवासन क़ानूनों को ज़्यादा सख़्त बनाया है। वर्ष 2012 में यूनान की सरकार ने ग़ैर-क़ानूनी प्रवासियों को पकड़ने का अभियान चलाया जिसमें 72 घण्टों के अन्दर 7,000 लोगों को गिरफ्तार किया गया था।

स्‍पेन पहूँच रहे अफ्रीकी मज़दूर

स्‍पेन पहूँच रहे अफ्रीकी मज़दूर

यूरोप में ग़ैर-क़ानूनी प्रवासी मज़दूरों की संख्या हर साल बढ़ रही है। ये मज़दूर दलालों और बिचौलियों को रास्ता तय करने के लिए बड़ी रक़म देते हैं। फिर ये मज़दूर कई बसें बदलकर मिस्र के किसी समुद्र तट पर पहुँचते हैं जहाँ से इन्हें कैनरी द्वीप या माल्टा या इटली के किसी तट तक जाने के लिए छोटे-छोटे जहाज़ों और नावों में ठूँस-ठूँसकर भर दिया जाता है। ये छोटी नावें या जहाज़ अक्सर समुद्र में इतनी लम्बी यात्रा करने के उपयुक्त नहीं होते और अक्सर ही ऐसे जहाज़ और नावें डूब जाती हैं जिसकी वजह से ज़्यादातर यात्रियों की मौत हो जाती है। इसके अलावा कई यात्रियों की घुटन से भी मौत हो जाती है। पिछले साल अक्टूबर में इटली में लाम्पेदूसा द्वीप के क़रीब नाव डूबने से 366 प्रवासी मज़दूर मारे गये थे। उसी वर्ष 15 सितम्बर को लाम्पेदूसा द्वीप के ही करीब प्रवासी मज़दूरों से भरे एक जहाज को तस्करों ने जबरन डुबो दिया। अनुमान है कि मरने वालों की संख्या 500 से ज़्यादा होगी। मरने वालों में 100 बच्चे भी थे। उसी दिन एक और नाव डूबने की घटना में 200 प्रवासी मज़दूर मारे गए। सवाल ये है कि मज़दूर आख़ि‍र इतने जोख़ि‍म भरे, ख़तरनाक समुद्री रास्ते पर यात्रा करने को मजबूर ही क्यों हैं? क्या वजह है कि अपना देश छोड़कर अपरिचित भाषा और संस्कृति वाले अमीर यूरोपीय देशों में जाना चाहते हैं? इस दुर्घटना में बचने वाले एक नौजवान मज़दूर ने बताया कि वह यूरोप जाना चाहता था ताकि वह पैसे कमाकर अपने पिता की दिल की बीमारी के इलाज के लिए पैसे घर भेज सके।

यूरोप पहुँचने के बाद यह मज़दूर आबादी वे सभी कठिन मेहनत वाले काम आती है जिसे यूरोपीय मज़दूर या तो करना नहीं चाहते या फिर यूरोपीय मज़दूरों को इसके लिए मज़दूरी बहुत अधिक देनी पड़ती है। कृषि उद्योग में कमरतोड़ मेहनत हो या कारख़ानों का सबसे उबाऊ काम इनके हिस्से आता है। ये मज़दूर सोलह-सोलह घण्टे की पाली में काम करते हैं और कई बार तो ये लगातार 24 घण्टे सबसे मुश्किल और खराब परिस्थितियों वाले काम करते हैं। इनकी मज़दूरी यूरोपीय मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी की तुलना में नगण्य होती है। इतना ही नहीं इन्हें पैसे समय पर नहीं मिलते और जो कुछ मिलता भी है उसका बड़ा हिस्सा दलालों के कमीशन, कमरे के किराये और भोजन में चला जाता है।

ऑस्ट्रिया, जर्मनी, इंग्लैण्ड आदि देशों में तुर्क, कुर्द और सीरियाई मज़दूर आबादी अक्सर ही घृणा, अपमान और नस्लभेद का शिकार होती है। इन्हें बढ़ते अपराधों, नशीले पदार्थों की तस्करी आदि के लिए वहाँ की मूल आबादी जिम्मेदार मानती है। हाल ही में नव-नाज़ी गिरोहों के उभार से इन पर जानलेवा हमले भी बढ़े हैं। यह आबादी न केवल निकृष्टतम काम सर्वाधिक असुरक्षित माहौल में करती है बल्कि सामाजिक अलगाव, अपमान और हिंसा का भी शिकार होती है। यह है पश्चिमी पूँजीवादी देशों के चमकते-दमकते स्वर्ग के तलघर की कहानी (हालाँकि लम्बे समय से कायम आर्थिक मन्दी ने इस स्वर्ग की भी नींव हिलाकर रख दी है)।

यूरोप में चीनी प्रवासी मज़दूर

चीन में मज़दूरों का राज आज पूँजी के बर्बर राज में तब्दील हो चुका है। कम्युनिस्ट पार्टी के नाम पर वहाँ शासन कर रहे पूँजीवादी हुक़्मरानों ने माओ के देश में मज़दूरों और ग़रीब किसानों की ऐसी हालत कर दी है कि बड़ी संख्या में वहाँ से मज़दूर यूरोपीय देशों में रोज़गार की तलाश में जा रहे हैं। ये क़ानूनी और ग़ैर-क़ानूनी दोनो श्रेणी के होते हैं। एजेंट अक्सर इन मज़दूरों को पर्यटक वीज़ा दिलाते हैं। यूरोप पहुँचकर इन्हें फर्जी पहचान पत्र दिया जाता है। ये मज़दूर वीज़ा, पासपोर्ट और टिकट के खर्चे की रकम लम्बे समय तक अपनी मज़दूरी से चुकाते रहते हैं। अक्सर दलाल या एजेंट इनके पासपोर्ट और वीज़ा जब़्त कर लेते हैं। इसकी वजह से मज़दूर इन एजेंट या दलालों से बँध जाते हैं जो उनका जमकर शोषण करते हैं। पर्यटक वीज़ा पर आये मज़दूर यूरोप के देशों में गुमनाम होते हैं।

कुछ वर्ष पहले इस तरह के 36 ग़ैर-क़ानूनी चीनी मज़दूरों का एक समूह मोरकम खाड़ी तट पर कोकल (एक तरह का समुद्री भोज्य पदार्थ) एकत्र करते समय समुद्री लहरों की चपेट में आकर बह गया। मोरकम खाड़ी अपने प्रबल ज्वार-भाटा के लिए बदनाम है। देर रात मज़दूरों के एजेंट इन्हें दलदली तट पर कोकल इकठ्ठा करने के लिए छोड़ जाते थे और स्वयं कसीनो, पब आदि में मस्ती करते थे। स्थानीय लोगों ने उस रात मज़दूरों को आगाह करने का प्रयास किया था लेकिन भाषा नहीं समझ आने की वजह से ये मज़दूर कुछ भी समझ नहीं पाये। ग़ैर-क़ानूनी प्रवासी मज़दूरों के काम करने की अमानवीय परिस्थितियों के उजागर होने के बाद इंग्लैण्ड की सरकार ने आप्रवासन क़ानूनों और नीतियों को और सख़्त कर दिया। प्रवासी मज़दूरों के लिए अंग्रेज़ी भाषा की परीक्षा पास करना अनिवार्य कर दिया गया। लेकिन इन क़ानूनी उपायों से मज़दूरों की  स्थिति में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं आया है उल्टे दलालों और तस्कर गिरोहों के हाथ ज़रूर मज़बूत हो गए। चीनी प्रवासी मज़दूरों का बड़ा हिस्सा मज़दूरी के अन्य कामों के अलावा रेस्तरां और होटलों में काम करता है। यहाँ काम करने की बुरी परिस्थितियों, कम मज़दूरी और काम के लम्बे समय के अलावा कदम-कदम पर उनका अपमान होता है। आप्रवासन नीतियों के सख़्त होने की वज़ह से अब ये प्रवासी मज़दूर पूरी तरह दलालों और गिरोहों की गिरफ्त में आ जाते हैं।

खाड़ी देशों में प्रवासी मज़दूर

“रहने में थोड़ा कष्ट होगा लेकिन पैसे तो बेशुमार मिलेंगे!” यह सोचकर 1970 के बाद तेल उत्पादन में आये उछाल के समय दक्षिण एशिया, अफ्रीका और अरब देशों से प्रवासी मज़दूरों का बड़ी मात्रा में खाड़ी देशों में आने का सिलसिला शुरू हो गया। आज खाड़ी देशों में 2 से 3 करोड़ के बीच प्रवासी मज़दूर हैं जिनमें भारत, पाकिस्तान और नेपाल से आये मज़दूरों की संख्या सबसे ज़्यादा है। खाड़ी देश मज़दूरों के साथ अपने दुर्व्यवहार के लिए बदनाम हैं। इसके बावजूद यूरोपीय संस्थान और कम्पनियाँ इन्हें अपनी फ्रेन्चाइज़ी दे रही हैं और कतर फुटबॉल विश्व कप 2022 की मेज़बानी कर रहा है। मानवाधिकरों का शोर मचाने वाले पश्चिमी देशों को इन मज़दूरों के मानवाधिकारों की परवाह नहीं है!

भारत, नेपाल तथा अन्य देशों से आये प्रवासी मज़दूर खाली जेब, कर्ज़ और घर पर छोड़ आयी ढेरों ज़िम्मेदारियों के साथ खाड़ी देशों की ज़मीन पर कदम रखते हैं। वहाँ पहुँचते ही उनके वीज़ा और पासपोर्ट दलाल जब़्त कर लेते हैं। उन्हें आकर्षक नौकरियों का जो सपना दिखाकर लाया जाता है वह यहाँ पहुँचते ही टूट जाता है। इसके उलट उन्हें घण्टों कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती है और बदलें में मिलती है बेहद कम मज़दूरी। कइयों को तो बढ़िया नौकरी का सपना दिखाकर ले जाया जाता है और उनसे ऊँट या भेड़ें चराने का काम कराया जाता है। उनके चारों ओर दूर-दूर तक वीरान रेगिस्तान पसरा होता है। बातें करने के लिए एक इंसान नहीं होता। न ढंग से खाना मिलता है और न ही नहाने की इजाज़त। इस त्रासद स्थिति को बहरीन में रहने वाले एक मलयाली उपन्यासकार बेनियामिन ने अपने उपन्यास ‘अदुजीवितम’ (भेड़ के दिन) में दर्शाया है।

अबु धाबी तट से 500 मीटर की दूरी पर स्थित एक टापू है जिस पर सिवा रेत और कछुओं के कुछ नहीं होता था, लेकिन मानव श्रम आज उसे विश्व के विशालतम बौद्धिक, सांस्कृतिक और ऐश्वर्य के केन्द्र में बदलने में लगा हुआ है। यह विश्व की सबसे विशाल निर्माण योजना है जिसकी लागत 27 बिलियन डॉलर है और जिसे 2020 तक पूरा किया जाना है। इसमें अमेरिका के प्रसिद्ध गुगेनहाइम और फ्रांस के लूव्र संग्रहालय और न्यूयार्क विश्वविद्यालय की शाखाओं का निर्माण शामिल है। इस टापू का नाम ‘सादियात द्वीप’ रखा गया है जिसका अरबी भाषा में अर्थ होता है ‘खुशी का द्वीप’, हालाँकि इसके निर्माण में अब तक न जाने कितने मज़दूरों की जान जा चुकी है, और कितने अपाहिज और बीमार हुए हैं इसकी कोई गिनती ही नहीं है। यहाँ श्रम क़ानूनों का उल्लंघन तो आम बात है, पिछली बार हड़ताल करने पर मज़दूरों को भयंकर दमन और उत्पीड़न झेलना पड़ा। तीन महीने की छान-बीन के बाद निरीक्षकों ने पाया कि यहाँ रोज़गार नियुक्ति की एकतरफा व्यवस्था है, कई मज़दूरों को डराया, धमकाया और पीटा गया है, हड़ताल तोड़ने का प्रयास किया गया, दंगे उकसाये गये और हड़ताली मज़दूरों को पहले बिना मेहनताना तीन-तीन महीनों तक काम करवाया गया और फिर वापस उनके देश भेज दिया गया। एक मज़दूर, मोहम्मद आरिफ का एक पैर ऐशो-आराम से भरपूर एक विला बनाने के दौरान कट गया था। एक साल तक उसे लेबर कैम्प में 10वीं मंजिल पर रहने को मजबूर किया गया जिसे वह बैसाखी के सहारे चढ़ता-उतरता और एक साल बाद उसके नकली पैर भी उसके नियोक्ता ने नहीं लगवाये बल्कि किसी ख़ैराती संस्थान ने दिलवाये। लेबर कैम्प में छोटे-छोटे कमरों में 10-10 मज़दूरों को ठूँस दिया जाता है जिसमें खिड़कियाँ भी नहीं होती। ये लेबर कैम्प भी शहर से दूर होते हैं जहाँ पूरे शहर का कचरा डाला जाता है और एक ओर सीवर ट्रीटमेंट प्लान्ट और एक ओर उद्योगों के दूषित जल का जलाशय है। हर रोज़ मानव मल से लदी असह्य बदबू से भरी कई लॉरियाँ आती रहती हैं और जलाशय का दूषित पानी चारों ओर फैला रहता है। यह है सच्चाई जबकि अबु धाबी के टूरिज़्म डेवलपमेंट एण्ड इन्वेस्टमेंट कम्पनी के प्रमुख विकास अधिकारी ने बयान दिया था कि लेबर कैम्प में मज़दूरों की सुविधा का हर इन्तज़ाम है, बस रूम सर्विस, यानी कमरे में नाश्ता-खाना पहुँचाने की कमी है। सांस्कृतिक केन्द्र को बना रहे मज़दूरों की बुरी हालत को देखकर कलाकारों के एक अन्तरराष्ट्रीय गठबंधन ने नवम्बर 2013 में एक साल लम्बे विरोध की शुरुआत की है। अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन और कई अन्य संगठनों ने भी मज़दूरों की हालत में सुधार की माँग की है। लेकिन इनकी माँगें जितनी खोखली होती हैं उसका प्रभाव भी उतना ही खोखला होता है। आज भी मज़दूरों की स्थिति में कोई ख़ास फ़र्क नहीं आया है।

संयुक्त अरब अमीरात (यू.ए.ई.) में हड़ताल करना ग़ैर-क़ानूनी है फिर भी बेहद ख़राब हालात से तंग आकर पिछले दिनों मज़दूरों ने वहाँ हड़ताल की। मज़दूरों को बेहद कम मज़दूरी पर 12 से 16 घण्टे की शिफ्ट करनी पड़ती है। इन्हें भर्ती शुल्क के नाम पर नियोक्ता को मोटी रक़म देनी पड़ती है जिसकी कटौती नौ महीने से ज़्यादा तक उनकी पगार से होती रहती है। रहने और खाने की स्थिति बेहद ख़स्ताहाल है।

कतर में 2022 के फुटबॉल विश्व कप की तैयारी और प्रवासी मज़दूरों का भयंकर शोषण

2022 में कतर में होने वाले फुटबॉल विश्व कप के लिए कतर को पूरा नया बनाया जा रहा है। 2010 में मेज़बानी हासिल करने के बाद कतर ने 14 लाख प्रवासी मज़दूरों को इस काम में लगाया है। अभी कतर में प्रवासी मज़दूरों की आबादी कुल आबादी का 94 प्रतिशत है। यह 94 प्रतिशत आबादी बेहद कम मज़दूरी पर नारकीय स्थिति में जी रही है। दूसरी ओर, बाकी की 6 प्रतिशत आबादी विश्व के किसी भी देश से ज़्यादा प्रति व्यक्ति आय हासिल कर रही है। जीने की कठिन परिस्थितियाँ, काम के लम्बे घण्टे, कम मज़दूरी, स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई सुरक्षा नहीं, ऐसी हालत में मज़दूर काम कर रहे हैं। इनमें सबसे गम्भीर है भर्ती की व्यवस्था जिसे कफाला कहते हैं। यह व्यवस्था मज़दूर को उसके नियोक्ता से बाँध देती है। नियोक्ता पासपोर्ट और वीज़ा जब़्त कर लेता है और मज़दूर जब तक कतर में है उसी नियोक्ता के मातहत काम करने को मजबूर होता है। इस प्रकार मज़दूरों की स्थिति बँधुआ मज़दूरों जैसी हो जाती है। वह देश भी तभी छोड़ सकता है जब उसका नियोक्ता जाने की इजाज़त दे। एक बार इस नर्क में पहुँचने के बाद बाहर निकलने के सभी रास्ते नर्क के द्वार पर खड़े राक्षस बन्द कर देते हैं।

कतर में भी अन्य खाड़ी देशों की तरह काम करने की स्थितियाँ अमानवीय हैं। लेकिन 2010 के बाद अचानक प्रवासी मज़दूरों की मौत की संख्या बढ़ने से यह कहा जा सकता है कि यहाँ स्थितियाँ बद से बदतर हो रही हैं। मज़दूर बीमार होने पर अस्पताल में पड़े रहते हैं। ऐसी हालत में इनकी जिन्दगी अधर में लटक जाती है। नियोक्ता उनके इलाज़ पर एक पैसा नहीं खर्च करता और स्वयं इनके पास इलाज के लिए पैसे नहीं होते। वे अस्पताल में पड़े-पड़े अपनेआप ठीक होने का या फिर अपनी मौत का इन्तज़ार करते रहते हैं।

अन्तरराष्ट्रीय क़ानून कम्पनी डीएलए पाइपर ने मज़दूरों के काम और जीने की अमानवीय परिस्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार की है। इसमें प्रवासी मज़दूरों की मौत पर कतर का आधिकारिक रिकार्ड भी शामिल किया गया है जिसके अनुसार वर्ष 2012-2013 में 964 मज़दूरों की मौत हुई है। इनमें से 246 की मौत दिल के दौरे से, 35 गिरकर मरे और 28 ने आत्महत्या की है। मरने वालों में 380 नेपाली और 500 भारतीय हैं। डीएलए पाइपर की रिपोर्ट में कफाला व्यवस्था में परिवर्तन की माँग की गयी है। कई मानवाधिकार संगठन और सिविल सोसाइटी फुटबाल महासंघ फीफ़ा पर स्थिति को सुधारने या मेज़बानी वापस लेने के लिए दबाव बना रहे हैं। लेकिन फिलहाल स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है। मज़दूरों का मरना जारी है।

अमेरिकी-मेक्सिको सीमा के रास्ते ग़ैर-क़ानूनी प्रवास

अमेरिका में एक करोड़ 10 लाख ग़ैर-क़ानूनी प्रवासी मज़दूर हैं। पिछले दस सालों में अमेरिका-मेक्सिको सीमा पार करने की कोशिश में 6000 लोगों की जाने जा चुकी हैं जिसमें मरने वालों में सबसे ज़्यादा मेक्सिको के निवासी हैं। निश्चित ही मरने वालों की वास्तविक संख्या इससे कहीं ज़्यादा होगी। अमेरिकी सरकार के लातिन अमेरिकी मामलों के कार्यालय के अनुसार प्रति चार दिन में इस सीमा को पार करते हुए पाँच लोगों की जानें जाती हैं जिसमें अक्सर बच्चों सहित औरतें भी होती हैं। इसके बावजूद लोगों का सीमा पार जाना रुका नहीं है। अमेरिकी सरकार सीमा पार करना ज़्यादा से ज़्यादा कठिन बनाती जा रही है। सीमा सुरक्षा सख़्त बनाने की शुरुआत बिल क्लिंटन के ज़माने से हुई और स्थानीय सरकारों ने प्रवासन नीतियों को सख़्त से सख़्त बनाना आरम्भ कर दिया। इन सबके बावजूद लोगों का सीमा पार करना जारी है तो समझा जा सकता है कि उनकी आर्थिक हालत कितनी कठिन होगी। नितान्त तनावपूर्ण आर्थिक परिस्थितियाँ ग़रीब मेहनतकश आबादी को ऐसे जोखिम भरे क़दम उठाने के लिए मजबूर करती हैं।

अगर किसी तरह ये ग़ैर-क़ानूनी प्रवासी मज़दूर सीमा पार करने में सफल भी हो गये तो भी उनकी तकलीफ़ों का अन्त नहीं हो जाता। सीमा पार भी उनके जीवन के दुखों का विस्तार जारी रहता है। अमेरिका में ये ग़ैर-क़ानूनी प्रवासी मज़दूर जिनमें सबसे ज़्यादा आबादी मेक्सिको के मज़दूरों की है, सबसे ज़्यादा शोषित और उत्पीड़ित आबादी है। ये सबसे निकृष्ट कोटि का काम करते हैं। ऐसे काम जिन्हें अमेरिकी मज़दूर नहीं करना चाहते जैसे – कृषि, कृषि आधारित व्यवसाय, सफाई-धुलाई, गराजों में काम, घरेलू नौकर आदि। इसके अलावा निर्माण कार्य में भी यह आबादी काम करती है। इनके काम के घण्टे असामान्य रूप से अधिक होते हैं और कई बार तो एक पाली में काम करते हुए दूसरी पाली का समय शुरू हो जाता है। पूरे महीने हाड़ गलाकर काम करने के बाद भी बेहद कम मज़दूरी मिलती है और कई बार तो मिलती ही नहीं। आवाज़ उठाने पर पुलिस बुलाकर जेल भिजवा दिया जाता है। इस आबादी से मालिक आसानी से बेगारी करवा लेते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि ये मज़दूर क़ानूनी तौर पर बेहद असुरक्षित हैं। इसके अलावा इस क्षेत्र में मानव तस्करी बेहद अधिक होती है। लड़कियों, औरतों, पुरुषों, लड़कों आदि को फुसलाकर, झूठे सपने दिखा कर मेक्सिको या अमेरिका के अन्य देशों से लाया जाता है और फिर उनका ज़बरन शारीरिक और यौन शोषण किया जाता है।

इन देशों के अलावा भी कई देश हैं जहाँ से भारी मात्रा में मज़दूरों का प्रवास होता है जैसे – इण्डोनेशिया से मज़दूरों की भारी आबादी मलेशिया जाती है। यहाँ पहले तो चीन और भारत से आने वाले मज़दूरों को रोकने के लिए इण्डोनेशियाई मज़दूरों का स्वागत किया गया। लेकिन पिछले कुछ वर्षां से मलेशिया ने भी आप्रवासन नीतियों को सख़्त बनाया है। आज इण्डोनेशिया के मज़दूर भी कठिन परिस्थितियों का समाना कर रहे हैं क्योंकि अब क़ानूनी प्रवास सरल नहीं रहा। ग़ैर-क़ानूनी प्रवास बढ़ रहा है साथ ही उनका शोषण और उत्पीड़न भी।

ईरान में अफ़गानी ग़ैर-क़ानूनी प्रवासी मज़दूरों की स्थिति भी बेहद बुरी है। 800,000 अफ़गान शरणार्थी की तरह ईरान में दर्ज हैं और 20 लाख ग़ैर-क़ानूनी प्रवासी। अफ़गानी प्रवासी मज़दूरों की बड़ी आबादी निर्माण कार्य में लगी है – निश्चित ही ग़ैर-क़ानूनी प्रवासी मज़दूरों का शोषण और उत्पीड़न ज़्यादा होता है।

यदि विश्व स्तर पर देखा जाये तो निश्चित ही स्त्री मज़दूरों के प्रवास की संख्या पुरुष मज़दूरों से कम है। लेकिन औरतें जहाँ कहीं भी होती है दोहरे शोषण और उत्पीड़न का शिकार होती हैं। लातिन अमेरिका के देशों के बारे में ऊपर लिखा ही है, खाड़ी देशों में भी दक्षिण एशिया विशेषकर दक्षिण भारत की औरतों को घरों में नौकरानी या नर्स का काम दिलाने के नाम पर ले जाया जाता है और फिर उनकी बड़ी आबादी का यौन शोषण किया जाता है।

इस पूँजीवादी, साम्राज्यवादी व्यवस्था में पूँजी के प्रवाह को राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ज़्यादा सुगम बनाने का प्रयास किया जा रहा है। निजीकरण और उदारवादी नीतियों को ज़्यादा से ज़्यादा मज़बूती से अमल में लाया जा रहा है ताकि पूँजी निर्बन्ध हो सके। लेकिन श्रम के प्रवाह को सुगम नहीं बनाया जा रहा। यदि पूँजी निर्बन्ध हो रही हो तो श्रम पर से भी बन्धन हटाये जाने चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा। पश्चिमी देश न केवल अपने यहाँ के आप्रवासन क़ानून सख़्त बना रहे हैं बल्कि घोर दक्षिणपंथी पार्टियाँ लोगों में नस्ली भेदभाव के आधार पर अपने चुनावी खेल खेल रही हैं। जून 2014 में इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री ने बयान दिया कि जितने भी ग़ैर-क़ानूनी प्रवासी हैं उन्हें ढूँढ़ लिया जायेगा और उन्हें उनके देश भेज दिया जायेगा। इंग्लैंड, जर्मनी, यूनान आदि देशों में सीमा पार करने को ज़्यादा से ज़्यादा ख़तरनाक बनाया जा रहा है। यूनान में अगस्त 2012 में ग़ैर-क़ानूनी प्रवासियों की खोज का एक अभियान शुरू किया गया और 72 घंटों में 7000 ग़ैर क़ानूनी प्रवासियों का ढूँढ निकाला गया। निश्चित ही आप्रवासन जितना ज़्यादा सख़्त होगा आम मेहनतकश आबादी के लिए रोज़गार तलाशना उतना ही कठिन होगा और रोज़गार मुहैया करने वाले अमीर देशों तक पहुँचना उतना ही मुश्किल। आईओएम की रिपोर्ट के अनुसार पूरे विश्व में ग़ैर-क़ानूनी रूप से सीमा पार करते हुए प्रति दिन 8 लोगों की मौत हो जाती है।

निश्चित ही प्रवासी मज़दूरों की जिन्दगी कहीं भी आसान नहीं। कठिन जीवन स्थितियाँ उनके स्वागत में खड़ी रहती हैं। लेकिन प्रवासी मज़दूरों का सबसे सकारात्मक पहलू होता है उनका बन्धन मुक्त होना। मार्क्स के अनुसार ये प्रवासी मज़दूर सर्वहारा की उन्नत जमाते होती हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि ये पूँजीवाद की कब्र खोदने वाले सबसे मजबूत हाथों में से एक होते हैं।

 

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर 2014

 


 

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