कॉमरेड के ”कतिपय बुद्धिजीवी या संगठन” और कॉमरेड का कतिपय ”मार्क्‍सवाद”
दिल्ली के बादाम मजदूरों का ऐतिहासिक आन्दोलन और मजदूर आन्दोलन की भावी दिशा

अभिनव

(पृष्ठभूमि : यह टिप्पणी ‘समयान्तर’ जनवरी 2010 में प्रकाशित लेख ‘गुड़गाँव का मजदूर आन्दोलन : भावी मजदूर आन्दोलन के दिशा संकेत’ में प्रस्तुत कुछ स्थापनाओं का उत्तर देते हुए लिखी गयी थी। ‘समयान्तर’ ने वह लेख ‘इन्कलाबी मजदूर’ से साभार लिया था। ‘समयान्तर’ सम्पादक यूँ तो प्रासंगिक विषयों पर जनवादी तरीके से वाद-विवाद चलाने का पुरजोर समर्थन करते हैं, लेकिन किन्हीं कारणोंवश उन्होंने हमारी यह टिप्पणी प्रकाशित नहीं की। तब यह टिप्पणी ‘बिगुल’ को प्रकाशनार्थ भेजी गयी। ज्ञातव्य है कि विगत 24 जुलाई, 2009 को दिल्ली में हुई एक संगोष्ठी में भी ‘इन्कलाबी मजदूर’ के एक साथी ने ”भूमण्डलीकरण के दौर में मजदूर आन्दोलन के स्वरूप और दिशा पर यही बातें रखी थीं, जिनका हमने विस्तार से उत्तर दिया था। इस संगोष्ठी की विस्तृत रपट ‘बिगुल’ के अगस्त ’09 अंक में प्रकाशित हुई थी, जिसे पाठक देख सकते हैं। इसके बावजूद, हमारे ”इन्कलाबी कामरेड” जब ”कतिपय बुद्धिजीवियों” का पुतला खड़ा करके शरसन्धान करते हुए अपने कठमुल्लावादी-अर्थवादी मार्क्‍सवाद का प्रदर्शन कर रहे हैं, तो हम अपनी पोजीशन एक बार फिर स्पष्ट करना जरूरी समझते हैं – अभिनव)

Almond worker strike 2009-12_3दिसम्बर 2009 का महीना दिल्ली के मजदूर आन्दोलन के इतिहास में एक यादगार तारीख़ बन गया। 16 दिसम्बर से लेकर 31 दिसम्बर तक दिल्ली के करावलनगर क्षेत्र में स्थित बादाम संसाधन उद्योग के करीब 30 से 35 हजार मजदूरों ने एक जुझारू हड़ताल की। यह दिल्ली के मजदूर आन्दोलन के इतिहास में अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों की अब तक की सबसे बड़ी हड़ताल साबित हुई और इसे कनाडा और अमेरिका की ऑलमण्ड वर्कर्स यूनियनों से भी समर्थन मिला। 15 दिनों तक यह हड़ताल तमाम देशी-विदेशी वेबसाइटों पर छाई रही (जैसे सिलोब्रेकर डॉट कॉम, सन्हति डॉट कॉम, रैडिकलनोट्स डॉट कॉम, डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस डॉट ओआरजी, आदि)। आप अभी भी गूगल या किसी अन्य सर्च इंजन पर ”ऑलमण्ड वर्कर्स स्ट्राइक डेल्ही” सर्च वर्ड देकर सर्च करें तो आपको सैकड़ों वेबसाइटों की सूची मिलेगी, जिसमें इस हड़ताल से सम्बन्धिात रिपोर्टें भरी हुई हैं। यह ऐतिहासिक हड़ताल 31 दिसम्बर को मालिकों और मजदूर पक्ष के बीच में समझौते के रूप में समाप्त हुई। इस हड़ताल का नेतृत्व करावलनगर स्थित इलाकाई मजदूर यूनियन ‘बादाम मजदूर यूनियन’ कर रही थी। इस नाम से यह भ्रम न हो कि यह महज बादाम मजदूरों की ही यूनियन है। इस यूनियन में करावलनगर के तमाम मजदूर सदस्य हैं, जिनमें करावलनगर के कारख़ाना मजदूरों से लेकर बादाम मजदूर, पल्लेदार, रिक्शेवाले, आदि शामिल हैं। पिछले डेढ़ वर्षों से यह यूनियन इन विविध पेशों में कार्यरत मजदूरों के मुद्दों पर संघर्ष करती रही है। हालिया हड़ताल इस यूनियन की अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई थी, जो दिल्ली के मजदूर आन्दोलन की भी सबसे बड़ी कार्रवाइयों में से एक बन गयी।

इस संघर्ष ने दिखलाया कि मजदूरों की उस भारी आबादी को भी एकजुट किया जा सकता है जो बेहद छोटे, छोटे और मँझोले कारख़ानों में काम करती है। इन्हें कारख़ानों में संगठित कर पाना बेहद मुश्किल होता है क्योंकि आमतौर पर इन कारख़ानों में अधिकतम 300 मजदूर काम करते हैं। इनमें से भी अधिकांश ऐसे होते हैं जिन्हें प्रसिद्ध लेबर इतिहासकार यान ब्रीमन ने ‘फूटलूज लेबर’ कहा है। ये मजदूर आज एक कारख़ाने में होते हैं तो कल दूसरे और परसों तीसरे कारख़ाने में, और कभी-कभी वे किसी कारख़ाने की बजाय रेहड़ी-खोमचा लगाये भी मिल सकते हैं या ठेले पर अण्डा या मूँगफली बेचते हुए भी दिख सकते हैं। ऐसे मजदूरों को आख़िर किस प्रकार संगठित किया जाये? इस सवाल का जवाब एक हद तक बादाम मजदूरों की इस ऐतिहासिक हड़ताल ने दिया। ऐसे बेहद छोटे, छोटे या मँझोले कारख़ानों में भी अगर मजदूरों की लड़ाई को लड़ना होगा तो महज कारख़ाना यूनियन पर्याप्त नहीं होगी, क्योंकि ऐसी किसी भी यूनियन की स्थायी सदस्यता बेहद छोटी होगी और शेष मजदूर लगातार बदलते रहेंगे। लेकिन अगर मजदूरों को उनकी रिहायश की जगह पर संगठित किया जाये तो कारख़ाने के संघर्षों को भी नये तरीके से संगठित किया जा सकता है। बादाम मजदूर यूनियन ने यही काम करके दिखाया। एक इलाकाई पैमाने पर बनी यूनियन ने करीब 45 बादाम संसाधन कारख़ानों में एक साथ हड़ताल कर दी और इस हड़ताल के कारण बादाम का पूरा वैश्विक व्यवसाय बुरी तरह डगमगा गया (देखें रैडिकलनोट्स डॉट कॉम, सन्हति डॉट कॉम, सिलोब्रेकर डॉट कॉम, डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस डॉट ओरआरजी)। एक-एक बादाम कारख़ाने की यूनियन बनाना सम्भव नहीं था। अगर बादाम मजदूरों को अपनी कारख़ाने की लड़ाई भी जीतनी थी तो उन्हें अपने संगठित होने के लोकेशन को कारख़ाने से बस्ती की ओर ले जाना और फिर बस्ती से कारख़ाने तक आना जरूरी था। यही काम बादाम मजदूर यूनियन ने किया और नतीजा था बादाम मजदूरों की एक ऐसी हड़ताल जो परिघटना बन गयी।

Almond workerलेकिन इतनी-सी बात को कुछ ”इन्कलाबी मार्क्‍सवादी” साथी समझ नहीं पा रहे हैं। इस बात पर वे बेहद नाराज हो जाते हैं और उन ”कतिपय बुद्धिजीवियों या संगठनों” पर बरस पड़ते हैं जो मजदूरों को उनकी रिहायश की जगहों पर संगठित करने की बात कर देते हैं। इस ग़ुस्से के मस्तिष्क ज्वर में वे एक काल्पनिक मार्क्‍सवादी का पुतला खड़ा करते हैं। इसके बाद वे अपने ”इन्कलाबी तीरों” से इस पुतले को तहस-नहस करने के लिए टूट पड़ते हैं। लेकिन जरा देखिये! अपने इस प्रयास में वे तमाम ऐसी बातें बोल जाते हैं जो हमारे ”इन्कलाबी कॉमरेड” के मार्क्‍सवाद के अर्थवादी पाठ और समझदारी को उघाड़ कर रख देती हैं। हमारे ”इन्कलाबी साथी” अपने काल्पनिक मार्क्‍सवादी कतिपय बुद्धिजीवियों या संगठनों पर कुछ आरोप लगाते हैं। वे कहते हैं कि ये कतिपय बुद्धिजीवी या संगठन यह कहते हैं कि कारख़ाना आधारित संघर्षों का जमाना चला गया और भूमण्डलीकरण के दौर में असेम्बली लाइन उत्पादन के ह्रास के साथ अब मजदूरों को कारख़ाना संघर्षों में संगठित करना सम्भव नहीं रह गया है। सच कहें तो हम भी ऐसे कतिपय बुद्धिजीवियों और संगठनों से मिलना चाहेंगे जो ऐसा कहते हैं! यह वाकई काफी दिलचस्प होगा! दूसरा आरोप यह है कि ये कतिपय बुद्धिजीवी या संगठन यह कहते हैं कि संगठित सर्वहारा अब इतना छोटा रह गया है कि वह उत्पादन ठप्प करने के अपने अमोघ अस्त्र से वंचित हो गया है और कारख़ाना संघर्षों के सन्दर्भ में अब पूँजीवाद इम्यून हो गया है। यह आरोप सुनकर तो इन कतिपय बुद्धिजीवियों या संगठनों से मिलने की हमारी तमन्ना और भी अधिक तीव्र हो चली है। तीसरा आरोप यह है कि ये कतिपय बुद्धिजीवी या संगठन कहते हैं कि जितने संगठित मजदूर बाकी बचे हैं, वे सबके सब अभिजात या कुलीन मजदूर वर्ग में तब्दील हो चुके हैं। ये आरोप सुनने के बाद तो हम इन बुद्धिजीवियों और संगठनों से मिलने के लिए कुछ ज्यादा ही उतावले हो गये हैं!

ऐसी बातें अगर कोई भी बुद्धिजीवी या संगठन कहता है तो कोई भी श्रमिक कार्यकर्ता, ट्रेडयूनियन कार्यकर्ता या राजनीतिक कार्यकर्ता उससे असहमत हुए बिना नहीं रह सकता। लेकिन हमारे ”इन्कलाबी कॉमरेडों” की बातें सुनकर न जाने क्यों डीजावू (पुनरावृत्ति की भ्रामक अनुभूति) की अनुभूति हो रही है। बरबस ही जुलाई 2009 में हुई एक गोष्ठी की बात याद आ रही है जिसमें हमारे ऐसे ही एक ”इन्कलाबी कॉमरेड” ने एक कतिपय मार्क्‍सवादी बुद्धिजीवी या संगठन के पुतले पर बेतहाशा तीर बरसाये थे। उस समय भी यह जवाब दिया गया था कि आप जिस निशाने पर तीर चला रहे हैं ऐसा कोई बुद्धिजीवी या संगठन तो नजर आ नहीं रहा है; उल्टे ऐसा लग रहा है कि तीर खाने वाला तो एक काल्पनिक मार्क्‍सवादी का बेचारा पुतला है! लेकिन इस तर्कबाण-वर्षा में उस समय भी हमारे ”इन्कलाबी साथी” कुछ ऐसी बातें कह गये जिससे मार्क्‍सवाद और मजदूर आन्दोलन के इतिहास के बारे में उनकी अर्थवादी समझदारी उजागर हो गयी थी। इससे पहले कि हम अपने ”इन्कलाबी कॉमरेड” के तर्कों का विश्लेषण करें हम कुछ श्रेणियों और आँकड़ों को स्पष्ट करना चाहेंगे।

जब हम कहते हैं कि आज मजदूर आबादी का बड़े पैमाने पर अनौपचारिकीकरण हो रहा है और जहाँ भी सम्भव है पूँजीवाद बड़ी औद्योगिक इकाइयों को छोटी-छोटी औद्योगिक इकाइयों में तोड़ रहा है जिसके कारण पुराने जमाने की तरह बेहद बड़े पैमाने पर कारख़ाना संघर्षों के होने और उनके सफल होने की सम्भावनाएँ कम हो रही हैं तो इसका यह अर्थ आलोचना करने को उतावला कोई जल्दबाज ही निकाल सकता है कि हम कारख़ाना संघर्षों को ही तिलांजलि दे देने के लिए कह रहे हैं या यह कह रहे हैं कि अब कारख़ाना संघर्ष होंगे ही नहीं। इसका सिर्फ इतना अर्थ है कि कारख़ाना केन्द्रित लड़ाइयों को भी अब अगर जुझारू और सफल तरीके से लड़ना होगा तो मजदूरों की पेशागत यूनियनें और इलाकाई यूनियनें बनानी होंगी। इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि कारख़ाना-आधारित यूनियनें नहीं बनानी होंगी। जहाँ कहीं भी सम्भव हो वहाँ निश्चित रूप से कारख़ाना-आधारित यूनियनें बनानी होंगी। लेकिन जहाँ कारख़ाना-आधारित यूनियनें होंगी या बनायी जायेंगी, वहाँ भी इलाकाई और पेशागत यूनियनें बनानी होंगी। इस बात को हमारे जल्दबाज उतावले आलोचक इसलिए नहीं समझते हैं क्योंकि वे दो अलग-अलग श्रेणियों में फर्क नहीं कर पाते हैं। ये दो श्रेणियाँ हैं औपचारिक/अनौचारिक क्षेत्र और संगठित/असंगठित क्षेत्र। हमारे ”इन्कलाबी साथियों” समेत कई लोग यह समझते हैं कि औपचारिक क्षेत्र यानी संगठित क्षेत्र व अनौपचारिक क्षेत्र मतलब असंगठित क्षेत्र। यह समझदारी विनाशकारी नतीजों तक ले जाती है। इन दोनों श्रेणियों के बीच के फर्क को समझना अनिवार्य है। इनके फर्क को समझ लिया जाये और फिर इनसे सम्बन्धिात आँकड़ों को देखा जाये तो हमारा तर्क काफी हद तक साफ हो जाता है। औपचारिक क्षेत्र का अर्थ होता है, वे कारख़ाने व वर्कशॉप जो फैक्टरी एक्ट व अन्य औद्योगिक व श्रम कानूनों के अन्तर्गत आते हैं, कम से कम आधिकारिक तौर पर। औपचारिक क्षेत्र में संगठित मजदूर भी हैं और असंगठित मजदूर भी हैं। सरकारी और ग़ैर-सरकारी आँकड़ों के अनुसार औपचारिक क्षेत्र में संगठित मजदूरों का प्रतिशत 10 के करीब है जबकि असंगठित मजदूर आबादी करीब 90 प्रतिशत है। अनौपचारिक क्षेत्र में वे लाखों औद्योगिक इकाइयाँ और वर्कशॉप हैं जो कानूनों के दायरे से बाहर हैं या कानूनों के लागू होने की श्रेणी में नहीं आते। यानी उन पर कोई औद्योगिक और श्रम कानून लागू नहीं होता। सरकारी और ग़ैर-सरकारी आँकड़ों के अनुसार अनौपचारिक क्षेत्र में संगठित मजदूरों का कुल प्रतिशत मुश्किल से 1 से 3 प्रतिशत है। संगठित मजदूर का अर्थ है स्थायी मजदूर जो आमतौर पर ट्रेड यूनियनों में संगठित होते हैं (हालाँकि अनौपचारिक क्षेत्र में ऐसे स्थायी मजदूर भी बेहद कम हैं जो किसी ट्रेड यूनियन के रूप में संगठित हों)। असंगठित मजदूर का अर्थ है कैजुअल, दिहाड़ी या पीस रेट पर काम करने वाले मजदूर। ये मजदूर अनौपचारिक क्षेत्र के कुल मजदूरों का करीब 97 से 99 प्रतिशत हैं। अनौपचारिक क्षेत्र में किसी भी औद्योगिक या श्रम कानून के तहत न आने वाले कारख़ानों और वर्कशापों के अतिरिक्त वे करोड़ों छोटे काम-धन्‍धे भी शामिल हैं जिन्हें सरकारी आँकड़े ”स्वरोजगार” की मजाकिया श्रेणी में रखते हैं। लेकिन यह समझना भी बहुत बड़ी भूल होगी कि ऐसे मेहनतकश कभी कारख़ाना मजदूर नहीं होते या जो अनौपचारिक क्षेत्र के कारख़ानों/वर्कशॉपों के मजदूर हैं, वे कभी छोटे-मोटे स्वरोजगार नहीं करते। वास्तव में अनौपचारिक क्षेत्र की कुल मजदूर आबादी में आन्तरिक गतिशीलता (इण्टर्नल मोबिलिटी) बहुत अधिक होती है। यान ब्रीमन अपनी प्रसिद्ध और प्रशंसित रचना ”फुटलूज लेबर” में बताते हैं कि ऐसे मजदूरों में आप पायेंगे कि 2 महीने पहले कारख़ाने में काम कर रहा मजदूर आज रिक्शा चला रहा है या रेहड़ी-खोमचा लगा रहा है; दो महीने बाद आपको पता चल सकता है कि वह वापस कारख़ाने में काम करने लगा है, लेकिन किसी नये कारख़ाने में।

रोहिणी हेंसमान, यान ब्रीमन, अर्जुन सेनगुप्ता, कानन जैसे अर्थशास्त्रियों से लेकर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन, जनगणना, आदि जैसे सरकारी स्रोत तक बताते हैं कि औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्र मिलाकर कुल मजदूर आबादी का 3 प्रतिशत संगठित मजदूर आबादी है और 97 प्रतिशत असंगठित। देश के करीब 60 करोड़ सर्वहारा आबादी में से करीब एक तिहाई कारख़ाना मजदूर हैं। लेकिन इनमें से ऐसे 98 प्रतिशत या तो बेहद छोटे कारख़ानों और वर्कशॉपों में काम करते हैं, छोटा-मोटा स्वरोजगार करते हैं या फिर अगर किसी बड़े औपचारिक क्षेत्र की इकाई में भी काम करते हैं तो असंगठित मजदूर (कैजुअल, ठेका, दिहाड़ी) के रूप में। अगर कुल औद्योगिक मजदूरों का 98 प्रतिशत फुटलूज लेबर है तो निश्चित रूप से उन्हें कारख़ाने के भीतर संगठित करने की कुछ गम्भीर कठिनाइयाँ, चुनौतियाँ और सीमाएँ होंगी। गुड़गाँव में हुआ मजदूर आन्दोलन भी कोई कारख़ाना केन्द्रित आन्दोलन ही नहीं रह गया था। स्वत:स्फूर्त तरीके से वह एक इलाके के मजदूरों के आन्दोलन में तब्दील हो चुका था। कारख़ाने के मुद्दों पर संघर्ष हो, इस पर कोई दो राय नहीं है। जिन कतिपय बुद्धिजीवियों या संगठनों पर हमारे ”इन्कलाबी कॉमरेड” निशाना ताने बैठे हैं, उन्होंने हाल ही में पूर्वांचल के सबसे बड़े कारख़ाना मजदूर आन्दोलनों में से एक को नेतृत्व दिया (गोरखपुर मजदूर आन्दोलन)। इसलिए यह कोई नहीं कह रहा है कि कारख़ाना मजदूरों के संघर्ष नहीं किये जायें। सिर्फ इतना कहा जा रहा है कि कारख़ाना मजदूरों के संघर्षों को भी कारगर तरीके से एक मुकाम पर पहुँचाने के लिए यह जरूरी है कि उनकी पेशागत और इलाकाई यूनियनें बनायी जायें। ऐसी यूनियनें मजदूरों की राजनीतिक चेतना के स्तरोन्नयन के काम को किसी भी कारख़ाना आधारित ट्रेड यूनियन से अधिक कारगर तरीके से कर सकती है। जिन मुद्दों को हमारे ”इन्कलाबी कॉमरेड” सुधारवादी और एनजीओ मार्का मुद्दे कहते हैं, वे ऐसे मुद्दे हैं जिन पर सघन और व्यापक राजनीतिकरण किया जा सकता है। यह तो एक त्रासदी और विडम्बना है कि शिक्षा, चिकित्सा, सैनीटेशन, शौचालय, आदि जैसे नागरिक अधिकारों को आज एनजीओ और सुधारवादी ले उड़े हैं। इन्हें वास्तव में सर्वहारा क्रान्तिकारियों को उठाना चाहिए था। यह कोई संघर्ष को उत्पादन के क्षेत्र से उपभोग के क्षेत्र में ले जाना नहीं है, जैसाकि हमारे ”इन्कलाबी साथी” समझते हैं। वे मार्क्‍सवाद की यह बुनियादी समझदारी भूल जाते हैं कि पूँजीवादी समाज में श्रमशक्ति भी एक माल होती है। इस माल के पुनरुत्पादन का लोकेशन मजदूरों की बस्तियाँ और रिहायशी इलाके हैं। यह अनायास नहीं है कि सर्वहारा वर्ग के सबसे पहले सचेत आन्दोलनों में शिरकत करने वाली भारी मजदूर आबादी बड़े कारख़ानों में असेम्बली लाइन पर काम करने वाला मजदूर नहीं था, चाहे वह शिकागो के मजदूरों का आन्दोलन हो, पेरिस कम्यून या फिर इंग्लैण्ड का चार्टिस्ट आन्दोलन। इनमें शिरकत करने वाले अधिकांश मजदूर छोटी-छोटी वर्कशॉपों में काम करते थे या स्वरोजगार करते थे।

कुछ लोग समझते हैं कि असेम्बली लाइन के विखण्डित होकर ग्लोबल असेम्बली लाइन में तब्दील होने का अर्थ यह है कि उत्पादन बड़े पैमाने पर नहीं हो रहा है। यह बड़े पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन की बड़ी यान्त्रिक समझदारी है। मार्क्‍स, एंगेल्स, लेनिन, स्टालिन या माओ ने कहीं नहीं लिखा है कि बड़े पैमाने का उत्पादन सिर्फ एक ही रूप में, यानी कि आधुनिक फोर्डिस्ट रूप में हो सकता है। फोर्डिस्ट उत्पादन के ह्रास और ग्लोबल या फ्रैग्मेण्टेड असेम्बली लाइन का यह अर्थ नहीं है कि चूँकि एक छत के नीचे मजदूर बड़ी संख्या में इकट्ठा नहीं हो रहे हैं इसलिए उत्पादन बड़े पैमाने पर नहीं हो रहा है। उत्पादन के पैमाने का आकार कारख़ाने की छत के आकार से नहीं तय होता। यह पूँजी निवेश, उत्पादन, विनियोजन के चक्र के आकार से तय होता है। यह चक्र भौतिक तौर पर फ्रैग्मेण्टेड हो तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उत्पादन का पैमाना छोटा हो गया। उत्पादन और अधिक बड़े पैमाने पर हो रहा है। मजदूरों को फैक्टरी फ्लोर पर संगठित होने से रोकने की कोशिश करके पूँजीवाद मजदूरों को संगठित होने से नहीं रोक सकता। और मार्क्‍सवाद भी कहीं यह नहीं कहता कि मजदूर अगर संगठित होंगे तो फैक्टरी फ्लोर पर ही संगठित होंगे। उन्हें उनकी रिहायश की जगहों पर पेशा-पारीय, कारख़ाना-पारीय और क्षेत्र-पारीय आधार पर संगठित किया जा सकता है। इस रूप में संगठित मजदूर कारख़ाने की लड़ाई भी लड़ सकते हैं, किसी पूरे पेशे के मजदूरों की माँगों के लिए भी लड़ सकते हैं और अपने नागरिक अधिकारों के लिए भी लड़ सकते हैं (जिन्हें हमारे ”इन्कलाबी साथी” एनजीओ मार्का मुद्दा मानते हैं!), जो वास्तव में मजदूरों की चेतना को बेहद ऊपर उठाने में सक्षम हैं। दरअसल, लेनिन ने स्वयं ‘जनवादी क्रान्ति की मंजिल में सामाजिक जनवाद की दो कार्यनीतियाँ’ में लिखा है कि बुर्जुआ जनवाद ही वह स्पेस है जिसमें मजदूर वर्ग अपनी राजनीति को सबसे व्यापक और सघन रूप में चला सकता है। बुर्जुआ जनवाद जो भी जनवादी और नागरिक अधिकार देता है, मजदूर वर्ग को किसी भावी ”ठोस वर्ग संघर्ष” के इन्तजार में उस पर अपना दावा कभी नहीं छोड़ना चाहिए। ऐसे मुद्दों पर संघर्ष मजदूर वर्ग और पूँजीवादी राजसत्ता को सीधे आमने-सामने खड़ा करते हैं और पूँजीवादी राजसत्ता के चरित्र को मजदूर वर्ग के सामने कहीं ज्यादा साफ करते हैं। इस प्रकार मजदूर वर्ग कहीं अधिक तेजी से वर्ग सचेत बनता है और अपने ऐतिहासिक लक्ष्य को समझता है। दूसरी बात यह कि मजदूर आन्दोलन जिन नागरिक अधिकारों के मुद्दों को उठायेगा, वे प्रियदर्शिनी मट्टू और जेसिका लाल के लिए न्याय की माँग जैसे मध्‍यवर्गीय मुद्दे नहीं होंगे। उनका भी एक वर्ग-चरित्र होगा। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन जिन नागरिक मुद्दों को उठायेगा उनका रिश्ता मजदूरों के भौतिक, जैविक और सांस्कृतिक पुनरुत्पादन से होगा। शिक्षा, चिकित्सा, सैनीटेशन, आवास ऐसे ही मुद्दे हैं जो मजदूरों के इंसानी जीवन के अधिकार के सवाल को उठाते हैं। अगर आज एनजीओपन्थी इन मुद्दों को सुधारवादी तरीके से उठाकर वर्ग चेतना को कुन्द कर रहे हैं, तो यह एक त्रासदी है। ऐसा नहीं है कि इन मुद्दों पर एनजीओ वालों का पेटेण्ट है। ये अपनेआप में कोई मध्‍यवर्गीय माँगें नहीं हैं। ये वास्तव में सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक माँगें हैं जो सीधे पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करती हैं। लेकिन अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद के कम्युनिस्ट आन्दोलन में हावी होने की बड़ी कीमत यह रही कि ये मुद्दे मजदूर आन्दोलन के चार्टर से ग़ायब हो गये। लेकिन ऐतिहासिक तौर पर ऐसा नहीं रहा है (हम सुझाव देंगे कि हमारे ”इन्कलाबी साथी” चार्टिस्ट आन्दोलन के माँगपत्रक का अध्‍ययन करें)। 21वीं सदी में तो ये मुद्दे और प्रमुखता के साथ मजदूर वर्ग के चार्टर में होने चाहिए। मजदूर वर्ग अगर बुर्जुआ समाज के भीतर नागरिक पहचान पर अपना दावा छोड़ता है, तो वह संघर्ष के एक बहुत बड़े उपकरण से हाथ धोयेगा। लेनिनवादी जनदिशा की सोच भी इस अर्थवादी समझदारी का निषेध करती है।

हमारे ”इन्कलाबी साथी” यह तर्क भी देते हैं कि उन्नत सर्वहारा वर्ग सिर्फ बड़े कारख़ानों का संगठित मजदूर वर्ग है और इसलिए हिरावल की भूमिका यही निभायेगा। यह बात द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले के समय के लिए निश्चित रूप से एक हद तक कही जा सकती थी। लेकिन आज के समय में असंगठित सर्वहारा वर्ग कोई पिछड़ी चेतना वाला सर्वहारा वर्ग नहीं है। यह भी उन्नत मशीनों पर और असेम्बली लाइन पर काम करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह यह काम लगातार और किसी बड़े कारख़ाने में ही नहीं करता। उसका कारख़ाना और पेशा बदलता रहता है। इससे उसकी चेतना पिछड़ती नहीं है, बल्कि और अधिक उन्नत होती है। यह एक अर्थवादी समझदारी है कि जो मजदूर लगातार बड़े कारख़ाने की उन्नत मशीन पर काम करेगा, वही उन्नत चेतना से लैस होगा। उन्नत मशीन और असेम्बली लाइन उन्नत चेतना का एकमात्र स्रोत नहीं होतीं। आज के असंगठित मजदूर का साक्षात्कार पूँजी के शोषण के विविध रूपों से होता है और यह उनकी चेतना को गुणात्मक रूप से विकसित करता है। उनका एक अतिरिक्त सकारात्मक यह होता है कि वे पेशागत संकुचन, अर्थवाद, ट्रेडयूनियनवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद जैसी ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्तियों का शिकार कम होते हैं और तुलनात्मक रूप से अधिक वर्ग सचेत होते हैं। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि बड़े कारख़ानों की संगठित मजदूर आबादी के बीच राजनीतिक प्रचार की आज जरूरत है और इसके जरिये मजदूर वर्ग को अपने उन्नत तत्त्‍व मिल सकते हैं। लेकिन आज का असंगठित मजदूर वर्ग भी 1960 के दशक का असंगठित मजदूर वर्ग नहीं है जिसमें से उन्नत तत्त्वों की भर्ती बेहद मुश्किल हो। यह निम्न पूँजीवादी मानसिकता से ग्रसित कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का श्रेष्ठताबोध है कि वे इस मजदूर को पिछड़ा हुआ मानते हैं।

अन्त में हम यही सुझाव देना चाहेंगे कि हमारे ”इन्कलाबी साथी” किन्हीं कतिपय बुद्धिजीवियों या संगठनों के पुतलों पर बमबारी बन्द करके आज की ठोस सच्चाइयों से रूबरू हों और अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद के दलदल से बाहर निकलकर क्रान्तिकारी मार्क्‍सवाद के सार से सम्बन्‍ध पुनर्स्थापित करें। साथ ही, तर्कों को उनकी बारीकियों समेत समझकर ही उनकी आलोचना का बीड़ा उठाया जाना चाहिए।

बिगुल, जून 2010


 

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