यूनानी मजदूरों और नौजवानों के जुझारू आन्दोलन के सामने विश्व पूँजीवाद के मुखिया मजबूर
यूरोपीय आर्थिक संघ के संकट ने खोली वित्तीय संकट से उबरने के दावों की पोल!
जनता नहीं उठायेगी सट्टेबाजों, आर्थिक लुच्चों-लफंगों के जुए का बोझ

अभिनव

greeceअमेरिका, जर्मनी, इंग्लैण्ड, फ्रांस समेत विश्व पूँजीवाद के सभी छोटे-बड़े चौधरी अभी हकला-तुतलाकर विश्व पूँजीवाद के वित्तीय संकट से उबरने की बातें कर ही रहे थे कि उनके कर्मों का फल फिर से सामने आ गया। जगह बदल गयी, नाम बदल गये (लेकिन फिर से जाहिर हो गया कि ‘अन्तिम विजय’ और ‘पूँजीवाद के अलावा कोई विकल्प नहीं’ जैसे दावे करने वाला विश्व पूँजीवाद अन्दर से एकदम खोखला, कमजोर और क्षरित हो चुका है। आज यह सिर्फ इसलिए टिका हुआ है कि जनता की ताकतें बिखरी हुई हैं और विश्व मजदूर आन्दोलन वैचारिक, राजनीतिक और सांगठनिक रूप से कमजोर है। पूँजीवाद एक विश्व व्यवस्था के रूप में सिर्फ और सिर्फ जड़ता की ताकत से टिका हुआ है।

हाल ही के यूनान के आर्थिक संकट और उसके बाद यूनान को दिये गये 1 ट्रिलियन डॉलर के बेलआउट पैकेज ने विश्व पूँजीवाद की सेहत को एक बार फिर बेनकाब कर दिया। पहले यूरोपीय संघ और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यूनान, पुर्तगाल और स्पेन को कोई भी सहायता पैकेज देने को तैयार नहीं थे और यूनान पर अपने सार्वजनिक ख़र्चे कम करने, निजीकरण करने, मजदूरी में कटौती करने और सभी सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने वाली योजनाओं को रद्द करने की माँग कर रहे थे। लेकिन यूनानी मजदूरों और युवाओं के जुझारू तेवर के सामने पूरे यूरोप के पूँजीवादी देशों को यह समझ में आ गया कि ऐसी कोई भी कटौती नहीं की जा सकती है और न ही निजीकरण कर पाना सम्भव होगा और अगर सहायता पैकेज नहीं दिया गया और यूनान दीवालिया घोषित हुआ तो तमाम यूरोपीय बैंक एक-एक करके धराशायी होंगे और एक ‘चेन रिएक्शन’ के परिणामस्वरूप संकट पूरे विश्व में फैल जायेगा। इसलिए 7 मई को 1 ट्रिलियन डॉलर का बेलआउट पैकेज देकर विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के मरीज की उखड़ती साँसों को कुछ अस्थायी स्थायित्व प्रदान किया गया। लेकिन इस पूरे संकट की कहानी 2 साल पहले शुरू हुई थी।
2008 के सितम्बर में अमेरिकी सबप्राइम संकट अपने चरम पर था और अमेरिका और यूरोप की जदों से बाहर निकल विश्व पूँजीवाद के आर्थिक संकट की शक्ल अख्तियार कर चुका था। इस संकट का कारण था अमेरिका के वित्तीय इजारेदार पूँजीपतियों के मुनाफे की हवस। इससे पहले कि हम मौजूदा संकट के बारे में कुछ कहें, संक्षेप में 2006 से जारी हुए और 2008 में चरम पर पहुँचे अमेरिकी सबप्राइम संकट के बारे में बता देना उपयोगी होगा, क्योंकि मौजूदा संकट का उससे गहरा रिश्ता है।

मौजूदा संकट की पृष्ठभूमि
दिसम्बर 2006 से अमेरिका में शुरू हुए संकट का कारण था वित्तीय पूँजीपतियों के पापों का घड़ा भर जाना! द्वितीय विश्वयुध्द के बाद करीब दो दशक की तेजी के बाद से ही विश्व पूँजीवाद अतिउत्पादन और मन्दी के अपने संकट से कभी पूरी तरह उबर नहीं पाया था। लेकिन 1990 के दशक के उत्तरार्ध्द से हल्की मन्दी गहरे संकट का रूप लेने लगी थी। अमेरिकी अर्थव्यवस्था ख़ास तौर पर संकट से घिरती जा रही थी। यह संकट वास्तव में अतिउत्पादन का ही संकट था। पूँजीवाद उत्पादन की प्रक्रिया में ही मजदूर वर्ग को अधिक से अधिक दरिद्र बनाता जाता है, दूसरी ओर वह उन्नत से उन्नत तकनोलॉजी का इस्तेमाल कर उत्पादन को बढ़ाता जाता है और लागत को घटाता जाता है। इस प्रक्रिया में उत्पादकता को बढ़ाकर वह अधिक से अधिक मजदूरों की छँटनी कर उन्हें सड़क पर धकेलता जाता है। नतीजा यह होता है कि पूरे समाज की बहुसंख्यक आबादी अधिक से अधिक ग़रीब होती जाती है और मुट्ठीभर अमीरजादे और अधिक सम्पत्ति बटोरते जाते हैं। समाज की बहुसंख्या के ग़रीब होते जाने और उत्पादन के बढ़ते जाने के बीच अन्तरविरोध पैदा होता है। सवाल यह खड़ा हो जाता है कि मालों से पटे हुए बाजार में ख़रीदारी करेगा कौन? अमीरजादों को जितनी शाहख़र्ची करनी होती है, वे कर लेते हैं। लेकिन उसकी भी कोई सीमा होती है। उनके हर सुख-सुविधा को ख़रीद लेने के बाद भी बाजार सामानों से पटा रहता है लेकिन ख़रीदने वाला कोई नहीं होता, क्योंकि समाज के मजदूर और निम्न मध्‍यवर्ग के लोग तो ख़रीदने की क्षमता से लगातार वंचित होते जाते हैं। यही कारण बनता है अतिउत्पादन और मन्दी का। अब दुनियाभर के और ख़ास तौर पर अमेरिका के पूँजीपति वर्ग ने अपने मुनाफे को कायम रखने के लिए 1960 के दशक में एक नया तरीका निकाला। उन्होंने महँगी उपभोक्ता सामग्रियों, जैसे कि फ्रिज, टी.वी., वाशिंग मशीन, कार आदि ख़रीदने के लिए मध्‍यवर्ग को ब्याज पर ऋण देने की शुरुआत की। इससे मध्‍यवर्ग ने फिर से थोड़ी ख़रीदारी शुरू की और बाजार में फँसी पूँजी वित्तीय पूँजी के धक्के से फिर से घूमनी शुरू हो गयी। लेकिन पहले बैंक मध्‍यवर्ग के उन्हीं लोगों को ऋण देते थे जिनके पास ब्याज चुकाने लायक आमदनी होती थी। लेकिन मध्‍यवर्ग के बीच ऋण का यह व्यापार भी जल्दी ही सन्तृप्त हो गया और लोगों ने ऋण लेकर ऐशो-आराम के सामान ख़रीदने बन्द कर दिये। इसके बाद बैंकों ने हताशा में निम्न मध्‍यवर्ग के लोगों को ऋण देकर ख़रीदारी करवानी शुरू की। इसके लिए वे अधिक ब्याज लेने लगे क्योंकि ऐसे लोगों के दीवालिया होने का ख़तरा भी होता था और इसलिए बैंक ब्याज के जरिये ही मूलधन की भरपाई जल्दी से जल्दी कर लेना चाहते थे। निम्न मध्‍यवर्ग के बीच भी ऋण का यह बाजार जल्द ही सन्तृप्त हो गया। इसके बाद 2000 के दशक के पूर्वार्ध्द में कुछ बैंकों ने लोगों के ऋण वापसी की क्षमता की परवाह किये बग़ैर अन्‍धाधुन्‍ध ऋण देना शुरू कर दिया। यह पूँजीपतियों की हताशा का नतीजा था। मन्दी के हाथों तबाह हो जाने से बचने का और कोई रास्ता भी उनके पास नहीं बचा था। ऋण स्वयं एक बिकाऊ माल बन गया था और विभिन्न बैंकों में आपस में ऋण बेचने को लेकर भी प्रतिस्पर्धा होने लगी थी। नतीजा यह हुआ कि गलाकाटू प्रतिस्पर्धा में बैंकों ने समाज के ग़रीब तबकों को भी अन्‍धाधुन्‍ध ऋण बाँटे। इसके लिए अमेरिकी बैंकों ने यूरोप और जापान के बैंकों से ऋण लिया, या यूँ कहें कि अपने द्वारा बेचे गये ख़तरनाक ऋणों को इन बैंकों को बेचा (फिर इन बैंकों ने आपस में भी इन ऋणों की जमकर ख़रीद और बिक्री की)। इंग्लैण्ड के बैंक तो स्वयं भी ऐसे निम्नस्तरीय (सबप्राइम) ऋण देने लगे। लेकिन इस खेल का अन्त ख़तरनाक था।
जब अमेरिका के तमाम कमजोर तबकों के लोगों ने ऋण चुकाने में अक्षमता जाहिर करनी शुरू की, तो अमेरिकी बैंकों ने उनकी सम्पत्ति जब्त करनी शुरू की, ताकि उन्हें फिर से बेचकर अपनी पूँजी को संचरित करते रह सकें। लेकिन मजेदार बात यह थी कि अब बाजार में इस जब्त सम्पत्ति के लिए पर्याप्त ख़रीदार भी नहीं बचे थे। परिणामस्वरूप बैंकों का पैसा मकानों, कारों, आदि में फँसना शुरू हो गया और उनके पास नकदी की भारी कमी हो गयी। यहीं से बैंकों का ढहना शुरू हुआ और साइकिल स्टैण्ड में खड़ी साइकिलों की तरह अमेरिका, इंग्लैण्ड, आयरलैण्ड, आइसलैण्ड, जर्मनी आदि में बैंक, बीमा कम्पनियाँ और अन्य वित्तीय संस्थान एक-एक करके नकदी की कमी में अपनेआप को दीवालिया घोषित करने लगे। पूरा पूँजीवादी विश्व एक भयंकर वित्तीय संकट की गिरफ्त में आ गया। बैंकों के ग्राहक बैंकों के ख़िलाफ प्रदर्शन करने लगे (पूँजीपतियों ने उत्पादन में कमी लानी शुरू कर दी और छँटनी के कारण बेरोजगारी बढ़ना शुरू हो गयी)। व्यापारी अपने जोखिम को कम करने के लिए जमाख़ोरी करने लगे और रोजमर्रा की जरूरत के सामान महँगे होने लगे, समाज के निचले वर्गों में भरा ग़ुस्सा फूटकर सड़कों पर आने लगा।
जब स्थिति हाथ से निकलने लगी तब दुनियाभर के पूँजीवादी लुटेरों ने बैठकर आम सहमति बनायी और बैंकों को बचाने के लिए जनता के पैसे से बने सरकारी ख़जाने से अरबों-ख़रबों निकालकर बैंकों को दे दिये। इससे संकट तात्कालिक तौर पर थमा हुआ नजर आने लगा। लेकिन जल्दी ही वित्तीय संस्थानों, बैंकों और शेयर मार्केट में बैठे परजीवी सटोरियो ने फिर से दाँव लगाना और जुआ खेलना शुरू कर दिया। तभी तमाम विश्लेषक बोलने लगे थे कि बैंकों को बचाकर अमेरिकी, यूरोपीय और दुनियाभर के देशों की पूँजीवादी सरकारों ने एक बुरा उदाहरण पेश किया है और इससे सट्टेबाजी और बढ़ेगी और जब यह संकट एक चक्कर पूरा करके फिर वापस आयेगा, तब और अधिक भयंकर रूप धारण कर चुका होगा। और यही हुआ है। आइये देखते हैं कि यह कैसे हुआ है।

21वीं सदी की यूनानी त्रासदी
अमेरिका और इंग्लैण्ड ने 2008 के उत्तरार्ध्द में बैंकों को जनता के पैसों से बेलआउट पैकेज दे-देकर बचाया और यह साबित कर दिया कि पूँजीवादी सरकारें पूँजीपति वर्ग के मामलों का प्रबन्‍धन करने वाली समितियाँ होती हैं और उनका काम उन्हीं की सेवा करना होता है। लेकिन यूरोपीय आर्थिक संघ में शामिल देशों के लिए इस तरह का बेलआउट पैकेज देना सम्भव नहीं था, क्योंकि यूरोपीय आर्थिक संघ का चार्टर इस बात की आज्ञा नहीं देता है। दूसरी बात, यूरोपीय आर्थिक संघ में शामिल देशों में स्पेन, पुर्तगाल, यूनान, आयरलैण्ड, पोलैण्ड और आइसलैण्ड जैसे देश भी शामिल हैं जिनकी अर्थव्यवस्थाएँ कमजोर हैं और काफी समय से संकटग्रस्त हैं और इनके पास इतना अतिरिक्त सरकारी ख़जाना था भी नहीं, जिससे कि ये बैंकों को बचाने के लिए बेलआउट पैकेज दे पाते। इन कारकों का यूनान में असर यह हुआ कि सरकार ने जरूरी सार्वजनिक मदों में कटौती करके, यानी कि जिन मदों से मजदूरों, छात्रों, और निम्न मध्‍यवर्गों को सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा का इन्तजाम किया गया था, बैंकों को बचाया। फिर इन मदों के लिए उन्हीं बैंकों से भारी ब्याज दर पर कर्ज लिया! किसी भी तर्कसंगत मजदूर, नौजवान या आम नागरिक के लिए यह मजाकिया बात हो सकती है। लेकिन पूँजीपति वर्ग और उनकी ‘मैनेजिंग कमेटी’ का काम करने वाली सरकारों के लिए यह सामान्य बात है। सरकार होती ही है वित्तीय इजारेदार पूँजीपतियों के मुनाफे के लिए! इसलिए पहले दीवालिया होने की कगार पर खड़े बैंकों और सटोरियों को जनता की रोजी-रोटी में कटौती करके बचाया गया और फिर जनता बग़ावत न कर दे इसलिए उनके लिए बनी योजनाओं के वित्तपोषण के लिए यूनान की सरकार ने इन्हीं बैंकों से भयंकर ब्याज दरों पर कर्ज लिया।
आगे सुनिये क्या होता है, इस 21वीं सदी की महान यूनानी त्रासदी में! इन ब्याज दरों के भयंकर रूप से ज्यादा होने और साथ ही वैश्विक संकट के दबाव के कारण यूनानी सरकार के लिए इन कर्जों को चुकाना मुश्किल होने लगा। परिणामत: यूनान की सरकार ने निजी बैंकों से फिर से और भी ज्यादा दरों पर कर्ज लिया। इस पूरी प्रक्रिया का नतीजा यह हुआ कि अक्टूबर 2009 में यूनान की सरकार ऋण चुकता न कर पाने की स्थिति में दीवालिया होने की कगार पर खड़ी हो गयी। ऋणदाता बैंकों ने, जिन्हें कुछ समय यूनानी जनता के पैसों से दीवालिया होने से बचाया गया था, यूनान की सरकार से माँग की कि यूनान की सरकार अपनी सभी कल्याणकारी योजनाओं और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा योजनाओं की मदों में कटौती करे और उन्हें ख़त्म करना शुरू कर दे। सरकार ने ज्यों ही ऐसा करना शुरू किया यूनान के मजदूर और छात्र-युवा सड़कों पर उतरने लगे। सरकार-विरोधी प्रदर्शन सारे देश में फैल गये और राजधानी में संसद के बाहर भी प्रदर्शन होने शुरू हो गये। थोड़े ही समय में ये प्रदर्शन जगह-जगह हिंसक रुख़ अख्तियार करने लगे। कई हिस्सों में भूख से परेशान ग़रीब यूनानी जनता ने खाद्यान्न दंगे शुरू कर दिये और दुकानों में लूटपाट होने लगी। मजदूरों का प्रतिरोध धीरे-धीरे संगठित होने लगा। कई जगहों पर मजदूरों ने कारख़ानों पर कब्जा करने का भी प्रयास किया और कई जगह प्रबन्‍धन और मालिकान को पीटकर भगा दिया। मजदूरों के प्रतिरोध का संगठित होना और उसका छात्रों और नौजवानों के आन्दोलन से मिलना यूनान के पूँजीपति वर्ग के लिए ख़तरे की घण्टी थी। यूनान के नये संशोधनवादी प्रधानमन्त्री जॉर्ज पापैण्ड्रन्न को यह समझ में आ गया कि यूनान अब मजदूरों और आम जनता पर सटोरियों और दलालों की आर्थिक लफंगई का बोझ और नहीं डाल सकता। नतीजतन, उन्होंने विश्व पूँजीवाद के अन्य सरदारों के सामने स्पष्ट कर दिया कि अब अगर यूनान को बेलआउट पैकेज नहीं दिया गया तो वह यूरोपीय आर्थिक संघ से बाहर निकल जायेगा। यूरोपीय आर्थिक संघ से निकलने के बाद यूनान यूरो के स्थान पर स्वयं अपनी मुद्रा का उपयोग करने और उसका अवमूल्यन करके और मुद्रा की आपूर्ति बढ़ाकर संकट से फिलहाल कुछ समय के लिए निकल पाने में समर्थ हो जाता। लेकिन इससे यूरोपीय संघ में जर्मनी को काफी नुकसान होता, यूरो अन्तरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में बेहद कमजोर हो जाता और यूनानी मुद्रा में कर्ज क़े वापस होने का बैंकों के लिए कोई ख़ास मतलब नहीं होता। इस ख़तरे के अलावा एक और ख़तरा मँडरा रहा था। यह यूनानी संकट अब स्पेन और पुर्तगाल तक पहुँच चुका था। अगर तुरन्त सहायता पैकेज नहीं दिया जाता तो दक्षिणी यूरोप के साथ-साथ केन्द्रीय यूरोप की कई अर्थव्यवस्थाएँ दीवालिया हो जातीं। इस बार मामला बैंकों के दीवालिया होने का नहीं था, बल्कि देशों के दीवालिया होने का था। अमेरिका भी अब बेलआउट पैकेज देने के लिए जर्मनी और फ्रांस को मनाने में लग गया। इसमें अमेरिका का भी हित था, क्योंकि अमेरिकी बैंकों के 3.6 ट्रिलियन डॉलर यूरोप के उन बैंकों में लगे थे जिन्होंने यूनान, पुर्तगाल और स्पेन की सरकारों को कर्ज दिया था। अगर यूनान की सरकार ऋण देने में अक्षम साबित होती तो यूरोप के इन बैंकों के ढहने के साथ ही, बीमारी से उठने की कोशिश कर रहे अमेरिकी बैंकों को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ता और पूरी अमेरिकी अर्थव्यवस्था भी फिर चरमराकर बैठ जाती। पहले से ही बेरोजगारी के सामाजिक असन्तोष का कारण बनने से परेशान अमेरिका और अधिक दबाव झेलने की स्थिति में नहीं था। इसीलिए ओबामा साहब मोहतरमा मर्केल और जनाब सरकोजी को इस बात पर मनाने लगे कि वे सहायता पैकेज दे दें। अन्तत: बीती 7 मई को अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और यूरोपीय संघ ने मिलकर मुख्य रूप से यूनान और साथ ही पुर्तगाल और स्पेन को निजी बैंकों के कर्ज का एक हिस्सा चुकाने के लिए 980 बिलियन डॉलर का बेलआउट पैकेज दिया। शेयर मार्केट के सटोरिये इसके एकदम ख़िलाफ थे। इसका कारण यह था कि यूनान के दीवालिया होने की सम्भावना पैदा होते ही इन्होंने इस पर भी सट्टा लगा दिया था कि यूनान दीवालिया होगा या नहीं! वित्तीय पूँजी इस हद तक मुर्दाख़ोर हो सकती है कि एक देश के दीवालिया होने के लिए शेयर मार्केट रूपी जुआघर में दाँव लगाये, इसकी कल्पना पूँजीवाद की ओर से क्षमायाचना करने वालों ने शायद कभी नहीं की होगी! वास्तव में, इन सटोरियों ने एक अलग वित्तीय उपकरण का आविष्कार कर डाला ताकि वे यूनान के दीवालिया होने पर सट्टा लगा सकें। इसे कहते हैं ‘क्रेडिट डिफॉल्ट स्वॉप’। इस बॉण्ड की कीमत अक्टूबर 2009 में 120 बिन्दु के स्तर से फरवरी 2010 में 419 पर पहुँच गयी। जब बेलआउट पैकेज देकर दूरदर्शी पूँजीवादी राजसत्ताओं ने यूनान को बचाया तो ये सटोरिये बहुत मिनमिनाये और भिनभिनाये! लेकिन उन्हें तमाम वित्त मन्त्री और विशेषज्ञ यह समझाने में अभी भी लगे हुए हैं कि पूँजीवाद की दीर्घकालिक सेहत में अभी वे थोड़ा नुकसान उठा लें वरना न तो शेयर मार्केट रह जायेगा, न सटोरिये और न ही मुनाफे की व्यवस्था।
इस पैकेज के दो अर्थ हैं। एक तो यह कि यूनानी सरकार अपने देश में कुछ कल्याणकारी नीतियाँ जारी रख सके और दूसरा उन बैंकों को दीवालिया होने से बचा लिया जाये, जिन्होंने यूनानी सरकार को कर्ज दिया था (जो वस्तुत: यूनानी आम जनता का ही पैसा था!)। इस तरह एक तीर से दो निशाने लगाये गये। तात्कालिक तौर पर बैंकों को भी बचा लिया गया और साथ ही जनता के असन्तोष पर काबू पाने का काम भी हो गया।
लेकिन अभी से ही विशेषज्ञ कहने लगे हैं कि यह सिर्फ मरणासन्न मरीज को बस ऑक्सीजन देने जैसा है। बेलआउट पैकेज के रूप में भारी मात्रा में नकदी मिलते ही बैंक और तमाम वित्तीय संस्थान उन्ही कारगुजारियों में फिर लग गये हैं, जिनके कारण वे पिछले दो वर्षों में दो बार दीवालिया होने की कगार पर पहुँच गये थे। लेकिन इन लालची मुनाफाख़ोर बैंकरों को अपनी प्रबन्‍धन समितियों, यानी पूँजीवादी सरकारों पर पूरा भरोसा है कि जब भी वे जुए में बरबाद होने और दीवालिया होने की कगार पर पहुँचेंगे तो ये सरकारें जनता की जेब पर डाका डालकर उन्हें बचा लेंगी। लेकिन यूनान के मामले में बेलआउट पैकेज देने की कीमत जर्मन और फ्रांसीसी जनता को चुकानी पड़ी। ऐसा हर बार सम्भव नहीं होगा। और इधर का माल उधर और उधर का माल इधर करने से संकट ख़त्म नहीं होता है, बल्कि केवल कुछ देर के लिए टल जाता है और अगली बार और भयंकर रूप आता है। पहले यह समय एक-डेढ़ दशक का हुआ करता था, लेकिन साम्राज्यवाद के और अधिक मरणासन्न होने के साथ ही यह समय अब एक-दो साल का हो गया है। हर साल-दो साल पर विश्व पूँजीवाद भयंकर संकट का शिकार हो रहा है। नये सहस्राब्दी का बीता एक दशक इसी बात का गवाह है। लेकिन हर संकट विश्वभर के मजदूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता को यह अहसास दिलाता जा रहा है कि पूँजीवाद के रहते उनकी बरबादी का कोई अन्त नहीं है और इसका विकल्प ढूँढ़े बग़ैर गुजारा नहीं है। इस बात का अहसास तीसरी दुनिया के ग़रीब देशों में तो गहरा रहा ही है, लेकिन भूमण्डलीकरण के रूप में साम्राज्यवाद की अन्तिम अवस्था के आगे बढ़ते जाने के साथ विकसित देशों में पीछे की कतार में खड़े देशों में भी गहराता जा रहा है, मिसाल के तौर पर दक्षिणी और मध्‍य यूरोप के देश।
21वीं सदी की इस ‘यूनानी त्रासदी’ ने साफ कर दिया है कि हर बीतते पल के साथ पूँजीवाद अधिक से अधिक परजीवी, मरणासन्न और खोखला होता जा रहा है। साथ ही, यूनानी संकट ने यह भी साफ कर दिया है कि विश्व साम्राज्यवाद का संकट टलने या थमने वाला नहीं है। यह पूँजीवाद का अन्तकारी रोग है जो पूँजीवाद के अन्त के साथ ही समाप्त होगा।

बिगुल, जून 2010


 

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