इक्कीसवीं शताब्दी की पहली दशाब्दी के समापन के अवसर पर
अतीत का निचोड़ सामने है और भविष्य की तस्वीर भी!

मेहनतकश साथियो! निर्णायक बनो!
अपना ऐतिहासिक मिशन पूरा करने के लिए आगे बढ़ो!

वर्ष 2009 के बीतने के साथ ही इक्कीसवीं सदी का पहला दशक बीत चुका है। विगत दस वर्षों के दौरान पूरी दुनिया के पैमाने पर जो घटनाएँ घटी हैं, उन्होंने हमें बीसवीं शताब्दी के गुजरे हुए समय को समझने में तथा आने वाले दिनों की सम्भावनाओं को, भविष्य के दिशा संकेतों को पहचानने में काफी मदद की है। भविष्य की सूत्रधार ताकतें अभी इतिहास के रंगमंच पर सक्रिय नहीं हुई हैं, लेकिन उनके अवतरण की ज़मीन जितनी तेजी से तैयार हो रही है, उसे देखकर कहा जा सकता है कि गुजरी हुई दशाब्दी में इतिहास की गति काफी तेज रही है।

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याद करें पिछली शताब्दी के आख़िरी दशक के उन शुरुआती वर्षों को, जब पूरी दुनिया में बस एक ही शोर था। चारों ओर समाजवाद की पराजय और मार्क्‍सवाद की असफलता की बातें हो रही थीं। पूँजीवादी सिध्दान्तकारों से लेकर दौ कौड़ी के टकसाली कलमघसीटों तक – सभी बस एक ही राग अलाप रहे थे। हालाँकि सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में जो झण्डा धूल में गिरा था, वह नकली समाजवाद का झण्डा था। वहाँ समाजवादी नकाब वाली राजकीय पूँजीवादी सत्ताओं का पतन हुआ था और उनका स्थान पश्चिमी ढंग की, खुली निजी स्वामित्व और प्रतिस्पर्द्धा वाली पूँजीवादी व्यवस्थाओं ने लिया था (इन देशों में वास्तविक समाजवाद तो वस्तुत: 1955-56 में ख्रुश्चेव के सत्तासीन होते ही पराजित हो चुका था)। उस समय थोड़े से बिखरे हुए क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट इस सच्चाई को सामने रख रहे थे और यह भी कह रहे थे कि 1955-56 में रूस और पूर्वी यूरोप में तथा 1976 में चीन में समाजवाद की जो पराजय हुई है, वह अन्तिम नहीं है। यह महज पहली सर्वहारा क्रान्तियों की हार है जिसकी शिक्षाएँ इन क्रान्तियों के नये संस्करणों की फैसलाकुन जीत की ज़मीन तैयार करेंगी। यह श्रम और पूँजी के बीच जारी विश्व ऐतिहासिक समर का मात्र पहला चक्र है, अन्तिम नहीं। अतीत में भी निर्णायक ऐतिहासिक जीत से पहले विजेता वर्ग एकाधिक बार पराजित हुआ है। कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों ने तब समाजवाद के अन्तर्गत जारी वर्ग संघर्ष, पूँजीवादी पुनर्स्थापना के अन्तर्निहित ख़तरों और चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की शिक्षाओं के आधार पर भविष्य में इन ख़तरों से लड़ने के बारे में भी बार-बार बातें की थीं। वे यह भी बताते रहे कि पूँजीवाद जिन कारणों से अपने भीतर से समाजवाद के बीज और उसके वाहक वर्ग को (अपनी कब्र खोदने वाले वर्ग को) पैदा करता है, वे बुनियादी कारण अभी भी मौजूद हैं। पर उस समय चारों ओर”अन्त-अन्त” का शोर था – समाजवाद का अन्त, मार्क्‍सवाद का अन्त, इतिहास का अन्त, विचारधारा का अन्त। वामपन्थी बुध्दिजीवी भी दिग्भ्रमित थे। मजदूर वर्ग निराश था। क्रान्तिकारी वाम का जो हिस्सा चीजों को किसी हद तक जान-समझ रहा था, वह काफी शक्तिहीन और निष्प्रभावी था। अलग-अलग भाषा में ज्यादातर पूँजीवाद बुध्दिजीवी बस एक ही बात कर रहे थे – उदार पूँजीवादी जनवाद की फैसलाकुन जीत की बात। उसके बाद पूरा एक दौर चला जब अख़बारों,किताबों और ‘हिस्ट्री’, ‘डिस्कवरी’ जैसे चैनलों पर दिखायी जाने वाली फिल्मों तक में बस रूस, चीन के समाजवादी दौर के बारे में, स्तालिन और माओ के बारे में तरह-तरह के घटिया कुत्सा-प्रचार किये जाते रहे तथा पश्चिमी पूँजीवादी समाज, संस्कृति, जीवनशैली और पूँजीवादी इतिहास को महिमामण्डित किया जाता रहा।

बीसवीं शताब्दी के आख़िरी दशक में पूँजीवादी विचारकों से लेकर कुछ किताबी मार्क्‍सवादियों तक ने यह कहना शुरू कर दिया था कि बाज़ार और वैश्विक लूट को लेकर साम्राज्यवादियों के बीच लगातार जारी होड़ (जो युध्दों को जन्म देती रहती है और जो युद्ध सर्वहारा क्रान्ति के लिए अनुकूल माहौल बनाते रहते हैं) अब समाप्त हो चुकी है और यह कि अमेरिकी चौधराहट में अब एकध्रुवीय विश्व अस्तित्व में आ चुका है। कहा जाने लगा कि आज के साम्राज्यवाद को ”पूँजीवाद की चरम अवस्था” और ”सर्वहारा क्रान्ति की पूर्वबेला” नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अपनी क्रियाविधि में बदलाव करके अपने संकटों से निजात पाते रहने का नया मैकेनिज्म इसने विकसित कर लिया है।

लेकिन नयी सदी शुरू होते-होते पूँजीवाद ख़ुशफहमियों पर आशंका के काले बादल मँडराने लगे। एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के जिन देशों ने साम्राज्यवादी महाप्रभुओं और आई.एम.एफ.-विश्व बैंक-गैट/विश्व व्यापार संगठन के निर्देशों-नुस्ख़ों पर अमल करते हुए उदारीकरण- निजीकरण की नीतियों को लागू किया था, वहाँ पहले ही पैदा हो चुका गम्भीर आर्थिक संकट नयी सदी में विस्फोटक रूप धारण करने लगा। तेजी से बढ़ती बेरोजगारी, धनी-ग़रीब की खाई,छँटनी, मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के कानूनी प्रावधानों की समाप्ति और रहे-सहे बुर्जुआ श्रम कानूनों को भी बेअसर किये जाने के चलते लोगों को यह बात समझ आने लगी कि नवउदारवाद वस्तुत: क्लासिकी पूँजीवादी नग्न-निरंकुश लूट-मार की फिर से वापसी है। बढ़ती महँगाई और खाद्यान्न संकट ने कई देशों में एक बार फिर खाद्य-दंगों का ख़तरा पैदा कर दिया। पूँजी निवेश के लिए देशी-विदेशी पूँजीपतियों को किसानों की जमीन कौड़ियों के मोल सौंपने और बहुमूल्य खनिजों की लूट के लिए जंगल-पहाड़ को तबाह करके वहाँ के मूल निवासियों को उजाड़ देने के चलते पूरी दुनिया में करोड़ों लोग विस्थापित हो गये। पर्यावरण की भयंकर तबाही हुई। ब्राजील से लेकर भारत तक, नाइजीरिया से लेकर इण्डोनेशिया तक – सभी जगह, अल्पविकसित पूँजीवादी देशों की कमोबेश समान स्थिति थी। सूडान, सोमालिया से लेकर सब सहारा और कैरीबियन के कई देशों में तो ”विफल राज्य” की स्थिति पैदा हो गयी। चीन और भारत जैसे जो देश ऊँची विकास दर के हवाले से तरक्की की ढोल बजा रहे हैं, वहाँ भी महँगाई, बेरोजगारी और धनी-ग़रीब की तेजी से बढ़ती खाई समाज को ज्वालामुखी के दहाने की ओर धकेल रही है। समृद्धि के ऊपर से रिसकर नीचे पहुँचने के आर्थिक सिध्दान्त की असलियत को दावों के ठीक उलट हकीकत ने नंगा कर दिया है। पूँजी की मार से सालाना लाखों का विस्थापन और दो दशकों में दो लाख किसानों की आत्महत्या, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि सभी बुनियादी सुविधाओं से आम मेहनतकश आबादी का वंचित होते जाना, अकूत खनिज सम्पदा पूँजीपतियों को सौंपने के लिए जंगल-पहाड़ की तबाही और वहाँ के आदिवासियों के विरुद्ध युद्ध छेड़ने जैसी स्थिति, बेहिसाब राजनीतिक भ्रष्टाचार और काले धन का समानान्तर अर्थतन्त्र, अनुत्पादक जुआड़ी पूँजीतन्त्र का तेज फैलाव, आदि-आदि… जिन सच्चाइयों के साक्षी हम भारत में हो रहे हैं, वही स्थिति चीन, अर्जेण्टीना, ब्राजील, मेक्सिको, द. अफ्रीका, नाइजीरिया, मिस्र आदि तीसरी दुनिया के अगली कतार के सभी देशों की है। पूर्वी यूरोप के जिन देशों को उदार पूँजीवादी ”स्वर्ग” के सपने दिखाये गये थे, उनकी स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है। रूस तेल और गैस के भारी भण्डार की बदौलत अपने अर्थतन्त्र को अराजकता से निकालने के बाद साम्राज्यवादी होड़ में फिर से शामिल होने के लिए आतुर है, लेकिन देश के भीतर विषमता, भ्रष्टाचार,बेरोजगारी और महँगाई के चलते जनाक्रोश की स्थिति सुलगते ज्वालामुखी जैसी बनी हुई है। स्वयं अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों की जनता भी नवउदारवादी नीतियों के कोप-कहर से अछूती नहीं बची है।

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आर्थिक संकट के विस्फोट के जिस चरम-बिन्दु ने इक्कीसवीं सदी के पहले दशक का सर्वोपरि तौर पर चरित्र-निर्धारण किया है वह है 2006 में अमेरिका से शुरू हुई भीषण मन्दी जिसने जल्दी ही पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया और, जिसे अब एक नयी महामन्दी निस्संकोच कहा जा सकता है। 1930 के दशक के बाद की यह सबसे बड़ी मन्दी है, जिसने अमेरिका से शुरू होकर पूरी दुनिया को अपने चपेट में ले लिया। अब तक, पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक करोड़ों मजदूर इस मन्दी में अपना रोजगार खो चुके हैं, लाखों छोटे निवेशक दिवालिया हो चुके हैं, हजारों बैंक तबाह हो चुके हैं, बहुतेरे देशों की अर्थव्यवस्थाएँ असमाधोयता के संकट के भँवर में फँसी हैं या फँसने के करीब हैं। तीसरी दुनिया के देशों की तो बात ही क्या, ग्रीस, स्पेन, इटली, पुर्तगाल जैसे कई यूरोपीय देशों में भी खाद्यान्न दंगे हो रहे हैं। पूरी दुनिया में पिछले दो दशकों के दौर में बेरोजगारी और धनी-ग़रीब का अन्तर अभूतपूर्व रफ्तार से बढ़े हैं। अमेरिका और फिर अधिकांश पूँजीवादी देशों की सरकारों ने सरकारी ख़जाने से (जो जनता का पैसा है) अरबों-खरबों डॉलर की सहायता (”प्रोत्साहन पैकेज”) कारख़ानेदारों-बैंकरों को देकर मन्दी के भूत से पीछा छुड़ाने की कोशिश की। इससे हालत में जो सुधार आये हैं (ग़ौरतलब है कि यह सुधार वास्तविक उत्पादक निवेश से नहीं, बल्कि सरकारी प्रोत्साहन-पैकेजों से आया है) उसे भी पूँजीवादी अर्थशास्त्री तक अस्थायी राहत बता रहे हैं और कुछ तो इसे नकली रिकवरी तक बता रहे हैं। कुछ की भविष्यवाणी है कि इस वर्ष या अगले वर्ष तक, विश्व पूँजीवाद को मन्दी की एक और तगड़ी मार झेलनी पड़ सकती है।

पीछे मुड़कर कई दशकों की वैश्विक आर्थिक विकास दरों को देखने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि बीच के कुछ वर्षों की आंशिक रूप से बेहतर स्थिति के बावजूद, विकास दरों में गिरावट की रुझान कमोबेश 1970 के दशक से जारी है। 1987 में अमेरिकी अर्थतन्त्र को महाधवंस (ग्रेट क्रैश) का जो झटका लगा, उसे रीगनॉमिक्स एक हद तक ही सँभाल पाया था। 1990 के दशक में पूर्व सोवियत संघ के घटक देशों, पूर्वी यूरोप और चीन के बाजारों का खुलना भी विश्व पूँजीवाद को कोई विशेष राहत नहीं दे पाया। 1997 के दक्षिण एशियाई संकट के बाद से अबतक विश्व पूँजीवाद पाँच बड़े संकटों का सामना कर चुका है। नयी सदी का पहला दशक सतत् मन्दी का दशक रहा है। महाबली अमेरिका पहले ‘डॉट कॉम क्रैश’, फिर हाउसिंग बुलबुले के फटने का शिकार हुआ और फिर सबप्राइम संकट शुरू हुआ जिसने पूरी दुनिया को अपने चपेट में ले लिया। कहा जा सकता है कि विगत चार दशकों से ही विश्व पूँजीवादी अर्थतन्त्र एक मन्द मन्दी की सतत् प्रक्रिया से गुज़रता रहा है। बीच-बीच में राहत के कुछ संकेत मिलते हैं, फिर गति मध्दम पड़ जाती है और फिर ऐसे दौर आते हैं जब संकट विस्फोटक रूप धर लेते हैं। इस प्रक्रिया का चरम दौर 2006 से शुरू हुए विश्वव्यापी आर्थिक संकट और विकट मन्दी का दौर है। अब यह बात विश्वासपूर्वक कही जा सकती है कि विश्व पूँजीवाद का वर्तमान संकट, पहले के, आवर्ती चक्रीय क्रम में आने वाले संकटों से भिन्न, एक ढाँचागत संकट है, जो लगातार जारी है और बीच-बीच में विस्फोटक रूप ले लेता है। यह विश्व पूँजीवाद का अन्तकारी रोग है। इतिहास ने बुध्दिजीवियों के तमाम मर्सियों को झुठलाते हुए मानव-मुक्ति की समाजवादी परियोजना की सार्थकता और उसके नवीकरण की जरूरत को एक बार फिर साबित किया है। इसने सिद्ध किया है कि तमाम बदलावों के बावजूद, साम्राज्यवादी बुढ़ापे को पूँजीवाद नौजवानी में नहीं बदल सकता। साम्राज्यवाद ही पूँजीवाद की चरम अवस्था है। अब यदि साम्राज्यवाद इतिहास की छाती पर बोझ की तरह,अपनी जड़ता की ताकत से जमा हुआ है तो सिर्फ इसलिए कि सर्वहारा वर्ग अभी अपने ऐतिहासिक मिशन को अंजाम देने के लिए तैयार नहीं हो पाया है। लेकिन यह तो सिर्फ समय की बात है। सर्वहारा वर्ग और मेहनतकश जनसमुदाय के सामने इतिहास की शिक्षाएँ हैं, विगत प्रयोगों के सकारात्मक-नकारात्मक अनुभव हैं,जो उसे इक्कीसवीं शताब्दियों की नयी क्रान्तियों की राह दिखा रहे हैं। यही वजह है कि पूँजीवादी विश्व को आज कम्युनिज्म का हौवा फिर नये सिरे से सता रहा है। वह अपनी तमाम वैचारिक ताकत लगाकर और मीडिया को सन्नद्ध करके वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों पर, सर्वहारा क्रान्तियों पर और उनके महान नेताओं पर हमले बोल रहा है, झूठे घिनौने प्रचारों और मिथ्याभासी तर्कों का घटाटोप रच रहा है, लेकिन आज के पूँजीवादी विश्व की मानवद्रोही कुरुपताएँ-विभीषिकाएँ आम लोगों को समाजवादी स्वप्न और परियोजना के पुनर्जीवन के लिए सतत् प्रेरित कर रही हैं।

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पूँजीवाद के अमरत्व के साथ दावे यह भी किये जा रहे थे कि अब अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा तथा शीत युध्दों-उष्ण युध्दों का दौर समाप्त हो चुका है और अमेरिकी नेतृत्व में एक-ध्रुवीय विश्व का निर्माण हो चुका है। गुजरे दशक ने इस आकलन को ग़लत सिद्ध किया है। दुनिया का सबसे बड़ा कर्ज़दार मुल्क होने के बावजूद अमेरिकी चौधराहट का मुख्य कारण डॉलर की विश्व मुद्रा जैसी स्थिति है। विश्व-व्यापार ज्यादातर डॉलर में ही होता है और लगभग सभी देश अपने विदेशी मुद्रा भण्डार का पूरा या बड़ा हिस्सा डॉलर के रूप में ही रखते हैं, अत: डॉलर के डाँवाडोल होने पर सभी अर्थव्यवस्थाएँ डगमगा जाती हैं। लेकिन यह स्थिति चिरस्थायी नहीं है। कई देश अपने विदेशी मुद्रा भण्डारों को ‘डाइवर्सिफाई’ करने (यानी कई मुद्राओं में विदेशी मुद्रा भण्डार रखने) की शुरुआत कर चुके हैं। नये-नये साम्राज्यवादी गुट, धुरी और समीकरण उभर रहे हैं। इनमें पश्चिमी देशों के साथ-साथ, रूस और चीन भी प्रभावी भूमिका निभा रहे हैं तथा भारत, ब्राज़ील,दक्षिण अफ्रीका जैसे नये पूँजीवादी देश भी छुटभैयों के रूप में प्रभावी बन रहे हैं।

आर्थिक दायरों की ये सरगर्मियाँ नयी धुरियों के निर्माण और अन्तर- साम्राज्यवादी होड़ के नये दौर की शुरुआत का स्पष्ट संकेत दे रही हैं। इनकी राजनीतिक अभिव्यक्तियाँ भी आनी शुरू हो चुकी हैं। जॉर्जिया, चेचेन्या और पूर्व युगोस्लाविया में ही नहीं, तीसरी दुनिया में मध्‍यपूर्व से अफ्रीका तक – सभी जगह के राजनीतिक-सामरिक टकरावों में एक अन्तरविरोध यदि साम्राज्यवाद और उन देशों की जनता के बीच का है, तो सतह के नीचे दूसरा अन्तरविरोध साम्राज्यवादी ताकतों के बीच का भी है। इराक और अफगानिस्तान में जो साम्राज्यवादी ताकतें अमेरिका का साथ दे रही हैं, वे इन देशों में उलझाव से अमेरिका के बढ़ते आर्थिक संकट से खुश भी हैं, क्योंकि इससे भविष्य में अमेरिकी चौधराहट को प्रभावी चुनौती पेश करने में उन्हें मदद मिलेगी। रूस नये गुट का निर्माण करते हुए और दस वर्षों में अपने तेल-गेस आधारित अर्थतन्त्र को तकनोलॉजी- आधारित अर्थतन्त्र बनाने की योजना पर काम करते हुए नयी आक्रामकता के साथ प्रतिस्पर्द्धा में उतरा है, जिसकी सामरिक अभिव्यक्तियाँ भी नयी सैन्य तैयारियों और अमेरिका से नये सिरे से सामरिक अस्त्रों की होड़ के रूप में सामने आ रही हैं। शीतयुद्ध के एक नये दौर के आग़ाज के संकेत फिर से से मिलने लगे हैं।

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अमेरिका की अजेय सैन्य शक्तिमत्ता के मिथक का धवस्त होना पिछले दशक की एक और प्रमुख प्रवृत्तिमूलक घटना रही है। जनसंहार के हथियारों और अलकायदा नेटवर्क को मदद पहुँचाने का आरोप लगाते हुए, इराक पर हमला करके उसकी अकूत तेल-सम्पदा पर कब्जा करने के लिए उसने जो युद्ध छेड़ा, वह अपने मकसद में पूरी तरह से नावफामयाब रहा। इराकी प्रतिरोधी दस्तों की छापामार कार्रवाइयों के चलते तेल निकालकर मुनाफा कूटने के सपने धरे के धरे रह गये। उल्टे युद्ध के भारी ख़र्च ने अमेरिकी अर्थतन्त्र पर गम्भीर प्रभाव डाला। इराक से अमेरिकी हवाई अड्डों पर लगातार उतरते ताबूत और लौटते हुए घायल सैनिकों ने अमेरिकी जनसमुदाय में युध्द-विरोधी व्यापक लहर पैदा कर दी है। जो यूरोपीय देश तेल की बन्दरबाँट की शर्त पर इराक में अमेरिका का साथ दे रहे थे, उन्होंने मामला उल्टा पड़ते देख हाथ पीछे खींच लिया और अमेरिकी पराजय का इन्तजार करने लगे। अमेरिका की रणनीतिक हार तो वास्तव में हो चुकी है। अब वह किसी तरह से बाहर निकलने के रास्ते ढूँढ़ रहा है। अफगानिस्तान में भी वह इतनी ही बुरी तरह फँस चुका है। अमेरिका और ब्रिटेन के कई जनरल स्वीकार कर चुके हैं कि यह लड़ाई जीती नहीं जा सकती।

उधर, फिलिस्तीनी जनता का प्रतिरोध-संघर्ष पी.एल.ए. नेतृत्व की ग़द्दारी के बाद भी जारी है और अप्रतिरोध्‍य बना हुआ है। अमेरिकी समर्थन से जिस इस्त्रायल ने1967 में कई अरब देशों को एक साथ शिकस्त दी थी, उसकी सेना को लेबनान में हिजबुल्ला के लड़ाकों ने पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया।

मध्‍य-पूर्व और अफग़ानिस्तान में अमेरिकी उलझाव का एक नतीजा यह सामने आया है कि उसके ऐन पिछवाड़े, लातिन अमेरिका से उसे चुनौती मिलने लगी है। पहले लातिन अमेरिकी देशों में थोड़ी भी राजनीतिक आज़ादी दिखाने वाली सत्ता के विरुद्ध अमेरिका द्वारा सैनिक विद्रोह कराकर किसी कठपुतली तानाशाह को बैठा देना आम बात होती थी। अब वेनेज़ुएला और बोलीविया जैसे देश क्यूबा के साथ मिलकर गुट बनाकर अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध जमकर आवाज़ उठा रहे हैं। ह्यूगो शावेज और इवो मोरालेस की सत्ताएँ निश्चय ही समाजवादी सत्ताएँ नहीं हैं, लेकिन अमेरिका-विरोधी गहरी घृणा के चलते व्यापक जनसमर्थन उनके साथ है और ये सत्ताएँ कुछ रैडिकल किस्म की जनकल्याणकारी नीतियों को लागू करते हुए नवउदारवादी भूमण्डलीय प्रोजेक्ट को भी चुनौती दे रही हैं। अन्य लातिनी देश जो इतने रैडिकल नहीं हैं, वहाँ की बुर्जुआ या सामाजिक जनवादी सत्ताएँ भी अपनी राजनीतिक आज़ादी का खुलकर प्रदर्शन कर रही हैं। कुछ छोटे-छोटे मध्‍य अमेरिकी देशों को छोड़कर लातिनी अमेरिका में सैनिक जुण्टाओं और कठपुतली सरकारों का दौर समाप्त हो चुका है।

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नयी सदी के गुज़रे दशक में एक और महत्तवपूर्ण राजनीतिक परिघटना देखने में आई है। एशिया और अफ्रीका के बहुतेरे देशों में राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष क्रान्तिकारी ढंग से चले थे, लेकिन सत्तासीन होने के बाद वहाँ के बुर्जुआ वर्ग ने पूँजीवादी नीतियों को लागू करते हुए साम्राज्यवाद के साथ समझौते का रास्ता चुना था। लगभग इन सभी शासकों ने 1990 के दशक में नवउदारवादी नीतियों पर अमल की शुरुआत की। इन सभी देशों में बुर्जुआ शासन ज्यादा से ज्यादा भ्रष्ट और निरंकुश होता चला गया है तथा बुर्जुआ जनवाद का तेजी से क्षरण-विघटन हुआ है। अब इनमें से कई देशों की जनता नवउदारवादी नीतियों का विरोध करती हुई, साम्राज्यवाद के साथ-साथ देशी बुर्जुआ वर्ग का भी जमकर विरोध कर रही है। यह स्थिति केन्या, द. अफ्रीका और जिम्बाब्वे आदि कई अफ्रीकी देशों से लेकर ईरान तक में है, जहाँ की जनता अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ-साथ अब अहमदीनेजाद की निरंकुश सत्ता का भी पुरज़ोर विरोध कर रही है। ये परिस्थितियाँ इक्कीसवीं सदी की उन नयी क्रान्तियों की वर्ग-लामबन्दी को दर्शा रही हैं, जिनका चरित्र मूलत: साम्राज्यवाद विरोधी पूँजीवाद विरोधी क्रान्ति का होगा। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द तक में, अधिकांश उत्तर-औपनिवेशिक समाजों में राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति के कार्यभार मुख्यत: छूटे हुए थे। अब आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियाँ बताती हैं कि मुख्यत: वे पूरे हो चुके हैं, पहली बार उत्तर-औपनिवेशिक समाजों में पूँजी और श्रम के बीच का अन्तरविरोध प्रधान बनकर सामने आया है और एक नये प्रकार की समाजवादी क्रान्ति की ज़मीन तैयार हुई है। इक्कीसवीं सदी की विश्व सर्वहारा क्रान्ति की नयी आम लाइन इन परिस्थितियों के सांगोपांग अध्‍ययन के बाद ही तैयार की जा सकती है।

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रूस में, उक्रेन में और पूर्व सोवियत संघ के कई घटक देशों में नवउदारवादी नीतियों और भ्रष्ट निरंकुश सत्ताओं के विरुद्ध जनाक्रोश गहराता जा रहा है। महत्तवपूर्ण बात यह है कि इनमें से कई देशों में (संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टियों से अलग) कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन मौजूद हैं जो स्तालिन तक की विरासत को स्वीकार करते हैं और ख्रुश्चेवी संशोधनवाद को ख़ारिज करते हैं। चीन में ”बाज़ार समाजवाद” के विरुद्ध किसानों-मजदूरों के स्वत:स्फूर्त विद्रोहों के अनवरत सिलसिले की ख़बरें तो 1990 के दशक से ही लगातार आती रही हैं। इधर ऐसी सूचनाएँ भी छनकर बाहर आयी हैं कि वहाँ माओ और सांस्कृतिक क्रान्ति की विरासत को मानने वाले माओवादी ग्रुप भी जगह- जगह जनता के बीच सक्रिय हैं। पूँजीवादी पथगामियों की असलियत नंगी होने के साथ-साथ नयी पीढ़ी तक में माओ और सांस्कृतिक क्रान्ति के दौर के बारे में उत्सुकता पैदा हुई है। इन समाजवादी देशों की जनता समाजवादी प्रयोगों की साक्षी रह चुकी है। अब पूँजीवादी लूटमार-भ्रष्टाचार-दमन का नजारा उनके सामने है। बढ़ते संकट और गहराते अन्तरविरोधों के साथ इन देशों में अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण के पुनर्निर्माण की जमीन तैयार होने लगी है।

कार्ल मार्क्‍स ने डेढ़ सौ वर्ष पहले कहा था कि पूँजीवाद मुनाफे की अंधी हवस में मनुष्य के साथ ही प्रकृति को भी निचोड़कर तबाह कर रहा है। गत शताब्दी के आख़िरी तीन दशकों के दौरान पर्यावरण की तबाही – कारख़ानों से नदियों के प्रदूषण, पूँजीवादी खेती में जहरीले कीटनाशकों-रसायनों के अन्धधुन्ध इस्तेमाल से मिट्टी और भूमिगत जल की तबाही, स्वास्थ्य पर पड़ने वाले गम्भीर प्रभावों, जंगलों की कटाई, रेगिस्तानों के विस्तार, इंसानी कारणों से बाढ़ व सूखे की बढ़ोत्तरी,ग्लोबल वार्मिंग, ग्लेशियरों के पिघलने, ओजोन परत में छेद होने से घातक विकिरण के ख़तरों आदि पर लगातार चर्चा होती रही। कुछ ऐसे भी लोग थे, जो तकनीक एवं उद्योगों को ही विनाश का कारण मानते हुए पीछे की ओर लौटने का नारा दे रहे थे। कुछ पर्यावरणवादी इसी व्यवस्था में पर्यावण-विनाश की समस्या का समाधान ढूँढ़ते हुए सरकारों से अपील कर रहे थे, तो कुछ जनता से नदियों की सफाई, ऊर्जा की बचत, ऑर्गेनिक खेती की अपील कर रहे थे। फिर मुख्यत: गत शताब्दी के अन्तिम दशक के दौरान, कई पुस्तकों और निबन्धों ने विस्तृत तथ्यों और तर्कों के आधार पर यह प्रमाणित किया कि पर्यावरण के भयंकर विनाश का बुनियादी कारण पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली है। पूँजीवाद कोई एकाश्मी व्यवस्था नहीं है। कच्चे मालों का अन्धधुन्ध दोहन करते हुए, मुनाफा कूटने के लिए बिना सामाजिक जरूरत के बेशुमार कारों और विलासिता के अनगिन सामानों का उत्पादन करते हुए, भूमिगत जल निकालते हुए, मिट्टी में जहरीले रसायन झोंकते हुए, नदियाँ जहरीली बनाते हुए, एक-दूसरे से गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा करते पूँजीपति ओजोन लेयर के छेद के बारे में, ग्लोबल वार्मिंग के बारे में,भविष्य में पृथ्वी के मनुष्य के नहीं रहने लायक बन जाने के बारे में एक साथ मिलकर नहीं सोच सकते। जो सोचेगा, वह दौड़ से बाहर हो जायेगा। पूँजीपति सिर्फ अपने आज के मुनाफे की सोचता है और ठीक नाक के आगे देखता है। उनमें कभी किसी प्रश्न पर आम सहमति नहीं बन पाती। पूँजीवादी व्यवस्था के दूरगामी हित के बारे में सोचने वाले नेता और थिंक टैंक जरूर कुछ ‘डैमेज कण्ट्रोल’ के कदमों की बात करते हैं, पर पूँजीवाद के रहते अब महज कुछ ‘डैमेज कण्ट्रोल’ के कदमों से पर्यावरण को नहीं बचाया जा सकता। पिछले दशक में पर्यावरण- विनाश के जो तथ्य सामने आये हैं, उन्होंने साबित कर दिया है कि पूँजीवाद के रहते पर्यावरण की तबाही को रोक पाना मुमकिन नहीं है। कोपेनहेगन सम्मेलन की विफलता ने भी इस सच्चाई पर ही ठप्पा लगाया है। उपाय सिर्फ यह है कि मुनाफे के लिए अन्धधुन्ध अराजक उत्पादन और अन्धधुन्ध मुनाफे की अन्धी होड़ की व्यवस्था को ही समाप्त कर दिया जाये। यानी उत्पादन मुनाफे के लिए न हो, नियोजित ढंग से सामाजिक आवश्यकताओं के लिए हो। यह तभी हो सकता है जब उत्पादन के साधनों के निजी मालिकाने को समाप्त कर दिया जाये और उत्पादन एवं विनिमय की समाजीकृत प्रणाली कायम की जाये, जिसपर आम जनसमुदाय का नियन्त्रण हो। तब तकनीक के सहारे समाज प्रकृति प्रदत्त चीजों से उपयोग लायक चीजें बनायेगा और इस प्रक्रिया में प्रकृति में यदि कोई असन्तुलन पैदा होगा तो तकनीक के सहारे ही उसे दुरुस्त करने का भी काम करेगा। सीधो-सादे शब्दों में कहा जा सकता है कि पर्यावरण को पूँजीवाद तबाह कर रहा है और दुनिया को बचाने का एकमात्र रास्ता यही है कि जनक्रान्तियों के द्वारा पूँजीवाद को तबाह करके समाजवादी मुक्ति -परियोजनाओं को अमली जामा पहनाया जाये।

पिछली शताब्दी के अन्तिम दशक में जब उदारीकरण-निजीकरण मुहिम के नतीजों के ख़िलाफ पश्चिमी देशों का मजदूर आत्मरक्षात्मक ढंग से उठ खड़ा हुआ और पुराने ट्रेड-यूनियन आन्दोलन में एक बार फिर कुछ प्राण संचार होता दीखा तो कुछ वाम बुध्दिजीवियों को इससे काफी उम्मीदें दीखने लगीं। लेकिन गुजरे दशक ने एक बार फिर सिद्ध किया है कि ट्रेड यूनियन के आर्थिक संघर्षों से मजदूर महज आत्मरक्षा कर सकता है और कुछ रियायतें हासिल कर सकता है। पूँजीवाद का नाश करके समाजवाद का निर्माण करने के लिए उसे राजनीतिक संघर्ष करते हुए राज्यसत्ता दख़ल की दिशा में आगे बढ़ना होगा और यह तभी हो सकता है जब सर्वहारा वर्ग की एक ऐसी क्रान्तिकारी पार्टी हो, जो सही कार्यक्रम और वर्ग लामबन्दी की सही समझ से लैस हो।

कुछ ऐसे भी बुध्दिजीवी थे जो चियापास (मेक्सिको) के किसान संघर्ष, विभिन्न जनान्दोलनों और छिटपुट स्वयंस्पूफर्त संघर्षों को ही एकमात्र विकल्प के रूप में देखने लगे थे। इस ”उत्तर-आधुनिक” स्वत:स्पूफर्ततावाद और लोकरंजकतावाद का गुब्बारा भी अब पिचक चुका है। अभी भी कुछ ऐसे हैं जो वेनेज़ुएला या क्यूबा को समाजवाद के मॉडल के रूप में देखते हैं। पर इन मिथ्या आशाओं के धवस्त होने में अब ज्यादा समय नहीं लगेगा।

गुज़रे दशक के आधुनिक इतिहास ने सार्वकालिक-सार्वभौमिक महत्तव की इस शिक्षा को एक बार फिर पुष्ट किया है कि सर्वहारा वर्ग ही एकमात्र वह वर्ग है,जिसके नेतृत्व में अन्य मेहनतकश जनसमुदाय लामबन्द होकर पूँजीवाद के युग को अवसान तक लेकर जायेंगे। सर्वहारा वर्ग का यह ऐतिहासिक मिशन है। वही पूँजीवाद की कब्र खोदने वाला वर्ग है। लेकिन जबतक किसी देश में मार्क्‍सवाद के क्रान्तिकारी विज्ञान और क्रान्ति के कार्यक्रम की सही समझ के आधार पर एक क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी नहीं बनेगी, तबतक सारे उग्र संघर्ष कालान्तर में दिशाहीन होकर भटकते रहेंगे और पूँजीवाद अपनी जड़ता की ताकत और दमनतन्त्र के सहारे टिका रहेगा।

वर्तमान समय ने बदली हुई सच्चाइयों की तस्वीर एकदम साफ कर दी है और स्पष्ट कर दिया है कि इक्कीसवीं सदी की सर्वहारा क्रान्तियाँ, बीसवीं सदी की सर्वहारा क्रान्तियों से बहुत कुछ सीखते हुए भी उनका अन्धनुकरण नहीं करेंगी। जैसे, भारत जैसे अधिकांश उत्तर-औपनिवेशिक समाजों में सामन्तवाद विरोधी कार्यभार अब मुख्यत: समाप्त हो चुके हैं। अत: इन देशों में साम्राज्यवाद विरोधी, पूँजीवाद-विरोधी नये प्रकार की सर्वहारा क्रान्ति की स्थितियाँ परिपक्व हो चुकी हैं। यही नहीं, पूँजीवाद की कार्यप्रणाली के बदलावों के चलते भी भावी क्रान्तियों की रणनीति एवं आम रणकौशल में कुछ बदलाव की स्थितियाँ पैदा हुई हैं। समस्या यह है कि वैचारिक तौर पर कमजोर, बिखरी हुई क्रान्तिकारी ताकतों में विगत क्रान्तियों के अन्धनुकरण की कठमुल्लावादी प्रवृत्ति गहराई तक जड़ जमाये हुए है। यह एक बहुत बड़ी गाँठ है, जिसे खोलना ही होगा।

कुल मिलाकर, कहा जा सकता है कि इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक ने एक बार फिर स्पष्ट संकेत दिये हैं कि यह शताब्दी निर्णायक सर्वहारा क्रान्तियों की सदी होगी। आने वाले दिन तूफानी उथल-पुथल भरे दिन होंगे। साम्राज्यवादी दुनिया को कम्युनिज्म का भूत फिर से सताने लगा है। बुर्जुआ राज्यसत्ताएँ अपने दमनतन्त्र को चाक-चौबन्द करने लगी हैं।

लेकिन भविष्य में निर्णायक सर्वहारा क्रान्तियों के होने और उनकी विजय के बारे में एकदम नियतिवादी तरीके से बात नहीं कही जा सकती। यदि सर्वहारा क्रान्ति की नेतृत्वकारी ताकतें अतीत की क्रान्तियों, वर्तमान के स्वत:स्पूफर्त संघर्षों और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक उपादानों का सही-सटीक अध्‍ययन- विश्लेषण करके नतीजे नहीं निकालेंगी तो लाख संकटों के बावजूद पूँजीवादी व्यवस्था अपनेआप कब्र में जाकर नहीं लेट जायेगी। मेहनतकश जनसमुदाय को क्रान्ति न कर पाने की सज़ा बर्बरतम फासिस्ट तानाशाही के रूप में मिलेगी और कालान्तर में पूँजीवाद मानव सभयता को ही विनाश के मुकाम तक पहुँचायेगा। विकल्प मात्र दो ही हैं – समाजवाद या विनाश! अब मजदूर वर्ग को तय करना है कि वह कौन-सा विकल्प चुने और अपने बलिष्ठ हाथों से इतिहास को मानव-मुक्ति की दिशा में मोड़े, या निष्क्रिय-अकर्मण्य बैठा विनाश की प्रतीक्षा करे।

 

बिगुल, जनवरी-फरवरी 2010

 


 

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