बादाम उद्योग मशीनीकरण की राह पर

नवीन, बादाम मज़दूर यूनियन, करावलनगर, दिल्ली 

Badam_Machine-2पिछले साल हुए बादाम मजदूरों की सोलह दिनों की हड़ताल दिल्‍ली के असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की बड़ी हड़ताल थी, जिसकी चर्चा तमाम अख़बारों और बिगुल के पुराने अंकों में हुई भी। पूर्वी दिल्ली के करावलनगर इलाके में बादाम के प्रोसेसिंग (तोड़ना, साफ करना) का काम होता है। पूरी दिल्ली के बादाम उद्योग का लगभग 80 फीसदी यहाँ तैयार होता है। अमेरिका, आस्ट्रेलिया और कनाडा से बादाम प्रोसेसिंग के लिए भारत आता है। बादाम मज़दूर हाथों से तोड़कर बादाम की गिरी निकालने का काम करते हैं। इस काम के दौरान निकलने वाला बुरादा स्वास्थ्य के लिए बेहद ख़तरनाक है। ज्यादातर मज़दूर बिहार के अत्यन्त पिछडे ऌलाके से हैं। अधिकांश अनपढ़ मज़दूर इस ख़तरनाक काम को करने के लिए मजबूर हैं क्योंकि जिस जगह से वे लोग आये हैं, वहाँ स्थिति और भी दयनीय है। बेहतर ज़िन्दगी की तलाश में आये इन मज़दूरों की ज़िन्दगी में घोर अंधेरा है। जो लोग बाज़ार से बादाम ख़रीदकर खाते हैं या उससे बनी चीज़ों का इस्तेमाल करते हैं, वे सपने में भी नहीं सोचते होंगे कि इनको बनाने वालों की ज़िन्दगी नर्क के समान है। 8 फुट बाई 10 फुट के कमरे में 6 से7 आदमी जानवरों की तरह रहने को मजबूर हैं। उसमें भी कहीं बिजली की व्यवस्था है तो कहीं नहीं। खाना बनाने के लिए ये लोग बादाम का छिलका का उपयोग करते हैं। वो भी गोदाम मालिक 30 रुपये से 35 रुपये बोरी मज़दूरों को बेचता है जोकि मुफ्रत के माल के तौर पर उसके यहाँ रहता है। जिस जगह पर बादाम तोड़ने और साफ करने का काम किया जाता है, उस जगह न तो कोई पेशाबघर होता है, न ही शौचालय। महिलाओं को ऐसी स्थिति में बेहद दिक्कत का सामना करना पड़ता है, वे तमाम बीमारियों का शिकार हो जाती हैं, मज़दूरों के छोटे-छोटे बच्चे भी उसी गोदाम में रहते है जो उनके स्वाथ्य के लिए बेहद ख़तरनाक है। सफाई के दौरान निकलने वाली बादाम के छिलके की धूल बेहद ख़तरनाक होती है। क्योंकि बादाम पहले तेज़ाब में भिगोया जाता है ताकि आसानी से टूटे। तेज़ाब से भरी हुई धूल फेफड़ों के लिए बेहद ख़तरनाक है। कुछ मज़दूरों की मौत भी इसी वजह से पहले हो चुकी है। काम की जगह स्वास्थ्य के लिए बेहद ख़राब है। मज़दूर जो कुछ कमाई करते हैं उसका एक विचारणीय हिस्सा बीमारियों के इलाज में निकल जाता है। मज़दूरों के इस कष्टपूर्ण जीवन को ये मालिकान तब और दूभर बना देते हैं, जब वे उससे बेईमानी करते हैं। एक मज़दूर पूरे दिन में दो कट्टा (बोरी) ही बादाम तोड़ पाता है, जिसका 60 रुपये प्रति कट्टा के दर से 120 रुपये मिलते हैं। 120 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से इस महँगाई में जी पाना कितना कठिन है कोई भी हिसाब लगा सकता है। सही समय पर पैसा न मिलने और उसमें मालिकों द्वारा बेईमानी करने के कारण समय-समय पर मज़दूरों और मालिकों के बीच विवाद होता रहता है। आन्दोलन के बाद भी मालिकान से पैसा निकलवाने के लिए मज़दूरों को लगातार यूनियन के नेतृत्व में संगठित होकर लड़ना पड़ता है। पिछले साल के आन्दोलन के बाद छोटे-छोटे आन्दोलनों का सिलसिला चलता रहा है। लड़ाइयों से मज़दूरों को संगठित होकर लड़ने की ताकत का एहसास हुआ है।

इसी इलाके में अन्य पेशों से जुड़े मज़दूर भी बादाम मज़दूरों की संगठित लड़ाई की ताकत को देखकर अन्याय के ख़िलाफ संगठित हो रहे हैं। इलाके में संगठित हो रहे विभिन्न पेशे से जुड़े मज़दूरों की ताकत से मालिकान पर दबाव बनाना ज्यादा कुशलता से किया जा सकता है।

पिछले कुछ दिनों से मालिकों ने यह भय फैलाने की कोशिश की हैं कि मशीनों के आने का कारण मज़दूरों का हड़ताल करना है। कई गोदामों में मशीनों के चलने से कुछ मज़दूरों को काम मिलने में कठिनाई हो रही है। हालाँकि अभी कुछ ही गोदामों पर मशीन से काम हो रहा है और वह भी सफलतापूर्वक नहीं। फिर भी आने वाले दिनों में मशीनों का आना तय है और इसका सफलतापूर्वक काम करना भी तय है। मालिकान मज़दूरों को मशीनों का भय दिखाकर हड़ताल या अन्य आन्दोलन करने से रोकना चाहते हैं। पिछड़ी चेतना और अधिकांशत अनपढ़ होने के कारण मालिकान कुछ मज़दूरों को अपने बहकावे में ले आते हैं। फिर भी ज्यादातर मज़दूर इस को अच्छी तरह समझते हैं कि मशीनों को भी मालिक ख़ुद नहीं चलायेंगे। उन्हें भी मज़दूर ही चलायेगा और मशीनीकरण लम्बी दूरी में इस उद्योग का मानकीकरण करेगा।

मज़दूरों की व्यापक आबादी को भी यह समझना होगा कि मशीनीकृत होने से यह उद्योग ज्यादा संगठित होगा और मज़दूरों को उनका मज़दूरी कार्ड से लेकर अन्य अधिकार मिलने का वैधानिक आधार तैयार होगा तथा फैक्टरी एक्ट के तहत आने वाली सुविधाएँ मिलेंगी। निश्चित रूप से यह पूँजीवादी उद्योग की एक नैसर्गिक प्रक्रिया है और इसमें कई मज़दूर बेकार भी होंगे। लेकिन जो आबादी मशीनीकरण के बाद स्थिरीकृत होगी, वह लड़ने के लिए तुलनात्मक रूप से बेहतर स्थिति में होगी। तब जाकर नये सिरे से लड़ाई शुरू होगी और श्रम कानून के तहत मिलने वाले सभी अधिकारों की लड़ाई लड़ी जायेगी। लेकिन असल मायने में मज़दूरों की मुक्ति इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को ध्‍वस्त करके ही मिलेगा।

 

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2010


 

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