पुलिसकर्मियों में व्याप्त घनघोर स्त्री-विरोधी विचार

श्वेता

अभी हाल ही में एक केस के सिलसिले में सिहानी गेट, गाज़ियाबाद पुलिस चौकी जाना हुआ। चौकी प्रभारी कृष्ण बलदेव ने स्त्रियों के बारे में अपने विचार रखे। उसके भोंडे और गलीज़ विचारों में कुछ नया नहीं था, इसलिए कोई विशेष हैरानी नहीं हुई। समाज में स्त्री विरोधी विचार वैसे तो हमेशा ही मौजूद रहते हैं, पर कभी-कभी वे भद्दे और वीभत्स रूप में अभिव्यक्त हो जाते हैं। यही कृष्ण बलदेव की अभिव्यक्तियों में दिखा। इन महोदय के अनुसार – “आजकल की लड़कियाँ बिगड़ रही हैं, फ़िल्में देखने जाती हैं।” आगे उसने कहा – “यौन उत्पीड़न के अधिकतर मामले तो फ़र्जी होते हैं, महिलाओं द्वारा लगाये गये अधिकतर आरोप तो बेबुनियाद होते हैं और इनसे हमारा काम बढ़ जाता है।” एक केस पर चर्चा के दौरान इन जनाब का कहना था, “इस महिला के चारित्रिक पतन की हद देखिये, देवता तुल्य अपने ससुर पर मनगढ़न्त आरोप लगाकर उन्हें परेशान कर रही है, बेचारे रोज़ चौकी के चक्कर काट रहे हैं।”

inspector-harbhajan-singhबहरहाल, यह मामला केवल एक पुलिसकर्मी तक सीमित नहीं है। वर्ष 2012 में ‘तहलका’ पत्रिका ने एनसीआर के अलग-अलग इलाक़ों में पुलिस अफ़सरों से साक्षात्कार के दौरान पाया कि बलात्कार पीड़िताओं के बारे में अधिकांश अफ़सरों के विचार बेहद शर्मनाक थे। बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी का सारा ठीकरा इन महाशयों ने महिलाओं के ऊपर यह कहकर फोड़ दिया कि लड़कियों को आज़ादी देने का ही यह नतीजा है कि ऐसी घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। उनके अनुसार 90 प्रतिशत महिलाएँ दुर्भावना से प्रेरित होकर और पैसे के लालच में बलात्कार के झूठे आरोप लगाती हैं। जनता की “सेवा” में सदैव तैयार खड़े इन सूरमाओं के गलीज़ विचारों का आलम तो यह था कि इनके अनुसार असली बलात्कार ;पीड़िताएँ तो कभी थाने में शिकायत दर्ज कराने आती ही नहीं। जिन महिलाओं का मक़सद धन उगाही होता है या जिनका चरित्र गिरा हुआ होता है केवल वही थाने में शिकायतें दर्ज कराती हैं।

जिन पुलिसकर्मियों का दिमाग़ इस क़दर घोर स्त्री-विरोधी विचारों से भरा हो, क्या उनसे स्त्री उत्पीड़न के मामलों में निष्पक्ष जाँच की उम्मीद की जा सकती है? कतई नहीं! हालाँकि यह मामला महज़ पुलिस महकमे में व्याप्त स्त्री-विरोधी मानसिकता का नहीं है, ये विचार तो समाज के पोर-पोर में रचे-बसे हुए हैं। यही नहीं, ख़ुद स्त्रियाँ भी इससे मुक्त नहीं हैं। स्त्रियों की एक बड़ी आबादी भी स्वयं पितृसत्ता के मूल्यों की वाहक है। इसी कारण से समाज में मौजूद स्त्री-विरोधी मानसिकता का प्रश्न स्त्री बनाम पुरुष के संघर्ष का प्रश्न नहीं है। यह प्रश्न तो मूलतः और मुख्यतः पितृसत्ता के उन मूल्यों के खि़लाफ़ संघर्ष का है जिनकी जड़ें मानव सभ्यता के इतिहास में खोजी जा सकती हैं।

हज़ारों वर्ष पहले सामाजिक संगठन का ढाँचा मातृसत्तात्मक था।  अतिरिक्त पैदावार के रूप में उपजी सम्पत्ति पर पुरुष के स्वामित्व के साथ ही सामाजिक संगठन का ढाँचा मातृसत्तात्मक से पितृसत्तात्मक में बदल गया। इसके साथ-साथ महिलाओं की भूमिका को केवल घरेलू कामों, बच्चा पैदा करने और उनके लालन-पालन तक सीमित कर देने और सामाजिक उत्पादन की दुनिया में उनकी भागीदारी की ग़ैर-ज़रूरत की सोच को पीढ़ी-दर-पीढ़ी समाज ने अपना लिया। ऐसा प्रतीत होने लगा जैसेकि स्त्री-पुरुष की ये भूमिकाएँ प्रकृति प्रदत्त हैं, जबकि सच्चाई तो यह थी कि सम्पत्ति की व्यवस्था के आविर्भाव के साथ ही स्त्रियों की गुलामी का भी आग़ाज़ हो गया।

जब तक स्त्रियों को सामाजिक उत्पादन से अलग रखकर केवल घरेलू कामकाज की चौहद्दियों तक क़ैद करके रखा जायेगा, तब तक स्त्रियों की दासता की बेड़ियाँ नहीं टूटेंगी। पूँजीवाद ने पूँजी के विस्तार की अपनी ज़रूरतों के लिए स्त्रियों को सामाजिक उत्पादन की दुनिया में काफ़ी हद तक तो खींच लिया है पर उनकी घरेलू दासता और पुरुष वर्चस्ववाद को ख़त्म नहीं किया। निजी सम्पत्ति सम्बन्धों पर टिकी व्यवस्था में यह सम्भव भी नहीं है। आर्थिक तौर पर स्वतन्त्र एक स्त्री (चाहे वह मज़दूर पृष्ठभूमि से हो या मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से) अपने घरेलू कर्तव्यों को पूरा करते हुए ही सामाजिक उत्पादन में भागीदारी कर सकती है। घरेलू कामों में उसकी ज़िम्मेदारी ज्यों-की-त्यों बने रहने के कारण ही स्त्रियों की आरक्षित श्रमशक्ति को पूँजीवाद काफ़ी सस्ती दरों पर ख़रीदता है। पूँजीवाद में स्त्रियाँ दोहरी गुलामी का शिकार हैं – एक तो पूँजी की गुलामी की और दूसरा पितृसत्ता की गुलामी की।

कृष्ण बलदेव और उसके जैसे लोग इन्हीं पितृसत्तात्मक मूल्यों को अभिव्यक्त करते हैं। मार्के की बात तो यह है कि वैसे ये मूल्य समाज में सतत मौजूद रहकर चुपचाप अपना काम करते रहते हैं, पर ये तमाम मूल्य नंगे और वीभत्स रूप में तभी अभिव्यक्त होते हैं, जब स्त्रियाँ अपनी स्वतन्त्रता और पहचान के लिए संघर्ष करते हुए पितृसत्ता को सीधे-सीधे चुनौती देती हैं। हालाँकि ऐसी अनगिनत अभिव्यक्तियाँ पितृसत्ता को बचाये रखने का कितना भी प्रयत्न क्यों न कर लें, इसका नाश निश्चित है। निजी सम्पत्ति और उस पर आधारित सम्बन्धों के ख़ात्मे की तरह ही पितृसत्ता का ख़ात्मा भी अवश्यम्भावी है।

 

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2015

 


 

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