संघर्ष की नयी राहें तलाशते बरगदवाँ के मज़दूर

बिगुल संवाददाता

गोरखपुर। किसी भी किस्म के श्रम कानूनों के लागू न होने और काम की बेहद बुरी दशाओं से त्रस्त बरगदवाँ औद्योगिक क्षेत्र के कई कारख़ाना मज़दूरों ने आज से करीब डेढ़ वर्ष पहले संगठित होने की शुरुआत की थी। अंकुर उद्योग लि., बी.एन. डायर्स कपड़ा मिल, बी. एन. डायर्स धागा मिल, माडर्न लैमिनेटर, माडर्न पैकेजिंग, लक्ष्मी साइकिल इण्डस्ट्रीज के मज़दूरों ने अलग-अलग और ज़रूरत पड़ने पर संयुक्त प्रतिरोध का रास्ता अपनाया। आन्दोलन के ज़बरदस्त दबाव के चलते मिल मालिकों को झुकना पड़ा और मज़दूरों को कुछ कानूनी अधिकार भी हासिल हुए। समय-समय पर फैक्टरी मालिकों ने मज़दूरों से लिखित समझौते किये। हालाँकि उन्हें कानूनी तिकड़मों से निष्प्रभावी बनाने की कोशिशें मालिकान द्वारा आज भी जारी हैं। मज़दूर आन्दोलन से सीख-सबक लेते हुए कारख़ानेदारों ने लॉक-आउट के कानूनी हथियार का इस्तेमाल कर हड़तालें लम्बी खींचने की रणनीति विकसित की। अपने इस नये पैंतरे का उन्हें लाभ भी मिला, अगुआ मज़दूरों को धमकाने, काम से निकालने, लालच देने जैसे पुराने हथकण्डे भी भारी पैमाने पर इस्तेमाल किये गये। मज़दूरों की पिछडी चेतना और उनके भीतर काम करने वाली लोभ-लालच की संस्कृति ने भी मालिकों को काफी मदद पहुँचाने का काम किया।

मज़दूरों की एक आबादी ऐसी भी है जो यूनियन बनाकर अपने सभी दुखों-कष्टों से मुक्ति पाने का सपना देखती है। उन्हें लगता है कि यूनियन बनते ही उन्हें सब कुछ मिल जायेगा। लेकिन आज जब वे पीछे मुड़कर देखते हैं तो उन्हें लगता है जितना संघर्ष किया था उसकी तुलना में कुछ ख़ास हासिल नहीं हुआ! ऐसे में वे हताश होते हैं और निष्क्रिय हो जाते हैं। ये मज़दूर इस सीधी-सादी बात को नहीं समझते हैं कि सिर्फ मज़दूर यूनियन बनाना ही काफी नहीं है, उन्हें पूरे पूँजीवादी समाज को बदलने के बारे में भी सोचना होगा।

कोई भी वर्ग सचेत मज़दूर या उसका राजनीतिक प्रतिनिधि बता सकता है कि यह कोई अनहोनी घटना नहीं है। मजदूरों को संगठित करने के दौरान ऐसी कठिनाइयाँ आनी लाज़मी हैं। अपनी इन्हीं समस्याओं से जूझते हुए बरगदवाँ के मज़दूरों ने मालिकों के बढ़ते हमलों का जवाब एक ऐसे तरीके से दिया जो कारख़ाना संघर्षों में बहुत आम नहीं है।

वी. एन. डायर्स धागा मिल के मज़दूरों ने मैनेजमेण्ट द्वारा गाली-गलौज, मनमानी कार्यबन्दी और 5 अगुआ मज़दूरों को काम से निकाले जाने बावत दिये गये नोटिस के जवाब में 1 अगस्त सुबह 6 बजे से कारख़ाने पर कब्ज़ा कर लिया। रात 10बजे तक पूरी कम्पनी पर मज़दूरों का नियन्त्रण था। रात ही से सार्वजनिक भोजनालय शुरु कर दिया गया। सुबह तक कम्पनी पर कब्ज़े की ख़बर पूरे गाँव में फैल गयी। कई मज़दूरों ने अपने परिवारों को फैक्टरी में ही बुला लिया। महिलाओं और बच्चों के रहने के लिए फैक्टरी खाते में अलग से इन्तजामात किये जाने लगे। कौतूहलवश गाँव की महिलाएँ भी फैक्टरी देखने के लिए उमड़ पड़ीं। मज़दूरों ने उन्हें टोलियों में बाँटकर फैक्टरी दिखायी और धागा उत्पादन की पूरी प्रक्रिया से वाकिफ कराया। फैक्टरी के भीतर और बाहर हर जगह मज़दूर और आम लोगों का ताँता लगा हुआ था। विशालकाय मशीनों और काम की जटिलता से आश्चर्यचकित ग्रामीण एक ही बात कह रहे थे ‘हे भगवान! तुम लोग इतनी बड़ी-बड़ी मशीनें चलाते हो और पगार धेला भर पाते हो!!’

मालिकान आदतन झुकने को तैयार नहीं थे। उन्होंने वर्दीधारियों की मदद से मज़दूरों को बाहर खदेड़ने का प्रयास किया लेकिन मज़दूरों का ग़ुस्सा भड़क जाने पर पुलिस वाले सर पर पाँव रखकर भाग गये। हालात बेहद तनावपूर्ण थे, मज़दूर छोटी-छोटी टोलियाँ बनाकर जगह-जगह तैनात थे। थक-हार कर मालिकों को समझौते की टेबल पर आना पड़ा और 2अगस्त की शाम 6 बजे तक समझौता हो गया। कम्पनी मालिक ने गाली-गलौज के लिए अगुआ मज़दूरों से माफी माँगी,कार्यबन्दी पर ले-आफ देने की घोषणा की और पाँच मज़दूरों के ख़िलाफ जारी निलम्बन नोटिस वापस ले लिये गये।

संघर्ष के इस रूप का सभी कारख़ाना मज़दूरों और स्थानीय ग्रामीण आबादी पर बेहद सकारात्मक प्रभाव पड़ा। पहले मालिकान किसी भी कारख़ाना हड़ताल को महीनों लम्बा खींचने लगे थे, लेकिन कम्पनी कब्ज़े के इस प्रयोग में मालिकों ने बहुत जल्दी घुटने टेक दिये। इसी से सीखते हुए वी.एन. डायर्स कपड़ा मिल के मज़दूरों ने एक तीन साल पुराने कामगार को निकालने और 4 अन्य को नोटिस दिये जाने के विरोध में 23 अक्टूबर की सुबह से निटिंग खाते में कब्ज़े की कार्रवाई को अंजाम दिया जो रात 10 बजे तक पूरी कम्पनी के कब्ज़े में बदल गयी। यहाँ भी 24 अक्टूबर शाम 6 बजे तक समझौता हो गया और मज़दूर को काम पर वापस लिया गया।

जागरूक और वर्ग सचेत मज़दूर जानते हैं कि आज मालिकों से लड़ने में कम्पनी पर कब्ज़े का हथियार काफी कारगर दिख रहा है लेकिन इसकी भी कुछ सीमाएँ हैं। मज़दूरों का यह नया तरीका मालिकों के लॉक-आउट हथकण्डे का विकल्प तो हो सकता है लेकिन पूँजी के चक्रव्यूह से निकलने के लिए यह तरीका भी अपने आप में पर्याप्त नहीं है।

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2010


 

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