भटिण्डा में पंजाब पुलिस द्वारा मज़दूरों का बर्बर दमन

राजविंदर

भटिण्डा (पंजाब) के नजदीक गाँव फुल्लो खारी में सरकार (एच.पी.सी.एल.) और मित्तल एनर्जी इंवेस्टमेण्ट प्राइवेट लिमिटेड, सिंघापुर के साझे सहयोग वाले गुरु गोबिन्द सिंह तेल शोधक कारखाने के निर्माण का काम चल रहा है। यहाँ लगभग 15000 मजदूर काम करते हैं। अधिकतर मजदूर बाहरी राज्यों जैसे – उत्तर प्रदेश, बिहार आदि से आये हुए हैं। यहाँ काम कर रहे मजदूर ठेका कम्पनी केजेस्ट्राय प्राइवेट लिमिटेड की तरफ से भरती हैं। इस तरह मजदूरों के काम के हालात और सुरक्षा के मामले में कम्पनी अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं समझती। 28 जून रविवार को भानु तिवारी नाम के बिहारी मजदूर की काम के दौरान गर्मी लगने से हुई मौत के बाद जब कम्पनी प्रबन्धन ने ग़ैर-जिम्मेदाराना रवैया अपनाया तो मजदूरों का ग़ुस्सा सुलग उठा। मजदूरों ने जुझारू एकजुटता दिखाते हुए प्रबन्धन के खिलाफ जोरदार आवाज बुलन्द की। अपने मृतक साथी को इंसाफ दिलाने के लिए आवाज बुलन्द करने वाले निहत्थे मजदूरों के दमन के लिए कम्पनी प्रबन्धन और प्रशासन ने चार जिलों की पुलिस और कमाण्डो दस्तों का सहारा लिया। लेकिन मजदूर लगातार डटे रहे। जिसके फलस्वरूप कम्पनी मृतक के परिवार को 4.5 लाख रुपये का मुआवजा देगी। लेकिन साथ ही मजदूरों में आतंक पैदा करने के लिए पुलिस ने मजदूरों और उनके परिवारों को घरों से निकाल-निकालकर बेरहमी से पीटा। 100 से भी अधिक मजदूर गम्भीर रूप से घायल हुए। लेकिन इतने भयंकर दमन के बावजूद प्रशासन मजदूरों के घायल होने की बात मानने तक को तैयार नहीं हुआ और कहता रहा कि 20 पुलिसकर्मी घायल हुए हैं। मौके पर पहुँचे मीडियावालों को खबर लेने से रोका गया और उनके कैमरे छीन लिये गये। एक तरफ तो पुलिस अधिकारियों ने एक हद तक माना कि कम्पनी ने कुछ अन्याय जरूर किया है, लेकिन यह सिर्फ कहने के लिए कहा गया था, क्योंकि पुलिस घटना की तस्वीरें देखकर अन्याय के खिलाफ आवाज बुलन्द करने वाले मजदूरों की पहचान करके उनके खिलाफ झूठे मुकदमे दर्ज करने की भी तैयारी कर रही थी।

यह घटना कारखाने के भीतर मजदूरों के काम के बुरे हालात और प्रबन्धन की मजदूरों की सुविधाओं के प्रति बेरुखी का नतीजा थी। कारखाने में हजारों मजदूरों की शिकायत सुनने के लिए कम्पनी ने कोई अधिकारी तक नियुक्त नहीं किया था। दवा-इलाज का कोई प्रबन्ध नहीं। इस समय जब तापमान 45 डिग्री को पार कर रहा था तब भी पीने के लिए पानी तक मजदूरों को नसीब नहीं हो रहा था। तेज धूप में मजदूरों को लगातार काम करना पड़ता था। ऐसे में मजदूरों की सहूलियतों के बारे में रत्तीभर भी खयाल न करना उन्हें मौत के मुँह में धकेलने के समान है। इन्हीं हालात का शिकार हुआ भानु तिवारी, जिसकी गर्मी के वजह से 28 जून, रविवार को स्थिति बिगड़ गयी। भानु तिवारी के भाई हरीदत्ता तिवारी और अन्य मजदूरों ने बताया कि उसे 107 डिग्री बुखार था। उसे बुखार की मामूली गोली देकर गेट के बाहर छोड़ दिया गया। तीन घण्टे तक कारखाने की एम्बुलेंस का इन्तजार करने के बाद भानु की हालत और बिगड़ती देखकर उसके साथी ट्रैक्टर-ट्रॉली पर उसे नजदीक के अस्पताल ले गये, जहाँ से उसे भटिण्डा सिविल अस्पताल भेज दिया गया। लेकिन वहाँ पहुँचने से पहले रास्ते में ही भानु की मौत ही गयी। कम्पनी की लापरवाही से भड़के भानु के परिवार के सदस्य और अन्य साथी उसकी लाश को कारखाना गेट पर ले आये। उन्होंने मुआवजे और लाश को बिहार में स्थित गाँव पहुँचाने के इन्तजाम की माँग की। मौके पर पहुँचे पुलिस उच्चाधिकारियों की मौजूदगी में कारखाना प्रबन्धन ने मुआवजा देना माना। लेकिन अगली सुबह तक प्रबन्धन ने फिर कोई चिन्ता न दिखायी तो परिवारवाले लाश को फिर कारखाना गेट पर ले आये, लेकिन गेट पर पहले से ही पुलिस तैनात थी। पुलिस सुबह से ही किसी भी मजदूर को कारखाने के भीतर नहीं जाने दे रही थी। कारखाना प्रबन्धन जब पुलिस का साथ देखकर मजदूरों के साथ हाथापाई पर आ गया, तो मजदूरों को ही कसूरवार ठहराते हुए पुलिस ने लाठीचार्ज शुरू कर दिया। कारखाना प्रबन्धन और पुलिस का रवैया देखकर मजदूरों का ग़ुस्सा फूट पड़ा। उन्होंने पुलिस को कड़ा जवाब दिया। प्रशासन ने अपनी ग़लती मानने की बजाय मजदूरों को सबक सिखाने के मकसद से चार जिलों की पुलिस और कमाण्डो फोर्स को बुला लिया।

मजदूरों द्वारा आवाज बुलन्द करने से कामयाबी यह हासिल हुई कि मृतक के परिवार को 4.5 लाख मुआवजा देना माना गया।

भानु की मौत गर्मी लगने से हुई। लेकिन ध्‍यान देने लायक बात यह है कि गर्मी से या ठण्ड से हमेशा ग़रीबों के मरने की खबरें ही आती हैं। कभी किसी महल में रहने वाले की मौत ठण्ड या गर्मी से हुई नहीं सुनी गयी। तो फिर मौत का कारण ग़रीबी हुआ गर्मी या ठण्ड नहीं, क्योंकि मौसम की मार से बचने के लिए ग़रीबों के पास पर्याप्त कपड़े, सिर पर छत और ए.सी., कूलर तो दूर बहुत बार पंखा तक नहीं होता। गर्मी से बचने के लिए पक्षियों को भी छाँव नसीब होती है, लेकिन इंसानों को अपना पेट भरने के लिए भीषण गर्मी में झुलसना पड़ता है। असल में ग़रीबों को तो ग़रीबी का दैत्य निगल रहा है। भानु तिवारी भी गर्मी से नहीं मरा। वह तो रोजाना ग़रीबी की भेंट चढ़ने वाले सैकड़ों मेहनतकशों में से एक था।

अब हालत यह है कि मजदूर काम के बुरे हालात और इससे भी अधिक पुलिस-मालिक गठबन्धन के आतंक के कारण काम छोड़कर जा रहे हैं।

यह घटना, जहाँ एक तरफ मजदूरों की लगातार बढ़ रही लूट और असुरक्षा की पोल खोलती है जो पूँजीवादी व्यवस्था के अधीन मजदूरों की असली हालत का बयान है, और पुलिस-प्रशासन, जो इस जनतन्त्र में जनता की रक्षा के लिए है, की असली अमीर-भक्ति का भी बड़ा उदाहरण है; दूसरी तरफ इस घटना के साथ मजदूरों में एकजुटता की सहज चेतना, जो समूह में ही सुरक्षा मिल सकने की भावना पर जोर देती है, की भी जोरदार अभिव्यक्ति है। अपने एक साथी की मौत पर मजदूरों की यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक वर्गीय और मानवीय प्रतिक्रिया है। बेशक आज सिर्फ अपने बारे में सोचने की शिक्षा बच्चों को बचपन से ही दी जाती है, लेकिन इतिहास गवाह है कि जालिम कभी भी लालच, साजिश और दमन के दम पर इंसानियत को खत्म नहीं कर सकते। जरूरत है ऐसी घटनाओं को संगठित प्रतिरोध में बदलने की ताकि ऐसी घटनाओं की जमीन ही साफ कर दी जाये।

बिगुल, जुलाई 2009

 


 

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