ग्लोबल सिटी दिल्ली में बच्चों की मृत्यु दर दोगुनी हो गयी है!

कपिल स्वामी

urban_povertyदिल्ली को तेजी से आगे बढ़ते भारत की प्रतिनिधि तस्वीर बताया जाता है। वर्ष 2010 में पूरी दुनिया के सामने कॉमनवेल्थ खेलों के जरिये हिन्दुस्तान की तरक्की क़े प्रदर्शन की तैयारी भी जोर-शोर से चल रही है। दिल्ली को ग्लोबल सिटी बनाने के लिए जहाँ दिल्ली मेट्रो चलायी गयी है, वहीं सड़कों-लाइटों से लेकर आलीशान खेल परिसर और स्टेडियमों तक हर चीज का कायापलट करने की कवायद भी चल रही है। लेकिन करोड़ों-अरबों रुपया पानी की तरह बहाने वाली सरकार ग़रीबों की बुनियादी सुविधाओं के प्रति कितनी संवेदनहीन है, इसका एक नमूना इस तथ्य से मिल सकता है कि दिल्ली में एक साल से कम उम्र के बच्चों की शिशु मृत्यु दर पिछले दो सालों में थोड़ी-बहुत नहीं सीधे 50 प्रतिशत बढ़ गयी है। यानी दिल्ली में पैदा होने वाले बच्चों में से मरने वाले बच्चों की संख्या दोगुनी हो गयी है!

जाहिर है मरने वाले ज्यादातर बच्चे ग़रीब परिवारों के होते हैं। दिल्ली में होने वाला दवा-इलाज इतना महँगा होता जा रहा है कि ग़रीब आदमी निजी अस्पताल-क्लीनिक में जाने की सोच भी नहीं पाता। और सरकारी अस्पतालों की हालत इतनी खराब है कि वहाँ मरीज की जान की कोई गारण्टी नहीं है। लेकिन ग़रीब आबादी फिर भी इन्हीं बदहाल अस्पतालों में जाती है।

दिल्ली की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2005 में शिशु मृत्यु दर 12.9 प्रतिशत थी, जोकि वर्ष 2007 में 25.4 प्रतिशत यानी 2005 की तुलना में लगभग दोगुनी हो गयी है। संख्या के लिहाज से देखें तो वर्ष 2004 में मरने वाले बच्चों की संख्या जहाँ 4,000 थी, वहीं वर्ष 2007 में यह लगभग 8,000 पर पहुँच गयी। संयुक्त राष्ट्र के विकास सम्बन्धी पैमाने के हिसाब से शिशु मृत्यु दर को किसी देश या राज्य का बेहद महत्‍वपूर्ण सूचक माना जाता है। वैसे भी किसी देश या राज्य की तरक्की क़ा सीधा-सा पैमाना यह है कि वहाँ के लोगों को किसी स्तर की बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध हैं। बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं में भी सबसे ज्यादा ध्‍यान जन्म लेने वाले बच्चों और उनकी माँओं के स्वास्थ्य पर दिया जाता है। इस लिहाज से दिल्ली की असली तस्वीर यह उभरती है कि यहाँ ग़रीबों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएँ बदतर हालत में पहुँच गयी हैं।

वैसे यह सिर्फ दिल्ली की स्थिति नहीं है। कमोबेश सभी बड़े शहरों में ग़रीब आबादी के लिए स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली जगजाहिर है। ‘बिगुल’ के मई अंक में हमने प्रवासी मजदूरों के बड़े शहरों की बजाय गाँव में इलाज कराने की एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। बड़े शहरों के अस्पताल अब नाम के लिए ग़रीबों के लिए रह गये हैं। असलियत यह है कि यहाँ ग़रीबों के लिए सिवा इमारत के कुछ नहीं बचा है। न डॉक्टर समय पर आते हैं, न दवाइयाँ मिलती हैं, जरूरी साजो-सामान जंग खाता रहता है और मरीज धक्के खाते रहते हैं।

दिल्ली सरकार का इस ऊंची मृत्यु दर पर अजीबोग़रीब तर्क सामने आया है। उसका कहना है कि यह ऊंची मृत्यु दर इस विशेष वर्ष में दिल्ली के बाहर से आने वाले लोगों की संख्या में वृध्दि के कारण है। दिल्ली में प्रवासी मजदूरों का आना कोई नयी बात नहीं है। सालों से दिल्ली में बाहर से लोग काम करने आते हैं। पिछले दो वर्ष के ऑंकड़े बताते हैं कि प्रवासी मजदूरों की लगभग उतनी ही संख्या इस दौरान भी आयी। यानी इन दो वर्षों में प्रवासी मजदूरों की कोई असामान्य वृध्दि नहीं हुई। इसलिए सरकार का यह तर्क तो सिरे से ग़लत हो जाता है। वैसे यह वही बात है जो कुछ साल पहले दिल्ली सरकार की मुख्यमन्त्री ने कहा था कि दिल्ली के संसाधनों पर बाहर से आने वाले लोगों का बोझ पड़ रहा है। वह शायद भूल जाती हैं कि जिन सड़कों, इमारतों, फ्लाईओवरों और मेट्रो को वे अपनी उपलब्धि बताती हैं, वे इन्हीं प्रवासी मजदूरों ने अपने ख़ून-पसीने और मेहनत से बनाये हैं। प्रवासी मजदूरों के बिना दिल्ली के सारे निर्माण कार्य ही नहीं, सारा कारोबार भी ठप पड़ जायेगा। इस बात से पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के तौर पर काम कर रही सरकार का मजदूरों के प्रति दोहरा रवैया भी साफ हो जाता है। जब इन मजदूरों की जरूरत होती है तो इन्हें दूर-दराज से लाया जाता है और फिर इन्हें बोझ बताने लगते हैं। इन्हीं मजदूरों से सस्ती मजदूरी पर काम कराया जाता है और इन्हीं के सिर पर दिल्ली की तमाम बदइन्तजामियों का ठीकरा भी फोड़ दिया जाता है।

इसके अलावा बढ़ी हुई मृत्यु दर के लिए सरकार ने अनपढ़ माता-पिता को ही जिम्मेदार ठहरा दिया। वैसे दिल्ली में साक्षरता दर काफी ऊंची (लगभग 84 प्रतिशत) है। फिर भी अगर मान लिया जाये कि ज्यादातर ग़रीब माता-पिता अनपढ़ होते हैं तो बच्चों की मौत की वजह सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की बदहाली है या उनका पढ़ा-लिखा न होना। लगता है, सरकार अभी भी यह मानती है कि लोग अपने बच्चों का दवा-इलाज डॉक्टरों से नहीं टोने-टोटकों और ओझाओं से करवाते हैं। साफ है कि यह भी अपनी ग़लती छुपाने के लिए गढ़ी गयी बात है।

वैसे दिल्ली सरकार स्वास्थ्य के मामले में बड़े-बड़े दावे करती नजर आती है। प्रचार माधयमों में बेहतर होती स्वास्थ्य सुविधाओं की सुनहरी तस्वीर पेश की जाती है। बजट में भी दिल्ली सरकार जीडीपी का 9 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करती नजर आती है। वर्ष 2008 के लिए दिल्ली में स्वास्थ्य सुविधाओं पर 873.70 करोड़ खर्च करने का प्रावधान किया गया है जो राजधानी की विशाल ग़रीब आबादी के लिहाज से ऊंट के मुँह में जीरे के समान है। वैसे यह बात भी ग़ौर करने वाली है कि इस धनराशि के भी सही जगह सही तरीके से इस्तेमाल होने की कोई गारण्टी नहीं है। दिल्ली के अस्पतालों और डिस्पेंसरियों में दवाओं, जरूरी साजो-सामान और डॉक्टरों का अभाव भ्रष्टाचार की कहानी ख़ुद बयाँ कर देते हैं।

दिल्ली में स्वास्थ्य सुविधाओं का यह आलम है कि लोग बहुत मजबूरी में ही या ग़रीबी के चलते सरकारी अस्पतालों या डिस्पेंसरियों का रुख़ करते हैं। दिल्ली सरकार लगभग 339 डिस्पेंसरियाँ यानी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र चलाती है। जनसंख्या के लिहाज से प्रति डिस्पेंसरी पर 50,000 आबादी का बोझ पड़ता है। इसी प्रकार राज्य सरकार द्वारा संचालित अस्पतालों में मात्र 10,000 बिस्तरे मौजूद हैं जोकि निजी क्षेत्र के 15,000 बिस्तरों से काफी कम हैं। हालाँकि दिल्ली में ग़रीब आबादी काफी ज्यादा होने का अनुमान लगाया जाता है, लेकिन सरकार के ही अनुसार दिल्ली में 22 लाख लोग ग़रीबी रेखा से नीचे यानी बीपीएल कार्डधारक हैं। दिल्ली सरकार की स्वास्थ्य सुविधाएँ यहाँ की ग़रीब आबादी के लिए एकदम नाकाफी हैं।

दिल्ली में स्वास्थ्य से जुड़ी योजनाओं की भरमार है। इनका लागू होना-न होना अलग बात है पर अखबारों और टीवी में तो इन्हें प्रचारित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। गर्भवती महिलाओं के लिए ‘मातृसुरक्षा योजना’ और बच्चों वाली महिलाओं के लिए ‘ममता’ नाम की योजना चलायी जाती है। इसके तहत माँ एवं बच्चों का सही वक्त पर टीकाकरण, स्वास्थ्य-जाँच, उचित पोषाहार की आपूर्ति करना आदि आते हैं। ये योजनाएँ भी अपनी नैसर्गिक गति से सरकारी महकमे की लापरवाही और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रही हैं। इसी प्रकार विश्व बैंक से मिलने वाले धन से चलने वाली समेकित बाल विकास योजनाओं के अन्तर्गत दिल्ली में 8,000 ऑंगनवाड़ियाँ चलायी जाती हैं। इनसे 5,00,000 बच्चों को फायदा पहुँचाने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन ऑंगनवाड़ियों में आने वाला खाना इतने घटिया स्तर का होता है कि महिलाएं और बच्चे इन्हें खाते ही नहीं हैं। यहाँ का खाना खाकर कई बार बच्चों के बीमार पड़ जाने की खबरें भी आये दिन आती रहती हैं।

सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की बदइन्तजामियों के कारण ही ग़रीब लोग प्रसूति या छोटे बच्चों का दवा-इलाज घर पर ही या गली-मोहल्ले के निजी क्लिनिकों या नर्सिंग होमों से कराने पर मजबूर हो जाते हैं। घर पर प्रसूति भी कोई और विकल्प न होने पर ही करवायी जाती है। अप्रशिक्षित दाइयों और सस्ते निजी क्लीनिकों के अप्रशिक्षित कर्मचारियों के हाथों में ग़रीबों की जान और ज्यादा असुरक्षित हो जाती है।

रिपोर्ट के इस तथ्य से दिल्ली की स्वास्थ्य सुविधाओं के बारे में कई बातें सामने आती हैं। सबसे पहली बात तो यह कि पूँजीवादी असमान विकास के स्वाभाविक परिणाम के तौर पर यहाँ पर शहरी ग़रीबों की आबादी बढ़ रही है। इस विशाल आबादी के लिहाज से दिल्ली की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की हालत दिन-पर-दिन खस्ता होती जा रही है। दूसरे स्पष्ट तौर पर स्वास्थ्य क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने का एक परिणाम सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की ओर से मुँह मोड़ लेने के तौर पर सामने आया है। स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवा देने से भी सरकार का पीछे हटना उसकी नीतियों का ही हिस्सा है। 1991 के बाद बाजारीकरण की नीतियों के लागू होने के भयंकर नतीजे अब दिखने लगे हैं। इसके अलावा सरकार की सामाजिक कल्याण की योजनाएँ पूर्णत: असफल हैं। इन योजनाओं को लागू कराने की सरकार की आंशिक इच्छा भी सरकारी तन्त्र की लापरवाही और उसके भ्रष्टाचार की वजह से दम तोड़ देती है। लिहाजा, भले सरकार सामाजिक कल्याण के नाम पर अपनी पीठ ख़ुद थपथपा रही हो, पर ख़ुद सरकारी रिपोर्टों के ऐसे तथ्य उसकी सारी लीपापोती को सरेबाजार बेपर्दा कर देते हैं।

शिशु मृत्यु दर में वृध्दि का यह ऑंकड़ा मात्र एक संकेतभर है। असल में स्थिति और भी भयानक हो सकती है। वैसे यह सोचना भी ग़लतफहमी होगा कि सरकार ख़ुद इस भयावह स्थिति को सामने लायेगी। इस भयावह स्थिति का अन्दाजा तो सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा देखकर और ग़रीब बस्तियों में रोजाना होने वाली असमय मौतों से लगाया जा सकता है।

बिगुल, जुलाई 2009

 


 

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