अमेरिका की सूत मिलों में ज़िन्दगी की एक झलक — मदर जोंस

मदर जोंस हड़ताली खनिकों के साथ

मदर जोंस हड़ताली खनिकों के साथ

अलाबामा प्रान्त में बर्मिंघम की खदानों में और रेल पटरियों पर काम करने वाले मज़दूरों ने कुछ महीने पहले एक शाम मुझे दक्षिणी अमेरिकी प्रान्तों की सूत मिलों में मज़दूरों की हालत के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने इन मज़दूरों की गुलामी जैसी ज़िन्दगी की एकदम जीती-जागती तस्वीर मेरी आँखों के सामने खड़ी कर दी। उनकी बातें सुनकर मुझे लगा कि वह जगह काला पानी से भी बढ़कर है। लेकिन मैंने सोचा कि ये लड़के बढ़ा-चढ़ाकर बातें कर रहे हैं। मैंने तय कर लिया कि मैं खुद जाकर इन हालात को देखूँगी।
मैंने वहाँ नौकरी ढूँढ़ ली और मिल तथा बस्ती में मज़दूरों के साथ घुल-मिलकर रहने लगी। मैंने देखा कि सुबह साढ़े चार बजे ठेकेदार की सीटी बजते ही छह-सात साल के बच्चों को घसीटकर बिस्तर से उठा दिया जाता था। वे रेड़ी के तेल में भिगोकर मक्के की रोटी का मामूली नाश्ता करते थे और पेट में जलन पैदा करने वाली काली कॉफी का एक-एक प्याला पीकर चल पड़ते थे। बड़े और छोटे गुलामी की पूरी पफौज पाँच बजे तक सड़कों पर होती थी। साढ़े पाँच बजे तक वे सब कारखाने की ऊँची दीवारों के पीछे होते थे, जहाँ मशीनों की घरघराहट के बीच रोज चौदह घण्टे तक उनकी कमसिन ज़िन्दगी मुनाफे की चक्की में पिसती रहती थी। इन असहाय इन्सानों के उदास चेहरों को देखकर लगता था जैसे उनकी आत्मा चीखकर कह रही हो, ‘‘अरे ओ, पूँजीवादी लालच के फौलादी चक्को, जरा देर के लिए थम जाओ! हम एक-दूसरे की आवाज़ें तो सुन सकें, और यह महसूस तो कर सकें कि बस यूँही घिसते जाना ही ज़िन्दगी नहीं है।’’ दिन के बारह बजे हम थोड़ा-सा खाना खाने और आधे घण्टे आराम के लिए रुके। 12.30 बजे हम फिर काम में लग गये और बिना रुके सात बजे तक खटते रहे। फिर हम पैर घसीटते हुए घर लौटे जहाँ हमने रूखा-सूखा रात का खाना खाया, कुछ देर तक अपनी दुर्दशा पर बातें कीं और फिर पुआल के बिस्तर पर पड़ रहे — भोर होते ही सीटी की कर्कश आवाज़ ने बच्चों सहित सबको जगाकर फिर से कमरतोड़ काम पर भेज दिया।
मैंने देखा क माँएँ नींद से ढिमलाते अपने नन्हें बच्चों को जगाने के लिए उनके मुँह पर ठण्डा पानी फेंक देती हैं। मैंने उन्हें सारा दिन खतरनाक मशीनों पर काम करते देखा है। मैंने उनके नन्हें अंगों को मशीनों में फँसकर कटते देखा है, और जब वे अपाहिज होकर अपने मालिक के किसी काम के नहीं रह जाते, तो उन्हें मरने के लिए कारखाने से धकियाकर बाहर किये जाते भी देखा है। हाँ, मगर कम्पनी को इस बात का श्रेय मुझे देना ही चाहिए कि वह हर इतवार को प्रवचन देने के लिए एक पादरी को पैसे देकर बुलाती है। उपदेशक महोदय मज़दूरों को समझाते हैं कि ‘‘ईसा मसीह की प्रेरणा से श्रीमान फलाँ ने फैक्टरी बनाई ताकि आप लोग कुछ पैसे कमा सकें और पुण्य कमाने के लिए कुछ दान-दक्षिणा दे सकें।’’

मैं अलाबामा के टुस्कालूसा में स्थित फैक्टरी में रात दस बजे पहुँची। सुपरिटेण्डेण्ट को मेरे मक़सद के बारे में कुछ पता नहीं था इसलिए उसने मुझे भीतर घूमने दिया। एक मशीन, जिसमें 155 तकलियाँ थीं, के पास दो नन्हीं लड़कियाँ खड़ी थीं। मैंने पास खड़े एक आदमी से पूछा कि क्या ये उसकी बच्चियाँ हैं। उसने हाँ में जवाब दिया।
‘‘कितनी उम्र हैं इनकी?’’ मैंने पूछा।
‘‘ये 9 की है, वह 10 की,’’ उसने जवाब दिया।
‘‘रोज कितने घण्टे काम करती हैं?’’
जवाब था, ‘‘बारह।’’
‘‘एक रात के काम का इन्हें कितना मिलता है?’’
‘‘हम तीनों को मिलाकर 60 सेंट मिलते हैं। उन्हें 10-10 सेंट मिलते हैं और मुझे 40 सेंट।’’ (100 सेंट का एक डालर होता है। उस समय का एक सेंट आज के क़रीब एक रुपये के बराबर होगा। — सं.)
सुबह गुलामों के उस बाड़े से बाहर जाते हुए मैंने उन्हें देखा। जाड़े की बर्फीली हवा से बचने के लिए अपने दुबले-पतले नन्हें शरीर पर चिथड़े लपेटकर वे दुबकती हुई चली जा रही हैं। आधा पेट खाकर, अधनंगे रहकर और टूटे-फूटे घरों में जाकर ये खटते रहते हैं जबकि उनके मालिकान के झबरीले कुत्ते दूध और गोश्त खाते हैं और पंखों वाले नर्म बिस्तर पर सोते हैं — और पूँजीवादी जज उन आन्दोलनकारियों को जेल भेज देते हैं जो इन बदहाल मज़दूरों की हालत सुधारने में उनकी मदद करने की गुस्ताखी करते हैं। दक्षिण में फैले नरक का एक हिस्सा गिब्सन कस्बा भी है। यहाँ मुख्य पेशा जिंघम (मोटा रंगीन सूती कपड़ा) की बुनाई है। यह कस्बा एक बैंकर की सम्पत्ति है जो यहाँ की मिलों और लोगों, दोनों का मालिक है। उसकी एक गुलाम ने मुझे बताया कि उसे अपनी मेहनत के लिए पूरे एक साल तक हर हफ्ते एक डालर मिलता था। हर हफ्ते मज़दूरी वाले दिन उसका ठेकेदार उसे एक डालर देता था। सोमवार को वह अपना एक डालर पड़ोस की एक दुकान में जमा कर देती थी जहाँ उसे एक हफ्ते तक घटिया खाना मिलता रहता था। बस ऐसे ही हफ्ते-दर-हफ्ते उसकी ज़िन्दगी चलती रहती थी।
एक समय अलाबामा के क़ानून में बारह साल तक के बच्चों से रोजाना 8 घण्टे से ज्यादा काम लेने पर रोक थी। गैडस्न कम्पनी अड़ गयी कि जब तक यह क़ानून वापस नहीं लिया जायेगा तब तक वह यहाँ नई मिल नहीं लगायेगी। असेम्बली के क़ाग़जात पढ़ने से मुझे पता चला कि जब इस क़ानून को खत्म करने के सवाल पर बहस हुई तो सदन में साठ सदस्य मौजूद थे। इनमें से सत्तावन ने क़ानून खत्म करने के पक्ष में वोट दिया और सिर्फ तीन उसके खिलाफ थे।
मैंने असेम्बली के एक सदस्य से पूछा कि उसने बच्चों की हत्या करने के लिए वोट क्यों दिया। उसने जवाब दिया कि उसका ख्याल था कि सिर्फ आठ घण्टे काम करने से बच्चे अपने गुजारे लायक पैसे नहीं कमा पायेंगे। ऐसे हैं वे घाघ जिन्हें ‘‘सोच-समझकर’’ वोट डालने वाले मज़दूर चुनकर भेजते हैं। जार्जिया की फीनिक्स मिलकर मिल के मालिक क़रीब एक साल पहले मज़दूरी में कटौती की सोच रहे थे। लेकिन एक कोशिश करने के बाद वे पीछे हट गये और इसके बजाय एक बचत बैंक शुरू कर दिया। छह महीने बाद बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स ने पाया कि उनके लिए दौलत पैदा करने वाले मज़दूर अपनी मज़दूरी का 10 प्रतिशत बचत करते हैं। उन्होंने फौरन मज़दूरी में 10 प्रतिशत कटौती कर दी जिसका नतीजा हुआ 1896 की बड़ी हड़ताल। मैं सोचकर हैरान रह जाती हूँ कि अमेरिकी जनता ऐसी स्थितियों में आखिर कब तक चुप रहेगी।
इन सूत मिलों में मेरे साथ काम करने वाला हर इनसान किसी न किसी बीमारी का शिकार था। हर किसी से उसकी ताक़त की आखिरी बूँद तक निचोड़ ली जाती थी। बुनकरों से अपेक्षा की जाती है कि वे हर रोज दर्जनों गज़ कपड़ा तैयार करें। फैक्टरी में मशीन पर काम करने वाला अपने शरीर और दिमाग़ की सारी ताक़त खो देता है। दिमाग़ इस तरह कुचल जाता है कि कुछ भी सोचना मुश्किल होता है। इन लोगों के साथ घुलने-मिलने वाला कोई भी व्यक्ति जान जायेगा कि इनके शरीर की तरह इनके मन भी टूट चुके हैं। नींद और आराम की कमी से भूख मर जाती है, अपच रहता है, शरीर सिकुड़ जाता है, कमर झुक जाती है और सीने में हर वक्‍त जलन रहती है।
ऐसा फैक्टरी सिस्टम लोगों को तड़पा-तड़पाकर मारने का इंतजाम है। यह लम्बे समय तक धीरे-धीरे चलने वाले क़त्लेआम की तरह भयानक है और किसी भी कौम या किसी भी युग के ऊपर एक कलंक है। इस तस्वीर को आँखों के सामने उभरता देखती हूँ तो मैं उस राष्ट्र के भविष्य के बारे में सोचकर काँप उठती हूँ जो सर्वहारा वर्ग के बच्चों के खून से धनिकों और कुलीनों का तंत्र खड़ा कर रहा है। ऐसा लगता है कि जैसे हमारा राष्ट्रीय झण्डा खून के धब्बों से भरा कोई कफन हो। पूरी तस्वीर भयानक और घिनौने लालच, स्वार्थ और क्रूरता से भरी है। आज यह घृणा पैदा करती है और कल यह पतन का कारण बनेगी। आधा पेट खाकर ताक़त से दूना काम करने वाली माँएँ थके और जर्जर शरीर वाले नये इनसानों को जन्म देती हैं।
पूँजीवादी व्यवस्था को सिरे से उखाड़कर फेंक दिया जाये, इसके सिवा और कोई रास्ता मुझे दिखायी नहीं देता। जो बाप इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए वोट देता है, वह मेरी नजर में वैसा ही हत्यारा है मानो उसने पिस्तौल लेकर अपने बच्चों को गोली मार दी हो। लेकिन मुझे अपने चारों ओर समाजवाद की नई सुबह फूटने की निशानियाँ दिखायी दे रही हैं, और हर जगह अपने भरोसेमन्द साथियों के साथ मैं उस बेहतर दिन को लाने के लिए काम करूँगी और कामना करूँगी कि वह जल्दी आये।


 

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