स्विस बैंकों में जमा 72 लाख करोड़ की काली कमाई पूँजीवादी लूट के सागर में तैरते हिमखण्ड का ऊपरी सिरा भर है

क़पिल स्वामी

बीते आम चुनावों में विदेशों में जमा भारत का 72 लाख करोड़ रुपया जमा होने के खुलासे ने चुनावों पर भले ही कोई असर न डाला हो, लेकिन यह कई पहलुओं को खोलने वाला ऑंकड़ा है। वैसे यह भी जान लेना चाहिए कि यह राशि भले बहुत बड़ी लग रही हो लेकिन असल में यह भारत के धनपतियों के बेहिसाब काले धन का एक छोटा-सा हिस्सा है। लेकिन फिर भी इस छोटी-सी राशि को अगर देश में आम जनता के बुनियादी कामों में लगाने की कल्पना की जाये तो क्या-क्या हो सकता है – इसका एक अनुमान लगाने की कोशिश एक काल्पनिक चार्ट के सहारे की गयी है। (देखें चार्ट)

यूँ तो पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की नींव ही मेहनत की कानूनी लूट पर खड़ी की जाती है। यानी पूँजीवादी व्यवस्था में मेहनत करने वाले का हिस्सा कानूनन पूँजीपति की तुलना में नगण्य होता है। लेकिन पूँजीपतियों का पेट इस कानूनी लूट से भी नहीं भरता। लिहाज़ा वे पूँजीवाद के स्वाभाविक लक्षण ‘भ्रष्टाचार’ का सहारा लेकर गैरकानूनी ढंग से भी धन-सम्पदा जमा करते रहते हैं। जनता के लिए सदाचार, ईमानदारी और नैतिकता की दुहाई देकर ख़ुद हर तरह के कदाचार के ज़रिये काले धन के अम्बार और सम्पत्तियों का साम्राज्य खड़ा किया जाता है।

हमारे देश में शुरू से ही अर्थव्यवस्था में काले धन का बड़ा हिस्सा रहा है। 1970 के दशक में यह बात ज़ोर-शोर से उठी थी कि हमारे देश की काले धन की अर्थव्यवस्था वैध अर्थव्यवस्था के लगभग बराबर हो गयी है। 90 के दशक तक आते-आते सरकार मानने लगी कि अब काला धन अर्थव्यवस्था से काफी ज्यादा हो गया है। 1991 के बाद लागू नवउदारवादी नीतियों ने तो पूँजीपतियों को कानूनी और गैरकानूनी दोनों तरह की कमाई का घोड़ा सरपट दौड़ाने की खुली छूट दे दी। यहाँ से भारतीय धनपतियों की धन-सम्पदा में गुणात्मक बढ़ोत्तरी होनी शुरू हो गयी। इस दौरान चन्द लोगों के पास धन का संकेन्द्रण पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा तेज़ी से होने लगा। वहीं दूसरी ओर आम जनता की वास्तविक कमाई लगातार घटती गयी और उसका कंगालीकरण बढ़ता गया।

अगर कुछ समय के लिए गैरकानूनी धन को अलग करके सिर्फ वैध या कानूनी अर्थव्यवस्था के आधार पर धनी-ग़रीब के बीच की बढ़ती खाई का ही अध्‍ययन करें तो तस्वीर कुछ यूँ उभरेगी।

‘मार्गन स्टेनले’ के निदेशक चेतन आहया के मुताबिक : ”पिछले चार सालों के दौरान भारत में एक खरब डॉलर से ज्यादा की दौलत बढ़ी है, यानी भारत के सकल घरेलू उत्पाद के सौ फीसदी से भी ज्यादा! और इसका बहुत बड़ा हिस्सा आबादी के बहुत ही छोटे हिस्से के हाथों में गया है।” उन्हीं के अनुसार, ”पिछले कुछ सालों में भूमण्डलीकरण और पूँजीवाद के उभार की वजह से ग़ैरबराबरी का फासला लगातार चौड़ा ही होता चला गया है…।” एक अन्य अध्‍ययन के मुताबिक, देश की ऊपर की दस फीसदी आबादी के पास कुल परिसम्पत्ति का 85 प्रतिशत इकट्ठा हो गया है जबकि नीचे की 60 प्रतिशत आबादी के पास मात्र दो प्रतिशत है। देश में 0.01 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे हैं जिनकी आमदनी पूरे देश की औसत आमदनी से दो सौ गुना अधिक हो चुकी है। देश की ऊपर की तीन फीसदी और नीचे की 40 फीसदी आबादी की आमदनी के बीच का अन्तर आज साठ गुना हो चुका है। आयकर रिटर्नों के अध्‍ययन पर आधारित अपने शोधपत्र में अभिजीत बनर्जी और थॉमस पिकेरी ने बताया है कि भारत के सबसे अमीर 0.01 प्रतिशत लोगों की आमदनी पूरी आमदनी से 150 से 200 गुना ज्यादा थी। 1980 के दशक के शुरू में यह घटकर 50 गुना से कम रह गयी थी। 1990 के दशक के अन्त तक यह फिर से बढ़कर 150 से 200 गुना ज्यादा हो गयी। बनर्जी और पिकेरी के अनुसार, 1980 और 1990 के दशकों के दौरान कुल आबादी के ऊपरी एक फीसदी हिस्से ने देश की कुल आमदनी में अपना हिस्सा बहुत अधिक बढ़ा लिया। 1980 के दशक में जहाँ इस 1 फीसदी आबादी में से हर किसी को लाभ हुआ था, वहीं 1990 के दशक में सबसे ऊपर के 0.1 फीसदी लोगों (यानी करीब 11 लाख) ने ही ज्यादा लाभ बटोरा।

इस बात का सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि देश की आम आबादी की मेहनत की कमाई अवैध तरीके से लूटकर जमा की गयी धन-सम्पदा कितनी ज्यादा होगी। वास्तव में 72 लाख करोड़ तो इस विशाल हिमखण्ड का सतह पर दिखता छोटा-सा हिस्सा मात्र है। ज़ाहिरा तौर पर काले धन की वास्तविक मात्रा इसकी कई गुना ज्यादा होनी चाहिए।

यह बात इससे भी समझी जा सकती है कि इस देश के धनपतियों का बेहद मामूली हिस्सा ही विदेशों में धन जमा करवाता होगा। वरना ज्यादातर अमीरों का पैसा देश में अलग-अलग तरह से ”सुरक्षित” कर दिया जाता है। कुछ सालों पहले कांग्रेस के केन्द्रीय मन्त्री सुखराम के घर से बोरों में नोटों की गड्डियाँ मिलने की बात तो आपको ध्‍यान ही होगी। वैसे आमतौर पर काला धन नकदी की बजाय सम्पत्ति के तौर पर ज्यादा रखा जाता है। पूँजीपतियों, नौकरशाहों, सरकारी अधिकारियों, प्रबन्‍धकों, पेशेवर लोगों (बड़े डॉक्टरों, वकीलों) से लेकर सरकारी कर्मचारियों तक काले धन का फैलाव हो चुका है। अपने परिवार, सम्बन्धियों, दूर-दराज के रिश्तेदारों के नाम पर सम्पत्तियाँ ख़रीदना काफी प्रचलित तरीका है। आजकल बीच-बीच में किसी साधारण सरकारी चपरासी, कर्मचारी के कुछ सालों में करोड़ों का मालिक बन जाने के मामले सामने आते रहते हैं। लेकिन असल में ये छोटे मोहरे होते हैं। इस खेल के बड़े मोहरे तो उसी काले धन की बदौलत सत्ता से नजदीकी बनाकर या सत्ता में घुसपैठ करके ख़ुद को सुरक्षित कर लेते हैं।

हमारे देश का बहुत सारा काला धन मन्दिरों-मस्जिदों-गुरुद्वारों से लेकर कई धार्मिक संस्थाओं के पास भी पड़ा हुआ है। बड़े-बड़े मन्दिरों के बोर्डों से लेकर चर्चों और वक्फ बोर्ड तक और छोटे-छोटे धार्मिक स्थलों तक में अकूत काला धन जमा है। दिखाने के लिए कुछ का हिसाब-किताब रखा जाता है, लेकिन असल में वास्तविक बड़ी राशि तो काले धन के रूप में मन्दिर-मस्जिदों के मुख्य न्यासियों या मठाधीशों के पास जमा होती जाती है। इन्हीं के नाम पर चलने वाले और कहने को धर्मार्थ पर असल में कमाई के बड़े ज़रिये बन चुके स्कूल-कॉलेजों की कमाई भी गोल-मोल करके काले धन में तब्दील हो जाती है। अगर सिर्फ इन धार्मिक स्थलों के सड़ रहे काले धन को ही जब्त कर लिया जाये तो देश का सारा विदेशी कर्ज एक झटके में खत्म हो जायेगा।

यह भी सवाल पैदा हो सकता है कि देश और विदेशों में इतना अकूत धन होने के बावजूद भी सरकार पैसों की कमी का रोना क्यों रोती रहती है। वजह साफ है पूँजीपतियों की रक्षा मुस्तैदी से करने वाली सरकार इस पैसे की तरफ तो भूल से भी नहीं देखेगी। इस अकूत धन में पूँजीपतियों के साथ राजनेताओं, नौकरशाहों, धार्मिक मठाधीशों के उसी तन्त्र की भी अच्छी-ख़ासी हिस्सेदारी है जो सत्ता चलाने का काम करता है।

भाजपा के पीएम इन वेटिंग आडवाणी ने इस काले धन को विदेशों से वापस लाने का वादा तो कर डाला लेकिन सभी अच्छी तरह जानते थे कि यह महज चुनावी स्टंट है। पहली बात तो यह कि यह धनराशि कोई साल-दो साल में जमा नहीं हो गयी होगी। आज़ादी के बाद से ही यह जमा हो रही है और ऐसा नहीं है कि पिछली सभी सरकारों को इसकी भनक तक न हो। वैसे काला धन किसी एक पार्टी का मामला भी नहीं है। हर छोटे-बड़े बुर्जुआ राजनीतिक दल के लिए यह स्वाभाविक चीज़ है। काला धन पैदा करने वाले ज्यादातर किसी न किसी पार्टी के कार्यकर्ता बने नज़र आयेंगे। शहरों में प्रॉपर्टी डीलरों, ठेकेदारों, व्यापारियों के राजनीति में पैर पसारने को भी इससे समझा जा सकता है। वैसे अगर आडवाणी कहीं ग़लती से भी इस चुनावी वादे को पूरा करने की गम्भीरता दिखा देते तो उनकी पार्टी में ही उनके ख़िलाफ बग़ावत हो जाती।

यहाँ इस चार्ट के माध्‍यम से दर्शाया गया है कि अगर विदेशों में जमा 72 लाख करोड़ रुपये का आधे से भी कम देश के लोगों के कल्याण के लिए लगा दिये जायें तो स्थिति कितनी बदल सकती है। लोगों की शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, पोषण, मनोरंजन, यातायात, ऊर्जा ज़रूरतें, कृषि के विकास, और पर्यावरण की रक्षा के लिए भी कितनी योजनाएँ लागू की जा सकती हैं। और तब भी एक बड़ी धनराशि बच जायेगी। इससे बस अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि अगर जनता की मेहनत और हुनर से पैदा होने वाली धन-सम्पदा का सही इस्तेमाल किया जाये तो इस देश की तकदीर बदलने में देर नहीं लगेगी। लेकिन यह ग़ैरकानूनी लूट तभी ख़त्म हो सकती है जब उसे जन्म देने वाली कानूनी लूट ख़त्म होगी। कानूनी लूट का ख़ात्मा पूँजीवाद के ख़ात्मे के बिना नहीं हो सकता है। इसलिए मेहनतकश वर्ग को इस लूट के राज को ख़त्म करने के लिए लड़ाई की तैयारी अभी से शुरू कर देनी चाहिए।

स्विस बैंकों में जमा काले धन से क्या-क्या किया जा सकता है : इसकी एक झलक

(भारत मे करीब 6 लाख गाँव, 10 हज़ार ब्लॉक, 600 ज़िले हैं)

* हर गाँव में एक प्राथमिक पाठशाला 6 लाख X 10 लाख रुपये = 60 हज़ार करोड़
* हर गाँव पर एक हाई स्कूल 1 लाख X 1 करोड़ रुपये = 1 लाख करोड़
* हर ब्लॉक पर एक कॉलेज 10 हज़ार X 10 करोड़ रुपये = 1 लाख करोड़
* हर ज़िले में एक मेडिकल कॉलेज 600 X 100 करोड़ रुपये = 60 हज़ार करोड़
* हर ज़िले में 5 उच्च शिक्षण संस्थान (इंजीनियरिंग, मैनेजमेण्ट, कृषि, आईटी, विज्ञान और अनुसन्धान केन्द्र) 3 हज़ार X 100 करोड़ रुपये = 3 लाख करोड़
* प्रत्येक ब्लॉक में म्यूज़िक, ड्रामा-पेंटिंग आदि के शिक्षा केन्द्र 10 हज़ार X 1 करोड़ रुपये = 10 हज़ार करोड़
* हर गाँव में प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र 6 लाख X 20 हज़ार रुपये = 1 लाख 20 हज़ार करोड़
* हर छ: गाँव में एक मातृ-शिशु स्वास्थ्य एवं चिकित्सा केन्द्र 1 लाख X 1 करोड़ रुपये = 1 लाख करोड़
* हर ब्लॉक में एक आधुनिक अस्पताल 10 हज़ार X 10 करोड़ रुपये = 1 लाख करोड़
* हर ज़िले में एक पूर्ण चिकित्सा केन्द्र 600 X 100 करोड़ रुपये = 60 हज़ार करोड़
* हर ज़िले में 5 उच्च शिक्षण संस्थान 3 हज़ार X 100 करोड़ रुपये = 3 लाख करोड़
* हर ब्लॉक में ऐसा ही छोटा कॉम्प्लेक्स 10 हज़ार X 2 करोड़ = 20 हज़ार करोड़
* छ: लाख गाँव में पानी, सड़क, बिजली, कम्युनिटी हाल इत्यादि 6 लाख X 1 करोड़ रुपये = 6 लाख करोड़
* सिंचाई, कृषि औज़ार, जैविक खाद, जैविक कीटनाशक, बीज का विकासीकरण इत्यादि = 2 लाख करोड़
* झुग्गियों की जगह पक्के मकान, पानी, सड़क, यातायात व्यवस्था एवं सभी तरह की नागरिक सुविधाएँ
50 लाख के ऊपर आबादी 10 शहर X 10 हज़ार करोड़ = 1 लाख करोड़
10 लाख से 50 लाख की आबादी 50 शहर X 1 हज़ार करोड़ = 50 हज़ार करोड़

* 2 हज़ार छोटे शहर 2 हज़ार X 100 करोड़ = 2 लाख करोड़
* 1 करोड़ नये फ़्रलैट X 5 लाख रुपये = 5 लाख करोड़
* पुराने मकानों की मरम्मत 1 लाख करोड़
रैन बसेरा 10 हज़ार X 1 करोड़ रुपये = 10 हज़ार करोड़
वृद्धाश्रम 10 हज़ार X 1 करोड़ रुपये = 10 हज़ार करोड़
सामाजिक सुरक्षा गृह (शिशु, महिला, विकलांग इत्यादि) 10 हज़ार X 1 करोड़ = 10 हज़ार करोड़
खदान मज़दूरों के लिए मकान = 10 हज़ार करोड़
अन्य उद्योगों के मज़दूरों के लिए मकान = 20 हज़ार करोड़
मत्स्यजीवियों के लिए मकान और अन्य साधन = 10 हज़ार करोड़
* पर्यटन केन्द्र पर आवास स्थल = 10 हज़ार करोड़
* हर तरह का बिजली उत्पादन (परमाणु बिजली को छोड़कर) 50 हज़ार मेगावॉट X 10 करोड़= 2.5 लाख करोड़
* परिवहन/यातायात व्यवस्था
नयी पक्की सड़क 6 लाख किमी. X 10 लाख रुपये प्रति किमी. = 50 हज़ार करोड़
नयी रेंज लाइन 1 लाख किमी. X 1 करोड़ रुपये प्रति किमी. = 1 लाख करोड़

कुल मिलाकर ख़र्च 31 लाख 40 हज़ार करोड़ रुपये
बची शेष राशि 40 करोड़ 60 लाख रुपये

(बंगला पत्रिका ‘अनीक’ से साभार)

बिगुल, जून 2009


 

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