श्रम सुधारों के नाम पर मोदी सरकार का मज़दूरों पर हमला तेज़

विकास के हवा-हवाई सपनों की सौदागरी करते हुए, मुनाफ़ा कूटने की राह की सारी बाधाओं को हटा दिये जाने की बेसब्री से प्रतीक्षा करते पूँजीपतियों को एक और क़ीमती तोहफ़ा देने के लिए मोदी सरकार ने अपने कुख्यात श्रमसुधारों को आगे बढ़ाने का काम शुरू कर दिया है। तीन ऐसे विधेयक तैयार हैं जिन्हें मोदी सरकार जल्द से जल्द क़ानून बनाने के लिए आतुर है।

Modi labor reformsइनमें से पहला ‘बालश्रम (निषेध व नियमन) संशोधन विधेयक’ है जिसे श्रम मन्त्री बण्डारू दत्तात्रेय मंजूरी दे चुके हैं। इस विधेयक के अनुसार 14 साल से कम उम्र के बच्चों को किसी संगठित क्षेत्र में तो काम पर रखने की मनाही होगी, लेकिन परिवारों के छोटे प्रतिष्ठानों (घरेलू वर्कशॉपों) में अपने परिवार का “हाथ बँटाने” की उन्हें छूट होगी। ज़ाहिर है कि संगठित क्षेत्र में औपचारिक तौर पर तो बच्चे पहले से ही बहुत कम काम करते थे। सर्वाधिक बालश्रम असंगठित क्षेत्र में ही लगा हुआ था। आज की नयी उत्पादन-प्रक्रिया में असेम्बली लाइन को इस प्रकार खण्ड-खण्ड में अलग-अलग वर्कशॉपों में तोड़ दिया गया है कि मज़दूरों की बड़ी आबादी अनौपचारिक व असंगठित हो गयी है। इस श्रृंखला में सबसे नीचे घरेलू वर्कशॉप आते हैं, जहाँ ज़्यादातर काम ठेके पर लेकर पीसरेट के हिसाब से किया जाता है। श्रम क़ानूनों की यहाँ कोई दख़ल नहीं होती और पूरे परिवार से अधिकतम सम्भव अधिशेष (सरप्लस) निचोड़ा जाता है। अब ऐसे घरेलू वर्कशॉपों या घरों में पीसरेट पर किये जाने वाले कामों में बच्चों की भागीदारी पर से औपचारिक क़ानूनी बन्दिश को भी हटाकर (क्योंकि अब तक की क़ानूनी बन्दिशों के बाद भी इन कामों में बच्चों की बड़े पैमाने पर भागीदारी होती थी, तभी जाकर परिवार का भरण-पोषण हो पाता था) मोदी सरकार नवउदारवाद के दौर में बच्चों तक की हड्डियाँ निचोड़कर ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कूटने की सम्भावनाओं को निर्बन्ध कर देना चाहती है। मार्क्स ने ‘पूँजी खण्ड एक’ में इस तथ्य का विशेष उल्लेख किया है और चार्ल्स डिकेंस के उपन्यासों तथा ‘इण्डस्ट्रियल नावेल’ नाम से ख्यात उपविधा की बहुतेरी कृतियों में इस क्रूर यथार्थ का ग्राफ़िक चित्रण किया गया है कि इंग्लैण्ड में उन्नीसवीं शताब्दी में पूँजीवाद किस तरह स्त्रियों और बच्चों के श्रम के बर्बर अतिशोषण के आधार पर विकसित हुआ था। नवउदारवाद के दौर में, सभी कीन्सियाई नुस्खों के कचरापेटी में फेंक दिये जाने के बाद, विशेषकर एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के पिछड़े पूँजीवादी देशों में एक बार फिर वैसी स्थिति बनती दीख रही है। भारत में बालश्रम पर रोक और सर्वशिक्षा के सभी वायदे बस जुबानी जमाख़र्च बनकर रह गये हैं। वैसे भी यह एक नंगा सच है कि यदि मज़दूर को परिवार के भरण-पोषण लायक भी मज़दूरी नहीं मिलेगी तो जीने की ख़ातिर बच्चों को भी मेहनत-मजूरी करनी ही पड़ेगी, यदि बालश्रम पर क़ानूनी रोक हो तो भी। यदि मज़दूरों के बच्चे किसी तरह से पढ़ने जाते हैं तो शिक्षा के निजीकरण के इस दौर में सरकारी स्कूलों की पढ़ाई व्यवहारतः उनके किसी काम नहीं आती। पूँजी की राक्षसी शक्ति मेहनतकश के बच्चों से उनका बचपन छीनकर उनकी हड्डियाँ निचोड़ने का काम तो पहले से ही करती रही है। अब इस प्रक्रिया को पूर्णतः निर्बाध बनाने की क़ानूनी प्रक्रिया भी शुरू कर दी गयी है।

मन्त्रिमण्डल की मंजूरी के लिए केन्‍द्रीय श्रम मन्त्री बण्डारू दत्तात्रेय द्वारा प्रस्तुत दूसरा विधेयक ‘दि स्माल फ़ैक्ट्रीज (रेग्यूलेशन ऑफ़ एम्प्लायमेण्ट एण्ड कण्डीशंस ऑफ़ सर्विसेज) बिल’ है। इस विधेयक में प्रत्येक कारख़ानेदार को एक ‘श्रमिक पहचान संख्या’ देने का प्रावधान किया गया है। अब हर कारख़ानेदार ख़ुद ही एक अनुपालन रिपोर्ट दाखि़ल करके इसका सत्यापन किया करेगा कि उसके प्रतिष्ठान में सभी 44 श्रम क़ानूनों का अनुपालन किया जा रहा है। इससे भद्दा मज़ाक़ भला और क्या हो सकता है? यानी अभियुक्त स्वयं ही जाँचकर्ता होगा और स्वयं ही गवाह होगा। यूँ तो, अधिकांश काम ठेका और विभिन्न श्रेणी के मज़दूरों से करवाने वाले न केवल छोटे-मझोले, बल्कि बड़े कारख़ाने भी इन दिनों श्रम क़ानूनों का या तो एकदम पालन नहीं करते या बस नाममात्र को करते हैं। श्रम कार्यालय या श्रम इंस्पेक्टरों की भूमिका इन दिनों दलाल से अधिक कुछ भी नहीं रह गयी है। अब इस स्थिति को क़ानूनी जामा पहनाकर मालिकों को एकदम खुला हाथ दिया जा रहा है। ग़ौरतलब है कि लेबर इंस्पेक्टर अब ‘इंस्पेक्टर’ नहीं बल्कि ‘फ़ेसिलिटेटर’ कहलायेंगे, यानी उनका काम श्रम क़ानूनों के अनुपालन का निरीक्षण करना नहीं, बल्कि मालिकों को अनुकूल परिस्थितियाँ ‘फ़ेसिलिटेट’ कराना (सुगम बनाना) होगा।

तीसरा विधेयक “इम्प्लाइज़ प्रॉविडेण्ट फ़ण्ड्स एण्ड मिसलेनियस प्रॉविजंस एक्ट, 1952” में व्यापक संशोधन प्रस्तावित करता है। इस विधेयक के अनुसार सभी कामगारों को अब इपीएफ़ (इम्प्लाइज़ ‘प्रॉविडेण्ट’ फ़ण्ड) और एनपीएस (न्यू पेंशन स्कीम) में से एक विकल्प चुनना होगा। दूसरा संशोधन यह है कि पगार की परिभाषा में अब बेसिक तनख़्वाह के साथ सभी भत्ते भी जुड़े होंगे। ज़ाहिर है इससे पीएफ़ में मज़दूरों का अंशदान बढ़ जायेगा। दूसरा प्रावधान यह किया गया है कि दस या उससे अधिक मज़दूर वाले सभी प्रतिष्ठान अब इपीएफ़ओ के दायरे में आयेंगे (पहले 20 या 20 से अधिक मज़दूर वाले प्रतिष्ठान ही आते थे)। ऊपरी तौर पर देखने में मालूम पड़ता है कि सरकार ज़्यादा से ज़्यादा मज़दूरों के भविष्य को आर्थिक तौर पर सुरक्षित करना चाहती है और पहले से ज़्यादा सुरक्षित करना चाहती है। लेकिन सच्चाई कुछ और है। दरअसल मज़दूर संगठनों के तमाम विरोध के बावजूद सरकार ने यह निर्णय पहले ही ले लिया है कि वह मज़दूरों के पीएफ़ संचय का 5 से लेकर 15 प्रतिशत तक ‘स्पेक्युलेटिव शेयर मार्केट’ में निवेश करेगी। निवेश की जाने वाली इस रक़म को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ाने के लिए मज़दूरों के पगार से पीएफ़ कटौती की रक़म बढ़ाने और इस दायरे में ज़्यादा से ज़्यादा मज़दूरों को लाने का निर्णय लिया गया है। इसके लिए कारख़ानेदारों के अतिरिक्त वित्त बाज़ार के मगरमच्छ भी लम्बे समय से सरकार पर दबाव बनाये हुए थे। सरकार का यह निर्णय, देश में मज़दूरों की अतिसीमित संख्या के लिए जो भी मरियल-विकलांग सामाजिक सुरक्षा स्कीम थी, उसके ताबूत में कील ठोकने की शुरुआत है। ईपीएफ़ के बदले में ‘नेशनल पेंशन स्कीम’ का जो विकल्प दिया जा रहा है, वह मात्र एक सामान्य बचत स्कीम है। ईपीएफ़ से सब्सक्राइबर के परिवार को लाभ मिलते थे, वह एनपीएस से नहीं मिलेगा। तुर्रा यह कि कुछ और संशोधनों के ज़रिये, छोटे कारख़ानों की मदद करने के नाम पर सरकार अब यह प्रावधान करने जा रही है कि 10 से 40 मज़दूरों वाले कारख़ानों के मज़दूरों को ईपीएफ़ से पहले के मुकाबले अब कम लाभ मिला करेगा। 75 प्रतिशत औद्योगिक मज़दूर ऐसे ही कारख़ानों में काम करते हैं।

सबसे बड़ा सच तो यह है कि छोटे-छोटे प्लाण्टों से लेकर घरेलू वर्कशॉपों तक ठेका, उपठेका और पीसरेट पर उत्पादन के काम को इस तरह बाँट दिया गया है कि उनमें काम करने वाले अधिकांश मज़दूरों का कोई रेकार्ड नहीं रखा जाता। ठेका, कैजुअल या अप्रेण्टिस मज़दूर को मिलने वाले क़ानूनी हक़ भी उन्हें हासिल नहीं होते। व्यवहारतः वे दिहाड़ी मज़दूर होते हैं जो सरकार और श्रम विभाग के लिए अदृश्य होते हैं। नये श्रम सुधारों द्वारा श्रम विभागों को एकदम निष्प्रभावी बनाकर इस किस्म के अनौपचारिकीकरण को अब ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ावा दिया जा रहा है ताकि विदेशी कम्पनियाँ और देश के छोटे-बड़े सभी पूँजीपति खुले हाथों से और मनमाने ढंग से अतिलाभ निचोड़ सके।

मोदी द्वारा ‘मेक इन इण्डिया’ को रफ्तार देने के लिए प्रस्तावित श्रम सुधारों की यह वास्तव में महज़ शुरुआत भर है। यह तो महज़ ट्रेलर है, पूरी पिक्चर अगले दो-तीन वर्षों में सामने आ जायेगी। बुर्जुआ और संसदमार्गी वामपन्थी दलों से जुड़ी यूनियनें मज़दूरों के अतिसीमित आर्थिक हितों की हिफ़ाज़त के लिए भी सड़क पर उतरने की हिम्मत और ताक़त दुअन्नी-चवन्नी की सौदेबाज़ी करते-करते खो चुकी है। वैसे भी देश की कुल मज़दूर आबादी में 90 फ़ीसदी से अधिक जो असंगठित मज़दूर हैं, उनमें इनकी मौजूदगी बस दिखावे भर की ही है। अब सफ़ेद कॉलर वाले मज़दूरों, कुलीन मज़दूरों और सर्विस सेक्टर के मध्यवर्गीय कर्मचारियों के बीच ही इन यूनियनों का वास्तविक आधार बचा हुआ है और सच्चाई यह है कि नवउदारवाद की मार जब समाज के इस संस्तर पर भी पड़ रही है तो ये यूनियनें इनकी माँगों को लेकर भी प्रभावी विरोध दर्ज करा पाने में अक्षम होती जा रही है। बहरहाल, रास्ता अब एक ही बचा है। गाँवों और शहरों की व्यापक मेहनतकश आबादी को सघन राजनीतिक कार्रवाइयों के ज़रिये, जीने के अधिकार सहित सभी जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष करने के उद्देश्य से, उनके विशिष्ट पेशों की चौहद्दियों का अतिक्रमण करके, इलाक़ाई पैमाने पर संगठित करना होगा। दूसरे, अलग-अलग सेक्टरों की ऐसी पेशागत यूनियनें संगठित करनी होंगी, जिसके अन्तर्गत ठेका मज़दूर और सभी श्रेणी के अनियमित मज़दूर मुख्य ताक़त के तौर पर शामिल हों। पुराने ट्रेड यूनियन आन्दोलन के क्रान्तिकारी नवोन्मेष की सम्भावनाएँ अब अत्यधिक क्षीण हो चुकी हैं। अब एक नयी क्रान्तिकारी शुरुआत पर ही सारी आशाएँ टिकी हैं, चाहे इसका रास्ता जितना भी लम्बा और कठिन क्यों न हो।

नवउदारवाद के दौर ने स्वयं ऐसी वस्तुगत स्थितियाँ पैदा कर दी हैं कि मज़दूर वर्ग यदि अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए नहीं लड़ेगा तो सीमित आर्थिक माँगों को भी लेकर नहीं लड़ पायेगा। मज़दूर क्रान्तियों की पराजय के बाद मज़दूर आबादी के अराजनीतिकीकरण की जो प्रवृति हावी हुई है, उसका प्रतिरोध करते हुए ऐसे हालात बनाने के लिए अब माकूल और मुफ़ीद माहौल तैयार हुआ है कि मज़दूर वर्ग एक बार फिर नये सिरे से क्रान्तिकारी राजनीतिक चेतना के नये युग में प्रवेश करे। ज़ाहिर है, यह अपने आप नहीं होगा। इसके लिए सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान और आज के नये हालात (यानी नवउदारवाद के दौर में पूँजीवाद की नयी कार्यप्रणाली) का गहन अध्ययन और जाँच-पड़ताल करके सर्वहारा क्रान्तिकारियों के नये दस्तों को मैदान में उतरना होगा। आगे का रास्ता निश्चय ही लम्बा और कठिन है, लेकिन विश्व पूँजीवाद का मौजूदा असमाधेय ढाँचागत संकट बता रहा है कि पूँजी और श्रम के बीच संघर्ष का अगला चक्र श्रम की शक्तियों की निर्णायक विजय की परिणति तक पहुँचेगा। ऐसी स्थिति में लम्बा और कठिन रास्ता होना लाजिमी है, लेकिन हज़ार मील लम्बे सफ़र की शुरुआत भी तो एक छोटे से क़दम से ही होती है।

 

मज़दूर बिगुल, मई 2015


 

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