अखिलेश यादव के फ़र्ज़ी समाजवाद में मज़दूरों की बुरी हालत

सत्येन्द्र

मज़दूर दिवस के अवसर पर उत्तर प्रदेश के तथाकथित समाजवादी मुख्यमन्त्री अखिलेश यादव ने निर्माण मज़दूरों को बधाई देते हुए झूठे वादों से भरे पोस्टरों से पूरा लखनऊ शहर पाट दिया था। लेकिन मुलायमी समाजवाद में मज़दूरों की वास्तविक स्थिति का पर्दाफ़ाश हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण ने किया है।

लखनऊ विश्वविद्यालय के कुछ शिक्षकों द्वारा किये सर्वेक्षण के अनुसार लखनऊ में Constructionनिर्माण क्षेत्र में लगे मज़दूरों का एक तिहाई हिस्सा हर छह माह पर किसी-न-किसी हादसे का शिकार हो जाता है। ज़्यादातर मज़दूर ऊँचाई से गिरने के कारण घायल होते हैं। कई बार तो मज़दूरों की मौत हो जाती है। घायल होने वाले मज़दूरों में 31 प्रतिशत काम के दौरान ज़ख़्मी हैं और 19 प्रतिशत पर निर्माण सामग्री गिरने से, जबकि 9 प्रतिशत भारी या धारदार सामग्री उठाने से घायल होते हैं।  63 फ़ीसदी मज़दूर इलाज के लिए डॉक्टर के पास जा ही नहीं पाते। घरेलू नुस्खों से ही वे अपना इलाज करते हैं जो कई बार प्राणघातक भी हो जाते हैं। इतना ही नहीं पौष्टिक भोजन के अभाव में अधिकतर मज़दूर स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से जूझते रहते हैं। इसी सर्वेक्षण के अनुसार 50 प्रतिशत मज़दूर शरीर में लगातार दर्द से, 42 प्रतिशत साँस की बीमारी से परेशान रहते हैं, 17 प्रतिशत मूत्र सम्बन्धी समस्याओं से ग्रस्त हैं, 27 प्रतिशत को त्वचा का संक्रमण है और 30 प्रतिशत को हर समय सिरदर्द, चक्कर, उल्टी की शिकायत रहती है। दरअसल कार्यस्थल पर सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नहीं होता, यहाँ तक कि शौचालय व पीने का पानी भी नहीं। ऐसे में ये परेशानियाँ देरसबेर स्वास्थ्य की गम्भीर समस्याओं में बदल जाती हैं।

लागत घटाने और मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए मज़दूरी, सुरक्षा के उपकरण व कार्यस्थल पर सुविधाओं के लिए पूँजीपति हमेशा ही कम से कम ख़र्च करते हैं। इससे मज़दूरों के स्वास्थ्य पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है, पर इससे पूँजीपतियों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। इस सर्वेक्षण ने एक महत्वपूर्ण खुलासा किया है कि 81 प्रतिशत मज़दूरों को सुरक्षा के कोई उपकरण ही नहीं मुहैया कराये जाते हैं।

मोटे अनुमान के अनुसार लखनऊ में लगभग 6 लाख मज़दूर हैं जिनका बहुतायत निर्माण क्षेत्र में लगा हुआ है। ज़्यादातर मज़दूरों को काम लेबर चौक से ही मिलता है। इनमें से अधिकतर कभी भी पूरे महीने काम नहीं पाते। अधिकतर को महीने में औसतन 15 से 20 दिन ही काम मिल पाता है। यहाँ काम करने वाले मज़दूरों का बहुसंख्यक आप्रवासी है जो पूर्वांचल, लखीमपुर, सीतापुर व आसपास के गाँवों सहित पश्चिम बंगाल, असम, उड़ीसा व बिहार से यहाँ आते हैं। इस अध्ययन में शामिल 87 प्रतिशत मज़दूर 18 से 37 वर्ष के थे जबकि 9 प्रतिशत की उम्र 18 वर्ष से कम थी।

akhilesh-mulayamजिस प्रदेश में मज़दूरों की यह स्थिति है, उसी उत्तर प्रदेश की सरकार का रवैया यह है कि पिछले पाँच वर्षों में भवन एवं अन्य सन्निर्माण कामगार कल्याण बोर्ड की मद में जमा 1140 करोड़ रुपये में से सरकार अब तक मात्र 76.59 करोड़ ही ख़र्च कर पायी है। ग़ौरतलब है कि अभी तक सरकार द्वारा ऐसा कोई तन्त्र विकसित नहीं किया जा सका है जिनसे मज़दूरों की सही स्थिति का पता लगाया जा सके। फिर सरकार ने 76 करोड़ कहाँ और किसलिए ख़र्च कर दिये, यह भी स्पष्ट नहीं है। असंगठित मज़दूरों के कल्याण के दिखावे के लिए बीच-बीच में फ़र्ज़ी घोषणाएँ करने वाली प्रदेश सरकार का आलम यह है कि असंगठित मज़दूर सामाजिक सुरक्षा अधिनियम 2008 के तहत नियमावली बनाने का काम ही आज तक नहीं किया गया जिससे इस क़ानून से मिलने वाले पंजीकरण तथा अन्य लाभों से मज़दूर वंचित हैं।

यह सर्वेक्षण भले ही लखनऊ में हुआ हो पर आज कमोबेश पूरे भारत में असंगठित मज़दूरों के यही हालात हैं। देश के लगभग साढ़े तीन करोड़ निर्माण मज़दूरों की स्थिति तो और भी ख़राब है। काम के घण्टों, सुरक्षा, स्वास्थ्य सम्बन्धी श्रम क़ानूनों का इनके लिए कोई मतलब नहीं। अकसर ठेकेदार या मालिक पैसा देने के बजाय पीट देता है और मज़दूर सिवाय गिड़गिड़ाने के कुछ नहीं कर पाता।

बिगुल के पाठकों को कुछ महीने पहले की एक रिपोर्ट का ध्यान होगा कि लखनऊ के निर्माणाधीन हाइकोर्ट परिसर में चौथी मंज़िल से गिरकर एक मज़दूर की मौत हो गयी थी जिसके बाद सैकड़ों मज़दूरों ने हाईवे जाम कर दोषियों पर कार्रवाई व पीड़ित परिवार को उचित मुआवज़े की माँग की थी। लेकिन बाद में पुलिस ने मामला रफ़ा-दफ़ा कर दिया। पुलिस, क़ानून और इन सरकारों पर विश्वास करके हम पिछले 67 सालों से लगातार धोखे खा रहे हैं। अब हालात यह कह रहे हैं कि इनसे हमें कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। कांग्रेस सहित अन्य सभी चुनावी पार्टियों ने सत्ता में रहते यही किया है पर मोदी के सत्ता में आने के बाद से तो शासक वर्ग ने मज़दूरों के विरुद्ध हमला और भी तेज़ कर दिया है। आज हमारे संगठित होकर लड़ने की ज़रूरत पहले से कहीं अधिक है।

 

मज़दूर बिगुल, मई 2015


 

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