माछिल फ़र्ज़ी मुठभेड़़ – भारतीय शासक वर्ग का चेहरा फिर बेनकाब हुआ!

बिगुल संवाददाता

पिछली 14 मार्च 2015 को सेना द्वारा कोर्ट मार्शल के दौरान माछिल फर्जी मुठभेड़़ में दोषी पाये गये दो अफ़सरों और चार सैनिकों को आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी गयी। हालाँकि अभी इस फैसले के विरुद्ध अदालत में अपील की जा सकती है जिसके बाद यह मामला वर्षों तक लटका रह सकता है।

यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 2014 को 23 जनवरी को भारतीय सेना ने ऐसे ही एक एक और मामले में पथरीबल में पाँच कश्मीरी युवकों की हत्या के दोषी अपने अधिकारियों और सैनिकों को दोषमुक्त करार देकर बरी कर दिया था।

Machil-fake-encounter-case_6माछिल फर्जी मुठभेड़़ एक चर्चित मुठभेड़़ थी। वैसे तो जम्मू-कश्मीर में सेना और सीआरपीएफ़ द्वारा फ़र्जी मुठभेड़ के मामले आम बात हैं, परन्तु माछिल फ़र्ज़ी एनकाउंटर का मामला बहुत चर्चित रहा था, क्योंकि इसके बाद पूरे जम्मू-कश्मीर में दो महीने तक सेना के खि़लाफ़ व्यापक प्रदर्शन हुए जिसमें करीब 126 लोगों के मारे जाने की ख़बर थी। इस पूरे वाकये की शुरुआत अप्रैल 2010 में हुई थी जब भारतीय सेना के जवानों ने तीन कश्मीरी युवकों को नेडीहाल गाँव ज़िला बारामूला से उठाया और कुपवाड़ा ज़िले में नियन्त्रण रेखा के पास गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गयी। युवकों के नाम मोहम्मद शफ़ी, शहज़ाद अहमद और रियाज़ अहमद था। इसके बाद हुए व्यापक विरोध प्रदर्शनों के फलस्वरूप सेना को अपने जवानों के खि़लाफ़ कोर्टमार्शल की कार्रवाई शुरू करने का आदेश देने को मजबूर होना पड़ा। स्थानीय पुलिस ने जाँच के बाद इसे फ़र्ज़ी मुठभेड़़ बताते हुए कर्नल पठानिया, मेजर उपिन्दर और सात अन्य सैन्य कर्मियों के खि़लाफ़ चार्टशीट दाखि़ल की थी जिसके बाद सेना ने अदालती जाँच शुरू की जिसमें पाया गया कि छह सैनिकों ने अपनी सीमाओं को लाँघा, इनमें दो अधिकारी भी शामिल हैं। इससे पहले घटना के बाद सेना के अधिकारियों ने नियन्त्रण रेखा पर तीन घुसपैठियों को मार गिराने की बात कही थी, साथ ही उन्हें पाकिस्तानी आतंकवादी भी करार दिया गया था। इसके बाद पूरे कश्मीर में सेना विरोधी प्रदर्शनों का सिलसिला चल पड़ा। जिसमें सीआरपीएफ़ की गोलियों से ही 112 लोग मारे गये।

देखा जाये तो जम्मू-कश्मीर में फ़र्ज़ी मुठभेड़़ें आम बात हो चुकी हैं क्योंकि किसी आतंकवादी या घुसपैठिये को मारने से सेना में मेडल और प्रमोशन मिलता है जिसकी चाह में कई सेना के जवान आम कश्मीरी युवकों को भी आतंकवादी बताकर मारने से गुरेज नहीं करते हैं। सेना की ट्रेनिंग ही इस तरह की होती है कि इसमें सैनिकों को बिना सोचे-समझे आदेश मानने वाला एक उपकरण बना दिया जाता है। उनकी संवेदनाओं को ख़त्म कर दिया जाता है। दूसरी बात पूरे जम्मू-कश्मीर में अफ़स्पा ‘सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) क़ानून’ लागू है जिसके तहत सेना और सशस्त्र बलों को किसी को भी सन्देह के आधार पर पूछताछ करने व गिरफ्तार करने का अधिकार मिला हुआ है। बहुत से मामलों में यह देखा जाता है कि सेना के जवान यह भी जाँच नहीं करते कि जिन लोगों पर गोली चलायी जा रही है, वे आतंकवादी हैं भी या नहीं। कई दफ़ा सेना द्वारा सुनियोजित मुठभेड़़ें भी अंजाम दी जाती हैं।

असल में “दुनिया का सबसे बड़ा जनतन्त्र” कहे जाने वाला भारतीय शासक वर्ग जम्मू-कश्मीर और उत्तर पूर्व में ‘अफ़स्पा’ जैसे काले क़ानून के दम पर वहाँ की जनता से निपटता है। जिसके अन्तर्गत सेना के सशस्त्र बलों को असीमित अधिकार मिल जाते हैं। कश्मीर की जनता की लम्बे समय से अफ़स्पा हटाने की माँग रही है जो कि यहाँ की जनता की जनवादी माँग है जिसे भारतीय शासक वर्ग पूरा नहीं कर रहा है। पीडीपी जैसी जो क्षेत्रीय पार्टी जम्मू-कश्मीर से अफ़स्पा व सेना को हटाने की माँग के बूते चुनाव जीतकर आयी है, उसने भी सत्ता के लिए फ़ासिस्ट भाजपा से हाथ मिला लिया है। पीडीपी का समझौतापरस्त चरित्र बहुत पहले उजागर हो गया था। बस वह अपना जनाधार बचाने के लिए दिखावटी तौर पर कुछ तात्कालिक मुद्दे जैसे सेना के द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन व फ़र्ज़ी मुठभेड़़े आदि मुद्दे उठाती रहती है। जबकि अब स्वयं पीडीपी के सत्ता में आने के बाद भी मानवाधिकार उल्लंघन व फ़र्जी मुठभेड़़ों का सिलसिला थमा नहीं है।

जम्मू-कश्मीर में बहुत से मानवाधिकार संगठनों ने भी फ़र्जी मुठभेड़ों का मामला उठाया था। पीयूसीएल ने भी अपनी रिपोर्ट में कश्मीर घाटी में होने वाली फ़र्जी मुठभेड़ों पर अपनी एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें सीधे-सीधे इसके लिए सेना को ज़िम्मेदार ठहराया गया। बहुत सी फ़र्जी मुठभेड़ों का तो पता भी नहीं चलता।  वहाँ हज़ारों गुमनाम कब्रें ऐसी फ़र्ज़ी मुठभेड़ों की ख़ामोश गवाही देती हैं। हज़ारों लोग अपने घरों से सेना द्वारा उठाये जाने के बाद लापता हैं। सब जानते हैं कि उन्हें मार दिया गया है मगर उनकी मौत की कोई सरकारी पुष्टि न होने के कारण उन्हें “गुमशुदा” बताया जाता है। उनकी पत्नियों को “अर्द्ध-विधवा” कहा जाता है।

भारत सरकार और उससे भी बढ़कर भाजपा-संघ परिवार के लोग कश्मीर को स्वाभिमान का मसला बताते रहते हैं। मध्यवर्ग के लोगों के लिए वह बस घूमने-फिरने और फिल्मों में नज़ारे देखने की एक जगह है। कश्मीरी जनता के अधिकारों और उन पर लगातार होने वाले दमन की बात उठाने वालों को देशद्रोही करार दिया जाता है। लेकिन जनता के संघर्षों के दबाव में सच के कुछ टुकड़े सामने आ ही जाते हैं।

 

 

मज़दूर बिगुल, मई 2015


 

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