हमारी ताक़त हमारी एकजुटता में ही है!

विक्की,
कुशल भवन निर्माण मज़दूर,
कलायत, ज़िला कैथल, हरियाणा

मेरा नाम विनोद उर्फ़ विक्की है। मैं कस्बा कलायत ज़िला कैथल हरियाणा का रहने वाला हूँ। साथियो मेरी उम्र 30 साल है और 16 साल की उम्र से ही मैंने दिहाड़ी-मज़दूरी का काम शुरू कर दिया था। घर के आर्थिक हालात अच्छे न होने के कारण स्कूल के दिनों में खेत मज़दूरी जैसे कामों में घरवालों का हाथ बँटाना पड़ता था। खेती का काम तो मौसमी होता था और इसमें मेहनत ज़्यादा थी और पैसा कम, इसलिए स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूर के तौर भी मैंने काफ़ी दिन बेलदारी का काम किया। किन्तु यहाँ भी काम में अनिश्चितता बनी रहती थी। उसके बाद मैंने एक आरा मशीन पर काम पकड़ा, यहाँ मैं लगातार आठ साल तक खटता रहा। मालिक कहा-सुनी व गाली-गलौज करता था, पैसा भी बेहद कम मिलता था। अन्त में एक दिन काम के दौरान आरा मशीन में मेरा हाथ आ गया जिसके कारण मुझे अपनी एक उँगली गँवानी पड़ी। न तो मुझे कोई मुआवज़ा मिला और काम भी मुझे छोड़ना पड़ा। मुझे काफ़ी दिन तक हाथ ठीक होने तक घर पर ही रहना पड़ा। फिर पुनः काम पकड़ने की कोशिशें शुरू हुईं। फिर मैं एक राजमिस्त्री के पास काम सीखने लगा जो भवन निर्माण आदि के ठेके लिया करता था। चार साल तक मैंने उसके नीचे काम किया और ख़ूब बेगारी करनी पड़ी क्योंकि मुझे आधी दिहाड़ी ही मिलती थी और वह भी कभी समय से नहीं। उसके बाद मैंने ख़ुद राजमिस्त्री यानी निर्माण कार्य के कुशल मज़दूर के तौर पर काम करना शुरू किया। मेरे दो बच्चे हैं और बड़ी मुश्किल से ही अपने परिवार का लालन-पालन कर पा रहा हूँ। पिछले साल ही दो मंज़िल पर काम करते हुए पैड़ (शैटरिंग) टूट गयी और मैं नीचे गिर गया। इस दुर्घटना से मेरी कमर पर बुरी तरह चोट लगी और मेरा कन्धा टूट गया। छः महीने तक मैं काम पर नहीं जा पाया लेकिन अब बड़ी मुश्किल से काम पर जा पा रहा हूँ। पूरी तरह से स्वस्थ न होने के बावजूद भी ग़रीबी के कारण मुझे काम पर जाना पड़ता है। इस दौरान मुझ पर काफ़ी क़र्ज़ भी चढ़ गया लेकिन कोई मुआवज़ा यहाँ भी नहीं मिल पाया। चोट तो किस्मत में थी, मकान मालिक कौन चाहता है कि चोट लगे और “घर की बात” कहकर मामले को यूँ ही रफ़ा-दफ़ा कर दिया गया। नौजवान भारत सभा द्वारा संचालित शहीद भगतसिंह पुस्तकालय के माध्यम से मुझे मज़दूर बिगुल अख़बार के बारे में पता चला। यह अख़बार मुझे बहुत अच्छा लगा, क्योंकि यह हम मज़दूरों को अपने हक़-अधिकारों के लिए संगठित होना और लड़ना सिखाता है। इस दौरान मैं नरवाना में काम कर रही निर्माण मज़दूर यूनियन की भी विभिन्न गतिविधियों में शामिल हुआ। कलायत में भी हम ऐसी ही एक जुझारू यूनियन खड़ी करने का प्रयास कर रहे हैं। अगर कलायत में पहले से ही कोई यूनियन होती तो मुझ जैसे अनेक मज़दूरों का हक़ नहीं मरता जो शोषण-उत्पीड़न का शिकार हैं। अपनी एकजुटता के बल पर ही हम मज़दूर अपने हक़-अधिकारों के लिए आवाज़ उठा सकते हैं क्योंकि इस पूँजीवादी समाज में मज़दूर अकेले-अकेले नहीं लड़ सकते। हमारी ताक़त हमारी एकजुटता में ही है और जब तक हम एकजुट नहीं होंगे, हमारा शोषण बन्द नहीं हो सकता। अनेकों लाल झण्डे वाली यूनियनें जो आज ग़द्दार हो चुकी हैं, उनसे भी हमें बचकर रहना होगा क्योंकि ये मज़दूरों को ग़लत रास्ते पर ले जाती हैं। एक तो हमें आज अपनी ऐसी यूनियनें खड़ी करनी होंगी जो हमारी अपनी हों और जिनमें हम भी भागीदारी करें व किसी को अपने संघर्ष का ठेका न दें। और इसके साथ मज़दूर वर्ग को एकजुट होकर अपने ऐतिहासिक मिशन को पूरा करने के काम में जुट जाना होगा, तभी हमारी सच्ची मुक्ति हो सकती है।

 

मज़दूर बिगुल, मई 2015


 

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