वज़ीरपुर में गरम रोला मज़दूरों की हड़ताल के एक साल बाद
आज की परिस्थिति और आगे का रास्ता

सनी

वज़ीरपुर में 2014 की स्टील लाइन मज़दूरों की हड़ताल को 6 जून को एक साल हो गया। यह वही हड़ताल है जिसे आज भी मज़दूर अपनी हिम्मत और जुझारूपन के लिए याद करते हैं और तमाम मालिक और दल्ले नफ़रत से याद करते हैं। मज़दूरों को अगर अपने दुश्मन और दोस्तों को पहचानना है तो इसका पैमाना हड़ताल है, जिसे अच्छा मानने वाला मज़दूर की क़ौम है और इसे बुरा मानने वाला मालिक, दलाल और दोमुँही नस्ल का है। इस हड़ताल ने मज़दूरों को उनकी असीम ताक़त का अहसास दिला दिया। 32 दिनों तक चली इस हड़ताल को मालिकों ने तरह-तरह से तोड़ने की कोशिशें कीं। परन्तु यूनियन ने हर बार योजनाबद्ध तरीक़े से इन परिस्थितियों का सामना किया। घरों में राशन जब ख़त्म होने लगा तो यूनियन ने सामूहिक रसोई का प्रयोग किया, पैसे ख़त्म होने लगे तो यूनियन ने हड़ताल भत्ता देना शुरू किया। न सिर्फ़ वज़ीरपुर बल्कि पूरे देशभर से हड़ताल को समर्थन मिला। गरम रोला मज़दूरों की हड़ताल ठण्डा रोला, प्रेस, तेज़ाब, तपाई, पोलिश, रिक्शा व सभी मज़दूरों की हड़ताल बन गयी। और 6 जून को इस हड़ताल को पूरा एक साल हो गया। यह हड़ताल क्यों इतनी बड़ी बन गयी? 2014 में हमने 8 घण्टे काम की माँग की थी। हमने न्यूनतम वेतन की माँग की थी। हमने ईएसआई, पीएफ़ की माँग के साथ अन्य श्रम क़ानूनों की माँग की थी। यह सिर्फ़ एक फ़ैक्टरी की नहीं बल्कि सभी फ़ैक्टरियों की माँग थी, सभी पेशे के मज़दूरों की माँग थी। इसीलिए हमें इलाक़े ही नहीं देशभर के मज़दूरों ने समर्थन दिया।

हड़ताल में आंशिक जीत

हमने हड़ताल 32 दिन चलाकर मालिकां को मजबूर किया कि वे लेबर कोर्ट में समझौते पर हस्ताक्षर करें और हमारी जीत हुई। परन्तु पूँजीवाद के अन्तर्गत मज़दूरों की सभी जीतें आंशिक होती हैं।

Wazirpur strike day15_20.6.14_7फ़ैक्टरी मालिकों ने समझौते को मानने से मना कर दिया और 12 घण्टे काम करवाने के लिए अड़े रहे। 3 महीने तक मज़दूरों ने 8 घण्टे के काम को अपनी एकजुटता के दम पर लागू करवाया। परन्तु कई जगह हम कमज़ोर पड़ गये। कुल मिलाकर हमारी जीत आंशिक थी। फ़ैक्टरियों में 1500 रुपये वेतन भी बढ़ गया। हड़ताल के बाद कई मज़दूरों को काम से निकाला गया। कुछ लोगों के फ़ैसले हो गये हैं और यूनियन की क़ानूनी जीत हुई है। परन्तु हड़ताल का एक साल गुज़र चुका है और अब तक महँगाई जितनी बढ़ी है, वह पिछले साल के वेतन में पार नहीं पायी जा सकती है। दरअसल हमेशा ही मज़दूर को माल का उत्पादन करने के लिए जितना वेतन मिलता है, वह बाज़ार में इन्हीं मालों को ख़रीदने के लिए काफ़ी नहीं होता है क्योंकि माल उत्पादन की प्रक्रिया में मज़दूर जितनी मेहनत लगाता है उसका मालिक सिर्फ़ वही हिस्सा देता है जिससे मज़दूर सिर्फ़ “ज़ि‍न्दा रहे”। यह व्यवस्था मज़दूरों के ज़िन्दा रहने की नयी परिभाषाएँ गढ़ती है। मज़दूरों द्वारा किये आर्थिक संघर्ष वेतन बढ़ाते हैं तो मालिक भी अपने माल की क़ीमत बढ़ाकर अपना मुनाफ़ा बरकरार रखते हैं व मुद्रास्फीति के ज़रिये अपना मुनाफ़ा बढ़ाते हैं। नहीं इसका यह मतलब नहीं है कि मज़दूरी बढ़ने के कारण क़ीमतें बढ़ती हैं। असल में बात बिल्कुल उल्टी है। सरकारें लगातार काग़ज़ी मुद्रा बाज़ार में मालों से अधिक छापती है और इसी कारण से सभी वस्तुओं की क़ीमत बढ़ती है परन्तु मज़दूरी कभी भी इस मुद्रास्फीति के अनुरूप नहीं बढ़ती है जिस कारण मज़दूर अधिक से अधिक ग़रीब होता जाता है। वह बार-बार मजबूर होता है कि वेतन वृद्धि व अन्य सुविधाओं के लिए सड़क पर उतरे। परन्तु यह एक गोल चक्कर है जिससे सिर्फ़ वेतन भत्ते की लड़ाई लड़ते हुए निजात नहीं पाया जा सकता है। अगर इससे निजात पाना है तो इस पूँजीवादी व्यवस्था को बदलने के लिए एकजुट होना होगा।

वज़ीरपुर में मन्दी के कारण

Wazirpur strike day15_20.6.14_5बर्तन का बाज़ार अपने-आप में स्टील के दाम तय नहीं करता है, बल्कि कहीं न कहीं यह धूमकेतु सा मुख्य उत्पादन क्षेत्रों के आगे-पीछे दौड़ता है। 2008 की मन्दी के कारण आज भी स्टील के उत्पादों के दाम काफ़ी नीचे हैं। इसका मुख्य कारण भी ऑटो सेक्टर और ग़ैर आवासीय निर्माण (नॉन रेज़िडेंशियल कंस्ट्रक्शन) सेक्टर के उत्पादन दर का नीचे आना है। दूसरी ओर चीन दुनिया में स्टील का सबसे बड़ा उत्पादक है और मज़दूरों को लूटकर ही माल बेहद सस्ते दामों में दुनियाभर के देशों के बाज़ारों में पाट देता है, इस मन्दी का इस्तेमाल चीन ने अपने सस्ते माल के ज़रिये दुनियाभर के बाज़ारों पर क़ब्ज़ा करने में भी किया है। इससे वज़ीरपुर के उद्योग पर क्या असर पड़ रहा है? क्योंकि प्रेस और पोलिश मालिक सीधे चीन का कोल्ड रॉल्ड शीट ख़रीद रहे हैं जोकि वज़ीरपुर में बन रहे माल से बेहद सस्ता है। यह माल प्रेस से कटिंग के बाद पोलिश करने के बाद सीधे बाज़ार में बिक जाता है। इस कारण ही गरम रोला, ठण्डा रोला, तेज़ाब, तपाई और रिक्शा में मन्दी छाई हुई है। हालाँकि इस बार बड़े स्टील उत्पादकों (ज़िन्दल स्टील और टाटा स्टील) ने भी सरकार पर दबाव बनाया कि वे चीन के माल पर आयात कर बढ़ायें। पूँजीपतियों ने सरकार को अपीलें जारी कीं और सरकार ने मालिकों की बात सुनी भी है और हड़ताल से लेकर अब तक तीन बार सरकार ने चीन की स्टील पर आयात कर बढ़ाया है, यह सोचकर कि इससे चीन का माल महँगा हो जायेगा, परन्तु चीन से आ रहा स्टील अभी भी सस्ता पड़ रहा है। परन्तु कई ऐसे भी कारख़ाने हैं जिन्होंने आयात कर का विरोध भी किया है क्योंकि उनके लिए चीन से मिल रहा सस्ता माल फ़ायदेमन्द था। यानी यह बाज़ार का खेल है और मालिक अपना मुनाफ़ा बनाये रखने के लिए कुत्ताघसीटी पर उतरे हुए हैं। ख़ैर हम इस बारे में पहले भी बात कर चुके हैं, यहाँ इसे दोहराना इसलिए ज़रूरी था कि वैसे तो अभी गरम रोला की फ़ैक्टरियों में मालिकों को वेतन बढ़ाना था, परन्तु मन्दी को कारण बताकर मालिकों ने कई फ़ैक्टरियों में अभी वेतन नहीं बढ़ाये हैं। इसका ठीकरा उन्होंने हड़ताल पर फोड़ने की कोशिश की है परन्तु ज़रा सोचिये अगर हड़ताल न भी हुई होती तो क्या चीन का माल नहीं आता? क्या पटाखों, मंजे, खिलौनों, मोबाइलों, रेडियो, डिब्बों से लेकर लगभग हर ज़रूरत का माल चीन से नहीं आ रहा है? क्या इन मालों के कारख़ानों में भी हड़ताल हुई थी? नहीं ऐसा नहीं है, यह व्यवस्था मुनाफ़े के आधार पर चलती है। मुनाफ़ाख़ोरी के पैरों के नीचे मज़दूर की खोपड़ी चूर-चूर भी हो जाती है। मज़दूर वर्ग की यूनियन और हड़ताल ही उसका हेल्मेट बनती है जो मज़दूर के अस्तित्व के लिए ज़रूरी है। मालिक हर हमेशा मज़दूर से उसके ये हथियार भी छीन लेना चाहता है। वज़ीरपुर के मालिक भी यूनियन के खि़लाफ़ प्रचार करने में लगे हुए हैं। हमें भी अपनी लड़ाई का ख़ाका तैयार करना होगा।

आगे का रास्ता क्या हो?

1- इलाक़ाई और पेशागत एकता क़ायम करो

2014 की हड़ताल को एक साल बीत चुका है, जो वेतन में 1500 हमने हासिल किये थे, महँगाई बढ़ने के कारण आज हालत फिर पहले जैसी है। इस परिस्थिति में यूनियन की तरफ़ से मालिकों को न्यूनतम वेतन नोटिस दिये जा चुके हैं। गरम रोला की कुछ फ़ैक्टरियों में इस बार भी वेतन बढ़ा है परन्तु सभी फ़ैक्टरियों में नहीं बढ़ा है। ठण्डा रोला की फ़ैक्टरियों व स्टील लाइन की अन्य फ़ैक्टरी में मालिक दीवाली पर वेतन बढ़ाता है। हमें यह प्रयास करना चाहिए कि सभी मज़दूर एक साथ वेतन वृद्धि व अन्य श्रम क़ानूनों को लागू करवाने को लेकर संघर्ष करें। यानी हमें अपनी लड़ाई को इलाक़ाई और पेशागत आधार पर कायम करना चाहिए। यही ऐसा रामबाण नुस्खा है जो हमारी जीत को सुनिश्चित कर सकता है। यानी माँग सभी पेशे के मज़दूरों की उठायी जाये। पिछले साल की हड़ताल में मुख्यतः गरम रोला के मज़दूरों ने हड़ताल की थी, जिसका समर्थन अन्य सभी मज़दूरों ने किया था जिस कारण से हम हड़ताल को 32 दिन तक चला पाये और आंशिक जीत भी हासिल की। इस बार हमें शुरुआत ही अपनी इलाक़ाई और पेशागत यूनियन के बैनर तले संगठित होकर करनी चाहिए। यानी गरम, ठण्डा, तेज़ाब, तपाई, रिक्शा, प्रेस, पोलिश, शेअरिंग व अन्य स्टील लाइन के मज़दूरों का एक साझा माँगपत्र हमें मालिकों के सामने रखना चाहिए। कोई भी हड़ताल इलाक़ाई और सेक्टरगत आधार पर लड़कर जीती जा सकती है।

2- सिर्फ़ आर्थिक लड़ाई नहीं बल्कि राजनीतिक प्रचार व राजनीतिक अधिकारों के लिए एकजुटता

यूनियन को आगे सिर्फ़ वेतन भत्ते की लड़ाई तक सीमित न रहकर राजनीतिक अधिकारों के लिए एकजुट होना होगा। ठेका प्रथा उन्मूलन, शहरी रोज़गार गारण्टी योजना व आवास की माँग व अन्य माँगों को लेकर प्रचार व संघर्ष करने के लिए खड़ा होना होगा। क्योंकि जैसा हमने ऊपर देखा आर्थिक संघर्ष लड़कर हम हमेशा ही एक गोल चक्कर में घूमते रहने को मजबूर होते हैं। इसलिए हमें न सिर्फ़ वेतन भत्ते के लिए लड़ना होगा, बल्कि राजनीति को भी समझते हुए मज़दूर वर्ग के एतिहासिक मिशन को – पूँजीवाद को क़ब्र में पहुँचाने के लिए कमर कस लेनी चाहिए।

 

 

मज़दूर बिगुल, जून 2015


 

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