चीन के प्रदूषणकारी कारख़ानों के खि़लाफ़ हज़ारों लोग सड़कों पर
आर्थिक संकट के शिकार पूँजीपति वर्ग को करना पड़ रहा है व्यापक जनअसन्तोष का सामना

अखिल

पिछले महीने के आखि़र में चीन के दक्षिण पश्चिमी शंघाई के ज़िले जिनशान में दसियों हज़ार लोग सरकार के विरोध में सड़कों पर उतर आये। दरअसल, मुद्दा सरकार द्वारा जिनशान में एक ज़हरीले रासायन पैराज़ायलिन (पीएक्स) के निर्माण के लिए प्लाण्ट लगाये जाने का था। सरकार की मंशा गाओकियाओ औद्योगिक पार्क से पैराज़ायलिन के प्लाण्ट को जिनशान में लाने की थी। जैसे ही लोगों को सरकार की इस योजना का पता चला, उन्होंने जिनशान की सरकारी इमारतों का घेराव शुरू कर दिया। उनके हाथों में “पीएक्स बाहर जाओ!”, “हमें हमारा जिनशान वापिस दो!” जैसे नारों वाली दफ्ति‍याँ थीं। सरकार ने स्थानीय मीडियापर दबाव बनाकर प्रदर्शन की ख़बर के “ब्‍लैकआउट” की पूरी कोशिश की। लेकिन जैसे-जैसे ख़बर फैलती गयी विरोध प्रदर्शन तेज़़ होते गये। लोगों की संख्या 50,000 तक पहुँच गयी। पुलिस ने प्रदर्शनों को कुचलने की हरचन्द कोशिश की, कई लोगों को गिरफ्तार किया गया, कईयों को उनके मालिकों ने नौकरी से हाथ धो बैठने की धमकियाँ दीं, लेकिन जिनशान तथा आसपास के इलाक़ों के लोग प्लाण्ट के विरोध में पूरे 6 दिन तक डटे रहे। आखि़रकार सरकार को जनता की एकजुटता के सामने झुकना पड़ा और प्लाण्ट के निर्माण की योजना ठण्डे बस्ते में डालनी पड़ी।

china-shanghai-paraxylene-protest-june23-2015असल में पैराज़ायलिन एक ज्वलनशील रसायन है जो प्लास्टिक की बोतलों, फ़ैब्रिक आदि के निर्माण में उपयोग होता है। चीन इस रसायन का सबसे बड़ा उत्पादक है। लेकिन पिछले 7-8 साल से इसके निर्माण के खि़लाफ़ लोगों के बड़े तथा हिंसक संघर्ष हुए हैं। नये सिरे से इन प्रदर्शनों की शुरुआत इसी साल अप्रैल महीने से हुई थी। अप्रैल महीने में चीन के फीजीहान प्रान्त के जांगजाउ में स्थित पैराज़ायलिन बनाने वाली केमिकल फ़ैक्टरी में रिसाव की वजह से धमाका हो गया जिसके चलते 12 लोग ज़ख़्मी हो गये। इस हादसे की भयावहता का अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्लाण्ट में लगी आग को बुझाने में पूरे 3 दिन लग गये। इस हादसे के बाद से चीन के हर क्षेत्र में लोगों ने पैराज़ायलिन के प्लाण्टों के विरुद्ध आवाज़़ उठानी शुरू कर दी। इन प्रदर्शनों के चलते सरकार कभी प्लाण्ट को इस क्षेत्र में लगाती रही तो कभी उस क्षेत्र में। लेकिन जहाँ भी यह प्लाण्ट लगाया गया, लोगों की एकजुटता ने सरकार को इसे बन्द करने पर मजबूर कर दिया। जिनशान के औद्योगिक पार्क में प्लाण्ट लगाने की हाल की कोशिश में भी सरकार को मुँह की खानी पड़ी।

वैसे मुद्दा केवल पैराज़ायलिन के निर्माण का नहीं है। वर्ष 1976 में माओ की मृत्यु के बाद देंग सियाओ पिंग के नेतृत्व में चीन में पूँजीवादी पुनर्स्थापना हो गयी जिसके बाद पूँजीवादी पथगामियों ने जनता के महान समाजवादी प्रयोगों को मिट्टी में मिलाना शुरू कर दिया। जहाँ पहले हर योजना जनता की ज़रूरत के आधार पर तथा जनता के सामूहिक निर्णय से ली जाती थी, वहीं अब इसका निर्णय पूँजी करने लगी। इसके बाद चीन में अथाह पूँजीवादी “विकास” हुआ, लेकिन इस विकास का लक्ष्य जनता की बेहतरी नहीं बल्कि केवल मुनाफ़ा था। सभी पर्यावरणीय नियमों को ताक पर रखकर औद्योगिक पार्क बनाये गये। रिहायशी इलाक़ों के बिल्कुल पास रासायनिक कारख़ाने लगाये गये। इसी का नतीजा है कि चीन आज दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित देशों में से एक है। लोगों में कैंसर जैसी बीमारियों का पाया जाना अब आम बात हो गयी है। चीन में ऐसे कुल क़रीब 200 इलाक़े हैं जिन्हें “कैंसर गाँव” कहा जाता है। पिछले दशक के दौरान अकेले बीजिंग में फेफड़ों के कैंसर के मामलों में 60 फ़ीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी है। फ़ैक्टरियों द्वारा नदियों-झीलों में अन्धाधुँध तरीक़े से बहाये जा रहे रासायनिक कूड़े ने आधे से ज़्यादा जल को इतना दूषित कर दिया है कि उसे अब किसी भी तरीक़े से पीने लायक नहीं बनाया जा सकता। स्थिति की भयावहता को इसी बात से समझा जा सकता है कि औद्योगिक कूड़े की वजह से दक्षिणी गुआंगदोंग प्रान्त के शहरशांगबा से गुज़रते समय एक नदी का रंग सफ़ेद से बदलकर नारंगी हो जाता है। भू-जल की तो हालत इससे भी बदतर है। लगभग 90 फ़ीसद भू-जल दूषित हो चुका है। यही वजह है कि चीनी जनता अब “पूंजीवादी विकास” के जुमलों के चक्कर में न पड़ सरकार के खि़लाफ़ आवाज़़ बुलन्द कर रही है।

चीन के पूँजीवादी शासक अन्धाधुन्ध मुनाफ़े की होड़ में पर्यावरण की भी बुरी तरह तबाही कर रहे हैं। खदानों से बेतहाशा खनिज निकालने के कारण आये दिन दुर्घटनाएँ तो हो ही रही हैं, प्राकृतिक सम्पदा का भी विनाश हो रहा है। जंगलों की बेरहमी से कटाई और सारे नियमों को ताक पर धरकर प्रदूषणकारी कारख़ानों को अनुमति दिये जाने के कारण कई शहरों में साँस लेना भी दूभर होता जा रहा है। वास्तविक समाजवाद के दौर में जहाँ ह्वांगहो और यांग त्से-क्यांग जैसी नदियों की बाढ़ की समस्या पर काबू पा लिया गया था वहीं अब चीन में हर साल बाढ़ से भयंकर तबाही मचने लगी है।

जहाँ एक तरफ़ चीन का पूँजीपति वर्ग आर्थिक संकट से जूझ रहा है वहीं मज़दूरों तथा आमजन समुदाय के संघर्ष भी उसे चैन की साँस लेने नहीं दे रहे हैं। पिछले कुछ सालों से चीन जनान्दोलनों के प्रमुख स्थानों में से एक बना हुआ है। वर्ष 2011 के बाद से चीन में होने वाली हड़तालों तथा प्रदर्शनों में हर साल दोगुनी वृद्धि हुई है। चीन का ऐसा कोई औद्योगिक क्षेत्र नहीं बचा है यहाँ मज़दूरों के बड़े-छोटे संघर्ष न फूट रहे हों। आर्थिक संकट के शिकार चीनी पूँजीपति वर्ग के अलावा विश्व पूँजीपति वर्ग को भी जनसंघर्षों का ख़ौफ़ खाये जा रहा है। सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के तहत जब पूँजीवादी पथगामियों के खि़लाफ़ जनान्दोलन जारी था, उस समय माओ-त्से-तुंग ने कहा था कि अगर चीन की राज्यसत्ता पर पूँजीवादी पथगामी काबिज़ हो भी जाते हैं तो चीनी जनता उन्हें एक दिन भी चैन की नींद नहीं सोने देगी। आज कामरेड माओ की यह भविष्यवाणी पूरी तरह सच साबित हो रही है।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2015


 

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