चीन में आर्थिक संकट और मज़दूर वर्ग

सनी

चीन की आर्थिक व्यवस्था डावांडोल है। विश्व आर्थिक व्यवस्था में पुएर्तो रिको, ब्राज़ील, रूस, यूनान, स्पेन व अन्य देश अभी भी मंदी से उभर नहीं पाए हैं, वहीं चीन वैश्विक व्यवस्था को एक और बड़े संकट की तरफ खींच कर ले जा रहा है जो दुनिया भर के पूँजीपतियों के लिए चिंता का सबब है। पूँजीवादी व्यवस्था के विश्लेषक आने वाले नए संकट की चेतावनी दे रहे हैं और चीन के नकली कम्युनिस्टों को संकट से बचने के रास्ते सुझा रहे हैं। पर पूँजीवादी चीन और वैश्विक पूँजीवादी व्यवस्था को मंदी की इस जन्मजात व अंतकारी बीमारी से इस व्यवस्था के ख़त्म हुए बिना निजात नहीं मिलने वाला है। मजदूर वर्ग द्वारा भस्म किये जाने तक यह बदस्तूर इस तरह ही मृत्यु शय्या पर पड़ी सड़ती रहेगी।

हमें इस पूँजीवादी व्यवस्था की सड़ांध यानी आर्थिक संकट के संकेत, इसके कारण, उसका फैलाव के बारे में निश्चित रूप से जानना चाहिए क्योंकि संकट और उसके बाद मंदी में जहां एक तरफ पूरा बाज़ार धड़ाम कर गिर जाता है तो दूसरी तरफ यह मज़दूरों के हिस्से में भयंकर बर्बादी लाती है। हर सेक्टर में छंटनी, तालाबंदी, कमरतोड़ महंगाई, बेरोजारी और भूखमरी के कारण मज़दूर वर्ग और जनता के व्यापक हिस्से को यह गर्त में धकेल देती है। जनता के पास पैसा नहीं होता है कि बाज़ार से कोई ज़रूरत के सामान खरीद सकें। बाज़ार माल से पटे रहते हैं और भूखे और नंगे लोग दुकानों के बाहर सड़कों पर सोते हैं।

china crisisजब से पूँजीवादी व्यवस्था अस्तित्व में आई है आर्थिक संकट के कारण छायी मंदी और मज़दूर वर्ग की बर्बादी हर हमेशा से चक्र में आते रहे हैं। पूँजीवाद के विकास का नियम ही तेजी-संकट-मंदी के रास्ते होता है। आर्थिक मंदी से उबरने के लिए ही पूँजीवादी देश अन्य देशों पर युद्ध थोपते हैं। पिछले 15 सालों में ही 1999 का एशियाई बाघ संकट, 2001 का डॉट कॉम संकट और फिर 2008 का सबप्राइम संकट, यूरोप के संप्रभु संकट के कुचक्र से यह व्यवस्था मर मर के चल रही है। और अब चीन नए आर्थिक संकट के मुँह में पहुँच रहा है। आर्थिक संकट की शुरुआत अक्सर उत्पादन या सट्टेबाजी के तेजी के दौर के बाद होती है क्योंकि तेजी के दौर में पूँजी की तरलता के कारण निवेशकों को निवेश करने के लिए आसानी से पूँजी मिल जाती है। पूँजी को तमाम बैंक और सटोरिये ऋण के जरिये जनता तक पहुंचाते हैं और दूसरी तरफ डिबेंचर के जरिये जनता का एक हिस्सा कंपनियों के शेयर भी खरीदता है। सटोरिये जमकर शेअरों पर, घरों, डॉट कॉम कंपनियों में  पूँजी लगाते हैं और नए शेयर/घर/ऋण खरीदने व बेचने की प्रकिर्या में  कीमतें वास्तविक कीमत से कईं गुना बढ़ जाती है। सब कुछ ठीक चल रहा होता है कि अचानक जब इस प्रकिर्या के सिरे में ऋण को लौटाने की बारी आती है तब यह  बुलबुला फूटता है और शेयरों की कीमतें धड़ाम से गिर जाती हैं। चीन में आर्थिक संकट का डर पहली बार तब पैदा हुआ जब एसेट (रियल एस्टेट – घर तथा मॉल आदि) बुलबुला फूटने वाला था, तब चीन की सरकार ने जमकर सरकारी मदद दी और इसे संभाल लिया परन्तु  इसकी सतह के नीचे से एक नया बुलबुला-इक्विटी बुलबुला पैदा हुआ और यह संभाले नहीं संभाला। आखिरकार यह बुलबुला फूट ही गया और चीन के दोनों स्टोक एक्सचेंज शंघाई और शेनजेन में भारी गिरावट दर्ज हुयी जिसमें खरबों युआन स्वाह हो गये और लाखों लोग दिवालिया हो गये। इस बुल्बुले के फूटने के बाद ही संकट का श्री गणेश हो चूका है और अब चीन की सरकार तमाम कदम उठाकर इसे टालना चाहती है परन्तु फिलहाल यह लग रहा है कि चीन विश्व पूँजीवादी व्यवस्था को नए संकट में धकेलने वाली है। इसकी भयंकरता से बचने के लिए चीन की सरकार ने अपनी मुद्रा के इतिहास में सबसे बड़ा अवमूल्यन किया परन्तु यह भी इसे टाल नहीं सका। इसका भयावह असर चीन के मज़दूरों पर ही होगा। चीन में सरकार के मज़दूर विरोधी चरित्र व पूँजीपतियों की खुली लूट के खिलाफ जो संकट के बाद और नगी हो जाएगी ज़बर्दास्त रोष आंदोलनों का रूप ले रहा है और चीनी मजदूर सड़कों पर उतर रहे हैं। निश्चित ही चीन के मज़दूरों को इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने में समय लगेगा परन्तु ये शुरूआती कदम ही पूँजीपतियों की और विदेशी निवेशकों की नींद उड़ा रहे हैं।  इन तमाम अलग अलग दिख रहे घटनाओं के मूल में जो कारण है वह चीन की पूँजीवादी व्यवस्था है। इस संकट ने जिन अंतर्विरोधों को सतह पर ला दिया है उन्हें समझने के लिए हमें चीन की आर्थिक व्यवस्था का थोड़ा गहनता से अध्ययन करना होगा।

आर्थिक संकट की पूर्वपीठिका

आज दुनिया भर के बाज़ार एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हैं। और गहराई में जायें तो साम्राज्यवाद के अंतिम दौर भूमंडलीकरण में पूँजी और श्रम भूमंडलीकृत असेंबली लाइन में जुड़ गये हैं। इस ग्लोबल असेंबली लाइन में अगर एक देश आर्थिक संकट का शिकार हो तो यह पूरी असेंबली लाइन की समस्या होती है। इसलिए 2008 के संकट के कारण दुनिया के हर देश में तबाही मची थी। 2008 के संकट से विश्व अर्थव्यवस्था जिस मंदी में पहुंची थी उससे अभी तक उबर नहीं पायी है पर उससे उबरने के लिए जितने भी जतन किये गये वे आज नए संकटों जन्म दे रहे हैं। चीन के मौजूदा संकट की कहानी भी 2008  के अमरीकी सबप्राइम संकट के साथ शुरू होती है। इस संकट के कारण चीन पर मंडरा रहे मंदी के खतरे को दूर करने के प्रयास से ही यह संकट पैदा हुआ है। यह एक ऐसा कुचक्र है जिसमें से पूँजीवादी देशों का निकलना असंभव है।

हर संकट से निजात पाने के लिए उठाये गये कदम नए संकटों को जन्म देते हैं। 2008  में चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी, जो सिर्फ नाम की कम्युनिस्ट है और स्वरूप में सामाजिक फासीवादी बन चुकी है, ने चीन को संकट की गिरफ्त में आने से बचाने के लिए 4  लाख करोड़ डॉलर का भारी स्टिम्युलस पैकेज दिया जिससे कि पूँजी की तरलता बरकरार रहे और चीनी सरकार ने खुद कई नये निर्माण प्रोजेक्ट हाथ में लेकर आर्थिक स्थिरता लाने का प्रयास किया। परन्तु हर ऐसे प्रयास अर्थव्यवस्था में बुलबुला पैदा करते हैं यानी कि किसी माल विशेष (शेयर/रियल एस्टेट/कलाकृतियाँ) की कीमतें सट्टेबाजी के कारण असल कीमत से बढ़ने लगती हैं और यह बढ़ोतरी यानी बुलबुले का फूलना तब तक जारी रहता है जब तक की यह बुलबुला फूट न जाए और एक नया संकट पैदा हो जाए।  इस संकट से निपटने के लिए सरकार फिर से नए बेल आउट पैकेज और स्टिम्युलस पैकेज देती है यानी खरबों रुपए सीधे बैंकों और कंपनियों को मदद के रूप में दिये जाते हैं और सीधे पूँजी को उत्पादक अतिविधियों में लगाया जाता है।

2008 में आये संकट के बाद दिए स्टिम्युलस पैकेज से चीन में जो पैसा लगा उससे बड़े-बड़े निर्माण के प्रोजेक्ट हाथ में लिए गये जिसने कई बेरोजगारों को फिर से काम पर ला दिया। परन्तु यह निर्माण सिर्फ उत्पादन के लिए होता है। बुलेट ट्रेन बनाने, गगनचुम्बी इमारतें खड़ी करने, सड़क खोदकर फिर से बनाने के काम महज पूँजी संचालित करने और निवेशकों को भरोसा दिलाने के लिए किया गया कि चीन का बाज़ार समाजवाद विश्व अर्थव्यवस्था के संकट में जाने के कारण नहीं डूबने वाला है। इस परिघटना ने चीन में कई भूतिया शहरों को जन्म दिया है जिसमें कोई नहीं रहता है। दुनिया का सबसे बड़ा मॉल न्यू साउथ चाइना माल बनने के बाद से ही खाली पड़ा है। मंगोलिया में ओर्डोस शहर पूरी तरह से खाली है।  इस आर्थिक धक्के के कारण व्यवस्था में जो पूँजी की तरलता आई उससे तमाम निवेशकों और सट्टेबाजों ने एक नया बुलबुला पैदा किया जो कि रियल इस्टेट का बुलबुला था।

चीन के भूतपूर्व मार्क्सवादियों ने अमरीका सरीखे संकट से बचने की काफी कोशिश की थी परन्तु पूँजीवादी व्यवस्था का नियम ही अराजकता है। बाजार समाजवाद के संस्थापक और सर्वहारा के गद्दार देंग शियाओ पेंग ने शंघाई और शेनजेन स्टॉक मार्केट स्थापित किये और कहा कि सट्टेबाज पूँजी तब “सापेक्षिक बेहतर समाज” बनाएगी। चीन के मौजूदा प्रधान ज़ाई ने “चीनी सपना” दिखाया पर अंततः इतिहास ने इस बाज़ार समाजवाद को “निरपेक्ष खराब समाज” के “चीनी दु:स्वप्न” में तब्दील कर दिया।  2008 की मंदी की गिरफ्त में आने से बचने के लिए चीन की सरकार ने ब्याज दर (चीन के सेन्ट्रल बैंक द्वारा दूसरे बैंकों को दिये गये ऋण पर ब्याज) कम की जिसके कारण सट्टेबाजों और बैंकों को पूँजी आसानी से मिल सकती थी। चीनी अमीरजादों ने भी अमरीकी सट्टेबाजी का पागलपन को पीछे छोड़ते हुए  सट्टेबाजी के नए कीर्तिमान स्थापित किये। चीन के सट्टेबाजों ने सब्जी की तरह मकान ख़रीदे। ये मकान बस बढ़ते दामों के कारण खरीद जा रहे थे जिससे कि कम दाम पर खरीदकर बढे दाम पर बेच दिया जाए। चीन के अखबार में छपी खबर के अनुसार एक गृहणी ने इंटरनेट से महज आधे घंटे में 10 मकान खरीद लिए और एक छात्र ने कुल मिलाकर 680 मकान खरीदे और बेचे।  इन मकानों को भी लोगों के रहने के लिए नहीं बल्कि सिर्फ सट्टे के कारण बनाया और खरीदा बेचा जा रहा था।

बुलबुला फूलता जा रहा था। इसे सच्चाई की सतह से टकराना ही था और 2011 में जब इस बुलबुले के फूटने के संकेत मिलने लगे तो चीनी सरकार ने सट्टाबाज़ारी को रोकने के लिए सख्त नियमों को लागू किया। मकानों की कीमतें औंधें मुंह गिरने लगी तो सरकार ने मकानों पर दिए जाने वाले बचत पर रोक लगा दी और ब्याज दर को बढ़ा दिया ताकि यह प्रकिर्या तुरंत रोकी जा सके। चीन की व्यवस्था संकट से बच गयी परन्तु पहले से मंद गति पर विकसित होने लगी। परन्तु जो पूँजी  सरकार ने तरलता के लिए बाज़ार में झोंकी थी वह देर सवेर नए संकट को जन्म देने का काम करती ही है। जब सरकार को लगने लगा कि मकानों की कीमतें नियंत्रित होने लगी हैं तब फिर से ब्याज दर को घटाया गया ताकि बाज़ार में खो रहा भरोसा जीता जा सके। रियल स्टेट बुलबुले के गर्भ से ही एक नया बुलबुला जन्म ले रहा था। मकानों की जगह अब स्टॉक एक्सचेंज के शेयरों ने ले ली थी। 2014 तक दोनों स्टॉक मार्केट ज़बरदस्त सट्टेबाजी का केंद्र बन चुके थे जिसमें बड़े निवेशकों से लेकर आम मजदूर, किसान, गृहणी तक खिंचे चले आये थे। इस तरह इक्विटी बुलबुला फूलना शुरू होता है।

चीन के सरकारी अखबार पीपल डेली ने स्टॉक मार्केट में निवेश को जोखिम मुक्त निवेश बताया और ज़ाई के “चीनी सपने” को हवा देनी शुरू की। सट्टेबाजी के कारण सटोरियों ने जमकर मुनाफा कमाया और शंघाई का सूचकांक 4000 के पार पहुंच गया। पीपल डेली ने कहा कि “बुलबुला क्या होता है? ट्यूलिप और बिटकॉइन बुलबुले होते हैं” (ट्यूलिप बुलबुला पहला बड़ा बुलबुला था जहाँ ट्यूलिप फूलों के बाज़ार में सट्टेबाजी के कारण कीमतें बढ़ी थीं और बुलबुला फूटने पर भारी नुक्सान हुआ था। बिटकॉइन एक डिजिटल मुद्रा है जिसे कोई केंद्रीय बैंक नहीं संचालित करता है जो कि हाल ही में एक बुलबुला देख चुकी है।) परन्तु जल्द ही चीनी सपना टूटने लगा और सरकार ने बड़ा संकट आता देख ही पहले ही कदम उठाते हुए युआन का अवमूल्यन कर दिया परन्तु स्टोक मार्केट की तबाही नहीं रुक सकती थी और तबाही आई भी। शंघाई स्टोक एक्सचेंज 5166 से 3700 पर जा लुड़का और 3 लाख करोड़ डॉलर स्वाहा हो गये। लाखों लोग तबाह हो गये। इक्विटी बुलबुला फुट चूका था और चीन के केंद्रीय बैंक को भी इसे स्वीकार करना पड़ा। बाज़ार समाजवाद उर्फ़ पूँजीवाद ने अपनी अंतकारी बीमारी का जानलेवा दौरा सहा और तुरंत ही बैलआउट के इंजेक्शन के साथ चीन की सरकार बाज़ार समाजवाद के लिए आ पहुंची। नया बेल आउट पैकेज दिया गया, ब्याज दर को फिर से घटा दिया गया, स्टोक मार्केट में कम्पनी मालिकों और शेयर होल्डरों द्वारा शेयर खरीदे व बेचने पर मनाही लग गयी। सरकार ने अखबार में जनता और निवेशकों को भरोसा दिलाने की कोशिश की और कहा कि “तूफानों के बाद इन्द्रधनुष नज़र आएगा”।  परन्तु अभी बीजिंग पर धुएं और ओस से बनी धुंध छाई है जिसे मौजूदा चीनी अर्थव्यवस्था नहीं हटा सकती है। कोई इन्द्रधनुष नहीं दिखने वाला है। अभी तो और तबाही मचनी बाकी है  क्योंकि  क्योंकि विश्लेषकों  के अनुसार  शंघाई स्टोक एक्सचेंज और नीचे गिरेगा तभी जाकर शेयर अपनी असल कीमत पर आएंगे।  सरकार हर कोशिश करके आर्थिक संकट से बचाना चाहती है लेकिन फिलहाल चीन की परिस्थिति को देखते हुए कई बुर्जुआ अर्थशास्त्री भी चीन के जरिये वैश्विक अर्थ व्यवस्था के संकट की आशंका जता रहे हैं।

चीनी मज़दूर और संकट

चीन में बाज़ार समाजवाद का जुमला नंगा हो चूका है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी एक सामाजिक फासीवादी पार्टी है। माओ की मृत्यु के बाद दंग शिआओ पेंग ने ही कम्युनिस्ट पार्टी पर बुर्जुआ वर्ग का नियंत्रण पक्का किया। चीन ने 1976 में पूँजीवाद में संक्रमण किया था और आज पूर्ण रूप से वित्तीय पूँजी के विकराल भूमंडलीय तंत्र का एक अभिन्न हिस्सा है। अमरीका की सबसे बड़ी आई.टी. कंपनियों को सस्ती श्रम और ज़मीन देकर चीन की अर्थव्यवस्था विस्तारित हुयी है। इस मुकाम तक पहुँचने में बाजार समाजवाद कई दौर से होकर गुजरा। सबसे पहले कम्यून और क्रांतिकारी कमिटियों को भांग करने के बाद 1990 के दशक में बड़े स्तर पर राज्य द्वारा संचालित कंपनियों का निजीकरण शुरू हुआ और 21वीं शताब्दी में प्रवेश के दौरान कईं विदेशी कंपनियों ने भी चीन में प्रवेश किया। चीनी राज्य ने मज़दूरों को मिलने वाली स्वास्थय, शिक्षा सुविधा से भी अपने कदम खींच लिए। पूँजीवाद की अंतकारी बिमारी के दौरे से अब तक बची हुयी चीन की व्यवस्था अब संकट की हरकारा बन गयी है।

चीन के सामाजिक फासीवादी देश के पूँजीपतियों के लिए जहाँ संकट से बचने के लिए बेल आउट पैकेज दे रहा है वहीँ मज़दूरों को तबाह कर उनसे उनके तमाम अधिकार भी छीन रहा है। चीन में अमीर-गरीब पिछले 10 सालों में बेहद अधिक बढ़ी है। पार्टी के खरबपति “कॉमरेड” और उनकी ऐयाश संतानों का गिरोह व निजी पूँजीपती चीन की सारी संपत्ति का दोहन कर रहे हैं। चीन के सिर्फ  0.4 फीसदी घरानों का 70 फीसदी संपत्ति पर कब्ज़ा है। यह सब राज्य ने मज़दूरों के सस्ते श्रम को लूट कर हासिल किया है। लेकिन मज़दूर वर्ग भी पीछे नहीं हैं और अपने हक़ और मांगों के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं। राज्य के दमन के बावजूद भी मज़दूर अपनी आवाज़ उठा रहे हैं। एक तरफ चीन का शासक वर्ग आर्थिक संकट के दौर में मज़दूरों को अधिक रियायतें नहीं दे सकता है और  दूसरी तरफ मज़दूरों की ज़िन्दगी पहले से ही नरक में है और अब जब वे सड़कों पर उतरे हैं तो इसी कारण कि उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। यह इस व्यवस्था का असमाधेय अन्तरविरोध  है।  इस अन्तरविरोध का समाधान मज़दूर वर्ग अपने पक्ष में सिर्फ तब कर सकता है जब वह मज़दूर वर्ग की पार्टी के अंतर्गत संगठित होकर चीनी शासकों का तख्ता पलट दे वरना संकट के ये कुचक्र चलते रहेंगे और पूँजीवादी व्यवस्था मर-मर कर भी घिसटती रहेगी।

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2015


 

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