नीमराना के ऑटो सेक्टर के मज़दूरों की लड़ाई जारी है…

बिगुल संवाददाता

राजस्थान के नीमराना में, जापानी पूँजीपतियों के लिए जापानी ज़ोन बनाया गया है। यहाँ पर अगर मज़दूरों को छींक भी आ जाये तो राज्य सीधे मज़दूरों को ‘टैकल’ करता है। यानी कि यहाँ पर मज़दूरों का ज़बरदस्त शोषण है। यहाँ मज़दूरों को दुनिया की नामी-गिरामी कम्पनियों में महज़ 4000-5000 रुपये पर खटाया जाता है। डाइकिन एसी बनाने वाली एक बड़ी कम्पनी है। शोषण का चक्का यहाँ पर काम करनेवाले मज़दूरों के ऊपर भी उसी रफ़्तार से चलता है। इसके ख़िलाफ़ यहाँ पर काम करने वाले साथियों ने परमानेन्ट-कॉन्ट्रैक्ट की दीवार गिराकर संघर्ष का बिगुल फूँका। स्थायी मज़दूरों के साथ 400 ठेका मज़दूरों ने सितम्बर 2013 में यूनियन बनाने की माँग और ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से साथियों की लगातार छँटनी के विरुद्ध हड़ताल पर बैठ गये। यह हड़ताल दो महीने तक चली। सेक्टर के दूसरे कारख़ाने के साथी भी डाइकिन के साथियों की इस हड़ताल के समर्थन में थे। हड़ताल पर जाने से पहले कारख़ाने से तक़रीबन 120 स्थायी और 400 ठेका मज़दूरों को ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से निकाला गया था। संघर्ष के दबाव में प्रबन्धन 39 साथियों को छोड़कर सभी को वापिस लेने पर राज़ी हो गया था, उन्हें 80 दिन की जाँच के बाद लेने की बात की गयी थी। इसके बाद प्रबन्धन ने लिखित त्रिपक्षीय समझौते का उल्लंघन करते हुए 19 स्थायी और 400 ठेका मज़दूरों को काम पर वापस लेने से मना कर दिया। इसके बाद भी समय-समय पर लोगों का निकाला जाना जारी रहा। 18 स्थाई मज़दूर और 100 ठेका मज़दूरों को बाद में फिर बाहर कर दिया गया। मज़दूरों को ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से निकालने का काम आज भी जारी है। इसके साथ ही मज़दूरों की यूनियन बनाने की प्रक्रिया में शामिल कुछ मज़दूरों पर प्रबन्धन के द्वारा दबाव बनाने के कारण मुकरने से यूनियन पंजीकरण की कार्रवाई में बाधा उत्पन्न की गयी। मज़दूरों के यूनियन न बनने देने के लिए प्रबन्धन हर किस्म की तिकड़म अपनाने से बाज़ नहीं आता है। राजस्थान श्रम विभाग के अधिकारियों ने स्पष्ट कहा कि उन्हें ऊपर से ऑर्डर है कि यूनियन पंजीकरण न किया जाये।

डाइकिन के मज़दूर नीमराना प्‍लाण्‍ट में एसी बनाते हुए

डाइकिन के मज़दूर नीमराना प्‍लाण्‍ट में एसी बनाते हुए

डाइकिन के मज़दूरों के इस संघर्ष का नेतृत्व केन्द्रीय ट्रेड यूनियन एटक कर रही है। 16 दिसम्बर को दैकिन के मज़दूरों ने अन्य मज़दूरों के साथ मिलकर जयपुर स्थित श्रम विभाग पर एक दिन का टोकन धरना दिया। इस टोकन धरने के बाद डाईकिन के निकाले गये साथियों ने वहीं श्रम विभाग पर अनिश्चितकालीन धरने पर बैठने का फ़ैसला किया। उनकी माँग है कि डाईकिन एयरकंडीशनिंग में हुए त्रिपक्षीय समझौते को तुरन्त लागू किया जाये, ठेका प्रथा बन्द की जाये, बरख़ास्त मज़दूरों को काम पर वापस लिया जाये, मज़दूर विरोधी क़ानून वापिस लिया जाये, बेरोज़गारी भत्ता लागू किया जाये।  डाईकिन मज़दूरों के इस संघर्ष के समर्थन में होण्डा मोटरसाइकिल यूनियन, तप्पुकारा, श्री सीमेण्ट मज़दूर यूनियन, पाली सीतारामपुर लघु उद्योग मज़दूर यूनियन, जयपुर और मिको बोस्च यूनियन, सीतापुर खड़ी हैं।

आपको यह जानकर हैरत होगी कि मज़दूरों के धरने पर बैठने के फ़ैसले पर सबसे ज़्यादा आपत्ति श्रम विभाग या कम्पनी प्रबन्धन को नहीं बल्कि एटक को है। श्रम विभाग में अधिकारियों से हर रोज़ घण्टों बैठक करके एटक का नेतृत्व धरने पर बैठे मज़दूरों के पास यह निष्कर्ष लेकर पहुँचता है कि यहाँ पर धरने पर बैठने से कुछ नहीं होगा घर जाओ, हम हैं यहाँ। धरने पर बैठे मज़दूर कई बार श्रम विभाग के अधिकारियों और एटक के बीच अन्तर नहीं कर पाते हैं। अदालती कार्रवाई में भी एटक की सहायता ‘राम भरोसे हिन्दू होटल’ टाइप है। इसके पहले श्री राम पिस्टन्स एण्ड रिंग्स, भिवाड़ी का भी संघर्ष एटक के ही नेतृत्व में चल रहा था, इस संघर्ष में भी जुझारू मज़दूर लम्बे समय तक संघर्ष करते रहे थे किन्तु नेतृत्व ने इस संघर्ष को भी गड्ढे में धकेल दिया था। आज अगर एटक चाहती तो ऐसे तमाम आन्दोलनों को एक सूत्र में पिरोकर उनमें एक नयी उर्जा फूँक सकती थी। एटक के टँगे एक बैनर में श्रीराम पिस्टन्स एण्ड रिंग्स और डाईकिन एयरकंडिशनिंग कामगार यूनियन का अन्य यूनियनों के नामों के साथ ज़िक्र था किन्तु असल में उनका आपसी कोई मंच नहीं है। यहाँ तक की एटक के बैनर तले संघर्ष करने वाले मज़दूरों का आपस में परिचय भी नहीं था। राजस्थान हो या हरियाणा हो या चाहे केरल हो, एटक हो या सीटू हो या इण्टक हो केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का चरित्र आज जग ज़ाहिर है। राजस्थान सरकार भी मज़दूरों के ऊपर दमन करने में किसी भी सरकार से पीछे नहीं है।

आज संघर्ष के जिस मुकाम पर मज़दूर श्रम विभाग पर बैठे हैं वहाँ ‘आगे का रास्ता क्या हो?’ यह सवाल उनके बीच तैर रहा है। दिल्ली से जयपुर तक जाने वाली सड़क एनएच-2 के दोनों तरफ़ फैली औद्योगिक पट्टी भारतीय पूँजीवाद की स्वर्ण रेखा है। हरियाणा में गुडगाँव-मानेसर-धारुहेड़ा-बावल से होते हुए राजस्थान के भिवाड़ी-खुशखेडा-नीमराना तक कारख़ानों का हुजूम है। यहाँ हर एक कारख़ाने में मज़दूरों की हड्डी का चुरा बनाकर मुनाफ़ा कूटा जाता है। जहाँ शोषण होता है, वहीं प्रतिरोध भी। पिछले दस साल में अलग-अलग कारख़ानों में मज़दूरों के संघर्ष की झलक मिलती है। 2005 में होण्डा (मानेसर) के मज़दूरों का संघर्ष, 2009 में रिको-सनबीम के मज़दूरों का संघर्ष, जिसमें एक मज़दूर अजित यादव की मौत के बाद पूरे इलाक़े के लाखों मज़दूर सड़क पर उतर आये थे, 2012 में मारुती के मज़दूरों का संघर्ष, राजस्थान में श्री राम पिस्टन्स, डाईकिन के मज़दूरों का संघर्ष इसके अलावा अस्ति, मुंजाल, मेट्रो आदि कुछ उदहारण हैं। बिगुल के पिछले अंक में भी आप लोगों ने ब्रिजस्‍टोन के मज़दूरों के संघर्ष के बारे में पढ़ा होगा। लेकिन इन संघर्षों में मालिक-प्रबन्धन का पलड़ा भारी रहा है।

आज की ज़रूरत है कि इन बीते हुए संघर्षों से ज़रूरी सबक़ निकले जायें, फिर आगे की रणनीति बनायी जाये। हर कारख़ाने के संघर्ष पर नज़र डालें तो यह बात सामने आती है कि संघर्षों का चरित्र एक-सा है। तकरीबन हर जगह एक-से ही मुद्दे हैं। ये यूनियन बनाने के अधिकार से लेकर ग़ैर-क़ानूनी छँटनी, ठेकेदारी प्रथा, वर्कलोड, अमानवीय कार्य-परिस्थितियॉं, जबरन ओवरटाइम आदि-आदि हैं। इन तमाम संघर्षों में मज़दूरों की स्वतन्त्र पहलक़दमी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन के झाँसे में आकर फँस जाती है। संघर्ष की शुरुआत मज़दूर अपने मालिक-प्रबन्धन के ख़िलाफ़ करते हैं, फिर उन्हें पता चलता है कि उनका सामना श्रम विभाग, पुलिस-प्रसाशन, अदालत से लेकर  नेता-मन्त्री, गुण्डे-बाउंसर, मीडिया तक से है। नुक्तेवार अगर उनके निचोड़ निकाले जायें तो आज सरकार से लेकर ग़द्दार दलाल ट्रेड यूनियन का पक्ष साफ़ है। वे नंगे तौर पर मालिकों के पक्ष में खड़े हैं। साथ ही आज काम का जिस प्रकार बँटवारा किया गया है, आज काम को पूरे सेक्टर में बिखरा दिया गया है, इसी के साथ मज़दूरों को भी बिखरा दिया गया है। आज एक मालिक या मालिकों के समूह के कई-कई कारख़ाने हैं, अगर कहीं पर मज़दूर हड़ताल करते भी हैं तो वो दूसरी जगह उत्पादन बढ़ाकर अपने नुक़सान की पूर्ति कर लेता है। अव्वलन आज एक कारख़ाने में शत-प्रतिशत उत्पादन रुकता भी नहीं है, अगर कहीं मज़दूर हड़ताल पर बैठे भी होते हैं तो पूरे सेक्टर में फैली ‘रिजर्व आर्मी’ अगले ही दिन से काम पर लग जाती है। ठेकेदारी प्रथा के जुए के नीचे मज़दूरों को एक-दूसरे से तोड़कर रखा जा रहा है। यानी कि आज एक कारख़ाने की चौहद्दी में संघर्ष जीत पाना मुमकिन नहीं है। आज परिस्थितियों का तकाज़ा है कि सेक्टरगत एकता क़ायम की जाये। एक स्वतन्त्र क्रान्तिकारी संगठन से जुड़ने की ज़रूरत है जिसका किसी भी चुनावबाज़ पार्टी से कोई सम्बन्ध न हो, जो अलग-अलग कारख़ानों के संघर्ष को एक कड़ी में पिरोये।

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2016


 

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