नोएडा में ग़रीब मेहनतकशों के बच्चों की नृशंस हत्या का मामला
ये कंकाल एक धनपशु के घर से नहीं, पूँजीवादी व्यवस्था की आलमारी से बरामद हुए हैं!

वर्ष 2006 की आख़िरी रात को जब पंचसितारा होटलों, रेस्तरांओं और क्लबों में रंगारंग रोशनी के बीच धनपशुओं के झुण्ड के झुण्ड जाम से जाम टकरा रहे थे और उन्माद भरी चीख़-पुकार मचा रहे थे, उस समय नोएडा के सेक्टर 31 से सटे निठारी गाँव में मौत का सन्नाटा पसरा हुआ था। बीच-बीच में निचाट अँधेरे को चीरते हुए करुण क्रन्दन के कुछ हृदयबेधी स्वर गूँज उठते थे।

दो दिन पहले ही गाँव के पास सेक्टर 31 में एक पूँजीपति के घर के पिछवाड़े के नाले से और आसपास की ज़मीन की खुदाई से कुछ अठारह बच्चों के कंकाल बरामद हुए थे। अगले दिन उस उद्योगपति मोहिंदर सिंह और उसके नौकर सुरेन्द्र की गिरफ़्तारी हुई। यह पता चला कि सुरेन्द्र आसपास के ग़रीब बच्चों को बहला-फुसलाकर मोहिंदर के घर लाया करता था और वे दोनों मनोरोगी, बच्चों से दुष्‍कर्म के बाद उनकी हत्या कर दिया करते थे। बच्चों के अधूरे कंकालों की बरामदगी से यह संदेह भी व्यक्त किया जा रहा है कि यह केवल दुष्कर्म और हत्या का ही नहीं बल्कि मानव अंगों के व्यापार का भी मामला है। ज्ञातव्य है कि मोहिंदर सिंह के मकान से ही सटा हुआ एक डाक्टर का भी बंगला है, जिसका नाम पहले भी ग़रीबों के गुर्दे निकालकर बेचने के मामले में सामने आया था, लेकिन क़ानूनी साक्ष्यों के अभाव में वह बेदाग़ बच निकला था। मोहिंदर का एक बंगला चण्डीगढ़ में भी है और वहाँ भी आसपास के कुछ ग़रीबों के बच्चे विगत कुछ वर्षों के दौरान ग़ायब हो चुके हैं। ऐसा संदेह किया जा रहा है कि नोएडा जैसा बर्बर कुकर्म चण्डीगढ़ के बंगले में भी हो रहा था।

Nithari2विगत दो वर्षों के दौरान निठारी गाँव से ग़रीब मज़दूरों के 38 बच्चे और आसपास के इलाके से कुल 98 बच्चे ग़ायब हो चुके हैं। इन बच्चों के माँ-बाप जब भी पुलिस के पास गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ कराने जाते थे तो उन्हें डरा–धमकाकर भगा दिया जाता था। कुछ लोगों ने सेक्टर 31 के बंगले के प्रति संदेह भी ज़ाहिर किया था, लेकिन जाँच करने के बजाय पुलिस ने उन्हें ही डाँट-फटकारकर भगा दिया।

निठारी गाँव की बर्बर घटना पूँजीवादी समाज की मनोरोगी संस्कृति का एक प्रतिनिधि उदाहरण है। धनपशुओं का जो समाज मेहनतकशों की हड्डियों का पाउडर बनाकर भी बेच सकता है और मुनाफ़ा कमा सकता है, वह आज बर्बर विलासी मनोरोगियों का एक वहशी गिरोह बन चुका है। उस समाज में मोहिंदर जैसे नरभक्षियों की मौजूदगी कोई आश्‍चर्य की बात नहीं है। यह घटना पूँजीवादी समाज की रुग्णता को उजागर करने वाली एक प्रतीक घटना है।

इस घटना ने इस सच्चाई को एक बार फिर बेपर्दा कर दिया है कि इस व्यवस्था में ग़रीबों और उनके बच्चों की ज़िन्दगी का कोई मोल नहीं है और सरकार, पुलिस या न्यायपालिका से आम आदमी इंसाफ़ पाने की रंचमात्र भी उम्मीद नहीं रख सकता। पिछले दिनों जब नोएडा की ही एक बहुराष्‍ट्रीय कम्पनी के करोड़पति अफ़सर का बच्चा अगवा हुआ तो पूरे प्रशासन में खलबली मच गयी, केन्द्रीय मंत्रियों तक ने चिन्ता प्रकट करते हुए बयान दिये, उत्तर प्रदेश सरकार के प्रतिनिधि अमर सिंह ने उस अफ़सर के घर जाकर संवेदना प्रकट की और चन्द दिनों के भीतर ही पुलिस ने बच्चे को बरामद कर लिया। लेकिन दो वर्षों में ग़रीबों के 98 बच्चे घरों से ग़ायब हो गये और कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं हुई। मोहिंदर के कुकर्म के सामने आने के बाद ग़ायब बच्चों के क्रुद्ध अभिभावकों और उनके पड़ोसी मज़दूरों ने जब मोहिंदर के घर पर पथराव किया तो पुलिस ने पूरी मुस्तैदी के साथ, पहली तारीख को, क़ानून व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर उन पर बेरहम ढंग से लाठियाँ बरसार्इं। यह व्यवस्था की ओर से आम मेहनतकशों को नये साल का ‘‘तोहफ़ा’’ था!

फिलहाल टी.वी. के सभी चैनल नये साल के जश्‍नों की ख़बरों के बीच निठारी की घटना को भी एक सनसनी के रूप में बेचने-भुनाने में मशगू़ल हैं। कानूनी कार्रवाई की रस्म अदायगी जारी है। ज़ाहिर है, कि कई वर्षों की लम्बी अदालती कार्रवाई के बाद ‘‘पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव में’’ मोहिंदर के बेदाग़ बरी हो जाने की ही संभावना अधिक है। और एक मोहिंदर को यदि सज़ा मिल भी गयी तो यह व्यवस्था लगातार नये–नये मोहिंदर पैदा करती रहेगी। इस रोगी पूँजीवादी समाज में मोहिंदर जैसों की कमी नहीं है। अंतत: इन वहशी भेड़ियों का शिकार ग़रीब आम मेहनतकशों के बच्चों को ही बनना है, चाहे वे इस रूप में बनें या उस रूप में। इस पूँजीवादी समाज में क़ानून और न्याय व्यवस्था से आम लोग कुछ भी उम्मीद नहीं कर सकते।

निठारी की लोमहर्षक घटना ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि शोषित-उत्पीड़ित लोगों के सामने इस पूँजीवादी सामाजिक ढाँचे की र्इंट से र्इंट बजा देने के अतिरिक्त दूसरा कोई भी रास्ता बाकी नहीं बचा है। बस एक ही रास्ता है और वह है विद्रोह का रास्ता। बस, विद्रोह ही एक न्यायसंगत कर्म है। आम मेहनतकशों को सड़कों पर उतरना ही होगा। यह आदमी के रूप में ज़िन्दा रहने की शर्त बन गयी है। निठारी की घटना गुलामी का दण्ड है, पूँजीवादी समाज के चरम मानवद्रोही चरित्र का एक प्रतिनिधि प्रमाण है। निठारी के बच्चों की नरबलि हमारे विवेक और संवेदना के दरवाज़ों पर लगातार दस्तक देती रहेगी और हमें इस व्यवस्था को धूल में मिला देने के लिए ललकारती रहेगी।

बिगुल, दिसम्‍बर 2006-जनवरी 2007

 


 

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