पंजाब में चुनावी दंगल की तैयारियाँ शुरू : मेहनतकश जनता को इस नौटंकी से अलग क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करने के बारे में सोचना होगा!

सुखविन्दर

पंजाब विधान सभा चुनावों में हालाँकि अभी लगभग 2 महीने का समय बाकी है, मगर चुनावी पार्टियों ने अभी से चुनावी दंगल में उतरने की तैयारियाँ शुरू कर दी हैं। आगामी विधान सभा चुनावों को लेकर अलग–अलग चुनावी पार्टियों में अभी से जोड़–तोड़ गँठजोड़ का सिलसिला शुरू हो गया है। विधायक बनने की इच्छा रखने वालों ने चुनावी धन्धे में ‘निवेश’ करने के लिये अभी से नोटों का जुगाड़ भिड़ाना शुरू कर दिया है। कुछ वर्ष पहले एक राष्‍ट्रीय अख़बार द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण में यह बात उभर कर सामने आई कि चुनावी राजनीति इस देश में सबसे अधिक मुनाफ़े वाला धन्धा बन चुकी है, यहाँ पर विधायक तथा सांसद बनने में किये गये ‘निवेश’ पर कई गुना मुनाफ़ा होता है।

पंजाब की चुनावी राजनीति मुख्यतः दो बड़ी पूँजीवादी पार्टियों कांग्रेस तथा शिरोमणि अकाली दल (बादल) के इर्द–गिर्द ही घूमती है। इन दिनों यह दोनों पार्टियाँ प्रान्तीय तथा राष्‍ट्रीय अख़बारों में बड़े–बड़े विज्ञापन छपाकर एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने के नये–नये कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं। बड़ी–बड़ी रैलियाँ करके शक्ति प्रदर्शन में जुटी हैं तथा नये–नये लोक-लुभावन नारे देकर लोगों को एक बार फिर से भरमाने, एक बार फिर उन्हें धोखा देकर आने वालें पाँच सालों के लिये लूटने तथा पीटने का लाइसेंस हासिल करने की कवायदों में जुटी हुई हैं। देशव्यापी ताने–बाने वाली कांग्रेस पार्टी भारत के पूँजीपति हुक्मरानों की सबसे भरोसेमन्द पार्टी रही है। केन्द्र की तरह पंजाब में भी काफ़ी लम्बा समय इसी पार्टी ने राज किया है। पूरे भारत की ही तरह इसके द्वारा पंजाब के लोगों पर भी ढाये गये ज़ुल्मों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है, इतिहास बहुत पुराना है। सब जानते हैं कि 80 के दशक के पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद को पैदा करने से लेकर खालिस्तानियों को पनाह देने का काम कांग्रेस ने ही किया था। कांग्रेस द्वारा पैदा की गई आग में पंजाब के बेगुनाह लोग एक दशक तक झुलसते रहे थे। बाद में 1992 में लोगों की लाशों पर चलकर कुर्सी तक पहुँचे कांग्रेसी मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के राज में खालिस्तानी आतंकवाद को कुचलने के नाम पर हज़ारों नौजवानों को झूठी पुलिस मुठभेड़ों में मरवा दिया गया था। जिन में अनेकों युवक बेगुनाह थे। बेअंत सिंह की हुकूमत के समय तो खालिस्तानी आतंकवाद की जगह सरकारी आतंकवाद ने ले ली थी तथा ज़ुल्मो–सितम के नये–नये कीर्तिमान स्थापित किये गये थे।

पिछले पाँच सालों से पंजाब में कांग्रेस की सरकार चल रही है। 2002 में अकालियों की करतूतों से तंग आई जनता ने कांग्रेस को चण्डीगढ़ के तख़्त पर बिठाया। कैप्टन अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री बनते ही उसने भ्रष्टाचार की ‘जड़ उखाड़ने’ का अभियान शुरू किया। 1997–2002 तक अकाली दल (बादल) की सरकार के समय अकालियों द्वारा किये गये भ्रष्टाचार के एक के बाद एक मामले खुलने लगे। जहाँ तक कि प्रकाश सिंह बादल, जो उस समय मुख्यमंत्री थे, इस ‘भ्रष्टाचार मिटाओ’ अभियान की चपेट में आ गये। बादल द्वारा भ्रष्टाचार के ज़रिये बनाई करोड़ों की जायदाद के ब्यौरे जब अख़बारों में छपने लगे, तो लोग दंग रह गये। जब ये नेता आपस में लड़ते हैं और एक दूसरे के इस कदर राज़ खोलते हैं तो इन नेताओं की असलियत नंगी होने से जनता का कुछ तो ज्ञानवर्धन होता ही है।

चण्डीगढ़ में सेक्रेटेरियेट के रास्ते में एक चौक है जिस का नाम मटका चौक है। सरकार तक अपनी आवाज़ पहुँचाने की कोशिश करने वाले धरनाकारियों –प्रदर्शनकारियों को यहाँ से आगे जाने की इजाज़त नहीं थी। अभी हाल ही तक यह चौक पंजाब का मशहूर धरना–प्रदर्शन स्थल रहा है। अब अमरिन्दर की सरकार द्वारा मटका चौक के बिलकुल पास में बने ताज होटल के मालिकों के दबाव पर इस चौक में हर तरह के धरने–प्रदर्शन पर पाबन्दी लगा दी गई है। इस चौक से इस पार लोग आज़ाद थे नारे लगाने के लिए, मुक्के लहराने के लिए, उस पार (सेक्रेट्रीएट की तरफ़) लाठी–गोली से लैस वर्दीधारियों का हुजूम रहता था, जनता के हर आक्रोश को ख़ून की नदियों में डुबो देने के लिये तत्पर। अमरिन्दर सिंह के पिछले पाँच साल के शासन के दौरान जनता के अलग–अलग तबकों के साथ इतनी बदसलूकी हुई है, इस कदर मारपीट हुई कि मटका चौक को लोग झटका चौक के नाम से बुलाने लगे।

पिछले पाँच सालों में जनता की बदहाली बढ़ती ही गई है। अमीर ग़रीब की खाई और गहरी हुई है। पक्के रोज़गार के अवसर कम हुए हैं। बेरोज़गार युवकों की कतार और लम्बी हुई है। रोज़गार की अनिश्चितता और बढ़ी है। मज़दूरों (ग्रामीण तथा शहरी) की लूट–खसोट, उन पर मालिकों का ज़ुल्मो–सितम उनके जनवादी अधिकारों का हनन, छँटनी–तालाबन्दी, ग़रीबी–भुखमरी बदस्तूर जारी है।

पंजाब कांग्रेस के मुख्य विरोधी अकालियों के कारनामे भी कांग्रेस से कोई अलग नहीं हैं। दरअसल इन दोनों में कोई फ़र्क ही नहीं है। फ़र्क है तो बस पगड़ी के रंग का। कांग्रेसी सफ़ेद पगड़ी पहनते हैं और अकाली नीली। मगर दिल दोनों के ही काले हैं। दोनों ही अपने आकाओं (पूँजीपतियों) की सेवा में हर वक्त मुस्तैद रहते हैं। पंजाब कांग्रेस में अन्दरूनी कलह खींचतान तो हमेशा बनी रहती है, मगर इसे किसी बड़ी फूट का सामना नहीं करना पड़ा। हाँ, एक जगमीत सिंह बराड़ ज़रूर है, जो हमेशा कांग्रेसी लीडरशिप से रूठे रहते हैं, वह भी कि उन्हें रूठने के चलते ही मीडिया में कुछ पब्लिसिटी मिलती रहती है, इसके अलावा कांग्रेस से उनका और कोई मतभेद नहीं है।

अकाली हमेशा ही आपस में लड़ते रहते हैं। इनमें एकताओं और फूटों का सिलसिला हमेशा चलता रहता है। जिस समय अकाली नेता एकता कर रहे होते हैं उसी समय फूट का प्रेस नोट इनकी जेब में होता है। इस समय भी पंजाब में चार–पाँच अकाली गुट सक्रिय हैं। शिरोमणि अकाली दल (बादल) को छोड़कर बाकी अकाली गुट लगभग निष्प्रभावी हैं। हाँ, अकाली दल (मान) का पंजाब में कुछ प्रभाव ज़रूर है। इस गुट के नेता सिमरनजीत सिंह मान पर अभी भी खालिस्तान बनाने का भूत सवार है। यह गुट मारे जा चुके खालिस्तानियों के ‘शहीदी दिन’ मनाता रहता है। वास्तव में यह गुट सिख कट्टरपंथ की नुमाइन्दगी करता है। पंजाब में बाहरी राज्यों से काम करने आये मज़दूरों के विरुद्ध लोगों की नफ़रत भड़काने में भी यह गुट हमेशा आगे रहता है। पिछले दिनों अकाली दल (बादल) तथा अकाली दल (मान) के कार्यकर्ताओं के बीच पंजाब में कई जगह झड़पें हुर्इं, जिन में इन्होंने एक दूसरे की खूब पगड़ियाँ उछालीं, खूब दाढ़ियाँ उखाड़ीं। वास्तव में अकाली दल (मान) पंजाब की चुनावी राजनीति को किसी भी तरह से प्रभावित कर सकने में सर्वथा असमर्थ है। हाँ, यह गुट अकाली दल (बादल) के वोट बैंक में कुछ हद तक सेंध लगाने का काम ज़रूर करता है।

दरअसल, अलग–अलग अकाली गुट पंजाब के ग्रामीण पूंजीपति वर्ग के हितों की नुमाइंदगी करते हैं, जिसके चलते मज़दूरों (ग्रामीण तथा शहरी) से इनकी घोर दुश्‍मनी है।

कांग्रेस और अकालियों के अलावा पंजाब में जातिवादी राजनीति करने वाली बहुजन समाज पार्टी भी सरगर्म है। शुरू–शुरू में इस पार्टी ने जातिवादी भावनाएँ भड़काने के ज़रिए पंजाब में अपना वोट बैंक विस्तारित करने की कोशिश की थी। पर जल्दी ही लूट के माल के बँटवारे को लेकर इस पार्टी के नेता भी आपस में जूतम–पैजार पर उतर आये। अब इस पार्टी के नेता भी ‘अपनी–अपनी ढपली अपना–अपना राग’ गाते हैं और चुनावों में बड़ी पार्टियों के साथ लेन–देन की जुगत भिड़ाने में मशरूफ़ रहते हैं।

फासिस्ट भाजपा पंजाब की राजनीति में अकाली दल (बादल) के साथ गँठजोड़ के ज़रिए ही अपनी हाज़िरी लगवाती है।

अब एक नज़र पंजाब की चुनावी वामपंथी धारा पर। इस धारा की नुमाइंदगी मुख्यतः भाकपा तथा माकपा (प्रकाश करात गुट) करती हैं। अपने दम पर पंजाब की चुनावी राजनीति को प्रभावित कर सकने में यह पार्टियाँ सर्वथा अक्षम हैं। इसलिए काफ़ी लम्बे समय से इनका कांग्रेस के साथ प्रेम प्रसंग चल रहा है। प्रत्यक्ष परोक्ष दोनों ही तरह से यह दोनों पार्टियाँ कांग्रेस की ही सेवा में तल्लीन रहती हैं।

भाकपा–माकपा तथा अन्य संशोधनवादियों के क्लब में नयी–नयी शामिल हुई भा.क.पा. (मा.ले.) लिबरेशन अपने भूतपूर्व गुरु विनोद मिश्र के कहे मुताबिक ‘वामपंथी महासंघ’ बनाने की कोशिशों में लगी रहती है। मगर चुनावी राजनीति में इसकी औकात इतनी ही है कि बड़ी पूँजीवादी पार्टियाँ तो दूर, ‘चुनावी वामपंथी’ भी इसे मुँह नहीं लगाते।

पंजाब की चुनावी राजनीति मुख्यतः कांग्रेस तथा अकाली दल (बादल) के इर्द–गिर्द ही घूमती है। बाकी छोटी–मोटी पार्टियों को इन्हीं में से किसी न किसी की पूँछ पकड़नी पड़ती है।

यही हाल पंजाब की मेहनतकश जनता का है। कोई सही क्रान्तिकारी विकल्प न होने के चलते उसे इन्हीं दो पार्टियों में से किसी एक को चुनना होता है, जो पाँच साल तक जम कर डण्डा चलाती हैं। इस बार भी चुनावी दंगल में उतरने वाली पार्टियों में से भले कोई भी पार्टी चण्डीगढ़ के तख़्त पर विराजमान हो, जनता का कोई भला नहीं होने जा रहा, बल्कि आने वाले दिनों में मेहनतकश जनता पर और अधिक कहर बरपा होगा। मेहनतकशों को मिलने वाली मामूली सुविधाओं में और अधिक कटौती होगी। वैश्वीकरण–निजीकरण–उदारीकरण का रथ और बेरहमी से मेहनतकशों को रौंदेगा। मज़दूरों तथा अन्य मेहनतकश लोगों को सड़कों पर आना होगा। चुनावी राजनीति से अलग अपने क्रान्तिकारी संगठन खड़े करने होंगे तथा अपनी संगठित ताकत के बल पर अपने हक हासिल करने होंगे।

बिगुल, दिसम्‍बर 2006-जनवरी 2007

 


 

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