साथी नवकरण की याद में

हमारा प्यारा नौजवान साथी नवकरण नहीं रहा। पंजाब के इस बहादुर क्रान्तिकारी कार्यकर्ता ने 23 जनवरी को मौत को गले लगा लिया। इस बात पर चाहकर भी विश्वास नहीं हो पा रहा है कि एक बेहद संवेदनशील, विवेकवान व क्रान्ति के लक्ष्य को पूर्ण रूप से समर्पित इस नौजवान ने ख़ुदकुशी का यह त्रासद कदम उठा लिया। यह यकीन नहीं हो पा रहा है कि अपने साथियों के लिए जीने वाला नवकरण आज उन्हें छोड़कर चला गया है। इस तरह की घटनाएँ हर बार क्रान्तिकारी आन्दोलनों को गहरा आघात पहुँचाती रही हैं। हर बार ये घटनाएँ क्रान्तिकारियों को बताती रही हैं कि यह रास्ता कितना बीहड़ है, कितना लम्बा है।

navkaranआख़िरकार क्रान्तिकारी भी इस समाज से ही आते हैं और अपने भीतर इस समाज के जन्मचिन्हों को लिये हुए ही क्रान्ति के काम में आते हैं। वे लगातार अपनी कमज़ोरियों, बुराइयों से सतत संघर्ष करते हैं और एक-एक करके उन्हें मात देते हैं। यह संघर्ष जीवनपर्यन्त थमता नहीं और अलग-अलग रूप लेता रहता है। एक क्रान्तिकारी को यह संघर्ष उसकी मृत्यु तक लगातार चलाना पड़ता है। एक संघर्ष वह इस व्यवस्था के खिलाफ चलाता है ताकि एक ऐसी दुनिया का निर्माण किया जा सके जिसमें उन बुराइयों के बीज न हों जो पूरे समाज के साथ ही उस क्रान्तिकारी के भीतर भी है और जिनसे वह सतत् संघर्षरत है। अक्सर लोग क्रान्तिकारियों को आदर्शीकृत करके देखते हैं और उन्हें इस समाज द्वारा प्रदान की गयी कमज़ोरियों से पूरी तरह ऊपर उठ चुका मानते हैं। लेकिन क्या यह एक इन्सान को देवत्व प्रदान करना नहीं होगा? क्रान्तिकारी भी एक इन्सान ही होता है और उसके भीतर भी अलग-अलग प्रश्नों को लेकर लगातार द्वन्द्व चलता रहता है। हाँ! यह सच है कि एक क्रान्तिकारी के जीवन में भी कई बार निराशा और अवसाद के दौर आते हैं! साथी नवकरण ज़िन्दगी से लगातार इंक़लाबियों की जारी इस जद्दोजहद में हार गया। उसके साथियों की आँखें आज उसे ढूँढती हैं, भले ही उन्हें मालूम है कि अब नवकरण कभी वापस न आने के लिए जा चुका है। लेकिन यह साथी नवकरण के बारे में किसी को कोई फै़सला सुनाने का हक़ नहीं देता। कम्युनिस्ट आन्दोलन में पॉल लफार्ग, इलियानोर मार्क्स (मार्क्स की छोटी बेटी), लेखक अलेक्सान्द्र फदयेव, मायकोवस्की, वॉल्टर बेंजामिन और अनेक गुमनाम और उम्दा कम्युनिस्टों ने ख़ुदकुशी की है। न तो उनकी ख़ुदकुशी उनके विचारों, उनके संगठन और उनके लक्ष्य के प्रति कोई फैसला थी और न ही कोई अन्य व्यक्ति इस दुखदायी कदम को लेकर उन पर कोई फै़सला सुना सकता है। सवाल यहाँ तुलनाओं का नहीं है। साथी नवकरण बेशक़ हमारा एक उम्दा साथी था और उसके जाने के सदमे और दुख से हम अभी उबर नहीं सके हैं।

नवकरण पंजाब के संगरूर का रहने वाला था और तीन साल पहले क्रान्तिकारी आन्दोलन के सम्पर्क में आया था। भगतसिंह को वह अपना आदर्श मानता था। इस व्यवस्था की सभी नेमतों – गरीबी, शोषण, बहुसंख्यक आबादी का पिस-पिस कर जीना – को उसने अपनी आँखों से देखा था और भोगा था। वह जनता के दुख-दर्द को महसूस करता था। क्रान्तिकारी आन्दोलन से जुड़कर समाज की सभी दिक्कतों को उसने वैज्ञानिक नज़रिये से समझना शुरू किया और एक नयी दुनिया का सपना अपनी आँखों में भरकर इस काम में पूरे जी-जान से जुट गया। अक्टूबर 2013 में उसने पेशेवर क्रान्तिकारी कार्यकर्ता का जीवन चुना और अपनी आखिरी साँस तक अपने मकसद के लिए कर्मठता से काम करता रहा। नयी चीज़ें सीखना व मुश्किल काम हाथ में लेना उसकी फ़ितरत थी। कुछ समय तक वह नौजवान भारत सभा की लुधियाना इकाई का संचालक रहा। साथ ही वह पंजाब स्टूडेण्ट्स यूनियन (ललकार) की नेतृत्वकारी कमिटी का भी सदस्य था। उसके सहयोग से लुधियाना में नौजवान भारत सभा व पंजाब स्टूडेण्ट्स यूनियन के कामों ने तेज़ी से विकास किया। वह सभी मोर्चों पर समान रूप से सक्रिय था – चाहे वह मज़दूर मोर्चा हो अथवा छात्र-नौजवान मोर्चा, सभी में उसकी अहम भूमिका थी। मज़दूर बस्तियों में जाकर विभिन्न तरीकों से प्रचार करना, मज़दूरों के बच्चों को पढ़ाना, जनता को विभिन्न मुद्दों पर लामबन्द करना, अखबार-पत्रिका-किताबें लेकर सघन रूप से क्रान्तिकारी साहित्य का प्रचार करना–इन सभी में वह जल्दी ही पारंगत हो गया था। वह बेहद उद्वेलित करने वाला भाषण भी देता था। अध्ययन वह लगातार करता था और पंजाबी पत्रिका ‘ललकार’ के लिए उसने विभिन्न राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर लिखने की भी शुरुआत की थी। एक धूमकेतु की तरह वह थोड़े से समय के लिए ही अपनी रोशनी बिखेरकर हमारे बीच से चला गया।

नवकरण को गाने का शौक था और आवाज़ भी उसकी बुलन्द थी। विभिन्न कार्यक्रमों में वह लगातार गाता था लेकिन उसकी असली प्रतिभा तो तब निकलकर आती थी जब वह साथियों के बीच अनौपचारिक तौर पर धुन छेड़ता था। सभी उसके सुर में सुर मिला लेते थे और साथ गाते थे। संगीत व कला के महत्व को वह समझता था और यही कारण था कि बेहद शर्मीला होने पर भी गाते वक्त सब भूलकर खुलकर गाता था। मंच से पाश की कविताओं का पाठ करता था तो श्रोताओं की जोश से मुट्ठी तन जाती थी। वह अनुवादक भी अच्छा था और तेज़ी से अंग्रेजी से पंजाबी में अनुवाद करता था। हाल ही में उसने स्तालिन की पुस्तिका ‘संगठन के बारे में’ का अंग्रेज़ी से पंजाबी में अनुवाद किया था और एक-दो अन्य किताबों का भी अनुवाद कर रहा था।

नवकरण के बारे में सबसे उम्दा बात यह थी कि उसे श्रम से लगाव था। वह सारे ज़रूरी काम अपने हाथों से ही करता था – चाहे वह खाना बनाना हो, झाडू-पोछा करना हो, कपड़े धोना हो या बर्तन साफ करना हो। सामूहिक काम को भी वह कर्तव्यबोध से नहीं बल्कि पहलकदमी लेकर व ख़ुश होकर करता था। हमारे समाज में जहाँ शारीरिक श्रम को नीची नज़र से देखा जाता है वहीं नवकरण शारीरिक श्रम की श्रेष्ठता को समझता था। थकता तो वह ज़रूर होगा लेकिन किसी ने उसे कभी थककर निढाल होते हुए नहीं देखा।

नवकरण बेहद कम बोलता था व अन्तर्मुखी था। अपनी समस्याओं, परेशानियों के बारे में वह खुलकर बात नहीं करता था। साथियों के लगातार आग्रह करने पर ही कुछ पता चल पाता था। उसके करीबी साथियों का कहना है कि उसके राजनीतिक जीवन में कई बार निराशा के दौर भी आते थे। ज़्यादातर अपने मन की बातें वह अपने सबसे करीबी दोस्तों से भी साझा नहीं करता था। स्वभाव से वह काफी शर्मीला था। शायद यह भी एक वजह थी कि उसके साथियों को इस बात का ज़रा भी अहसास नहीं हो पाया कि आखिर क्या तूफान उसके मन में चल रहा था जिसके कारण उसने ऐसा कदम उठाया। अन्त में जो हमारे पास बचा है वह उसकी कुछ यादें ही हैं।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि क्रान्ति की राह पर चलता बेहद कठिन होता है। ऐसे में कभी-कभी निराश होना भी आम बात है। लेकिन एक क्रान्तिकारी उस वक्त पल भर के लिए दम लेता है और फिर पहले से भी अधिक ताक़त व ऊर्जा के साथ अपनी राह पर चल पड़ता है। अपने भीतर अंसख्य दुखों का भार उठाये हुए भी वह चलता ही जाता है। वैसे तो बहुतेरे लोग क्रान्तिकारी आन्दोलन से जुड़ते हैं और थोड़े-बहुत दिनों के बाद जब उन्हें रास्ता अधिक कठिन लगता है तो वे इस रास्ते को छोड़ देते हैं और वापस अपने व्यक्तिगत जीवन में लग जाते हैं। कुछ लोग तो इतने स्वार्थी भी होते हैं कि अपनी कमज़ोरियों को छुपाने के लिए आन्दोलन को ही गालियाँ देने लगते हैं और भाग खड़े होते हैं। जो बात सबसे अहम है वह यह है कि नवकरण इन दोनों में से किसी भी किस्म का नौजवान नहीं था। थकान और निराशा ने उसे ज़रूर जकड़ा था लेकिन दुनियादार बन जाना उसकी नौजवानी को गवारा नहीं था। यह उसे गवारा नहीं था कि वह वापस उसी ज़िन्दगी में चला जाये जहाँ से वह आया था। ऐसी ज़िन्दगी उसे नामंज़ूर थी। अपने आखिरी समय तक नवकरण लूट पर टिकी इस व्यवस्था से शिद्दत से नफ़रत करता था और इसके ख़िलाफ़ संघर्ष से मुँह मोड़कर घर बैठने व अपने निजी स्वार्थों के लिए ही जीते रहना उसका रास्ता नहीं था।

उसके चले जाने से क्रान्तिकारी आन्दोलन को बड़ा आघात लगा है। यह किसी एक संगठन की क्षति नहीं बल्कि समूचे क्रान्तिकारी आन्दोलन की क्षति है। ऐसे ज़िन्दादिल नौजवान को श्रद्धांजलि का यही अर्थ है कि हम आज उसके देखे हुए सपनों को अपनी आँखों में भरकर क्रान्ति के बीहड़ रास्ते पर चलते जायें और उन सामाजिक कारकों को हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म कर देने की लड़ाई लड़ें जिनके कारण हमारा प्यारा साथी हमारे बीच नहीं है। नवकरण जीवन से हार अवश्य गया लेकिन उसका छोटा-सा राजनीतिक जीवन भी दूसरों को प्रेरणा देने के लिए पर्याप्त है। ‘मज़दूर बिगुल’ से जुड़े सभी साथी दिल की गहराई से साथी नवकरण को क्रान्तिकारी श्रद्धांजलि देते हैं और उसके सपनों को साकार करने का संघर्ष जारी रखने की शपथ को एक बार फिर दुहराते हैं। साथी नवकरण को लाल सलाम! इंक़लाब ज़िन्दाबाद!

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2016


 

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