किसानी के सवाल को पेटी बुर्जुआ चश्मे से नहीं सर्वहारा के नज़रिये से देखिये जनाब!

सुखदेव

लगभग दो साल के लम्बे सोच-विचार के बाद साथी एस. प्रताप ने किसान प्रश्न पर अपनी अवस्थिति फि़र से लिखकर भेजी है। इस सुदीर्घ शोध-अध्ययन में साथी को सिर्फ़ तीन उद्धरण ही मिल पाये, उनमें से भी उन्हें एक उद्धरण का मूल स्रोत नहीं मिल पाया।

‘बिगुल’ के दिसम्बर, 2002 अंक में छपे साथी एस. प्रताप के लेख, ‘चीनी मिल-मालिकों की लूट से तबाह गन्ना किसान’ पर साथी नीरज की टिप्पणी से किसान प्रश्न पर बहस विशेष सन्दर्भ में शुरू हुई थी। यह सन्दर्भ है आज का समय और देश में कम्युनिस्ट तथा मज़दूर आन्दोलन के आज के हालात। आज जब पूरे देश के पैमाने पर कम्युनिस्ट आन्दोलन कमज़ोर है और ट्रेड यूनियन आन्दोलन भी ठहराव का शिकार है, मज़दूरों में हताशा-निराशा और विभ्रम का माहौल हावी है, तो ऐसे समय में ख़ुद को कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी कहने वाले बहुत से संगठन, करोड़ों-करोड़ औद्योगिक मज़दूरों और खेत मज़दूरों को छोड़कर मालिक किसानों और यहाँ तक कि धनी किसानों को संगठित करने की क़वायदों में जुटे हुए हैं। आज जब पूँजी के अपने ही तर्क से छोटे माल उत्पादकों के उजरती सर्वहाराओं में रूपान्तरण की प्रक्रिया गति पकड़ रही है तो इन्हें छोटे माल उत्पादकों के रूप में ही बचाये रखने के लिए कई संगठनों और व्यक्तियों के रूप में प्रूधों, सिसमोन्दी तथा रूसी नरोदवादियों की आत्माओं का पुनर्जन्म हो रहा है। ऐसे माहौल में छोटे पैमाने के माल उत्पादन के प्रति मार्क्सवादी पहुँच की हिफ़ाज़त करना, तथा इससे सर्वहारा वर्ग को शिक्षित करना, भारत के सर्वहारा क्रान्तिकारियों का अहम कार्यभार है।

‘बिगुल’ के दिसम्बर 2002 अंक में एस. प्रताप के लेख में जो बातें कही गयी हैं, वे वही बातें हैं जो किसान प्रश्न पर भारतीय “नरोदवादी” मार्क्सवादी संगठन कर रहे हैं। अपने उक्त लेख में श्री एस. प्रताप ने लागत मूल्य कम किये जाने की माँग को छोटे-मँझोले किसानों की मुख्य माँग बताते हुए लाभकारी मूल्य की माँग तक की हिमायत की है। अपने ताज़ा लेख (बिगुल, नवम्बर 2004) में उन्होंने अपनी पहली अवस्थितियों से थोड़ा दायें-बायें होते हुए, मूलतः वही बातें कही हैं, जो वह पहले कह चुके हैं। आइये, हम किसान प्रश्न पर उनकी ‘नयी’ दलीलों पर एक-एक करके विचार करते हैं।

मँझोले किसान की परिभाषा का सवाल

अपने लेख ‘चीनी मिल-मालिकों की लूट से तबाह गन्ना किसान’ (बिगुल दिसम्बर, 2002) में एस. प्रताप द्वारा लागत मूल्य कम किये जाने की माँग को छोटे-मँझोले किसानों की मुख्य माँग के रूप में पेश किया गया था। इस पर टिप्पणी करते हुए साथी नीरज ने यह सवाल उठाया था कि मँझोले किसानों की लागत का एक हिस्सा तो उजरती श्रम-शक्ति की ख़रीद पर होने वाला ख़र्च भी होता है, तो क्या लेखक (एस. प्रताप) लागत मूल्य कम करने की वकालत करेंगे? इसके जवाब में जनाब एस. प्रताप का कहना है कि मँझोले किसान तो उजरती मज़दूरों से काम ही नहीं करवाते तो भला वह मज़दूरी कम करने की माँग ही क्यों उठायेंगे? अपने इस दावे की पुष्टि के लिए उन्होंने लेनिन से भी मदद लेने की कोशिश की है। उन्होंने इक्कीसवीं सदी के शुरू में भारत के मँझोले किसान को परिभाषित करने के लिए बीसवीं सदी के शुरू में रूस के मँझोले किसान की लेनिन द्वारा दी गयी परिभाषा को भारत में हूबहू फिट करने की कोशिश की है। उन्होंने पिछले सौ सालों के समय में भारत सहित पूरी दुनिया में खेती के तौर-तरीक़ों में आये बदलावों को बिलकुल ही नज़रअन्दाज़ कर दिया। श्रीमान एस. प्रताप, अगर थोड़ी देर के लिए हम आप से सहमत भी हो जायें कि रूस का मँझोला किसान उजरती मज़दूर लगाकर खेती नहीं करता था, तो क्या भारत में भी ऐसा होना ज़रूरी है? यहाँ पर तो मँझोले किसान उजरती मज़दूरों से अपने खेतों में काम करवाते हैं। इसकी वजह यह है कि भारतीय कृषि में पूँजीवादी विकास 1903 के रूस के मुक़ाबले कहीं अधिक परिपक्व अवस्था में है। कृषि में बड़े पैमाने पर मशीनीकरण हुआ है, कृषि की मण्डी पर निर्भरता रूस के मुक़ाबले कहीं अधिक है। साल में दो फसलों की पैदावार तो यहाँ पर आम बात है, कई इलाक़ों (जैसे कि पंजाब) में तो साल में तीन-तीन फसलों का चलन भी है। फ़सल की कटाई-बुआई के समय तो छोटे से छोटे किसानों को भी मज़दूरों की ज़रूरत पड़ती है। फ़सल की कटाई के समय मौसम का मिज़ाज बिगड़ जाने के डर से भी उन्हें मज़दूरों से फ़सल कटवानी पड़ती है।

पंजाब की कपास पट्टी का उदाहरण लें। पंजाब के दक्षिण-पश्चिमी ज़िलों (फ़रीदकोट-भटिण्डा-मानसा) में नरमे (कपास की एक क़िस्म) की बहुतायत थी, और आज भी है। पिछली सदी के आखि़री दशक में अमेरिकन कीट का प्रकोप शुरू होने से यहाँ के ग़रीब से ग़रीब किसानों को भी धान की खेती की तरफ़ रुख़ करना पड़ा। नरमे की फ़सल की बुआई तथा नरमे की चुगाई (संग्रह) में तो छोटे किसान मुख्यतः अपने परिवार की मेहनत से काम चला लेते थे तथा मज़दूरों पर उनकी निर्भरता बहुत कम थी। मगर धान की फ़सल की रोपाई का मामला ही ऐसा है कि किसान तो क्या पंजाब के खेत मज़दूर भी यह काम उतनी दक्षता से नहीं कर पाते, जिस तरह यू.पी., बिहार से आने वाले मज़दूर करते हैं। इसलिए धान की रोपाई के लिए किसान (छोटे-बड़े सभी) पुरबिया मज़दूरों पर ही निर्भर हैं। बाक़ी पंजाब में भी जहाँ अब बड़े पैमाने पर धान की फ़सल होती है, वहाँ भी यही आलम है। धान की कटाई यहाँ छोटे-बड़े सभी किसान अब हारवेस्टर कम्बाइन से ही करवाते हैं। देश के अन्य इलाक़ों से भी इस तरह के अनेक उदाहरण लिये जा सकते हैं। एस. प्रताप पता नहीं किन तथ्यों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि भारत में मँझोले किसान उजरती मज़दूर नहीं लगाते। लगता है श्रीमान एस. प्रताप, भारत की ज़मीनी हक़ीक़तों, भारतीय जनता से पूरी तरह कटे हुए बस अपने अध्ययन कक्ष तक ही सीमित हैं। इनकी जानकारी में थोड़ा इज़ाफ़ा करते हुए इन्हें इतना और बता दें कि भारत के औद्योगिक केन्द्रों पर किसान पृष्ठभूमि से आने वाले औद्योगिक मज़दूर, जो अभी तक ज़मीन से पूरी तरह मुक्त नहीं हुए हैं, उनमें भी कई ऐसे केस सामने आते हैं कि छुट्टियों में गाँव जाने पर वे अपने खेतों में मज़दूरों से काम करवाते हैं। और ये मज़दूर विकसित खेती के इलाक़ों से नहीं, बल्कि ऐसे इलाक़ों से सम्बन्धित हैं, जहाँ पर खेती बहुत पिछड़ी हुई है। इसलिए हमारी एस. प्रताप को नेक सलाह है कि आप अध्ययन कक्ष से निकलकर जनता के सम्पर्क में आयें तो आपका दृष्टिदोष दूर होने की काफ़ी सम्भावना है, क्योंकि हर सवाल का जवाब किताबों में नहीं होता।

अब ज़रा एस. प्रताप द्वारा दिये गये लेनिन के उस उद्धरण को लें, जिसके ज़रिये उन्होंने मँझोले किसान को परिभाषित करने की कोशिश की है। यह उद्धरण लेनिन की पुस्तक ‘गाँव के ग़रीबों से’ में से लिया गया है, जिसे लेनिन ने 1903 के शुरू में लिखा था। उस समय रूस में खेती में पूँजीवादी विकास अभी बहुत अपरिपक्व अवस्था में था। मगर उद्धरण को ज़रा ग़ौर से देखें तो मँझोले किसानों द्वारा उजरती मज़दूरों को काम पर लगाने की बात को लेनिन बिलकुल ख़ारिज नहीं करते। उनका कहना है कि मँझोले किसानों में भी ऐसे किसान हैं (भले ही बहुत कम) जो उजरती मज़दूर लगाते हैं। मगर जैसे-जैसे रूसी खेती में पूँजीवादी विकास आगे बढ़ता गया, खेत मज़दूरों की संख्या भी बढ़ती गयी और खेतों में दिहाड़ीदार मज़दूरों से काम करवाना आम चलन बनता गया। यहाँ तक कि मँझोले किसानों में भी दिहाड़ी मज़दूरों से काम करवाने की प्रवृत्ति बढ़ती गयी।

1908 में लेनिन लिखते हैं: “यह नज़र आ जायेगा कि ख़ुशहाल गृहस्थी की मुख्य विशेषता है बड़े परिवारों का होना, ग़रीब गृहस्थी की तुलना में ऐसी गृहस्थी में परिवार के सदस्यों को खेती के काम में अधिक लगाया जाता है। निस्सन्देह, वे अतुलनीय रूप से भाड़े पर अधिक मज़दूर रखते हैं…। ऊँचे समूहों में मज़दूरों को भाड़े पर रखना स्पष्टतः एक प्रणाली बनती जा रही है, जो विस्तृत पैमाने पर खेती की शर्त है। इससे भी अधिक, दिनभर के लिए भाड़े पर मज़दूर रखना किसानों के मँझोले समूहों के बीच भी अधिकाधिक व्यापक होता जा रहा है (संकलित रचनाएँ, अंग्रेज़ी संस्करण, खण्ड 15, पृ.119, अनुवाद हमारा)।

1912 में लिखे एक लेख में लेनिन लिखते हैं: हम इन आँकड़ों को लेंगे: पाँच से दस हेक्टेयर की 652,798 (1907) जोतों पर 487,704 उजरती मज़दूर लगाये जाते हैं, यानी आधे से अधिक उजरती मज़दूर का शोषण करते हैं।

दस से बीस हेक्टेयर के कुल 412,741 फ़ार्मों में 711,867 उजरती मज़दूरों से काम लिया जाता है, यानी सभी या लगभग सभी उजरती मज़दूर का शोषण करते हैं।

…-वास्तविकता यह कि “छोटे एवं मँझोले किसानों” का विशाल बहुमत… श्रम-शक्ति को या तो बेचता है या ख़रीदता है, या तो ख़ुद को भाड़े पर लगाता है या भाड़े पर मज़दूर रखता है।

…छोटे किसानों से सर्वहाराओं का कहना है कि तुम अर्द्धसर्वहारा हो, इसलिए मज़दूरों की अगुवाई में चलो, सिर्फ़ इसी में तुम्हारी मुक्ति है (संकलित रचनाएँ, अंग्रेज़ी संस्करण, खण्ड 20, पृ.215-16, अनुवाद हमारा)।” यानी छोटे किसान (अर्द्धसर्वहारा) अपनी श्रम-शक्ति बाहर बेचते हैं और मध्यम किसान श्रम-शक्ति के ख़रीदार हैं। लेनिन 5 हेक्टेयर से लेकर 20 हेक्टेयर के मालिकाने वाले किसानों को मध्यम किसानों की कैटेगरी में रखते हैं।

मँझोले किसानों को परिभाषित करने में एस. प्रताप बहुत “जल्दबाज़ी” (पौने दो साल का छोटा-सा अन्तराल) के शिकार हो गये। अगर उन्होंने लेनिन को ही ठीक तरह से पढ़ लिया होता तो मँझोले किसानों के बारे में इतने ग़लत निष्कर्ष पर न पहुँचे होते।

समाजवादी क्रान्ति में मँझोले किसानों की भूमिका

समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में भारत के देहात में ग्रामीण सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा (ग़रीब किसान) आबादी ही शहरी मज़दूरों की पक्की और भरोसेमन्द दोस्त है। मँझोले किसान समाजवादी क्रान्ति के प्रति बहुत ही ढुलमुल रुख़ अपनाते हैं। उजरतों में बढ़ोत्तरी ग्रामीण सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी की मुख्य आर्थिक माँग है। ग्रामीण सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी को एक झण्डे तले लामबन्द किया जा सकता है। भले ही यहाँ पर जाति व्यवस्था की मौजूदगी इस काम को अधिक कठिन बना देती है। सर्वहारा क्रान्ति की विजय, सर्वहारा अधिनायकत्व की सुदृढ़ता के लिए यह ज़रूरी है कि शहरी मज़दूरों तथा ग्रामीण सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी के बीच एक मज़बूत संश्रय क़ायम किया जाये। इसलिए समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में ग्रामीण सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी को संगठित करने का कार्यभार, सर्वहारा वर्ग की पार्टी के सामने एक अहम कार्यभार है। जहाँ तक मँझोले किसानों का सवाल है तो जिस हद तक वे ख़ुद अपनी ज़मीन पर मेहनत करते हैं, उस हद तक मेहनतकश हैं और क्योंकि वे दिहाड़ीदार मज़दूरों को भी अपने खेतों में लगाते हैं, इसलिए वे मज़दूरों की लूट में भागीदार भी हैं। अर्थव्यवस्था में इस दोहरे चरित्र के चलते वे मध्यम हैं, यानी पूरी तरह उजरती श्रम की लूट पर निर्भर धनी किसानों तथा उजरती सर्वहाराओं-अर्द्धसर्वहाराओं के बीच डोलते रहने वाला वर्ग। अर्थव्यवस्था में इसी दोहरे चरित्र के कारण इसका राजनीतिक व्यवहार भी दोहरा होता है। भले ही मँझोले किसान उजरती श्रम का शोषण करते हैं – पर वे इतना अधिक मुनाफ़ा नहीं कमा पाते कि वह इसे खेती में पुनः निवेश कर, और ज़मीन ख़रीदकर, धनी किसानों की जमात में शामिल हो सकें। ऐसा इनमें से बहुत कम ही कर पाते हैं। इनमें से ज़्यादातर की नियति यही होती है कि इन्हें देर-सबेर उजरती सर्वहाराओं-अर्द्धसर्वहाराओं की क़तारों में ही शामिल होना होता है।

इसलिए सर्वहारा वर्ग इनके प्रति दोस्ताना रुख़ अपनाता है। समाजवादी क्रान्ति में जहाँ कुलकों की पूरी सम्पत्ति (ज़मीन, खेती, औज़ार आदि) बलपूर्वक छीन ली जायेगी, वहाँ मँझोले किसानों के मामले में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता। उन्हें प्रेरणा से ही सामूहिक खेती में शामिल किया जाता है, ज़ोर-ज़बरदस्ती से नहीं। यह भी एक तथ्य है कि निजी सम्पत्ति से गहरे लगाव के चलते एक नये इन्सान में इनके रूपान्तरण का काम बहुत कठिन होता है, जिससे समाजवादी निर्माण का काम बाधित होता है। समाजवादी समाज में छोटे पैमाने के माल उत्पादन की मौजूदगी पूँजीवादी पुनर्स्थापना के लिए भी ज़रख़ेज़ भूमि तैयार करती है।

समाजवादी क्रान्ति के दौर में सर्वहारा की कोशिश रहती है कि मँझोले किसानों को अगर सर्वहारा क्रान्ति के पक्ष में नहीं जीता जा सकता, तो वे उनके दुश्मन का साथ भी न दें, यानी मँझोले किसानों को तटस्थ करने की नीति अपनायी जाती है। इस सम्बन्ध में लेनिन लिखते हैं, “रूसी क्रान्ति की नियति और नतीजा… इस बात पर निर्भर करेगा कि शहरी सर्वहारा देहाती सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा की व्यापक आबादी को अपने पीछे खड़ा कर पाता है या यह आबादी किसान बुर्जुआजी के पीछे चलती है (भूमि प्रश्न पर प्रस्ताव, 7 मई, 1917, अखिल रूसी सम्मेलन, संकलित रचनाएँ, पृ.291)।”

ध्यान देने की बात है कि मई 1917 में जब बोल्शेविक समाजवादी क्रान्ति की तैयारी कर रहे थे, उस समय लेनिन ग्रामीण सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा आबादी के शहरी मज़दूरों के नेतृत्व में गोलबन्द होने को क्रान्ति की सफ़लता की ज़रूरी शर्त मानते हैं। वह मध्यम किसानों की चर्चा तक नहीं करते।

एक अन्य जगह लेनिन लिखते हैं, “वर्ग सचेत मज़दूर का कार्यक्रम है ग़रीब किसानों के साथ घनिष्ठतम संश्रय और पूर्ण एकता, मँझोले किसानों के साथ रियायतें और समझौते, कुलकों का बेमुरव्वत दमन (संकलित रचनाएँ, खण्ड 28, पृष्ठ 58)।” लेनिन ने यह अगस्त 1918 में लिखा था, जब रूस में सर्वहारा सत्ता ग्रामीण क्षेत्रें में अपने पैर जमा रही थी।

एक अन्य जगह मँझोले किसानों के प्रति सर्वहारा के रुख़ के बारे में लेनिन ने बहुत साफ़-साफ़ लिखा है, “सामान्यतया सर्वहारा और किसानों के बीच संश्रय ही क्रान्ति के बुर्जुआ चरित्र को उजागर कर देता है, क्योंकि किसान छोटे उत्पादक होते हैं जो माल उत्पादन के आधार पर अस्तित्वमान होते हैं। आगे चलकर सर्वहारा वर्ग समूचे अर्द्धसर्वहारा वर्ग (सभी मेहनतकश और शोषित लोगों) को अपने पक्ष में करेगा, मध्यम किसानों को तटस्थ बनायेगा और बुर्जुआ वर्ग को उखाड़ फ़ेंकेगा, यह समाजवादी क्रान्ति होगी (संकलित रचनाएँ, अंग्रेज़ी संस्करण, खण्ड 28, पृ.294-95, अनुवाद हमारा)।” रूस में समाजवादी सत्ता के काफ़ी हद तक सुदृढ़ होने पर जब लेनिन मँझोले किसानों से सर्वहारा वर्ग के संश्रय की बात करते हैं तब मँझोले किसान भी वैसे नहीं रह गये जैसे कि वह क्रान्ति-पूर्व रूस में थे। अब वे निजी सम्पत्ति (ज़मीन) के मालिक नहीं रह गये थे, और न ही वे मज़दूरों का शोषण कर सकते थे। अब वे बस अनाज के मालिक थे जिसे वे बेचकर कुछ मुनाफ़ा बटोर लेते थे। इन्हीं अर्थों में अब वे मँझोले किसान थे।

लागत मूल्य कम करने के बारे में

एस. प्रताप के लेख, ‘चीनी मिल-मालिकों की लूट से तबाह गन्ना किसान’ पर टिप्पणी करते हुए साथी नीरज ने सवाल उठाया था कि लागत मूल्य में अगर कमी होगी तो इसका नतीजा फसलों के दाम गिरने में होगा। ऐसा क्यों और कैसे होगा, ‘बिगुल’ के जनवरी 2003 अंक में सम्पादक-मण्डल द्वारा इस सम्बन्ध में लिखे लेख में इसकी व्याख्या की गयी है। क्योंकि श्री एस. प्रताप भी इस बात से सहमत हैं, इसलिए यहाँ इसके अधिक विस्तार में जाने या इसके दुहराव की ज़रूरत नहीं है।

लागत मूल्य घटाने में किसानों को कोई फ़ायदा  नहीं होगा। क्योंकि लागत मूल्य (अचल पूँजी पर होने वाला ख़र्च) में जितनी कमी होगी, उसी अनुपात में फसलों के दाम गिरने से किसानों का मुनाफ़ा भी कम हो जायेगा। किसानों का मुनाफ़ा सिर्फ़ एक ही सूरत में बढ़ सकता है, वह है – उनके पास अपनी श्रम-शक्ति बेचने वाले खेत मज़दूरों की मज़दूरी कम कर दी जाये। क्योंकि मुनाफ़ा कच्चे माल से नहीं श्रम-शक्ति से पैदा होता है। श्री एस. प्रताप का लागत मूल्य कम करके मँझोले किसानों को राहत देने का तर्क यहीं तक जाता है। मँझोले किसानों के लिए अतिचिन्तित श्रीमान एस. प्रताप को यह बात साफ़-साफ़ कहनी चाहिए।

एस. प्रताप का कहना है कि “लागत मूल्य घटाने का भी सबसे अधिक फ़ायदा धनी किसानों को ही होगा।” मगर फि़र भी वह इस माँग की हिमायत पर डटे हुए हैं। उनके इस धनी किसान प्रेम पर हैरत होती है। आगे वह कहते हैं, “मँझोले और ग़रीब किसानों को इससे (लागत मूल्य घटाने से) मामूली राहत ही मिल सकती है। और कोई भी बात उसकी तबाही-बरबादी को नहीं रोक सकती है।” अगर उन्हें इससे मामूली राहत ही मिलती है और ज़्यादा फ़ायदा धनी ही ले जायेंगे, तो आप लागत मूल्य कम करने की ज़िद पर इतना क्यों अड़े हुए हैं। और सवाल तो यह भी है कि लागत मूल्य कम होने से जब फसलों के दाम भी गिर जायेंगे, तो छोटे-मँझोले किसानों को यह मामूली राहत भी कैसे मिल पायेगी? आप जब किसानों को लागत मूल्य कम होने से फसलों के दाम गिरने का राजनीतिक अर्थशास्त्र समझायेंगे तो कौन मूर्ख आपके नेतृत्व में लागत मूल्य घटाने की लड़ाई लड़ने आयेगा। ऐसा भी हो सकता है कि किसानों को सब्सिडी मिले और सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों की फ़सल ख़रीदकर फसलों के दामों में आने वाली गिरावट को रोक दे। तब एस. प्रताप क्या करेंगे? तब साथी एस. प्रताप इस धोखाधड़ी के ख़िलाफ़, फसलों के दाम गिराने के लिए आन्दोलन करेंगे। उन्हीं के शब्दों में, “लागत मूल्य घटने से फसलों का दाम आखि़र क्यों ना गिरे? फसलों का दाम गिरना ही चाहिए और अवश्य गिरना चाहिए और ऐसा नहीं होता तो इस धोखाधड़ी के ख़िलाफ़ आम जनता को लामबन्द किया जाना चाहिए।” श्री एस. प्रताप, पहले तो आप लागत मूल्य कम करने के लिए मँझोले किसानों को संगठित करने जायेंगे। थोड़ी देर के लिए मान लीजिये, लागत मूल्य घटने से फसलों के दाम गिर जाने का आपका अति सूक्ष्म अर्थशास्त्र समझ सकने में असमर्थ ये किसान आप के नेतृत्व में लामबन्द होकर लागत मूल्य घटाने में कामयाब हो जाते हैं, मगर इतने से तो आपको चैन मिलेगा नहीं, और जब आप लागत मूल्य घटने से फसलों का दाम घटाने के लिए मँझोले किसानों को (क्योंकि आम जनता में मँझोले किसान भी तो शामिल होंगे ही) लामबन्द करने जायेंगे तो आप किसानों के हाथों अपनी होने वाली दुर्गति की कल्पना भी कर सकते हैं।

मगर एस. प्रताप का मँझोला किसान तो बाज़ार से कुछ फ़सलें ख़रीदता भी है। इसीलिए उनका कहना है कि फसलों का दाम गिरना मँझोले किसानों के ख़िलाफ़ नहीं है क्योंकि दाम तो उन फसलों के भी गिरेंगे जो वह ख़रीदता है। पर श्रीमान, जब आपके मँझोले किसान को अपनी फसलों की बाज़ार में बिक्री से पैसे भी कम मिलेंगे तो दूसरी फ़सलें ख़रीदने में उसे क्या मदद मिल सकती है? आप अर्थशास्त्र के तो नालायक़ विद्यार्थी हैं ही, लगता है आप गणित में भी काफ़ी कमज़ोर हैं।

श्रीमान एस. प्रताप ने लागत मूल्य के लिए भी लेनिन का सहारा लेने की कोशिश की है। इसलिए उन्होंने लेनिन के उद्धरण को काट-छाँटकर, अपने तर्क के अनुरूप बनाने की कोशिश की है। हम लेनिन का पूरा उद्धरण देंगे जिसे उन्होंने आधा-अधूरा दिया है:

“सभी मिल्की, सारा बुर्जुआ वर्ग मँझोले किसान की गृहस्थी सुधारने के लिए तरह-तरह की कार्रवाइयों (सस्ते हल, किसान बैंक, घास-बोवाई की व्यवस्था, सस्ती खाद और सस्ते मवेशी आदि) का वायदा करके उसे अपनी तरफ़ खींचना चाहते हैं। वे मँझोले किसानों को तरह-तरह के खेतिहर संघों (जिन्हें किताबों में “सहकार” कहा जाता है) में शामिल करने की कोशिश करते हैं, जो खेतीबाड़ी के तरीक़ों में सुधार करने के उद्देश्य से सभी प्रकार के मिल्कियों को ऐक्यबद्ध करते हैं। इस तरीक़े से बुर्जुआ वर्ग न केवल मँझोले बल्कि छोटे किसानों को भी, यहाँ तक कि अर्द्धसर्वहारा को भी, शहरी मज़दूरों के साथ ऐक्यबद्ध होने से रोकने और मज़दूरों के ख़िलाफ़, सर्वहारा के ख़िलाफ़ लड़ने में धनियों और बुर्जुआ वर्ग की ओर लाने की कोशिश करता है।

सामाजिक जनवादी मज़दूर इसका जवाब देते हैं: सुधरी गृहस्थी बढ़िया चीज़ है। ज़्यादा सस्ते हल ख़रीदने में कोई बुराई नहीं है( आजकल व्यापारी भी, अगर वह बेवक़ूफ़ नहीं, अधिक ख़रीदारों को अपनी ओर खींचने के लिए चीज़ों को सस्ते दामों पर बेचने की कोशिश करता है। लेकिन गृहस्थी और ज़्यादा सस्ते हल तुम सबको ग़रीबी से पिण्ड छुड़ाने और अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद करेंगे …तो यह सरासर धोखा है (गाँव के ग़रीबों से, राहुल फ़ाउण्डेशन, पृ.37-38)।”

स्पष्ट है कि यहाँ पर लेनिन बुर्जुआ वर्ग द्वारा छोटे-मँझोले किसानों को अपने पक्ष में करने के लिए किये जाने वाले कृषि सुधारों की ही चर्चा कर रहे हैं, न कि लागत मूल्य घटाने को किसानों की मुख्य माँग के रूप में पेश कर रहे हैं। अब अगर हमारे यहाँ भी बुर्जुआ वर्ग या उसकी सरकार कृषि सुधारों का कोई काम करे जिससे छोटे-मँझोले किसानों को फ़ायदा होता हो तो क्या कम्युनिस्ट उसका विरोध करेंगे? बिल्कुल नहीं, पर वह ऐसे सुधारों के पीछे बुर्जुआ सरकार की नीयत को ज़रूर नंगा करेंगे। अगर सरकार कोई ऐसी नहर निकाले जिससे छोटे-मँझोले किसानों को भी सिंचाई की सुविधा मिले तो क्या कम्युनिस्ट उन्हें इस नहर का पानी न इस्तेमाल करने के लिए कहेंगे? श्रीमान एस. प्रताप आप दो बातों में फ़र्क कीजिये। एक तरफ़ तो बुर्जुआ सरकार की तरफ़ से किसानों को लुभाने के लिए उन्हें दी जाने वाली रियायतों का मामला है और दूसरी तरफ़ कम्युनिस्टों द्वारा लागत मूल्य घटाने की माँग को मँझोले किसानों की मुख्य माँग बनाकर उन्हें संगठित करने का सवाल है। दोनों बातों में यह फ़र्क इतना बारीक़ भी नहीं है कि आपको दिखायी न दे। मगर जब आप हक़ीक़तों को एक निम्न पूँजीपति के चश्मे से ही देख रहे हैं, तो आपको इतने मोटे-मोटे फ़र्क भी कहाँ दिखायी देंगे। आपकी सारी दिक़्क़त ही यह है कि आप किन्हीं धारणाओं तक पहुँचने के लिए तथ्यों से प्रस्थान नहीं करते बल्कि अपने दिमाग़ में पहले से ही बनी हुई धारणाओं को हर हाल में सही सिद्ध करने के लिए तथ्य खोजते हैं। और जब वह तथ्य आपकी पूर्वधारणाओं से मेल नहीं खाते तो उन्हें मन-माफ़िक तरीक़े से तोड़ते-मरोड़ते हैं।

श्रीमान एस. प्रताप का कहना है, “यह (मँझोला किसान) किसी भी तरह अपने अस्तित्व को नहीं बचा सकता, यह भावी सर्वहारा है। …लेकिन उन्हें आज ही तो तबाह होकर सर्वहारा नहीं बन जाना है। तबाह होते हुए वे लम्बे समय तक एक वर्ग के रूप में विद्यमान रहेंगे। हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि वे चुपचाप घुटते हुए नहीं बल्कि लड़ते हुए तबाह हों और इस प्रक्रिया में पूँजीवाद के शोषणकारी चरित्र को समझें।” यहाँ पर सवाल यह नहीं है कि छोटे-मँझोले किसान पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई त्याग दें, सवाल तो उन माँगों का है जो किसान पूँजीवादी व्यवस्था के आगे रखते हैं। हमें देखना होगा कि ऐसी कौन-सी माँगें हैं जो मँझोले किसानों को सर्वहारा वर्ग के क़रीब लाती हैं, जो ग्रामीण सर्वहारा, अर्द्धसर्वहारा तथा मँझोले किसानों की साझा माँगें हैं, क्योंकि ‘साझा मोर्चा’ साझा माँगों पर ही बन सकता है। ऐसी माँगों की एक चर्चा ‘बिगुल’ के फरवरी2003 अंक में की गयी है, जिसे यहाँ दुहराने की ज़रूरत नहीं है। कम्युनिस्ट किसानों के हर आन्दोलन की हिमायत नहीं करते, पूँजीवादी राज्यसत्ता के ख़िलाफ़ सभी किसान आन्दोलन क्रान्तिकारी नहीं होते, कम्युनिस्ट किसानों के उन्हीं आन्दोलनों की हिमायत करते हैं, जो सर्वहारा क्रान्ति को आगे बढ़ाने में मददगार हों।

साथी एस. प्रताप किसानों की जिन माँगों की हिमायत कर रहे हैं, वे किसानों की निम्न पूँजीवादी मानसिकता को ही बल प्रदान करती हैं और उन्हें बुर्जुआ वर्ग के पलड़े में धकेलने वाली हैं। वह लागत मूल्य घटाने की माँग को मँझोले किसानों की मुख्य माँग के बतौर पेश तो कर ही रहे हैं, और अभी उन्होंने लाभकारी मूल्य की माँग की हिमायत को भी नहीं छोड़ा है। भले ही उनका कहना है कि, लाभकारी मूल्य की माँग जनविरोधी, सर्वहारा विरोधी तथा धनी किसानों की माँग है। उनका कहना है कि उनके लेख में “जहाँ वाजिब मूल्य के लिए दबाव बनाने की रणनीति अपनाने की बात की गयी है, वह एक विशेष सन्दर्भ में है जब चीनी मिलों ने बिना किसी उपयुक्त कारण के पिछले साल के मुक़ाबले गन्ने का दाम एकाएक काफ़ी कम कर दिया था।” उनके कहने का तात्पर्य यह है कि उक्त “विशेष सन्दर्भ” में लाभकारी मूल्य की माँग उठाना जायज़ है। उनके इस धनी किसान प्रेम पर हमें एक बार फि़र से हैरत हो रही है। लगता है श्रीमान इस बात को समझ सकने में ही अक्षम हैं कि लाभकारी मूल्य की लड़ाई असल में समाज में सर्वहारा वर्ग के शोषण से पैदा होने वाले कुल बेशी मूल्य में औद्योगिक बुर्जुआ वर्ग, व्यापारिक बुर्जुआ वर्ग तथा अन्य शोषक वर्गों की बनिस्पत कृषि बुर्जुआ वर्ग का हिस्सा बढ़ाने की लड़ाई है। और इस लड़ाई में कृषि बुर्जुआ वर्ग का साथ देने का सवाल ही नहीं उठता।

समाजवादी व्यवस्था में मँझोले किसानों के प्रति सर्वहारा वर्ग के रवैये के बारे में

श्रीमान एस. प्रताप सवाल उठाते हैं कि, “…समाजवादी निर्माण की समस्याओं के मद्देनज़र भी क्या उसे (मँझोले किसान को) सर्वहारा के संश्रयकारी के रूप में गोलबन्द करना आवश्यक नहीं है?” जी हाँ, बिल्कुल आवश्यक है। सर्वहारा वर्ग और उसकी पार्टी ऐसा ही करेगी। मगर तब राज्यसत्ता पर सर्वहारा वर्ग का क़ब्ज़ा होगा जिसके पीछे करोड़ों अर्द्धसर्वहारा आबादी खड़ी होगी। तब सर्वहारा के पास ऐसे अनेक संसाधन मौजूद होंगे कि बहुत-सी रियायतें देकर भी मँझोले किसानों को अपने पक्ष में जीतना सम्भव होगा। तब मँझोले किसान भी आज जैसे नहीं रह जायेंगे। क्योंकि समाजवाद में ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख़्त तथा भाड़े के मज़दूरों से काम कराने पर पाबन्दी होगी। इन अर्थों में न तो मँझोले किसान निजी सम्पत्ति के मालिक रह जायेंगे और न ही श्रम-शक्ति के शोषक। वे बस इन्हीं अर्थों में मँझोले किसान होते हैं कि वे अनाज बेचते हैं और बाक़ी समाज की क़ीमत पर मुनाफ़ा बटोरते हैं। रूस में अक्टूबर क्रान्ति के बाद सर्वहारा सत्ता ने किसानों की फसलों के दाम तीन गुना बढ़ा दिये थे, और किसानों को सस्ती खेती-मशीनरी सहित अन्य अनेक सुविधाएँ उपलब्ध करायीं, जिससे मँझोले किसानों का सर्वहारा राज्यसत्ता में विश्वास बना।

समाजवाद में सामूहिक खेती के ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद होते हैं, जिनके ज़रिये मँझोले किसानों को सामूहिक खेती में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। श्रीमान एस. प्रताप की जानकारी के लिए बता दें कि समाजवाद पूँजीवाद से गुणात्मक रूप से भिन्न होता है। मँझोले किसानों के प्रति सर्वहारा वर्ग की जो नीति समाजवाद में होगी, वही नीति पूँजीवाद में नहीं हो सकती है। आज हम किसानों के लाभकारी मूल्य तथा सब्सिडी आदि माँगों का विरोध करते हैं, मगर समाजवाद में सर्वहारा राज्य ख़ुद किसानों को यह सब देता है, क्योंकि तब यह सर्वहारा वर्ग के हित में होगा। इससे मज़दूर किसान संश्रय मज़बूत होगा, जोकि सर्वहारा अधिनायकत्व की सुदृढ़ता का आधार है।

बिगुल, दिसम्बर 2004


 

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