मध्यम किसान और लागत मूल्य का सवाल : छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण

सुखदेव

मध्यम किसानों के सवाल पर चल रही बहस में साथी एस. प्रताप का छोटे पैमाने के माल उत्पादन के लिए मोह स्पष्ट नज़र आता है। समाजवादी क्रान्ति में सर्वहारा वर्ग के संश्रयकारी के रूप में मँझोले किसानों को गोलबन्द करने के नाम पर वह छोटे पैमाने के माल उत्पादन को बनाये रखने की प्रतिक्रियावादी इच्छाएँ पालते हैं, और इस बहस में इन्हीं इच्छाओं से प्रस्थान करते हैं। मगर पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के तहत एस. प्रताप की इस इच्छा की पूर्ति नामुमकिन है, क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था में छोटे पैमाने के माल उत्पादन की तबाही अपरिहार्य है।

इस सम्बन्ध में मार्क्स लिखते हैं, “ग़ैर-खेतिहर आबादी की तुलना में खेतिहर आबादी को लगातार घटाते जाना ही पूँजीवादी उत्पादन का स्वभाव है, क्योंकि उद्योग में (वास्तविक अर्थों में) परिवर्ती पूँजी की सापेक्षता में स्थिर पूँजी की वृद्धि, परिवर्ती पूँजी में निरपेक्ष वृद्धि, यद्यपि सापेक्षतः घटत के साथ-साथ ही चलती है; इसके विपरीत कृषि में किसी भूखण्ड के समुपयोजन के लिए अपेक्षित परिवर्ती पूँजी निरपेक्षतः घटती है; इस प्रकार वह सिर्फ़ वहीं तक बढ़ती है जहाँ तक नयी ज़मीन काश्त में लायी जाती है, लेकिन फि़र इसके लिए भी पूर्वापेक्षा के रूप में गै़र-खेतिहर आबादी की और वृद्धि आवश्यक है (पूँजी, खण्ड 3, पृ.558)।”

एक अन्य जगह मार्क्स लिखते हैं, “इस प्रकार भू-सम्पत्ति अपने समस्त पूर्ववर्ती राजनीतिक तथा सामाजिक अलंकरणों और सम्बन्धों का, संक्षेप में उन सभी पारम्परिक उपसाधनों का परित्याग करके, जिनकी – जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे – भू-सम्पत्ति के साथ अपने संघर्ष की गरमी में स्वयं औद्योगिक पूँजीपतियों और उनके सैद्धांतिक प्रवक्ताओं द्वारा भी निरर्थक और व्यर्थ अतिशयताओं के नाते भर्त्सना की जाती है, अपना विशुद्ध आर्थिक रूप प्राप्त कर लेती है। एक ओर, कृषि का यौक्तिकीकरण (rationalisation), जो उसे पहली बार सामाजिक पैमाने पर चलने में समर्थ बना देता है, और दूसरी ओर, भू-सम्पत्ति का विसंगति (ad-absurdum) में परिणत कर दिया जाना, ये पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली की महान उपलब्धियाँ हैं। अपनी अन्य सभी ऐतिहासिक प्रगतियों की ही भाँति उसने इन्हें भी प्रत्यक्ष उत्पादकों को पहले पूर्णतः कंगाल बनाकर ही हासिल किया है (पूँजी, खण्ड 3, पृ.542)।”

इसी परिघटना पर लेनिन कहते हैं, “खेती की उपज में माल उत्पादन की पैठ जितनी अधिक होती है और इसके परिणामस्वरूप, खेतिहरों के बीच प्रतिस्पर्धा, ज़मीन और आर्थिक स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष जितना तीखा होता है, यह नियम उतनी ही स्पष्टता के साथ प्रकट होता है, एक ऐसा नियम जो खेतिहर बुर्जुआ वर्ग द्वारा मध्यम और ग़रीब किसानों को धकियाकर बाहर निकालने तक ले जाता है (सम्पूर्ण रचनाएँ, खण्ड 3, पृ.75, अंग्रेज़ी संस्करण)।”

तब क्या सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधियों को छोटे पैमाने के माल उत्पादन की इस अपरिहार्य तबाही पर आँसू बहाने चाहिए या इस प्रक्रिया को रोकने की कोशिश करनी चाहिए या एस. प्रताप की तरह छोटे पैमाने के माल उत्पादन को बचाये रखने की इच्छाएँ पालनी चाहिए। सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षकों के मुताबिक़ ऐसी कोशिशें या इच्छाएँ सामाजिक विकास और सर्वहारा वर्ग के लिए बेहद ख़तरनाक होंगी। लेनिन लिखते हैं, “किसान समुदाय की तबाही से कृषि का विकास होता है।” (सम्पूर्ण रचनाएँ, खण्ड 3, पृ.75, अंग्रेज़ी संस्करण)। किसानों के सर्वहाराओं और कृषि बुर्जुआजी में रूपान्तरण से घरेलू मण्डी का जन्म होता है, जिससे उत्पादक शक्तियों के विकास का रास्ता साफ़ होता है। लेनिन के शब्दों में, “किसान समुदाय के ग्रामीण सर्वहारा में रूपान्तरण से मुख्यतः उपभोग की वस्तुओं का बाज़ार निर्मित होता है, जबकि ग्रामीण बुर्जुआ वर्ग में इसके रूपान्तरण से मुख्यतः उत्पादन के साधनों का बाज़ार निर्मित होता है। दूसरे शब्दों में, ‘किसान समुदाय’ के सबसे निचले समूहों में हमें श्रम-शक्ति का माल में रूपान्तरण दिखायी देता है, और ऊपरी समूहों में उत्पादन के साधनों का पूँजी में रूपान्तरण। इन दोनों ही रूपान्तरणों का परिणाम घरेलू बाज़ार के निर्माण की वह प्रक्रिया होती है जो आमतौर पर पूँजीवादी देशों के लिए सैद्धांतिक रूप से स्थापित की गयी है।” (उपरोक्त, पृ.166)

किसानों के विभेदीकरण की बदौलत कृषि में पूँजी निर्माण का रास्ता साफ़ होता है। लेनिन का कहना है, “पूँजी के हिस्से की तुलना में स्थिर पूँजी के हिस्से में तीव्र वृद्धि का भारी महत्त्व होता है (कार्ल मार्क्स और उनकी शिक्षा, पृ.31, अंग्रेज़ी संस्करण)।” किसानों के विभेदीकरण से श्रम का समाजीकरण बढ़ता है जोकि समाजवाद की अपरिहार्य आमद का भौतिक आधार तैयार करता है। लेनिन कहते हैं, “श्रम का समाजीकरण, जो हज़ारों रूपों में अधिकाधिक शीघ्रतापूर्व आगे बढ़ रहा है तथा जो…वित्त पूँजी की मात्रा तथा क्षमता की वृहद वृद्धि में विशेष रूप से प्रत्यक्ष हुआ – यह है समाजवाद के अनिवार्य आगमन का मुख्य भौतिक आधार (उपरोक्त, पृ.35, हि.सं.)।” बड़े पैमाने का पूँजीवादी माल उत्पादन हमेशा छोटे पैमाने के माल उत्पादन से कहीं बेहतर होता है। इसलिए मार्क्सवादी किसी भी आधार पर छोटे पैमाने के माल उत्पादन के हक़में नहीं हो सकते। छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्स कहते हैं, “अपने उत्पादन के साधनों पर कामगार का निजी स्वामित्व छोटे उद्योग का आधार होता है, चाहे वह छोटा उद्योग खेती से सम्बन्धित हो, मैन्युफ़ैक्चरिंग से, या दोनों से। यह छोटा उद्योग सामाजिक उत्पादन के विकास और ख़ुद कामगार के स्वतन्त्र व्यक्तित्व के विकास की एक अनिवार्य शर्त होता है।….उत्पादन की यह क्षुद्र प्रणाली…फ़लती-फ़ूलती है, अपनी समस्त शक्ति का प्रदर्शन करती है और पर्याप्त एवं प्रामाणिक रूप प्राप्त करती है केवल उसी जगह, जहाँ किसान उस धरती का मालिक होता है, जिसे वह जोतता है, और दस्तकार उस औज़ार का स्वामी होता है, जिसका वह सिद्धहस्त ढंग से प्रयोग करता है।

“उत्पादन की इस प्रणाली के होने के लिए यह आवश्यक है कि ज़मीन छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटी हुई हो और उत्पादन के अन्य साधन बिखरे हुए हों। जिस प्रकार इस प्रणाली के रहते हुए उत्पादन के इन साधनों का संकेन्द्रण नहीं हो सकता, उसी प्रकार यह भी असम्भव है कि उसके अन्तर्गत सहकारिता, उत्पादन की हर अलग-अलग प्रक्रिया के भीतर श्रम-विभाजन प्रकृति की शक्तियों के ऊपर समाज का नियन्त्रण तथा उनका समाज के द्वारा उत्पादक ढंग से उपयोग और सामाजिक उत्पादक शक्तियों का स्वतन्त्र विकास हो सके। यह प्रणाली तो केवल एक ऐसी उत्पादन-व्यवस्था और केवल एक ऐसे समाज से मेल खाती है, जो संकुचित तथा न्यूनाधिक रूप में आदिम सीमाओं के भीतर ही गतिमान रहता है। जैसा कि पेक्योर ने ठीक ही कहा है, इस प्रणाली को चिरस्थायी बना देना “हर चीज़ को सर्वत्र अल्पविकसित बने रहने का आदेश दे देना है (पूँजी, खण्ड 1, पृ.801, ज़ोर हमारा)।” यह है छोटे पैमाने के माल उत्पादन की असलियत जिसे बचाये रखकर एस. प्रताप “हर चीज़ को सर्वत्र अल्पविकसित बने रहने” का ऐलान करना चाहते हैं।

छोटे पैमाने के माल उत्पादन पर बड़े पैमाने के पूँजीवादी माल उत्पादन की श्रेष्ठता तथा इस प्रक्रिया के नतीजों के बारे में मार्क्स लिखते हैं, “रूपान्तरण की यह प्रक्रिया जैसे ही पुराने समाज को ऊपर से नीचे तक काफ़ी छिन्न-भिन्न कर देती है, कामगार जैसे ही सर्वहारा बन जाते हैं और उनके श्रम के साधन पूँजी में रूपान्तरित हो जाते हैं, पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली ख़ुद जैसे ही अपने पैरों पर खड़ी हो जाती है, वैसे ही श्रम का और अधिक समाजीकरण करने का प्रश्न, भूमि तथा उत्पादन के अन्य साधनों को सामाजिक ढंग से इस्तेमाल किये गये साधनों में और इसलिए सामूहिक साधनों में और भी अधिक रूपान्तरित कर देने का प्रश्न और साथ ही निजी सम्पत्ति का अधिक अपहरण करने का प्रश्न एक नया रूप धारण कर लेते हैं। अब जिसका सम्पत्तिहरण करना आवश्यक हो जाता है, वह ख़ुद अपने लिए काम करने वाला कामगार नहीं है, बल्कि वह है बहुत से कामगारों का शोषण करने वाला पूँजीपति।

“यह सम्पत्तिहरण स्वयं पूँजीवादी उत्पादन के अन्तर्भूत नियमों के अमल में आने के फ़लस्वरूप पूँजी के केन्द्रीकरण के द्वारा सम्पन्न होता है। एक पूँजीपति हमेशा बहुत से पूँजीपतियों की हत्या करता है। इस केन्द्रीकरण के साथ-साथ, या यूँ कहिए कि कुछ पूँजीपतियों द्वारा बहुत से पूँजीपतियों के इस सम्पत्तिहरण के साथ-साथ, अधिकाधिक बढ़ते हुए पैमाने पर श्रम प्रक्रिया का सहकारी स्वरूप विकसित होता जाता है, प्राविधिक विकास के लिए सचेतन ढंग से विज्ञान का अधिकाधिक प्रयोग किया जाता है, भूमि को उत्तरोत्तर अधिक सुनियोजित ढंग से जोता-बोया जाता है, श्रम के औज़ार ऐसे औज़ारों में बदलते जाते हैं, जिनका केवल सामूहिक ढंग से उपयोग किया जा सकता है, उत्पादन के साधनों का संयुक्त, समाजीकृत श्रम के साधनों के रूप में उपयोग करके हर प्रकार के उत्पादन के साधनों का मितव्ययिता के साथ इस्तेमाल किया जाता है… उत्पादन के साधनों का केन्द्रीयकरण और श्रम का समाजीकरण अन्त में एक ऐसे बिन्दु पर पहुँच जाते हैं, जहाँ वे अपने पूँजीवादी खोल के भीतर नहीं रह सकते। खोल फ़ाड़ दिया जाता है। पूँजीवादी निजी सम्पत्ति की मौत की घण्टी बज उठती है। सम्पत्तिहरण करने वालों का सम्पत्तिहरण हो जाता है” (पूँजी, खण्ड 1, पृ.802-803)

लेनिन का कहना है, “हम यह भी जानते हैं कि मार्क्स का सिद्धान्त यह मानता है कि सम्पदा की वृद्धि जितनी तीव्र होगी, श्रम की उत्पादक शक्तियों का विकास और इसका समाजीकरण जितना ही पूर्ण होगा, मज़दूर की स्थिति उतनी ही बेहतर होगी (ए कैरेक्टराइज़ेशन ऑफ़ इकोनॉमिक रोमाण्टिसिज़्म, पेज 24, ज़ोर मूल में)।”

इसी सम्बन्ध में लेनिन आगे लिखते हैं, “…यदि हम संकट की व्याख्या उत्पादन के सामाजिक चरित्र तथा विनियोजन के व्यक्तिगत चरित्र से करते हैं, तो इसी के साथ हम यह स्वीकार करते हैं कि पूँजीवादी मार्ग वास्तविक और प्रगतिशील है तथा “भिन्न-भिन्न मार्गों” की खोज को अर्थहीन रोमानीवाद के तौर पर ख़ारिज कर देते हैं। इसी के साथ हम स्वीकार करते हैं कि यह अन्तरविरोध जितना ही विकसित होगा इससे निकलने का रास्ता उतना ही आसान होगा, और कि इस व्यवस्था के विकास से ही यह रास्ता निकलेगा।” (उपरोक्त, पृ. 50-51)

किसानी के विभेदीकरण का नतीजा समाज के तीखे ध्रुवीकरण में निकलता है। समाज दिन-प्रतिदिन दो ध्रुवों पूँजीपतियों और मज़दूरों के बीच अधिकाधिक बँटता जाता है। जिससे देहात में तथा शहर में भी वर्ग अन्तरविरोध अधिकाधिक साफ़ होते जाते हैं। मार्क्स लिखते हैं, “कृषि के क्षेत्र में, आधुनिक उद्योग का अन्य कहीं से अधिक क्रान्तिकारी प्रभाव रहा है, क्योंकि यह पुराने समाज की बाड़ का काम करने वाले किसान का खा़त्मा कर देता है और उसकी जगह उजरती मज़दूर को ले आता है। इस तरह सामाजिक परिवर्तनों की चाहत, और वर्ग-शत्रुताएँ देहात में भी उसी स्तर पर ले आयी जाती हैं जिस स्तर पर शहर में होती हैं (पूँजी, खण्ड 1, अंग्रेज़ी संस्करण, पृ.474, अनुवाद हमारा)।”

छोटे पैमाने का माल उत्पादन सामाजिक विकास (उत्पादक शक्तियों का विकास तथा श्रम का समाजीकरण) तथा वर्गीय ध्रुवीकरण में तो रुकावट है ही, एक अन्य कारण से भी इसका वजूद सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी के लिए नुक़सानदेह है। वह इसलिए कि जिन देशों में छोटे पैमाने के माल उत्पादन का वजूद होता है वहाँ पर मज़दूरों की उजरतें बेहद कम होती हैं। मार्क्स लिखते हैं, “किसान की छोटी जोतें अब वह एकमात्र बहाना है जिससे पूँजीपति ज़मीन से मुनाफ़ा, ब्याज और किराया वसूल करता है, जबकि यह ज़मीन जोतने वाले पर छोड़ देता है कि वह अपनी मज़दूरी कैसे निकालेगा (मार्क्स-एंगेल्स, सेलेक्टेड वर्क्स, खण्ड 1, पृ.481, अनुवाद हमारा)।”

फ्रेडरिक एंगेल्स लिखते हैं, “और यहाँ आधुनिक मज़दूर के लिए घर और भूस्वामित्व का “वरदान” अपनी पूरी शान के साथ दिखायी देता है। कहीं भी, आयरिश घरेलू उद्योगों में भी नहीं, इतनी कम मज़दूरी नहीं दी जाती है जितनी कि जर्मन घरेलू उद्योगों में। होड़ के कारण पूँजीपतियों को श्रम-शक्ति के दाम में से उसकी भी कटौती करने का मौक़ा मिल जाता है जो परिवार ख़ुद अपने छोटे बग़ीचे या खेत से कमाता है। मज़दूरों को उन्हें दी जाने वाली कोई भी पीस-उजरत स्वीकार्य करने के लिए बाध्य होना पड़ता है, क्योंकि ऐसा न करने पर उन्हें कुछ भी नहीं मिलेगा और वे केवल अपनी कृषि के उत्पादों से नहीं जीवित रह सकते, और क्योंकि दूसरी ओर, यह कृषि और भूस्वामित्व ही है जो उन्हें उस जगह से बाँधे रखता है और अन्य रोज़गार की तलाश करने से रोकता है। यही वह आधार है जिस पर छोटी-छोटी वस्तुओं की पूरी श्रृंखला के लिए विश्व बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धा करने की जर्मनी की क्षमता टिकी हुई है। सारा मुनाफ़ा सामान्य उजरत में कटौती करके निचोड़ा जाता है और पूरा अतिरिक्त मूल्य ख़रीदार को पेश किया जा सकता है (मार्क्स-एंगेल्स, सेलेक्टेड वर्क्स, खण्ड 2, पृ.301, अनुवाद हमारा, ज़ोर मूल में)।”

लेनिन का कहना है, “…पश्चिमी यूरोप के वे कृषिविज्ञानी जो ग्राम समुदायों के सुदृढ़ीकरण और विकास की माँग करते हैं, क़तई समाजवादी नहीं हैं, बल्कि बड़े भूस्वामियों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग हैं, जो खेतिहर मज़दूरों को ज़मीन के टुकड़े देकर उन्हें बाँट देना चाहते हैं (कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड 3, पृ.28)।”

एक अन्य जगह पर लेनिन (स्कालदिन नामक एक लेखक को उद्धृत करते हुए तथा उससे सहमति जताते हुए) लिखते हैं, “मेरी राय में अनेक किसानों के लिए उनकी कठिन परिस्थिति से निकलने की एक राह खुल जायेगी यदि….किसानों के लिए अपनी ज़मीन छोड़ देना आसान बनाने के उपाय कर दिये जायें।” यहाँ स्कालदिन एक ऐसी इच्छा व्यक्त कर रहे हैं जो नरोदनिक परियोजनाओं के एकदम विपरीत है, जिनकी प्रवृत्ति बिल्कुल विपरीत दिशा में है, यानी ग्राम कम्यून को बनाए रखने, पट्टों को अहस्तान्तरणीय बनाने आदि। उस समय से अब तक इस बात के प्रचुर साक्ष्य मिल चुके हैं कि स्कालदिन एकदम सही थे: यह तथ्य कि किसान ज़मीन से अभी बँधा हुआ है, और किसानी कम्यून एक एकनिष्ठ सामाजिक इकाई है, ग्रामीण सर्वहारा की स्थिति को और बदतर बनाता है तथा देहात के आर्थिक विकास को धीमा करता है, जबकि “बसे हुए सर्वहाराओं” को बँधुआगीरी और अधीनता के सबसे बुरे रूपों, या उनकी उजरतों और जीवन-स्तर को निम्नतम स्तर तक गिरने से किसी भी हद तक नहीं बचा पाता।” (सेलेक्टेड वर्क्स, खण्ड 1, पृ.63)

छोटे मालिकों के विभेदीकरण की प्रक्रिया अपरिहार्य है, छोटे पैमाने का माल उत्पादन उत्पादक शक्तियों के विकास तथा श्रम के समाजीकरण में बाधा है, छोटे पैमाने का माल उत्पादन, उजरतों का स्तर बेहद कम रखने में पूँजीपतियों की मदद करता है, इसलिए इसका वजूद सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी के लिए बेहद नुक़सानदेह है, छोटे पैमाने के माल उत्पादन की यह असलियत जानने के बाद, सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि इसे बचाये रखने की बात सपने में भी नहीं सोच सकते। मगर हमारे यहाँ श्री एस. प्रताप जैसे अजूबों की कमी नहीं है जो छोटे पैमाने के माल उत्पादन को बचाये रखने की भोली लेकिन बेहद प्रतिक्रियावादी इच्छाएँ पालते हैं। एस. प्रताप का कहना है, “लागत मूल्य बढ़ने से उनके लिए (यानी मँझोले किसानों के लिए – लेखक) खेती करना सम्भव नहीं रह गया है। लागत घटने से उनका यह फ़ायदा होगा (बिगुल, जनवरी ’05, पृ.4)।” एस. प्रताप के कहने का मतलब है कि लागत मूल्य घटने से मँझोले किसानों के लिए खेती करना मुमकिन हो पायेगा, यानी छोटे पैमाने के माल उत्पादन को बचाया जा सकता है।

एक अन्य जगह भी एस. प्रताप थोड़े फ़ेरबदल से यही बात कहते हैं, “मँझोला किसान बस उतनी बड़ी जोत का मालिक होता है, जिससे कि उसके परिवार का भरण-पोषण हो सके। वह मुनाफ़े के लिए खेती नहीं करता, इसलिए उसकी मुखर समस्या लागत की ही होती है। बढ़ती लागतों से उसके लिए खेती करना (यानी अपनी ज़मीन के छोटे से टुकड़े को बचाये रखना नामुमकिन होता जाता है – लेखक) मुश्किल हो जाता है।…लेकिन लागत घटाने की माँग पर आन्दोलन उसे कुछ राहत अवश्य पहुँचा सकता है। (एक छोटे मालिक के रूप में – लेखक) उसके जीवन की परिस्थितियों को थोड़ा सहनीय बना सकता है (उनका पहला अप्रकाशित लेख, पृ.12)।”

अपने लेखों में एस. प्रताप छोटे मालिकों की तबाही की अपरिहार्यता का बार-बार ज़िक्र करते हैं। मगर जब वह इस अपरिहार्य प्रक्रिया में बाधा डालने के नुस्ख़ों (लागत मूल्य घटाना) का सुझाव देते हैं तो छोटे पैमाने के माल उत्पादन की अपरिहार्य तबाही की स्वीकृति का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जो भी परिघटना अपरिहार्य होती है कम्युनिस्ट इस अपरिहार्यता में बाधा डालने की प्रतिक्रियावादी कोशिशें नहीं करते। लेनिन का कहना है, “जब हम समझते हैं कि कोई चीज़ अपरिहार्य है, तो स्वाभाविक रूप से हम उसके प्रति बिल्कुल भिन्न रवैया अपनाते हैं, और हम उसके विभिन्न पक्षों को समझने में सक्षम होते हैं (ए कैरेक्टराइजे़शन ऑफ़ इकोनॉमिक रोमाण्टिसिज़्म, पृ.112)।”

सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि छोटे मालिकों को अपनी सम्पत्ति से चिपके रहने का नहीं, बल्कि उससे मुक्त होने का मशविरा देते हैं। फ्रेडरिक एंगेल्स लिखते हैं, “छोटे किसान को उसकी सम्पत्ति में बचाने के आपके प्रयास उसकी स्वतन्त्रता को नहीं बचाते बल्कि उसकी अधीनता के विशिष्ट रूप को ही बचाते हैं। यह एक ऐसी स्थिति को लम्बा खींच देता है जिसमें न तो वह जी सकता है और न मर सकता है (फ्रांस और जर्मनी में किसानों का प्रश्न)।”

सिर्फ़ सर्वहारा क्रान्ति के विरोधी और मेहनतकशों के दुश्मन ही छोटे पैमाने के माल उत्पादन को बचाने की कोशिशें कर सकते हैं। मार्क्स कहते हैं, “किसानों के मालिकाने के साथ फ़्रांस भूमि के राष्ट्रीकरण से उससे अधिक दूर है जितना कि इंग्लैण्ड अपने ज़मींदारों के साथ है। यह सही है कि फ्रांस में, ज़मीन उन सबके लिए उपलब्ध है जो इसे ख़रीद सकते हैं, लेकिन इसी सुविधा ने ज़मीन को ऐसे छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँट दिया है जिन पर छोटे साधनों वाले लोग खेती करते हैं जो मुख्यतः इस ज़मीन पर अपने और अपने परिवारों के श्रम के बूते पर जीते हैं। भूस्वामित्व के इस रूप और इस पर छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटी खेती आधुनिक कृषि के सभी उपकरणों के प्रयोग को तो नामुमकिन बना ही देती है, ख़ुद ज़मीन जोतने वाले को सामाजिक प्रगति और सबसे बढ़कर भूमि के राष्ट्रीकरण का सबसे पक्का शत्रु बना देती है।… किसान को औद्योगिक मज़दूर वर्ग के साथ सर्वाधिक घातक शत्रुता में धकेल दिया गया है (मार्क्स-एंगेल्स, संकलित रचनाएँ, अंग्रेज़ी संस्करण, खण्ड 2, पृ.289, ज़ोर हमारा)।”

फ्रेडरिक एंगेल्स लिखते हैं, “शासक वर्ग के सबसे चतुर नेताओं ने हमेशा अपने प्रयास छोटे सम्पत्तिधारकों की संख्या को बढ़ाने पर केन्द्रित किये हैं ताकि सर्वहारा के विरुद्ध अपने लिए एक सेना खड़ी कर सकें। पिछली सदी की बुर्जुआ क्रान्तियों ने सामन्तों और चर्च की बड़ी जागीरों को छोटे-छोटे पट्टों में बाँट दिया, ठीक वैसे ही जैसे आज स्पेनी गणराज्यवादी अब भी मौजूद बड़ी जागीरों के साथ करना चाहते हैं, और इस तरह छोटे भूस्वामियों का एक वर्ग सृजित किया जो उस समय से समाज का सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी तत्त्व और शहरी सर्वहारा के क्रान्तिकारी आन्दोलन की एक स्थायी बाधा बन चुका है (उपरोक्त, पृ.317, ज़ोर हमारा)।”

लेनिन लिखते हैं, “संशोधनवादियों के तर्कों का तथ्यों और आँकड़ों की मदद से विश्लेषण किया गया। यह सिद्ध हुआ कि संशोधनवादी व्यवस्थित ढंग से छोटे पैमाने के आधुनिक उत्पादन की गुलाबी तस्वीर पेश कर रहे थे। छोटे पैमाने के ऊपर बड़े पैमाने के उत्पादन की तकनीकी और वाणिज्यिक श्रेष्ठता, न सिर्फ़ उद्योग में बल्कि कृषि में भी, अकाट्य तर्कों द्वारा सिद्ध हो चुकी है।…छोटे पैमाने का उत्पादन प्राकृतिक अर्थव्यवस्था के अवशेषों पर टिका होता है – आहार के निरन्तर ख़राब होते जाने के बल पर, कभी ख़त्म न होने वाली भूख के दम पर, काम के घण्टे बढ़ते जाने के दम पर, मवेशियों की संख्या और गुणवत्ता में गिरावट के दम पर, संक्षेप में, उन्हीं तरीक़ों से जिनसे दस्तकारी उत्पादन पूँजीवादी मैन्युफ़ैक्चर के विरुद्ध टिका हुआ था। विज्ञान और तकनोलॉजी में हर प्रगति अपरिहार्य रूप से और लगातार पूँजीवादी समाज में छोटे पैमाने के उत्पादन की बुनियाद कमज़ोर करती रहती है, और समाजवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र का यह कार्यभार है कि इस प्रक्रिया के सभी रूपों की जाँच-पड़ताल करे, जो अक्सर जटिल तथा उलझाव भरी होती है, और छोटे उत्पादक को यह दिखाए कि पूँजीवाद के तहत उसका टिका रहना कितना असम्भव है, पूँजीवाद के तहत किसान की काश्तकारी (personal farming) कितनी असहाय है, और किसान के लिए सर्वहारा दृष्टिकोण अपनाना कितना ज़रूरी है। इस प्रश्न पर संशोधनवादियों ने, एकतरफ़ा ढंग से चुने गये तथ्यों पर आधारित सतही सामान्यीकरणों का सहारा लेकर और पूरी पूँजीवादी प्रणाली का ज़िक्र न करके, वैज्ञानिक दृष्टि से, पाप किया है। राजनीतिक दृष्टि से, उन्होंने इस तथ्य द्वारा पाप किया है कि अपरिहार्यतः, उन्होंने चाहते या न चाहते हुए, किसान से क्रान्तिकारी सर्वहारा का दृष्टिकोण अपनाने के बजाय छोटे मालिक का दृष्टिकोण (यानी बुर्जुआ का दृष्टिकोण) अपनाने का आग्रह किया (लेनिन, से. व., खण्ड 1, पृ.52)।”

एस. प्रताप के विचार “हुक्मरानों के सबसे चालाक नेताओं” (छोटे पैमाने के माल उत्पादन को बचाने की भोली इच्छाओं के चलते) तथा संशोधनवादियों (छोटे मालिकों को सर्वहारा के बजाय एक छोटे मालिक वाला भाव अपनाने का आह्वान करने के चलते) से मिलते-जुलते हैं। इसीलिए छोटे पैमाने के माल उत्पादन के प्रति मार्क्सवादी दृष्टिकोण की व्याख्या करने के लिए हमने इतने विस्तार में लिखा है, ताकि साथी को इन ‘पेटी बुर्जुआ’ विचारों से पिण्ड छुड़ाने में मदद मिल सके।

लागत मूल्य के सवाल पर चन्द और बातें

लागत मूल्य घटाने की माँग का विरोध करने के पीछे हमारा सबसे बुनियादी तर्क यह है कि लागत मूल्य घटाने की माँग छोटे/मँझोले मालिकाने की अर्थव्यवस्था के प्रति मध्यम किसान के मोहभ्रम को बढ़ाने का काम करती है और उसे सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी से दूर बड़े मालिक किसानों के निकटतर ले जाने का काम करती है (बिगुल, फरवरी 2005, सम्पादकीय समाहार)। इस सम्बन्ध में हमारा दूसरा तर्क यह है कि यह माँग सभी मेहनतकश (सर्वहारा, अर्द्धसर्वहारा तथा मध्यम वर्ग) की साझा माँग नहीं है, और साझा मोर्चा तो साझी माँगों पर ही बनता है। अगर लागत मूल्य घटने से कृषि उत्पादों की क़ीमत में गिरावट आती है तो यह सर्वहारा वर्ग के हित में होगा, मगर तब इससे मँझोले किसानों को कोई फ़ायदा नहीं होगा और अगर लागत मूल्य कम होने से कृषि उत्पादों की क़ीमत में गिरावट नहीं आती तो यह सर्वहारा वर्ग के लिए नुक़सानदेह होगा, क्योंकि कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली सब्सिडी का बोझ तो आखि़र उत्पादक वर्ग (मुख्यतः सर्वहारा वर्ग) को ही उठाना पड़ेगा।

साथी एस. प्रताप लागत मूल्य घटाने की माँग पर मँझोले किसानों को संगठित तो करना चाहते हैं, मगर उनके मुताबिक़, पहले कई पूर्व-शर्तों को पूरा होना ज़रूरी है। उनके मुताबिक़, “ग्रामीण सर्वहारा वर्ग को संगठित किये बिना उसे (मँझोले किसानों को) संगठित करने की बात करना पूँजीवादी भूस्वामी वर्ग के हाथों में खेलने जैसी ही बात होगी। मँझोले किसानों के साथ सर्वहारा वर्ग का संश्रय एक संयुक्त मोर्चे में ही …? हो सकता है और जब सर्वहारा वर्ग संगठित ही न हो तो भला वह संयुक्त मोर्चा क़ायम ही कैसे कर सकता है।” (बिगुल, नवम्बर 2004)। एक अन्य जगह वह लिखते हैं, “समाजवादी क्रान्ति के दौर में औद्योगिक सर्वहारा वर्ग को संगठित करने से पहले ग्रामीण सर्वहारा वर्ग को संगठित करने पर ज़ोर देना भी भटकाव होगा। देहातों में सर्वहारा वर्ग का सशक्त क्रान्तिकारी आन्दोलन ही वह गारण्टी है जो मँझोले किसानों में किसी भी तरह के मोहभ्रम को पैदा नहीं होने देगा और वर्ग-ध्रुवीकरण तीखा कर मँझोले किसानों के निचले व बिचले हिस्सों को निर्णायक तौर पर क्रान्ति के पक्ष में खड़ा करेगा” (एस. प्रताप का पहला ‘अप्रकाशित लेख’)। इसके अलावा मँझोले किसानों के लिए लागत मूल्य घटाने की माँग उठाने से पहले एस. प्रताप की एक शर्त और भी है, “जब तक खेती के मालिकाने का सवाल केन्द्र में नहीं लाया जाता ऐसी किसी भी माँग (लागत मूल्य घटाने जैसी) का सर्वाधिक फ़ायदा धनी किसानों को ही होगा, क्योंकि अधिक ज़मीनें तो उन्हीं के पास हैं (बिगुल, नवम्बर 2004)।”

आगे एस. प्रताप लिखते हैं, “समाजवादी क्रान्ति के दौर में देहातों में हमारी केन्द्रीय और दीर्घकालिक माँग है भूमि पर निजी मालिकाने को समाप्त कर सामूहिक मालिकाने की व्यवस्था स्थापित करना। इस माँग को एक पल के लिए भी नज़रों से ओझल कर छोटे-मँझोले किसानों के लिए लागत मूल्य घटाने की माँग ही नहीं, कोई भी अन्य माँग उठाना घातक होगा (एस. प्रताप का पहला ‘अप्रकाशित लेख’)।”

हम लोग इस बात को अधिक साफ़-स्पष्ट रूप में कहते हैं कि भूमि पर सामूहिक मालिकाने की व्यवस्था स्थापित करने के बाद (यानी समाजवादी क्रान्ति के बाद) ही मँझोले किसानों को अपनी खेती-गृहस्थी चलाने के लिए सुविधाएँ प्रदान की जा सकती हैं। अगर एस. प्रताप ख़ाली यही कहना चाहते तो हम लोगों के बीच कोई मतभेद नहीं रह जायेगा।

एस. प्रताप मँझोले किसानों के लिए लागत मूल्य घटाने की माँग उठाये जाने से पहले बहुत-सी पूर्व-शर्तों को पूरा कर लेना चाहते हैं। जैसे कि सबसे पहले औद्योगिक सर्वहारा को संगठित करना उसके बाद ग्रामीण सर्वहारा को संगठित करना और उनका सशक्त क्रान्तिकारी आन्दोलन विकसित करना, खेती के मालिकाने के सवाल को केन्द्र में लाना। मगर इतनी सारी पूर्व-शर्तों को पूरा करने के बाद लागत मूल्य को घटाने जैसी किसी भी माँग को उठाने का कोई औचित्य नहीं रह जायेगा। क्योंकि उक्त शर्तों के पूरा होने तक तो राज्यसत्ता का सवाल केन्द्र में आ चुका होगा और ऐसे समय में लागत मूल्य घटाने जैसी आर्थिक माँग तो कोई मूर्ख ही उठा सकता है। तब कम्युनिस्ट तमाम मेहनतकशों (मँझोले किसानों सहित) के सामने वैकल्पिक सत्ता का मॉडल रखेंगे, जिसमें सर्वहारा सत्ता द्वारा मँझोले किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी का ज़िक्र भी होगा।

मँझोले किसानों की परिभाषा के सवाल पर एस. प्रताप का

चलायमान युद्ध या इलाही ये माज़रा क्या है!

आइये अब साथी एस. प्रताप द्वारा मँझोले किसानों की परिभाषा के सवाल पर चलाये गये चलायमान युद्ध का दीदार करें। ‘बिगुल’ के नवम्बर, 2004 अंक में उन्होंने लिखा था, “मध्यम किसान उसे ही कहा जा सकता है, जो मूलतः और मुख्यतः अपना श्रम लगाकर खेती करता है, अपवादस्वरूप ही और आपात परिस्थितियों में ही वह मज़दूर लगाने को मजबूर होता है।” यहाँ वह मध्यम किसानों द्वारा भाड़े के मज़दूरों से काम करवाने से इन्कार नहीं करते। मगर अपने इसी लेख में थोड़ा आगे चलकर वे मध्यम किसानों द्वारा भाड़े के मज़दूरों से काम करवाने को पूरी तरह ख़ारिज कर देते हैं, जब वह कहते हैं “जहाँ तक मँझोले किसानों का सवाल है, वे मज़दूर लगाकर खेती नहीं करते, तो वे भला मज़दूरी कम करने की माँग क्यों उठायेंगे?” मगर जब हमने ‘बिगुल’ के दिसम्बर 2004 अंक में लेनिन के हवाले सहित दर्शाया कि मँझोले किसान भी भाड़े के मज़दूरों से काम करवाते हैं तो वह तुरन्त पैंतरा बदलकर कहने लगे, “मँझोले किसानों के वर्ग-चरित्र को समझने के लिए उसे तीन हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है – उच्च-मध्यम किसान का वर्ग-चरित्र कुलकों के नज़दीक का होता है और मँझोले किसानों का यही हिस्सा कभी-कभी मज़दूर लगाता है” (बिगुल, जनवरी 2005)। इसके बाद वह मध्यम-मध्यम और निम्न-मध्यम किसानों की चर्चा करते हैं। एक अन्य जगह (पहला ‘अप्रकाशित लेख’) वह कहते हैं, “ग़ौर से देखें तो यहाँ मँझोले किसानों द्वारा मज़दूरों को काम पर लगाने की बात ख़ारिज नहीं की गयी है।” ‘बिगुल’ के जनवरी 2005 अंक में वह सिर्फ़ उच्च-मध्यम किसानों द्वारा ही मज़दूरों को काम पर लगाने की बात करते हैं। मगर यहाँ पर फि़र वे पैंतरा बदलते हैं और सभी मँझोले किसानों द्वारा मज़दूरों को काम पर लगाने की बात करते हैं।

‘बिगुल’ के मार्च 2005 अंक में छपे लेनिन के लेख पर तो एस. प्रताप यूँ टूट पड़े जैसे उन्हें कोई ख़ज़ाना मिल गया हो। यहाँ पर एस. प्रताप लेनिन द्वारा दी गयी छोटे किसानों की परिभाषा को मँझोले किसानों से गड्डमड्ड करते हुए एक बार फि़र मँझोले किसानों द्वारा भाड़े के मज़दूरों से काम करवाने की बात को ख़ारिज कर देते हैं (एस. प्रताप का दूसरा ‘अप्रकाशित लेख’)। इस तरह से चलाते हैं जनाब एस. प्रताप विचारधारात्मक चलायमान युद्ध।

‘बिगुल’ के मार्च 2005 अंक में लेनिन के लेख के रूप में मिले ‘ख़ज़ाने’ को आधार बनाकर एस. प्रताप और भी कुतर्क करने लगते हैं। उनका कहना है कि एंगेल्स जिसे छोटा किसान कहते हैं लेनिन उसे ही मँझोला किसान कहते हैं। यहाँ पर एस. प्रताप सरासर ग़लतबयानी कर रहे हैं। लेनिन उसे ही छोटा किसान कहते हैं, जिसे एंगेल्स कहते हैं और इन दोनों द्वारा मध्यम किसानों की दी गयी परिभाषा में भी कोई अन्तर नहीं है।

अपने (दूसरे ‘अप्रकाशित’) लेख में एस. प्रताप कहते हैं कि जैसे हम लोग के बीच मतभेद मँझोले किसानों पर नहीं बल्कि छोटे किसानों पर है। यह भी सरासर ग़लतबयानी है। हम लोग अब तक मध्यम किसान के सवाल पर ही बहस कर रहे हैं। ‘बिगुल’ नवम्बर 2004 अंक में छपे अपने लेख में एस. प्रताप ने ग्रामीण मेहनतकशों की तीन ही श्रेणियाँ बनायी थीं। सर्वहारा, अर्द्धसर्वहारा तथा मँझोला किसान। इसमें उन्होंने छोटे किसानों जैसे किसी भी समूह का ज़िक्र नहीं किया है। एस. प्रताप जी, अगर मँझोले किसानों से आपका तात्पर्य छोटे किसानों से ही था तो ‘बिगुल’ के जनवरी 2005 अंक में छपे अपने लेख में आपने मँझोले किसानों को तीन हिस्सों (उच्च-मध्यम, मध्यम-मध्यम, और निम्न-मध्यम) में विभाजित क्यों किया था। स्पष्ट है कि हम लोग अब तक मध्यम किसानों के सवाल पर जिन्हें एंगेल्स और लेनिन ने भी मध्यम किसान ही कहा है, बहस कर रहे थे। अब इससे मुकर सकना एस. प्रताप के लिए नामुमकिन है। दूसरी तरफ़ हम लोगों ने ‘बिगुल’ के जनवरी 2003 अंक में मँझोले किसानों की जो परिभाषा दी थी, इस पूरी बहस में उस पर अडिग रहे हैं। जनवरी 2003 में मँझोले किसानों को इस तरह परिभाषित किया गया था, “मँझोले किसानों का मामला थोड़ा अलग है, क्योंकि वह अपने खेतों में थोड़े-बहुत मज़दूर लगाकर भी काम कराता है और अतिरिक्त श्रम को हड़पकर मुनाफ़ा कमाता है।” यह परिभाषा एंगेल्स और लेनिन द्वारा मँझोले किसानों की दी गयी परिभाषा ही है।

एस. प्रताप ने कुछ बातें ज़बरदस्ती हमारे मुँह में ठूँसने की कोशिश की है कि हम कह रहे हैं कि “मँझोले किसान की खेती अब उजरत पर ही आधारित होती है” (बिगुल, जनवरी 2005) कि “मँझोले किसान की खेती अब मुख्यतः उजरती श्रम पर ही आधारित होती है” कि मँझोले किसान की खेती “बुनियादी तौर पर उजरती श्रम के शोषण पर आधारित होती है।” (पहला ‘अप्रकाशित लेख’)। पाठक इस बहस में हमारी ओर से लिखे गये लेख पढ़कर देख सकते हैं कि हम लोगों ने मँझोले किसानों को परिभाषित करने में ये बातें कहीं नहीं कही हैं। हमने जो कहा है वह यह है, “जिस हद तक वे (मँझोले किसान) ख़ुद अपनी ज़मीन पर मेहनत करते हैं, उस हद तक मेहनतकश हैं और क्योंकि वे दिहाड़ीदार मज़दूरों को भी अपने खेतों में लगाते हैं, इसलिए वे मज़दूरों की लूट में भागीदार भी हैं। अर्थव्यवस्था में इस दोहरे चरित्र के चलते वे मध्यम हैं, यानी पूरी तरह उजरती श्रम की लूट पर निर्भर धनी किसानों तथा उजरती सर्वहाराओं, अर्द्धसर्वहाराओं के बीच डोलते रहने वाला वर्ग” (बिगुल, दिसम्बर 2004)। मँझोले किसानों के चरित्र की एक और विशेषता हमने यह दिखायी थी, “भले ही मँझोले किसान उजरती श्रम का शोषण करते हैं, पर वे इतना अधिक मुनाफ़ा नहीं कमा पाते कि वे इसे खेती में पुनःनिवेश कर, और ज़मीन ख़रीदकर, धनी किसानों की जमात में शामिल हो सकें। ऐसा इनमें से बहुत कम ही कर पाते हैं। इनमें से ज़्यादातर की नियति यही होती है कि इन्हें देर-सबेर उजरती सर्वहाराओं-अर्द्धसर्वहाराओं की क़तारों में शामिल होना होता है।” (उपरोक्त)

मगर जब मँझोले किसानों की खेती “बुनियादी तौर पर उजरती श्रम के शोषण पर आधारित हो जायेगी, तब उनके चरित्र का मेहनतकश वाला पहलू समाप्त हो जायेगा और वह कुलकों में शामिल हो जायेंगे। मगर जब तक उनका मेहनतकश वाला पहलू बरक़रार है और यह उनके चरित्र का मुख्य पहलू है तब तक उन्हें मँझोले किसानों के समूह में ही रखा जायेगा।” मगर एस. प्रताप को इससे तसल्ली नहीं होगी। उनका कहना है कि हम लोग “जिसे मँझोला किसान कह रहे हैं, वह सर्वहारा का संश्रयकारी मँझोला किसान नहीं, छोटा-मोटा कुलक है, धनी किसान है।” (बिगुल, जनवरी 2005) मगर हम तो उसे ही मँझोला किसान कह रहे हैं, जिसे एंगेल्स तथा लेनिन ने कहा है। एक तरफ़ तो एस. प्रताप मँझोले किसानों को परिभाषित करने के लिए एंगेल्स और लेनिन के उद्धरण देते हैं और दूसरी तरफ़ उन्हीं की दी गयी परिभाषा को मानने से इन्कार कर देते हैं।

समाजवादी क्रान्ति के दौर में सर्वहारा वर्ग की पार्टी मँझोले किसानों को तटस्थ बनाने की नीति अपनाती है। यही सर्वमान्य लेनिनवादी नीति है। मगर एस. प्रताप इससे सहमत नहीं हैं। उन्होंने लिखा है, “सम्पादक-मण्डल यह आम प्रस्थापना देने की कोशिश कर रहा है कि समाजवादी क्रान्ति के दौर में मँझोले किसानों को सिर्फ़ तटस्थ करने की रणनीति अख़्तियार करनी चाहिए। कम से कम उसे अपनी इस बात को स्टालिन और लेनिन के मत्थे नहीं मढ़ना चाहिए (उनका पहला ‘अप्रकाशित लेख’, पृ.13)।”

एस. प्रताप जी, आप तो बिना वजह ही आग-बबूला हो रहे हैं, और एक अन्धे निशानची की तरह बेतहाशा तीर छोड़ रहे हैं, जिनमें से कोई भी सही निशाने पर नहीं लगता। एस. प्रताप जी, हम अपनी बातों को लेनिन और स्टालिन के मत्थे नहीं मढ़ रहे, बल्कि उन्हीं के दिखाये रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहे हैं। लेनिन लिखते हैं, “क्रान्तिकारी सर्वहारा इस तबक़े को (यानी मँझोले किसानों को) अपनी ओर करने का कार्यभार अपने लिए नहीं तय कर सकता – कम से कम आसन्न भविष्य में या सर्वहारा अधिनायकत्व के शुरुआती दौर में – बल्कि इसे तटस्थ करने, यानी सर्वहारा और बुर्जुआ वर्ग के बीच के संघर्ष में इसे तटस्थ बनाने के कार्यभार तक स्वयं को सीमित रखना चाहिए (बिगुल, मार्च 2005)।” इस सवाल पर स्टालिन के विचार जानने के लिए हम साथी एस. प्रताप को स्टालिन का लेख ‘द थ्री फ़ण्डामेण्टल स्लोगन्स ऑन द पीजे़ण्ट प्रॉब्लम’ (प्रॉब्लम्स ऑफ़ लेनिनिज़्म, पृ.213) पढ़ने की सलाह देंगे ताकि वह जान सकें कि हम अपनी बातें उनके (लेनिन और स्टालिन के) मत्थे नहीं मढ़ रहे। मगर मँझोले किसानों को तटस्थ करने के सवाल पर भी एस. प्रताप ‘चलायमान युद्ध’ चलाने की कोशिश करते हैं और घुमाकर कान पकड़ते हैं। उनका कहना है कि “यदि हम उन्हें (मँझोले किसानों को) अपने साथ खड़ा नहीं कर सकते हैं तो कम से कम उन्हें तटस्थ करने की कोशिश करनी चाहिए” (पहला अप्रकाशित लेख, पृ.13)।

एस. प्रताप को एक और भी ऐतराज़ है, “यदि उसे (मँझोले किसान को) तटस्थ करने की ही रणनीति अख़्तियार करनी चाहिए तो सम्पादक-मण्डल ने उसे संगठित करने के लिए माँगों की इतनी लम्बी-चौड़ी सूची क्यों प्रस्तुत की थी (उपरोक्त)?” उस ऐतराज़ के जवाब में इतना ही कहना काफ़ी होगा कि श्रीमान, हमारे पास ऐसा कोई रिमोट कण्ट्रोल नहीं है जिसका बटन दबानेभर से मँझोले किसान सर्वहारा क्रान्ति में तटस्थ हो जायेंगे। उसे तटस्थ करने के लिए भी सर्वहारा वर्ग को उसमें अपने कार्यक्रम का प्रचार करना होगा, सर्वहारा अर्द्धसर्वहारा आबादी के साथ उसकी साझा माँगों पर उसे बुर्जुआ सत्ता के ख़िलाफ़ आन्दोलन में उतारने की कोशिशें भी करनी होंगी, उसे यह बताना होगा कि सिर्फ़ सर्वहारा सत्ता ही उसे ग़रीबी और लाचारी से मुक्त करा सकती है। उसके बीच वैकल्पिक सत्ता के मॉडल के व्यापक प्रचार से ही उसे तटस्थ किया जा सकता है।

(अप्रकाशित; जून, 2005)


 

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