झूठी देशभक्ति और राष्ट्रवाद की चाशनी में डूबा संघी आतंक और फ़ासीवाद!

सिमरन

इस देश के मज़दूरों, किसानों और आम जनता के लिए आज दो जून की रोटी तक का इंतज़ाम कर पाना मुश्किल है ऐसे में मोदी के अच्छे दिनों के फुलाये गुब्बारे की हवा निकलते देख कर अब संघ के इशारों पर चलने वाली सरकार ने अपने हिंदुत्व के एजेंडा को और आगे बढ़ाते हुए झूठे राष्ट्रवाद और देशभक्ति की नौटंकी पहले से भी तेज़ कर दी है। दादरी हत्याकांड हो या हरियाणा में दलित बच्चों की हत्या, हैदराबाद विश्वविद्यालय के एक दलित छात्र की सांस्थानिक हत्या, छात्रों पर बर्बर दमन, सोनी सोरी पर हमला इन सब मुद्दों पर चुप्पी साधे बैठी मोदी सरकार और भाजपा-संघ के लोग जनता का ध्यान मूल मुद्दों से भटकाने के लिए अब हर उस व्यक्ति को देशद्रोही और राष्ट्रविरोधी घोषित कर रहे हैं जो इनकी नीतियों  और राजनीति पर सवाल उठाता है। जहाँ भी मज़दूर अपने हक़-अधिकारों के लिए आवाज़ उठा रहे है उनपर बर्बर पुलिसिया दमन कर यह सरकार उन्हें भी राष्ट्रविरोधी घोषित कर रही है, चाहे वे होंडा के मज़दूर हों जो यूनियन बनाने के अपने संवैधानिक अधिकार के लिए संघर्षरत हों या फिर टेक्सटाइल उद्योग में काम कर रही महिला मज़दूर हों। आज जो भी व्यक्ति तार्किकता की बात करता है, न्याय की बात करता है और सरकार की किसी भी नीति पर सवाल उठाता है उसे तुरंत देशद्रोही घोषित कर दिया जाता है।

आज जब महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी आसमान छू रही है तो राष्ट्र के निर्माण के लिए गरीब मेहनतकाश जनता से कुर्बानी करने का आह्वान किया जा रहा है, और दूसरी ओर देश के पूँजीपतियों का हज़ारों करोड़ों रुपयों का टैक्स और बैंक का कर्ज़ माफ़ किया जा रहा है। हाल ही में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष को यह कह कर देशद्रोही घोषित कर दिया गया कि उसने भारत के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी की। उसके ऊपर ‘राजद्रोह’ के कानून के तहत एफ.आई.आर दर्ज की गयी और उसे हिरासत में लिया गया। बिना किसी ठोस सबूत के एक छात्र को जेल में डाल दिया जाता है और फिर मीडिया के तंत्र के ज़रिये उसे एक देशद्रोही घोषित कर दिया जाता है। संघी गुंडे सरे आम छात्रों, अध्यापकों, पत्रकारों को पीटते हैं, यहाँ तक कि इस देश के न्यायलय के भीतर घुसकर मारपीट करते हैं। मगर उनके ख़िलाफ़ पुख्ता सबूत होने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की जाती। राजद्रोह के कानून को देशद्रोह में तब्दील कर दिया जाता है, यह वही कानून है जो अंग्रेजी हुकूमत के समय भगत सिंह और उनके साथियों पर लगाकर उन्हें आतंकी घोषित किया गया था।

बहरहाल यहाँ मुख्य मुद्दा यह है कि किस तरह शातिराना तरीके से सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने को आज देशद्रोह में तब्दील कर दिया गया है। भारत एक लोकतान्त्रिक देश है जो सबको अपनी बात कहने और अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है, यह हमारे संवैधानिक अधिकारों में शामिल है तो फिर आज किस तरह इस अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलकर हमे ‘मोदी की जय’ बोलने वालें भक्तों या फिर देशद्रोहियों में तब्दील किया जा रहा है।

खुद को सच्चे देशभक्त बताने वाली भाजपा और आर.एस.एस. के इतिहास पर नज़र दौड़ाते ही यह मालूम हो जाता है कि आज भारत माता की जय के नारे लगाने वालों इन भारत माँ के ”शेरों” का भूतकाल इन्हें भूत की तरह क्यों सताता है और क्यों ये अब इतिहास की किताबों से इन्हें शर्मसार करने वाली घटनाओं को मिटाने की  कवायद कर रहे हैं। भाजपा की वैचारिक और राजनीतिक जननी आर.एस.एस. का इतिहास अंग्रेज़ी हुकूमत के तलवे चाटने, क्रांतिकारियों की मुखबिरी करने और अंग्रेज़ों के प्रति अपनी प्रतिबद्धत्ता का प्रमाण देते हुए माफ़ीनामे लिखने का रहा है, चाहे इनके ‘वीर सावरकर’ हों या फिर वाजपेयी। इनके द्वारा लिखे गये माफ़ीनामे जगजाहिर हैं। जहाँ तक बात इनके “राष्ट्रवादी” होने की है, तो भारतीय स्वतन्त्र संग्राम के इतिहास पर नज़र डालते ही समझ में आ जाता है कि यह एक बुरे राजनीतिक चुटकुले से ज़्यादा और कुछ भी नहीं है। संघ के किसी भी नेता ने कभी भी ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ अपना मुँह नहीं खोला। जब भी संघी किसी कारण पकड़े गये तो उन्होंने बिना किसी हिचक के माफ़ीनामे लिख कर, अंग्रेजी हुकूमत के प्रति अपनी वफ़ादारी साबित की। स्वयं पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी यही काम किया था। संघ ने किसी भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन में हिस्सा नहीं लिया। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौरान संघ ने उसका बहिष्कार किया। संघ ने हमेशा ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी वफ़ादारी बनाये रखी और देश में साम्प्रदायिकता फैलाने का अपना काम बखूबी किया। वास्तव में साम्प्रदायिकता फैलाने की पूरी साज़िश तो ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के ही दिमाग़ की पैदावार थी और ‘बाँटो और राज करो’ की उनकी नीति का हिस्सा थी। लिहाज़ा, संघ के इस काम से उपनिवेशवादियों को भी कभी कोई समस्या नहीं थी। ब्रिटिश उपनिवेशवादी राज्य ने भी इसी वफ़ादारी का बदला चुकाया और हिन्दू साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों को कभी अपना निशाना नहीं बनाया। आर.एस.एस. ने हिन्दुत्व के अपने प्रचार से सिर्फ़ और सिर्फ़ साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ हो रहे देशव्यापी आन्दोलन से उपजी कौमी एकजुटता को तोड़ने का प्रयास किया। जब 1942 में सारे देश की जनता अंग्रेज़ों भारत छोड़ो के नारे के साथ सड़कों पर थी तो हिन्दू महासभा कई राज्यों में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार चला रही थी।

ग़ौरतलब है कि अपने साम्प्रदायिक प्रचार के निशाने पर आर.एस.एस. ने हमेशा मुसलमानों, कम्युनिस्टों और ट्रेड यूनियन नेताओं को रखा और ब्रिटिश शासन की सेवा में तत्पर रहे। संघ कभी भी ब्रिटिश शासन-विरोधी नहीं था, यह बात गोलवलकर के 8 जून, 1942 में आर.एस.एस. के नागपुर हेडक्वार्टर पर दिए गये भाषण से साफ़ हो जाती है – “संघ किसी भी व्यक्ति को समाज के वर्तमान संकट के लिये ज़िम्मेदार नहीं ठहराना चाहता। जब लोग दूसरों पर दोष मढ़ते हैं तो असल में यह उनके अन्दर की कमज़ोरी होती है। शक्तिहीन पर होने वाले अन्याय के लिये शक्तिशाली को ज़िम्मेदार ठहराना व्यर्थ है।…जब हम यह जानते हैं कि छोटी मछलियाँ बड़ी मछलियों का भोजन बनती हैं तो बड़ी मछली को ज़िम्मेदार ठहराना सरासर बेवकूफ़ी है। प्रकृति का नियम चाहे अच्छा हो या बुरा सभी के लिये सदा सत्य होता है। केवल इस नियम को अन्यायपूर्ण कह देने से यह बदल नहीं जायेगा।”

आज जिस वीर सावरकर को हिन्दू महासभा भारत रत्न दिलवाना चाहती है उसी सावरकर ने ब्रिटिश राज से कालापानी की सज़ा दिये जाने के 2 महीने के बाद से ही सज़ा माफ़ी के लिए दया याचना लिखना शुरू कर दिया था। अपनी कई भेजी गयी दया याचनाओं में से एक में सावरकर ने साफ़-साफ़ शब्दों में अंग्रेज़ों के प्रति अपनी वफ़ादारी दिखाते हुए लिखा था ”मैं सरकार की जिस रूप में वह चाहे सेवा करने के लिए तैयार हूँ”। इतना ही नहीं आगे उन्होंने यह भी लिखा कि क्षमा करना ताकत और करुणा की निशानी है और ऐसे में भारत का यह बेटा सरकार के दरवाज़े के अलावा और कहाँ गुहार लगाये।

भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने पिछले साल अपनी आधिकारिक वेबसाइट शुरू करने के पश्चात अपना पहला लेख सावरकर को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा। भाजपा के नकली देशभक्तों की फेहरिस्त तो बेहद लम्बी है मगर उनमे से एक जो सबसे कुख्यात है वो है नाथूराम गोडसे। नाथूराम गोडसे जिसने महात्मा गांधी की हत्या की, आर.एस.एस. और हिन्दू महासभा के लिए वह ‘भारत का असली शूरवीर है’ और 15 नवंबर जिस दिन नाथूराम  गोडसे को फांसी दी गयी थी उस दिन को संघी बलिदान दिवस के रूप में मनाते हैं। पिछले साल 15 नवंबर को बाकायदा नाथूराम गोडसे को समर्पित एक वेबसाइट का उद्घाटन किया गया जिसके पहले पन्ने पर भगवा रंग से लिखा है ‘भारत का भुला दिया गया असली नायक’। भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों की मुखबिरी करने में भी संघ ने कोई कमी नहीं छोड़ी। जिस गणतंत्र दिवस पर प्रधानमंत्री लाल किले से भाषण देते हैं उसी गणतंत्र दिवस को संघ से जुड़े लोग काले दिवस के रूप में मनाते हैं। संघ और उसके कुकृत्यों की फे़हरिस्त इतनी लम्बी है कि उसके बारे में कई ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। मगर इन सभी प्रतिनिधिक उदाहरणों से यह समझा जा सकता है कि देश भक्ति से इनका दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है। मोदी के ‘अच्छे दिनों’ की तरह देशभक्ति भी इनकी नौटंकी का ही हिस्सा है। पूँजीवादी व्यवस्था के संकट ने फ़ासीवाद के लिए जो ज़मीन तैयार की उसी के चलते आज भारत में भाजपा के रूप में फ़ासीवाद का उभार हुआ है। और जिस तरह फ़ासीवाद हर हमेशा नस्ल, रंग, जाति, धर्म के नाम पर लोगों को बाँटता है ठीक उसी प्रकार आज भारत में धर्म के नाम पर लोगों को बाँटा जा रहा है, ताकि आम जनता का और बर्बर रूप से शोषण किया जा सके। जब लोग आपस में धर्म के नाम पर, राष्ट्र के नाम पर एक दूसरे को देशद्रोही कह कर काट रहे होंगे तो ये फ़ासीवादी अपने आकाओं अम्बानी, अडाणी की तिजोरियाँ भरने के लिए मज़दूरों का और नंगे रूप से दमन कर सकेंगे। इतिहास में हिटलर, मुसोलिनी की फ़ासीवादी सरकारों ने भी ठीक इसी तरह लोगों को बाँटकर लाखों लोगों को फ़ासीवाद के गिलोटिन पर मौत के घाट उतारा था। चाहे ये संघी अपने काले इतिहास पर पर्दा डाल रहे हों मगर हमें, आम मेहनतकश जनता को यह समझना होगा कि इनकी इस संकीर्ण राजनीति के पीछे इनके असली मन्सूबे कितने मानवद्रोही हैं। और इन फ़ासीवादी ताकतों का सामना करने के लिए हमें एकजुट होने की तैयारी करनी होगी।

मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2016


 

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