नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तीस वर्ष
देश में एक ओर बढ़ता धार्मिक उन्माद, नफ़रत और ख़ौफ़ का माहौल और दूसरी ओर आसमान छूती महँगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी और बदहाली, ऐसा लगता है जैसे पूरे देश को क्षय रोग ने अपने शिकंजे में कस लिया है। सारी ऊर्जा, ताज़गी और रचनात्मकता पोर-पोर से निचोड़कर इसे पस्त और बेहाल कर दिया है। यह सच है कि भयंकर आर्थिक संकट के काल में जनता के आक्रोश को साम्प्रदायिकता की दिशा में मोड़ने और पूँजीपतियों का हित साधने के लिए फ़ासीवाद का उभार होता है लेकिन ऐसा नहीं है कि फ़ासीवादियों के सत्ता में आने से पहले सब कुछ भला-चंगा था।