Category Archives: पाठकों के पत्र

जनता के मुद्दों से मुँह मोड़ चुके पूँजीवादी मीडिया के दौर में ‘मज़दूर बिगुल’ उम्मीद जगाता है

हम मनुष्यों के हर दिन की शुरुआत बीते कल की घटनाओं को जानने की उत्सुकता के साथ शुरू होती है। लेकिन जैसे ही दरवाज़े पर पड़े आजकल के अख़बारों का मुखपृष्ठ देखता हूँ तो मेहनतकश जनता की रोज़मर्रा की समस्याओं या समाज के लिए उपयोगी ख़बरों की जगह हिन्दुत्व के नाम पर रंग-बिरंगे सुनहरे अक्षरों में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले शब्द लिखे होते हैं।

बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित और सरकारी उपेक्षा की शिकार राजधानी दिल्ली की झुग्गियों का नारकीय जीवन

हमारे देश में हर साल लाखों की संख्या में लोग शहरों की ओर प्रवास करते हैं। इसका मुख्य कारण रोज़गार तथा बेहतर आजीविका प्राप्त करना होता है, जिससे वे अपने जीवन स्तर को बेहतर बना सकें। परन्तु शहरी जीवन केवल सापेक्षित तौर पर ग्रामीण जीवन से बेहतर होता है। मेहनतकश आबादी का शहरों का जीवन भी बदतर ही है। मज़दूरों के सामने सवाल बेहतर नरक चुनने का होता है।

मज़दूरों-मेहनतकशों को संगठित होकर अपने हक़ के लिए लड़ना होगा

मैं दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र हूँ। मैं दिल्ली के नरेला में आने वाले अलीपुर गाँव में रहता हूँ। मैं ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठक के अनुभव के आधार पर अपने विचारों को साझा करना चाहता हूँ। मैं पिछले डेढ़ वर्षों से मज़दूर बिगुल अख़बार का पाठक रहा हूँ। मुझे लगता है यह अन्य अख़बारों की तुलना में जनता के बीच उन विचारों को ले जा रहा है जिन्हें ले जाने की मंशा और हिम्मत कॉरर्पोरेट मीडिया में नहीं है।

कोरोना के बहाने मज़दूरों को ठगने और लूटने में जुटी हैं कम्पनियाँ

मेरे एक परिचित लगभग 20 सालों से एक मैन्युफ़ैक्चरिंग कम्पनी में काम कर रहे थे। उनकी तनख़्वाह 15,000 के क़रीब थी। ओवरटाइम और छुट्टियों में काम करने पर दुगने पैसे मिलते थे तो 12 घण्टे काम करके महीने भर के 30,000 रुपये बन जाते थे। जीवन ठीक-ठाक चल रहा था। मोदी जी के अन्धभक्त थे तो कभी-कभी हम जैसे लोगों को बड़ी आसानी से गालियाँ सुना दिया करते थे।

सभी साथी एकजुट होकर संघर्ष करें, संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता!

साथियो, मैं हरियाणा में एक ऑटो कम्‍पनी का मज़दूर हूँ। इस कम्पनी में लगभग 700 मज़दूर साथी कार्य करते हैं। हमारे सारे मज़दूर साथियों के साथ इस कम्पनी की मैनेजमेंट ने जो जुल्म किये उसके बारे में मैं आज सारे मज़दूर भाइयों से कुछ बात बोलना चाहता हूँ।

अपनी जिन्दगी बदलने के लिए खुद जागना होगा और दूसरों को जगाना होगा

मैं उत्तर प्रदेश प्रदेश के बस्ती जिले का रहने वाला हूं। दिल्ली में रहकर कई साल से मज़दूरी कर रहा हूं। मालिकों के शोषण और बुरे बरताव से तंग हूं। कहीं भाग जाने के बारे में सोचता रहता था। फिर एक दिन मुझे मज़दूर बिगुल अखबार मिला। इसने मुझे नया रास्ता दिखाया।

पाठकों के पत्र / अंशी शाही, लुधियाना

मैँ बारहवीं कक्षा की विद्यार्थी हूँ। मैं हर माह में आने वाला बिगुल अखबार पढ़ती हूँ। मुझे अच्छा लगता है कि इसमें आज के वक्त में मज़दूरों के साथ हो रहे शोषण के विरुद्ध चेतना जागृत करने के लिए एक क्रान्तिकारी आन्दोलन चलाया जा रहा है। इसमें मार्क्सवाद के सिद्धान्त को सही रूप में बताया गया है। मैंने इसमें चीन द्वारा प्रदूषण की समस्या का मुकाबले करने के बारे में भी पढ़ा जो मुझे अच्छा लगा। सरकार द्वारा बैंकिंग व वित्तीय सेक्टर के घपले-घोटालों के बारे में भी अच्छा लिखा गया है। मैं सभी को कहना चाहूँगी कि जो अच्छे से पढ़ना जानते हैं या थोड़ा कम भी पढ़ना जानते हैं उन्हें यह अखबार जरूर पढ़ना चाहिए।

आपस की बात : ब्रिटेन के प्रवासी मज़दूरों के बुरे हालात

बिल्डिंग लाइन में काम करने वाले मज़दूरों की काम करने की मियाद कुछ 5-7 साल ही होती है। कड़कती ठण्ड में लगातार काम करते रहने से उनकी हड्डि‍याँ भी टेढ़ी हो जाती हैं। लगभग सभी को ही पीठ दर्द की शिकायत रहती है, लेकिन काम से निकाले जाने के डर से वो अपनी तकलीफ़ों का जि़क्र किसी से नहीं करते। प्रवासी मज़दूरों की मजबूरियों का फ़ायदा उठाने वाले ठेकेदार और दलाल भी प्रवासी ही होते हैं जो ख़ुद इस प्रक्रिया से गुज़रकर बाद में मालिक बनकर उनके सर पर सवार हो जाते हैं और उन्हें लूटने का कोई मौक़ा हाथ से जाने नहीं देते। मज़दूरों का ख़ून चूस कर अपने घर भरने वालों में पंजाबी सबसे आगे हैं। वह भारतीय प्रवासियों के अलावा रोमेनीयन, स्लोवाकि‍यन और अन्य ग़रीब यूरोपीय मुल्क़ों के मज़दूरों से जानवरों की तरह काम लेते हैं और सारा दिन काम के बदले में उन्हें शराब और सिगरेट देकर मामला निपटा देते हैं। फिर बड़ी बेशरमी से कहते हैं कि इन्हें पैसे जोड़ने का कोई लालच नहीं होता, बस शराब सिगरेट से ही ख़ुश हो जाते हैं।

आपस की बात : हमें एकजुटता बनानी होगी

मैं पिछले वर्ष से जब से हमारी हड़ताल हुई थी तब से मज़दूर बिगुल अख़बार पढ़ रही हूँ। इसी अख़बार ने हमारी हड़ताल की रिपोर्टों को भी काफ़ी जगह दी थी। इसके लिए मैं अपनी आँगनवाड़ी की सभी बहनों और साथियों की तरफ़ से आपका धन्यवाद करती हूँ। हम सभी यह जानते हैं कि मज़दूर वर्ग बहुत सारी मुश्किलों का सामना करता है। दिन पर दिन हमारी दिक़्क़तें बढ़ती ही जाती हैं। आँगनवाड़ी में काम करते हुए हमें भी बहुत तरह की परेशानियों को झेलना पड़ता है। जैसे खाने की आपूर्ति करने वाली कम्पनियों की वजह से खाने में कीड़े तो छोड़िए छिपकली तक निकल जाती है लेकिन जब इस तरह के खाने की वजह से बच्चों की तबीयत खराब होती है तो उसका दण्ड हमें भुगतना पड़ता है।

भारत में बढ़ती नशाखोरी का आलम

भारत एक युवाओं का देश है। कहा जा रहा है कि युवाओं के दम पर 2020 में दुनिया की “आर्थिक महाशक्ति” बना जा सकता है। लेकिन जिस युवा पीढ़ी के बल को देखकर अन्दाज़ा लगाया जा रहा है। वह ठीक नहीं है। क्योंकि वह युवा आज बेरोज़गारी के चलते आत्महत्या करने को विवश है, वह युवा आज डिग्रि‍याँ लेकर सड़कों पर भटकने के लिए मजबूर है, वह युवा आज दिन-पर-दिन नशे की गिरफ़्त में आ रहा है। युवा तो युवा आज बच्चे भी नशे के शिकार हो रहे हैं। बीड़ी से लेकर शराब तक, छोटा हो या बड़ा नशा हो – देश को अन्दर से खोखला कर रहा है।