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भगतसिंह जनअधिकार यात्रा : फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ बुनियादी सवालों पर मेहनतकश जन समुदाय को जगाने और संगठित करने की मुहिम

आज देश की मेहनतकश जनता को इन माँगों पर अपने जुझारू जनान्दोलन खड़े करने होंगे, मौजूदा जनविरोधी सरकार को सबक सिखाना होगा और अपने जुझारू आन्दोलन के बूते यह सुनिश्चित करना होगा कि 2024 में आने वाली कोई भी सरकार हमारी इन माँगों को नज़रन्दाज़ न कर सके। शहीदे-आज़म भगतसिंह ने कहा था कि जो सरकार जनता को उसके बुनियादी अधिकारों से वंचित रखे, उसे उखाड़ फेंकना उसका अधिकार ही नहीं उसका कर्तव्य है। आज शहीदे-आज़म के इस सन्देश पर अमल करने का वक़्त है। आइये, हमारी इस मुहिम में, हमारे इस आन्दोलन में शामिल हों और एक बेहतर भविष्य के लिए संघर्ष का हिस्सा बनें।

फ़ासीवाद को परास्त करने के लिए सर्वहारा रणनीति पर कुछ ज़रूरी बातें

चूँकि आर्थिक संकट जारी है, लिहाज़ा भारत में समूचे पूँजीपति वर्ग के बहुलांश का मोदी-शाह की सत्ता, भाजपा और संघ परिवार के साम्प्रदायिक फ़ासीवाद को खुला समर्थन जारी है। क्योंकि उन्हें एक “मज़बूत नेता” की ज़रूरत है, जो मज़बूती से पूँजीपतियों यानी मालिकों, ठेकेदारों, बिचौलियों, दलालों, धनी कुलकों व पूँजीवादी फार्मरों, समृद्ध दुकानदारों, बिल्डरों आदि के हितों की रखवाली करने के लिए आम मेहनतकश जनता पर लाठियाँ, गोलियाँ चलवा सके, उन्हें जेलों में डाल सके और इस सारे कुकर्म को “राष्ट्रवाद”, “धर्म”, “कर्तव्य”, “सदाचार” और “संस्कार” की लफ़्फ़ाज़ियों और बकवास से ढँक सके। बाकी, भाजपाइयों व संघियों के “चाल, चेहरा, चरित्र” से तो समझदार लोग वाक़िफ़ हैं ही और जो नहीं हैं वह पिछले 9 सालों में लगातार राफ़ेल घोटाले, पीएम केयर फ़ण्ड घोटाले, भाजपाइयों द्वारा किये गये बलात्कारों, अडानी-हिण्डनबर्ग मसले और व्यापम घोटाले जैसी घटनाओं में देखते ही रहे हैं। “राष्ट्रवादी शुचिता, संस्कार और कर्तव्य” की भाजपाइयों और संघियों ने विशेषकर पिछले 9 सालों में तो मिसाल ही क़ायम कर दी है!

नये साल में मज़दूर वर्ग के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

इस सदी का एक और साल बीत गया। बिना तैयारी के लगाये गये लॉकडाउन, लचर स्वास्थ्य व्यवस्था तथा सरकार के ग़रीब-विरोधी रुख़ के चलते कोविड की दूसरी लहर में आम मेहनतकश जनता ने अकल्पनीय दुख-तकलीफ़ें झेलीं। लॉकडाउन के बाद सामान्य दौर में भी मज़दूरों के जीवन में कोई बेहतरी नहीं हुई है। असल में आर्थिक संकट से जूझती अर्थव्यवस्था में मज़दूरों को कोविड के बाद कम वेतन पर तथा अधिक वर्कलोड पर काम करने पर पूँजीपति वर्ग ने मजबूर किया है। लॉकडाउन व कोविड महामारी की आपदा को देश के धन्नासेठों ने अपने सरगना नरेन्द्र मोदी के निर्देश पर अच्छी तरह से “अवसर” में तब्दील किया है!

दिल्ली एमसीडी चुनाव में मेहनतकश जनता के समक्ष विकल्प क्या है?

4 दिसम्बर को दिल्ली में एमसीडी के चुनाव होने वाले हैं। मतलब यह कि फिर से सभी चुनावबाज़ पार्टियों द्वारा झूठे वादों के पुल बाँधे जायेंगे। चाहे भाजपा हो, कांग्रेस हो या आम आदमी पार्टी, सभी के द्वारा जुमले फेंके जायेंगे। ऐसे में मेहनतकश जनता के पास सिर्फ़ कम बुरा प्रतिनिधि चुनने का ही विकल्प होता है और आज के समय में तो कम बुरा तय करना भी मुश्किल होता जा रहा है। सच्चाई तो यही है कि इन सभी में से कोई भी मज़दूर-मेहनतकश जनता का विकल्प नहीं है।

मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो? (चौथी क़िस्त) – पार्टी का राजनीतिक प्रचार और जनसमुदाय

मज़दूर वर्ग की पार्टी का राजनीतिक प्रचार किस प्रकार ट्रेड यूनियनवाद से अलग होता है इस प्रश्न पर लेनिन की अर्थवादियों से लम्बी बहस चली। पिछले लेख में हमने ज़िक्र किया था कि किस तरह हड़ताल आन्दोलन के उभार के समय स्वतःस्फूर्ततावाद के पूजक अर्थवादी लोग मज़दूरों के बीच कम्युनिस्टों के प्रचार को केवल आर्थिक माँगों के लिए संघर्ष तक सीमित रखते थे। परन्तु कम्युनिस्टों का ख़ुद को मज़दूरों की आर्थिक माँगें उठाने तक सीमित करना ही अर्थवाद नहीं कहलाता है बल्कि मज़दूर वर्ग के अलावा जनसमुदाय की माँगों को अनदेखा करना भी अर्थवाद कहलाता है। ऐसा क्यों है? इसे समझने के लिए हमें कम्युनिस्ट राजनीति के सार को समझना होगा।

मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो? (तीसरी क़िस्त) – मज़दूरों का आर्थिक संघर्ष और राजनीतिक प्रचार का सवाल

देश के क्रान्तिकारियों के समक्ष मज़दूर आन्दोलन में मौजूद अर्थवादी भटकाव एक बड़ी चुनौती है। केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की संशोधनवादी ग़द्दारी के साथ ही कई तथाकथित “क्रान्तिकारी” भी अर्थवाद की बयार में बह चुके हैं। मज़दूरवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद तो दूसरी तरफ़ वामपन्थी दुस्साहसवाद की ग़ैर-क्रान्तिकारी धाराएँ मज़दूरों के बीच क्रान्तिकारी राजनीति को स्थापित नहीं होने देती हैं।

मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो? (दूसरी क़िस्त) – मज़दूर वर्ग की पार्टी का प्रचार क्रान्तिकारी प्रचार होता है

मज़दूर वर्ग की पार्टी का प्रचार क्रान्तिकारी होता है। यह प्रचार मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता से ही निर्धारित होता है। यानी क्रान्तिकारी प्रचार के लिए सही विचार, सही नारे, और सही नीतियाँ आम मेहनतकश जनता के सही विचारों को संकलित कर, उसमें से सही विचारों को छाँटकर, सही विचारों के तत्वों को छाँटकर और उनका सामान्यीकरण करके ही सूत्रबद्ध किये जा सकते हैं। लेनिन बताते हैं कि “मज़दूरों के आम हितों और आकांक्षाओं के आधार पर, ख़ासकर उनके आम संघर्षों के आधार पर, कम्युनिस्ट प्रचार और आन्दोलन की कार्रवाई को इस प्रकार चलाना चाहिए कि वह मज़दूरों के अन्दर जड़ें जमा ले।” यही बात आम मेहनतकश जनता के बीच किये जाने वाले प्रचार के लिए भी सही है।

मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो? (पहली क़िस्त) – मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो?

हर वर्ग का राजनीतिक प्रतिनिधित्व उसकी राजनीतिक पार्टी या पार्टियाँ करती हैं। भारत में तमाम पार्टियाँ मौजूद हैं जो अलग-अलग वर्ग का समर्थन करती हैं या शासक वर्ग के किसी हिस्से के हितों की हिफ़ाज़त करती हैं। भाजपा और कांग्रेस मूलत: और मुख्यत: बड़े पूँजीपतियों के वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये दोनों पार्टियाँ भारत की बड़ी वित्तीय-औद्योगिक पूँजी के हितों को प्रमुखता से उठाती हैं।
वहीं तृणमूल कांग्रेस, राजद, जदयू, अन्नाद्रमुक और द्रमुक से लेकर तमाम पार्टियाँ मँझोले व क्षेत्रीय बुर्जुआ वर्ग और/या धनी किसानों-कुलकों की प्रतिनिधि हैं, जो कि बड़े पूँजीपति वर्ग से देशभर में विनियोजित हो रहे बेशी मूल्य में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की जद्दोजहद करते रहते हैं।

भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की सफलता-असफलता को लेकर कुछ ज़रूरी बातें

फ़ेसबुक आदि पर होने वाली चर्चाओं में और समाज में आम तौर पर अक्सर भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की विफलता को लेकर तरह-तरह की बातें की जाती हैं। कुछ लोग इस तरह की बातें करते हैं कि देश में वामपन्थी आन्दोलन के सौ साल हो गये पर अब भी पूँजीवाद का ही हर ओर बोलबाला है। ‘क्रान्तिकारी’ लोग पता नहीं कब जनता के रक्षक की भूमिका में उतरेंगे। अब तो फ़ासीवाद भी आ गया लेकिन कम्युनिस्ट कोई देशव्यापी आन्दोलन नहीं खड़ा कर पा रहे हैं।

देश के सभी ‘अर्बन नक्सलों’ से एक ‘अर्बन नक्सल’ की कुछ बातें

अब इस बात में संशय का कोई कारण नहीं है कि यह फ़ासिस्ट सत्ता उन सभी आवाज़ों का किसी भी क़ीमत पर गला घोंट देना चाहती है जो नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकारों के पक्ष में मुखर हैं। भीमा कोरेगाँव षड्यंत्र मुक़दमा उसी साज़िश की अबतक की सबसे ख़तरनाक कड़ी है।