Category Archives: महान शिक्षकों की क़लम से

लेनिन – हड़तालों के बारे में

हड़ताल मज़दूरों को सिखाती है कि मालिकों की शक्ति तथा मज़दूरों की शक्ति किसमें निहित होती है; वह उन्हें केवल अपने मालिक और केवल अपने साथियों के बारे में ही नहीं, वरन तमाम मालिकों, पूँजीपतियों के पूरे वर्ग, मज़दूरों के पूरे वर्ग के बारे में सोचना सिखाती है। जब किसी फ़ैक्टरी का मालिक, जिसने मज़दूरों की कई पीढ़ियों के परिश्रम के बल पर करोड़ों की धनराशि जमा की है, मज़दूरी में मामूली वृद्धि करने से इन्कार करता है, यही नहीं, उसे घटाने का प्रयत्न तक करता है और मज़दूरों द्वारा प्रतिरोध किये जाने की दशा में हज़ारों भूखे परिवारों को सड़कों पर धकेल देता है, तो मज़दूरों के सामने यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि पूँजीपति वर्ग समग्र रूप में समग्र मज़दूर वर्ग का दुश्मन है और मज़दूर केवल अपने ऊपर और अपनी संयुक्त कार्रवाई पर ही भरोसा कर सकते हैं। अक्सर होता यह है कि फ़ैक्टरी का मालिक मज़दूरों की आँखों में धूल झोंकने, अपने को उपकारी के रूप में पेश करने, मज़दूरों के आगे रोटी के चन्द छोटे-छोटे टुकड़े फेंककर या झूठे वचन देकर उनके शोषण पर पर्दा डालने के लिए कुछ भी नहीं उठा रखता। हड़ताल मज़दूरों को यह दिखाकर कि उनका “उपकारी” तो भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िया है, इस धोखाधाड़ी को एक ही वार में ख़त्म कर देती है।

स्‍तालिन – “निजी स्वतन्त्रता”

मेरे लिए यह कल्पना करना कठिन है कि एक बेरोज़गार भूखा व्यक्ति किस तरह की “निजी स्वतन्त्रता” का आनन्द उठाता है। वास्तविक स्वतन्त्रता केवल वहीं हो सकती है जहाँ एक व्यक्ति द्वारा दूसरे का शोषण और उत्पीड़न न हो; जहाँ बेरोज़गारी न हो, और जहाँ किसी व्यक्ति को अपना रोज़गार, अपना घर और रोटी छिन जाने के भय में जीना न पड़ता हो। केवल ऐसे ही समाज में निजी और किसी भी अन्य प्रकार की स्वतन्त्रता वास्तव में मौजूद हो सकती है, न कि सिर्फ़ काग़ज़ पर।

लेनिन – जनवादी जनतन्त्र: पूँजीवाद के लिए सबसे अच्छा राजनीतिक खोल

बुर्जुआ समाज की ज़रख़रीद तथा गलित संसदीय व्यवस्था की जगह कम्यून ऐसी संस्थाएं क़ायम करता है, जिनके अन्दर राय देने और बहस करने की स्वतंत्रता पतित होकर प्रवंचना नहीं बनतीं, क्योंकि संसद-सदस्यों को ख़ुद काम करना पड़ता है, अपने बनाये हुए क़ानूनों को ख़ुद ही लागू करना पड़ता है, उनके परिणामों की जीवन की कसौटी पर स्वयं परीक्षा करनी पड़ती है और अपने मतदाताओं के प्रति उन्हें प्रत्यक्ष रूप से ज़िम्मेदार होना पड़ता है। प्रतिनिधिमूलक संस्थाएं बरक़रार रहती हैं, लेकिन विशेष व्यवस्था के रूप में, क़ानून बनाने और क़ानून लागू करने के कामों के बीच विभाजन के रूप में, सदस्यों की विशेषाधिकार-पूर्ण संस्थाओं के बिना जनवाद की, सर्वहारा जनवाद की भी कल्पना हम कर सकते हैं और हमें करनी चाहिए, अगर बुर्जुआ समाज की आलोचना हमारे लिए कोरा शब्दजाल नहीं है, अगर बुर्जुआ वर्ग के प्रभुत्व को उलटने की हमारी इच्छा गम्भीर और सच्ची हैं, न कि मेंशेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों की तरह, शीडेमान, लेजियन, सेम्बा और वानउरवेल्डे जैसे लोगों की तरह मज़दूरों के वोट पकड़ने के लिए “चुनाव” का नारा भर।

लेनिन – मज़दूरों का राजनीतिक अख़बार एक क्रान्तिकारी पार्टी खड़ी करने के लिए ज़रूरी है

अखबार न केवल सामूहिक प्रचारक और सामूहिक आन्दोलनकर्ता का, बल्कि सामूहिक संगठनकर्ता का भी काम करता है। इस दृष्टि से उसकी तुलना किसी बनती हुई इमारत के चारों ओर बाँधे गये पाड़ से की जा सकती है; इससे इमारत की रूपरेखा प्रकट होती है और इमारत बनाने वालों को एक-दूसरे के पास आने-जाने में सहायता मिलती है, इससे वे काम का बँटवारा कर सकते हैं, अपने संगठित श्रम द्वारा प्राप्त आम परिणाम देख सकते हैं।

लेनिन – फ्रेडरिक एंगेल्स की स्मृति में (जन्मतिथिः 28 नवम्बर, 1820)

1848-1849 के आन्दोलन के बाद निर्वासन-काल में मार्क्स और एंगेल्स केवल वैज्ञानिक शोधकार्य में ही व्यस्त नहीं रहे। 1864 में मार्क्स ने ‘अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर संघ’ की स्थापना की और पूरे दशक भर इस संस्था का नेतृत्व किया। एंगेल्स ने भी इस संस्था के कार्य में सक्रिय भाग लिया। ‘अन्तर्राष्ट्रीय संघ’ का कार्य, जिसने मार्क्स के विचारानुसार सभी देशों के सर्वहारा को एकजुट किया, मज़दूर आन्दोलन के विकास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण था। पर 19वीं शताब्दी के आठवें दशक में उक्त संघ के बन्द होने के बाद भी मार्क्स और एंगेल्स की एकजुटता विषयक भूमिका नहीं समाप्त हुई। इसके विपरीत, कहा जा सकता है, मज़दूर आन्दोलन के वैचारिक नेताओं के रूप में उनका महत्व सतत बढ़ता रहा, क्योंकि यह आन्दोलन स्वयं भी अरोध्य रूप से प्रगति करता रहा। मार्क्स की मृत्यु के बाद अकेले एंगेल्स यूरोपीय समाजवादियों के परामर्शदाता और नेता बने रहे। उनका परामर्श और मार्गदर्शन जर्मन समाजवादी, जिनकी शक्ति सरकारी यन्त्रणाओं के बावजूद शीघ्रता से और सतत बढ़ रही थी, और स्पेन, रूमानिया, रूस आदि जैसे पिछड़े देशों के प्रतिनिधि, जो अपने पहले कदम बहुत सोच-विचार कर और सम्भल कर रखने को विवश थे, सभी समान रूप से चाहते थे। वे सब वृद्ध एंगेल्स के ज्ञान और अनुभव के समृद्ध भण्डार से लाभ उठाते थे।

माओ – दुश्मन द्वारा हमला किया जाना बुरी बात नहीं बल्कि अच्छी बात है

मैं मानता हूं कि अगर किसी व्यक्ति, राजनीतिक दल, सेना या स्कूल पर दुश्मन हमला नहीं करता तो हमारे लिए यह बुरी बात है क्योंकि इसका निश्चित रूप से यह मतलब होता कि हम दुश्मन के स्तर तक नीचे सरक आये हैं। दुश्मन द्वारा हमला किया जाना अच्छा है क्योंकि यह साबित करता है कि हमने दुश्मन और अपने बीच एक स्पष्ट विभाजक-रेखा खींच दी है। अगर दुश्मन हम पर उन्मत्त होकर हमला करता है और हमें किसी भी गुण से रहित एकदम काले रूप में चित्रित करता है तो यह और भी अच्छा है। यह दिखाता है कि हमने न केवल दुश्मन और अपने बीच एक स्पष्ट विभाजक-रेखा खींच दी है बल्कि अपने काम में काफ़ी कुछ हासिल भी कर लिया है।

लेनिन – हमारा प्रचार क्रान्तिकारी है

इसे हासिल करने के लिए कम्युनिस्टों को मज़दूरों के सभी प्रारम्भिक संघर्षों और आन्दोलनों में भाग लेना चाहिए तथा काम के घण्टों, काम की परिस्थितियों, मज़दूरी आदि को लेकर उनके और पूँजीपतियों के बीच होने वाले सभी टकरावों में मज़दूरों के हितों की हिफाजत करनी चाहिए। कम्युनिस्टों को मज़दूर वर्ग के जीवन के ठोस प्रश्नों पर भी ध्यान देना चाहिए। उन्हें इन प्रश्नों की सही समझदारी हासिल करने में मज़दूरों की सहायता करनी चाहिए। उन्हें मज़दूरों का ध्यान सर्वाधिक स्पष्ट अन्यायों की ओर आकर्षित करना चाहिए तथा अपनी माँगों को व्यावहारिक तथा सटीक रूप से सूत्रबद्ध करने में उनकी सहायता करनी चाहिए। इत तरह वे मज़दूर वर्ग के भीतर एकजुटता की स्पिरिट और देश के सभी मज़दूरों के भीतर एक एकीकृत मज़दूर वर्ग के रूप में, जो कि सर्वहारा की विश्व सेना का एक हिस्सा है, सामुदायिक हितों की चेतना जागृत कर पायेंगे।

लेनिन – समाजवाद और धर्म

धर्म बौद्धिक शोषण का एक रूप है जो हर जगह अवाम पर, जो दूसरों के लिए निरन्तर काम करने, अभाव और एकांतिकता से पहले से ही संत्रस्त रहते हैं, और भी बड़ा बोझ डाल देता है। शोषकों के विरुद्ध संघर्ष में शोषित वर्गों की निष्क्रियता मृत्यु के बाद अधिक सुखद जीवन में उनके विश्वास को अनिवार्य रूप से उसी प्रकार बल पहुँचाती है जिस प्रकार प्रकृति से संघर्ष में असभ्य जातियों की लाचारी देव, दानव, चमत्कार और ऐसी ही अन्य चीजों में विश्वास को जन्म देती है। जो लोग जीवन भर मशक्कत करते और अभावों में जीवन व्यतीत करते हैं, उन्हें धर्म इहलौकिक जीवन में विनम्र होने और धैर्य रखने की तथा परलोक सुख की आशा से सान्त्चना प्राप्त करने की शिक्षा देता है। लेकिन जो लोग दूसरों के श्रम पर जीवित रहते हैं उन्हें धर्म इहजीवन में दयालुता का व्यवहार करने की शिक्षा देता है, इस प्रकार उन्हें शोषक के रूप में अपने संपूर्ण अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करने का एक सस्ता नुस्ख़ा बता देता है और स्वर्ग में सुख का टिकट सस्ते दामों दे देता है।

लेनिन – सर्वहारा वर्ग में व्याप्त ढुलमुलयक़ीनी, फूट, व्यक्तिवादिता आदि का मुक़ाबला करने के लिए उसकी राजनीतिक पार्टी के अन्दर कठोर केन्द्रीयता और अनुशासन होना ज़रूरी है

वर्ग अभी क़ायम हैं और सत्ता पर सर्वहारा वर्ग का अधिकार होने के बाद बरसों तक सभी जगह क़ायम रहेंगे। हो सकता है कि इंगलैंड में, जहाँ किसान नहीं है (लेकिन फिर भी छोटे मालिक हैं!), यह काल और देशों से कुछ छोटा हो। वर्गों को समाप्त करने का मतलब सिर्फ़ ज़मींदारों और पूँजीपतियों को मिटाना ही नहीं है – वह काम तो हमने अपेक्षाकृत आसानी से पूरा कर लिया – उसका मतलब छोटे पैमाने पर माल पैदा करने वालों को भी मिटाना है और उन्हें ज़बर्दस्ती हटाया नहीं जा सकता, उन्हें कुचला नहीं जा सकता, हमें उनके साथ मिल-जुलकर रहना है, सिर्फ़ एक लम्बे समय तक, बहुत धीरे-धीरे सतर्कतापूर्ण संगठनात्मक काम करके ही इन लोगों को फिर से शिक्षित-दीक्षित किया जा सकता है और नये साँचे में ढाला जा सकता है (और यह किया जाना चाहिए)। ये लोग सर्वहारा वर्ग के चारों ओर एक टुटपुँजिया परिवेश पैदा कर देते हैं, जो सर्वहारा वर्ग में भी घर कर जाता है और उसे भ्रष्ट कर देता है, जिसके कारण सर्वहारा वर्ग लगातार टुटपुँजिया ढुलमुलयक़ीनी; फूट, व्यक्तिवादिता और हर्षातिरेक तथा घोर निराशा के बारी-बारी से आने वाले दौरों का शिकार रहता है। इन चीज़ों का मुक़ाबला करने के लिए आवश्यक है कि सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक पार्टी के अन्दर कड़ी से कड़ी केन्द्रीयता और अनुशासन रहे ताकि ‘सर्वहारा वर्ग की संगठनात्मक भूमिका (और वही उसकी मुख्य भूमिका है) सही तौर से, सफलता-पूर्वक और विजय के साथ पूरी की जा सके।

जीवन-लक्ष्य : युवावस्था में लिखी मार्क्स की कविता

कठिनाइयों से रीता जीवन
मेरे लिए नहीं,
नहीं, मेरे तूफ़ानी मन को यह स्वीकार नहीं।
मुझे तो चाहिए एक महान ऊँचा लक्ष्य
और, उसके लिए उम्रभर संघर्षों का अटूट क्रम।
ओ कला! तू खोल
मानवता की धरोहर, अपने अमूल्य कोषों के द्वार
मेरे लिए खोल!
अपनी प्रज्ञा और संवेगों के आलिंगन में
अखिल विश्व को बाँध लूँगा मैं!