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इलेक्टोरल बॉण्ड – पूँजीपतियों से चन्दे वसूलकर बदले में उन्हें लाखों करोड़ का मुनाफ़ा पहुँचाने का कुत्सित फ़ासीवादी षड्यंत्र

मोदी-शाह और समूचा संघ परिवार और भाजपा अपने भयंकर भ्रष्टाचार और कुकर्मों को धर्म की आड़ में छिपाते हैं। वे समूची हिन्दू आबादी के अकेले प्रवक्ता बनने का दावा करते हैं। एक ऐसा माहौल निर्मित किया जाता है, जिसमें भाजपा और संघ परिवार की आलोचना या उस पर होने वाले हर हमले को हिन्दू धर्म, हिन्दू धर्म मानने वाली जनता और “राष्ट्र” पर हमला क़रार दे दिया जाता है। उनके तमाम कुकर्म, व्यभिचार, दुराचार और भ्रष्टाचार के ऊपर एक रामनामी दुपट्टा डाल दिया जाता है। कभी मोदी को मन्दिरों में पूजा-अर्चना करते, कभी योग करते, कभी ध्यान लगाते दिखलाया जाता है और समूचा गोदी मीडिया इस छवि को निरन्तर प्रचारित-प्रसारित करता है। इसका मक़सद यह होता है कि जब भी आपके मन में उनके प्रति कोई सवाल आये, तो इस धार्मिक छवि के आभामण्डल में वह ओझल हो जाये, आप इस झूठी छवि के घटाटोप में अपना सवाल ही भूल जाते हैं। यह एक पूरा षड्यंत्र है जिसमें देश का पूँजीपति वर्ग और उसके द्वारा संचालित मीडिया हमारे देश के साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों का साथ देता है।

राम मन्दिर से अपेक्षित साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करने में असफल मोदी सरकार अब काशी-मथुरा के नाम पर साम्प्रदायिक तनाव फैलाने की फ़िराक़ में

मोदी सरकार के ख़िलाफ़, उसकी जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ मेहनतकश जनता के जुझारू आन्दोलन खड़ा करना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। पूँजीवादी चुनावी पार्टियों से बने विपक्ष से कोई उम्मीद पालकर रखना आत्मघाती होगा। अगर इन विपक्षी चुनावी पार्टियों का गठबन्धन अनपेक्षित रूप से चुनाव जीत भी जाये, तो वह भाजपा की किसी और भी ज़्यादा तानाशाह और बर्बर किस्म की सरकार के दोबारा चुने जाने की ज़मीन ही तैयार करेगा। अव्वलन, तो इस समय पूँजीवादी विपक्ष के लिए एकजुट रहना और एकजुट तरीके से चुनाव लड़कर जीतना ही बहुत मुश्किल है। नामुमकिन नहीं है, लेकिन बेहद मुश्किल ज़रूर है। लेकिन अगर ऐसा हो भी जाये तो वह फ़ासीवाद के एक नये, ज़्यादा बर्बर और उन्मादी उभार की ही ज़मीन तैयार करेगा। इसकी बुनियादी वजह है मौजूदा दौर में पूँजीवादी व्यवस्था का गहराता आर्थिक संकट, जिससे तत्काल उबर पाने की गुंजाइश बेहद कम है। ऐसे में, कोई गैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी सरकार पूँजीपति वर्ग की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उपयुक्त नहीं है। यदि आपवादिक स्थिति में 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा हार भी जाये, तो वह फ़ासीवादी उभार की एक नये स्तर पर ज़मीन ही तैयार करेगा।

राम मन्दिर के ज़रिये साम्प्रदायिक लहर पर सवार हो फिर सत्ता पाने की फ़िराक़ में मोदी सरकार

यह कोई धार्मिक नहीं, बल्कि एक राजनीतिक कार्यक्रम है। महँगाई को क़ाबू करने, बेरोज़गारी पर लगाम कसने, भ्रष्टाचार पर रोक लगाने, मज़दूरों-मेहनतकशों को रोज़गार-सुरक्षा, बेहतर काम और जीवन के हालात, बेहतर मज़दूरी, व अन्य श्रम अधिकार मुहैया कराने में बुरी तरह से नाकाम मोदी सरकार वही रणनीति अपना रही है, जो जनता की धार्मिक भावनाओं का शोषण कर उसे बेवकूफ़ बनाने के लिए भारतीय जनता पार्टी और उसका आका संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा से अपनाते रहे हैं। चूँकि मोदी सरकार के पास पिछले 10 वर्षों में जनता के सामने पेश करने को कुछ भी नहीं है, इसलिए वह रामभरोसे सत्ता में पहुँचने का जुगाड़ करने में लगी हुई है। इसके लिए मोदी-शाह की जोड़ी के पास तीन प्रमुख हथियार हैं : पहला, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का देशव्यापी सांगठनिक काडर ढाँचा; दूसरा, भारत के पूँजीपति वर्ग की तरफ़ से अकूत धन-दौलत का समर्थन; और तीसरा, कोठे के दलालों जितनी नैतिकता से भी वंचित हो चुका भारत का गोदी मीडिया, जो खुलेआम साम्प्रदायिक दंगाई का काम कर रहा है और भाजपा व संघ परिवार की गोद में बैठा हुआ है।

चुनावों के रास्ते फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय सम्भव नहीं – क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग ही दे सकता है जनविरोधी फ़ासीवादी सत्ता को निर्णायक शिकस्त

हमें माँग करनी चाहिए कि धर्म का राजनीतिक व सामाजिक जीवन से पूर्ण विलगाव करने वाला एक सख़्त क़ानून बनाया जाना चाहिए जिसके अनुसार कोई भी व्यक्ति यदि सार्वजनिक राजनीतिक जीवन में किसी भी धर्म का ज़िक्र भी करता है, किसी धार्मिक समुदाय के प्रति टीका-टिप्पणी करता है, मन्दिर-मस्जिद का ज़िक्र भी करता है, तो उसे तत्काल गिरफ़्तार करने और राजनीतिक जीवन से उसे प्रतिबन्धित करने का क़ानून लाया जाये। इसमें क्या ग़लत है? इसे अगर सख़्ती से लागू किया जाये तो न तो कोई संघी फ़ासीवादी हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं का सियासत में इस्तेमाल कर पायेगा और न ही कोई ओवैसी राजनीति में मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल और न ही कोई सिख कट्टरपंथी अमृतपाल सिख जनता की धार्मिक भावनाओं का राजनीति में इस्तेमाल कर पायेगा। ऐसा क़ानून जो धर्म को पूर्ण रूप से व्यक्तिगत मसला बना दे, इसमें क्या ग़लत है? औपचारिक क़ानूनी अर्थों में भी देखा जाये तो अगर किसी दल का राजनीतिज्ञ जनता के बीच चुनाव लड़ने ला रहा है, कोई राजनीतिक अभियान चलाने जा रहा है, तो उसका मक़सद तो हर नागरिक के लिए नौकरी, शिक्षा, इलाज, घर आदि के अधिकारों को सुनिश्चित करना है न, चाहे उसका धर्म या जाति कुछ भी हो? तो फिर ऐसा क़ानून बनना ही चाहिए जो धर्म को राजनीति से पूर्ण रूप से अलग कर दे। इसके अभाव की वजह से ही हमारे देश में बेवजह का खून-ख़राबा और सिर-फुटौव्वल खूब होता है और फ़ासीवादी कुकुरमुत्तों को उगने के लिए खाद-पानी मिलता है। ऐसे क़ानून का नारा तो मूलत: 18वीं और 19वीं सदी में पूँजीपति वर्ग ने दिया था लेकिन अपनी अभूतपूर्व पतनशीलता के दौर में वह इस सच्चे क्रान्तिकारी सेक्युलरिज़्म का नारा भूल चुका है और आज उसे पहले से भी अधिक क्रान्तिकारी रूप में व ऊँचे वैज्ञानिक स्तर पर सर्वहारा वर्ग उठा रहा है।

इज़रायली सेटलर उपनिवेशवादी ज़ायनवादी हत्यारों द्वारा फ़िलिस्तीनी जनता के जनसंहार का विरोध करो!

इज़रायल कोई देश नहीं है। जिस देश को आज साम्राज्यवाद इज़रायल के नाम पर प्रचारित करते हैं, वह वास्तव में फ़िलिस्तीन ही है, जिस पर पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने एक सेटलर उपनिवेशवादी चौकी बिठा रखी है। पश्चिमी साम्राज्यवादियों की इस उपनिवेशवादी चौकी का नाम इज़रायल है। इस चौकी को चलाने के लिए 1917 में ही यूरोप के नस्लवादी श्रेष्ठतावादी विचारधारा रखने वाले और यहूदी बुर्जुआ वर्ग व टुटपुँजिया वर्ग से आने वाले प्रतिक्रियावादी ज़ायनवादियों ने ली थी। इनका मकसद था आयरलैण्ड में ब्रिटिश बस्ती व चौकी (जिसे अल्स्टर कहा गया था) की तर्ज़ पर फ़िलिस्तीन में पश्चिमी साम्राज्यवाद की एक बस्ती और चौकी, एक यहूदी अल्स्टर बिठाना। फ़िलिस्तीन को ही इसके लिए क्यों चुना गया? ज़ायनवादियों ने अपने नस्लवादी यहूदी राज्य के लिए पहले लातिन अमेरिका व अफ्रीका के कुछ देशों पर भी विचार किया था। लेकिन 1908 में मध्य-पूर्व में तेल मिला। यह कुछ ही वर्षों के भीतर पश्चिमी साम्राज्यवाद के लिए सबसे रणनीतिक माल बन गया और इसलिए अब ज़ायनवादी आन्दोलन और ब्रिटिश साम्राज्यवाद में एक समझौता हुआ कि यह यहूदी उपनिवेशवादी व नस्ली श्रेष्ठतावादी राज्य फ़िलिस्तीन की जनता को बेदख़ल करके बनाया जाये।

जनता के जनवादी अधिकारों पर आक्रामक होता फ़ासीवादी मोदी सरकार का हमला और इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवाद के बारे में कुछ बातें

जब फ़ासीवादी शक्तियाँ सत्ता से बाहर भी होती हैं, तो उनका पूर्ण ध्वंस नहीं होता बल्कि बुर्जुआजी तब भी उनके अस्तित्व बनाये रखना चाहती है और उन्हें अपना समर्थन देती रहती है। वह उन पर किसी प्रकार के पूर्ण प्रतिबन्ध का आम तौर पर विरोध करती है। वह उन्हें अपनी असंस्थानिक व अनौपचारिक राजनीतिक शक्ति के रूप में समाज और राजनीति में बनाये रखती है ताकि उसका सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश जनता के विरुद्ध प्रतिभार के रूप में इस्तेमाल कर सके।

दंगे करने का अधिकार, माँग रहा है संघ परिवार! शामिल है मोदी सरकार!

नूंह में दंगे भड़काने की संघी फ़ासिस्टों की चाल को जनता की ओर से उस प्रकार का समर्थन नहीं मिला जिसकी वे उम्मीद कर रहे थे। नूंह और हरियाणा की हिन्दू मेहनतकश जनता की बहुसंख्या ने संघियों की दंगाई कोशिशों को बड़े पैमाने पर नकार दिया है। समाज का एक छोटा हिस्सा है जो केवल और केवल मुसलमानों से नफ़रत की वजह से मोदी-शाह सरकार और संघ परिवार की ऐसी चालों का समर्थन कर रहा है। यह कुल हिन्दू आबादी का भी एक बेहद छोटा हिस्सा है। स्वयं यह भी बढ़ती महँगाई और बेरोज़गारी से तंग है। लेकिन मुसलमानों से अतार्किक घृणा और राजनीतिक चेतना की कमी के कारण वह संघी फ़ासिस्ट प्रचार के प्रभाव में है। अभी हो रही सभी दंगाई पंचायतों में इस छोटी-सी अल्पसंख्या से आने वाले लोग ही शामिल हैं। व्यापक मेहनतकश आबादी ने ऐसी दंगाई साज़िशों को ख़ारिज किया है। इस आबादी में जो मुखर हैं और बोलते हैं, उन्होंने स्पष्ट तौर पर बोलकर हार के डर से बौखलायी मोदी-शाह सरकार की साम्प्रदायिक फ़ासिस्ट चालों को नकारा है। लेकिन जो बहुसंख्यक आबादी मुखर नहीं भी है, वह मोदी सरकार और संघ परिवार की दंगाई चालों से बुरी तरह से चिढ़ी हुई और नाराज़ है।

हार की आशंका से घबरायी मोदी-शाह सरकार और भाजपा देश को दंगों की आग में झोंकने की तैयारी में

क्या आपने कभी सोचा है कि जब भी भाजपा चुनावों में हार की आशंका से त्रस्त होती है, उसी समय देश में जगह-जगह दंगे और साम्प्रदायिक तनाव क्यों भड़क जाते हैं? याद करें। राम मन्दिर आन्दोलन की शुरुआत और रथयात्रा की शुरुआत भी राज्यों या केन्द्र के चुनावों के ठीक पहले की गयी थी। कारगिल घुसपैठ और युद्ध भी चुनावों के ठीक पहले हुआ था। 2002 में गुजरात दंगे भी राज्य के चुनावों के ठीक पहले हुए थे। आज भी हर चुनाव के पहले धार्मिक त्योहारों को दंगे के त्योहारों में तब्दील करने के लिए आर.एस.एस. और उसकी गुण्डा-वाहिनियाँ लगी रहती हैं। इसी साल मार्च-अप्रैल में रामनवमी के मौके पर दंगे फैलाने के कारण भी लगभग एक दर्जन लोग मारे गये थे। बताने की ज़रूरत नहीं है कि ये मारे जाने वाले लोग कोई धन्नासेठों, मालिकों, ठेकेदारों और धनी दुकानदारों की औलादें नहीं थीं, बल्कि आपके और हमारे परिजन थे। वजह यह कि जब धर्म का उन्माद भड़काया जाता है, तो हम मज़दूरों-मेहनतकशों को उसमें प्यादों की तरह इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि हममें से कुछ लोग “धर्म की रक्षा”, “धर्म-ध्वजा रक्षा”, “धर्म का अपमान”, “राम का अपमान” जैसी बेवकूफ़ी की बातों में बह जाते हैं।

समान नागरिक संहिता के पीछे मोदी सरकार की असली मंशा है साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण जिसकी फसल 2024 के लोकसभा चुनावों में काटी जा सके!

यदि मुसलमान औरतों के प्रति भाजपा का कोई सरोकार होता तो उसके नेता मुसलमान स्त्रियों को कब्र से निकालकर उनके बलात्कार का आह्वान मंचों से न करते, गुजरात के दंगों में मुसलमान औरतों का सामूहिक बलात्कार, गर्भ चीरकर भ्रूण निकालने जैसी वीभत्स और बर्बर घटनाएँ आर.एस.एस. व भाजपा के गुण्डों द्वारा न अंजाम दी जातीं। अगर उन्हें मुसलमान औरतों के प्रति न्याय को लेकर इतना दर्द उमड़ रहा होता तो बिलकिस बानो के बलात्कारियों और उसके बच्चे और परिवार के हत्यारों को भाजपा सरकार बरी न करती, न ही माया कोडनानी और बाबू बजरंगी जैसे लोग बरी होते या उन्हें पैरोल मिलती। साफ़ है कि मुसलमान औरतों के प्रति चिन्ता का हवाला देकर भाजपा तथाकथित समान नागरिक संहिता को मुसलमान आबादी पर थोपना चाहती है और असल में वह समान नागरिक संहिता के नाम पर हिन्दू पर्सनल लॉ को ही विशेष तौर पर मुसलमान आबादी पर थोपना चाहती है, जो कि उनकी धार्मिक व निजी आज़ादी का हनन होगा और इस प्रकार साम्प्रदायिक तनाव और ध्रुवीकरण को बढ़ाने का उपकरण मात्र होगा। मुसलमान औरतों के प्रति भाजपाइयों और संघियों के पेट में कितना दर्द है, यह सभी जानते हैं।

कर्नाटक चुनावों के नतीजे, मोदी सरकार की बढ़ती अलोकप्रियता, फ़ासिस्टों की बढ़ती बेचैनी, साम्प्रदायिक उन्माद व अन्धराष्ट्रवादी लहर पैदा करने की बढ़ती साज़िशें और हमारे कार्यभार

कर्नाटक चुनावों में भाजपा और मोदी-शाह की जोड़ी ने एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया लेकिन इसके बावजूद उसे चुनावों में क़रारी हार का सामना करना पड़ा। नरेन्द्र मोदी ने सारा कामकाज छोड़कर कर्नाटक चुनावों के प्रचार में अपने आपको झोंक दिया और हमेशा की तरह प्रधानमन्त्री की बजाय प्रचारमन्त्री की भूमिका निभायी। हार की आशंका होते ही नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने सीधे साम्प्रदायिक प्रचार और धार्मिक उन्माद पैदा करने की कोशिश की। लेकिन कुछ भी काम नहीं आया। इसकी कई वजहें थीं। पहली वजह यह थी कि जनता महँगाई, बेरोज़गारी और कर्नाटक में भाजपा द्वारा भ्रष्टाचार की नयी मिसालों को देखकर त्रस्त थी, दूसरा, हिन्दू-मुस्लिम और मन्दिर-मस्जिद के मुद्दे अब किसी नयी आबादी को भाजपा के पक्ष में नहीं जीत पा रहे थे और तीसरा, इन्हीं वजहों से लोग बदलाव चाहते थे।