Category Archives: सम्‍पादकीय

लुभावने जुमलों से कुछ न मिलेगा, हक़ पाने हैं तो लड़ना होगा!

अपने देश में एक ओर छात्रों-युवाओं, मज़दूरों, दलितों, अल्पसंख्यकों का जिस तरह दमन किया जा रहा है और दूसरी ओर गोरक्षा से लेकर लव जिहाद तक जिस तरह से उन्माद भड़काया जा रहा है वह भी इसी तस्वीर का एक हिस्सा है। पूँजीवादी व्यदवस्था का संकट दिनोंदिन गहरा रहा है और जनता की उम्मीदों को पूरा करने में दुनियाभर की पूँजीवादी सरकारें नाकाम हो रही हैं। पूँजीपतियों के घटते मुनाफ़े और बढ़ते घाटे को पूरा करने के लिए मेहनतकशों की रोटी छीनी जा रही है, उनके बच्चों से स्वास्थ्य और शिक्षा के अधिकार छीने जा रहे हैं, लड़कर हासिल की गयी सु‍विधाओं में एक-एक कर कटौती की जा रही है।

नाकाम मोदी सरकार और संघ परिवार पूरी बेशर्मी से नफ़रत की खेती में जुट चुके हैं!

अगर हम आज ही हिटलर के इन अनुयायियों की असलियत नहीं पहचानते और इनके ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाते तो कल बहुत देर हो जायेगी। हर ज़ुबान पर ताला लग जायेगा। देश में महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी का जो आलम है, ज़ाहिर है हममें से हर उस इंसान को कल अपने हक़ की आवाज़ उठानी पड़ेगी जो मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा नहीं हुआ है। ऐसे में हर किसी को ये सरकार और उसके संरक्षण में काम करने वाली गुण्डावाहिनियाँ ”देशद्रोही” घोषित कर देंगी! हमें इनकी असलियत को जनता के सामने नंगा करना होगा। शहरों की कॉलोनियों, बस्तियों से लेकर कैम्पसों और शैक्षणिक संस्थानों में हमें इन्हें बेनक़ाब करना होगा। गाँव-गाँव, कस्बे-कस्बे में इनकी पोल खोलनी होगी।

देश को ख़ूनी दलदल या गुलामों के कैदख़ाने में तब्दील होने से बचाना है तो एकजुट होकर उठ खड़े हो!

फासीवाद कुछ व्यक्तियों या किसी पार्टी की सनक नहीं है। यह पूँजीवाद के लाइलाज रोग से पैदा होने वाला ऐसा कीड़ा है जिसे पूँजीवाद ख़ुद अपने संकट को टालने के लिए बढ़ावा देता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था अन्दर से सड़ चुकी है, और इसी सड़ाँध से पूरी दुनिया के पूँजीवादी समाजों में हिटलर-मुसोलिनी के वे वारिस पैदा हो रहे हैं, जिन्हें फासिस्ट कहा जाता है।

देशद्रोही वे हैं जो इस देश के लुटेरों के साथ सौदे करते हैं और इसकी सन्तानों को लूटते हैं, उन्हें आपस में लड़ाते हैं, दबाते और कुचलते हैं!!

आने वाला समय मेहनतकश जनता और क्रान्तिकारी शक्तियों के लिए कठिन और चुनौतीपूर्ण है। हमें राज्यसत्ता के दमन का ही नहीं, सड़कों पर फासीवादी गुण्डा गिरोहों के उत्पात का भी सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा।

”देशभक्ति” के गुबार में आम मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी के ज़रूरी मुद्दों को ढँक देने की कोशिश

इन फ़ासिस्टों के खिलाफ़ लड़ाई कुछ विरोध प्रदर्शनों और जुलूसों से नहीं जीती जा सकती। इनके विरुद्ध लम्बी ज़मीनी लड़ाई की तैयारी करनी होगी। भारत में संसदीय वामपंथियों ने हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथ विरोधी संघर्ष को मात्र चुनावी हार-जीत का और कुछ रस्मी प्रतीकात्मक विरोध का मुद्दा बना दिया है।

नये साल में मज़दूर वर्ग को फासीवाद की काली घटाओं को चीरकर आगे बढ़ने का संकल्प लेना ही होगा

इतिहास गवाह रहा है कि पूँजीवादी संकट के दौर में फलने-फूलने वाले फ़ासीवादी दानवों का मुक़ाबला मज़दूर वर्ग की फौलादी एकजुटता से ही किया जा सकता है। हमें यह समझना ही होगा कि भगवा फ़ासीवादी शक्तियाँ मेहनतकशों को धर्म और जाति के नाम पर बाँटकर मौत का जो ताण्डव रच रही हैं उससे वे अपने मरणासन्न स्वामी यानी पूँजीपति वर्ग की उम्र बढ़ाने का काम कर रही हैं। मज़दूर वर्ग को पूँजीवाद के इस मरणासन्न रोगी को उसकी क़ब्र तक पहुँचाने के अपने ऐतिहासिक मिशन को याद करते हुए फा़सिस्ट ताक़तों से लोहा लेने के लिए कमर कसनी ही होगी। नये साल में इससे बेहतर संकल्प भला क्या हो सकता है!

देशी-विदेशी लुटेरों की ताबेदारी में मजदूर-हितों पर सबसे बड़े हमले की तैयारी

श्रम मंत्रालय संसद में छह विधेयक पारित कराने की कोशिश में है। इनमें चार विधेयक हैं – बाल मज़दूरी (निषेध एवं विनियमन) संशोधन विधेयक, बोनस भुगतान (संशोधन) विधेयक, छोटे कारखाने (रोज़गार के विनियमन एवं सेवा शर्तें) विधेयक और कर्मचारी भविष्यनिधि एवं विविध प्रावधान विधेयक। इसके अलावा, 44 मौजूदा केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार संहिताएँ बनाने का काम जारीहै, जिनमें से दो इस सत्र में पेश कर दी जायेंगी – मज़दूरी पर श्रम संहिता और औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता। इसके अलावा, न्यूनतम मज़दूरी संशोधन विधेयक और कर्मचारी राज्य बीमा विधेयक में भी संशोधन किये जाने हैं। संसद के शीतकालीन सत्र में ही भवन एवं अन्य निर्माण मज़दूरों से संबंधित क़ानून संशोधन विधेयक भी पेश किया जा सकता है। कहने के लिए श्रम क़ानूनों को तर्कसंगत और सरल बनाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। लेकिन इसका एक ही मकसद है, देशी-विदेशी कम्पनियों के लिए मज़दूरों के श्रम को सस्ती से सस्ती दरों पर और मनमानी शर्तों पर निचोड़ना आसान बनाना।

यह समय फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई को और व्‍यापक व धारदार बनाने का है

इन आधारों पर बिहार चुनाव के नतीजों के बाद यह कहना ग़लत नहीं होगा कि मतदाताओं की बहुसंख्या ने भाजपा गठबन्धन को नकार दिया है। तो क्या उसने महागठबन्धन के दलों को वास्तविक समर्थन दिया है और उनसे उसे अपने जीवन में बदलाव आ जाने की उम्मीद है? नहीं, यह सोचना भी ग़लत होगा। दरअसल, यह विकल्पहीनता का चुनाव था। मतदाता इस बारे में किसी भ्रम के शिकार नहीं हैं। आधी सदी से ज़्यादा समय के तजुर्बों ने उनके सामने यह बिल्कुल साफ कर दिया है कि कोई भी पूँजीवादी चुनावी पार्टी उनकी आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरती। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के ढाई दशक के शासन को भी लोग अच्छी तरह से जानते हैं। लेकिन फिर भी चुनाव के समय मतदाताओं की सोच यह होती है कि जब कोई ऐसा विकल्प सामने नहीं है जो उनकी आकांक्षाओं को सही मायने में पूरा करे तो क्यों न दो बुराइयों में से कम बुराई वाले को चुन लिया जाये। महागठबन्धन का चुनाव इसी तरह कम बुराई का चुनाव था। यह लालू-नीतीश-काँग्रेस में आस्था जताना या उनकी नीतियों का समर्थन नहीं है।

अच्छे दिनों का भ्रम छोड़ो, एकजुट हो, सामने खड़ी चुनौतियों का मुकाबला करने की तैयारी करो!

सच तो यह है कि विदेशों से आने वाली पूँजी अतिलाभ निचोड़ेगी और बहुत कम रोजगार पैदा करेगी। मोदी के ‘‘श्रम सुधारों’’ के परिणामस्वरूप मज़दूरों के रहे-सहे अधिकार भी छिन जायेंगे। असंगठित मज़दूरों के अनुपात में और अधिक बढ़ोत्तरी हो रही है। बारह-चौदह घण्टे सपरिवार खटने के बावजूद मज़दूर परिवारों का जीना मुहाल है।  औद्योगिक क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर मज़दूर असन्तोष बढ़ रहा है लेकिन दलाल और सौदेबाज यूनियनें 2 सितम्बर की हड़ताल जैसे अनुष्ठानिक विरोध से उस पर पानी के छींटे डालने का ही काम कर रही हैं। मगर यह तय है कि आने वाले समय में स्वतःस्फूर्त मज़दूर बगावतें बढ़ेंगी और क्रान्तिकारी वाम की कोई धारा यदि सही राजनीतिक लाइन से लैस हो, तो उन्हें सही दिशा में आगे बढ़ा सकती है।

नयी समाजवादी क्रान्ति के तूफान को निमंत्रण दो! सर्वहारा के हिरावलों से अपेक्षा है स्वतंत्र वैज्ञानिक विवेक की और धारा के विरुद्ध तैरने के साहस की!

लेकिन गतिरोध के इस दौर की सच्चाइयों को समझने का यह मतलब नहीं कि हम इतमीनान और आराम के साथ काम करें। हमें अनवरत उद्विग्न आत्मा के साथ काम करना होगा, जान लड़ाकर काम करना होगा। केवल वस्तुगत परिस्थितियों से प्रभावित होना इंकलाबियों की फितरत नहीं। वे मनोगत उपादानों से वस्तुगत सीमाओं को सिकोड़ने-तोड़ने के उद्यम को कभी नहीं छोड़ते। अपनी कम ताकत को हमेशा कम करके ही नहीं आँका जाना चाहिए। अतीत की क्रान्तियाँ बताती हैं कि एक बार यदि सही राजनीतिक लाइन के निष्कर्ष तक पहुँच जाया जाये और सही सांगठनिक लाइन के आधार पर सांगठनिक काम करके उस राजनीतिक लाइन को अमल में लाने वाली क्रान्तिकारी कतारों की शक्ति को लामबन्द कर दिया जाये तो बहुत कम समय में हालात को उलट-पुलटकर विस्मयकारी परिणाम हासिल किये जा सकते हैं। हमें धारा के एकदम विरुद्ध तैरना है।