Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

आम लोगों के जीवनस्तर में वृद्धि के हर पैमाने पर देश पिछड़ा – ‘अच्छे दिन’ सिर्फ़ लुटेरे पूँजीपतियों के आये हैं

मोदी सरकार और संघ परिवार का एजेण्डा बिल्कुल साफ़ है। लोग आपस में बँटकर लड़ते-मरते रहें और वे अपने पूँजीपति मालिकों की तिजोरियाँ भरते रहें। सोचना इस देश के मज़दूरों और आम लोगों को है कि वे इन देशद्रोहियों की चालों में फँसकर ख़ुद को और आने वाली पीढ़ियों को बर्बाद करते रहेंगे या फिर इन फ़रेबियों से देश को बचाने के लिए एकजुट होंगे।

प्रधान चौकीदार की देखरेख में रिलायंस ने की हज़ारों करोड़ की गैस चोरी और अब कर रही है सीनाज़ोरी

‘चौकीदार’ मोदी सरकार सेंधमार मुकेश अम्बानी की रिलायंस इण्डस्ट्रीज़़ से 30 हज़ार करोड़ रुपये की प्राकृतिक गैस चोरी का मुक़दमा अन्तरराष्ट्रीय मध्यस्थता पंचाट में हार गयी! आन्ध्र के कृष्णा-गोदावरी बेसिन में ओएनजीसी के गैस भण्डार में सेंध लगाकर रिलायंस द्वारा हज़ारों करोड़ रुपये की प्राकृतिक गैस चुराने का यह मामला कई साल से चल रहा था। इस पंचाट ने जो रिलायंस ओर मोदी सरकार की सहमति से चुना गया था, उसने ओएनजीसी की शिकायत को रद्द कर रिलायंस पर लगा 10 हज़ार करोड़ का वह जुर्माना हटा दिया जो 2016 में जस्टिस ए पी शाह आयोग द्वारा रिलायंस को दण्डित करने की सिफ़ारिश के चलते सरकार को लगाना पड़ा था। इससे भी बडी बात यह कि पंचाट ने आदेश दिया है कि अब उलटा सरकार को ही हरजाने के तौर पर लगभग 50 करोड़ रुपये रिलायंस को देने होंगे।

अगर हम अब भी फासीवादी गुण्‍डई का मुकाबला करने सड़कों पर नहीं उतरे तो…कोई नहीं बचेगा!

78 वर्षीय आर्यसमाजी सन्‍त पर हमले ने इनके इस झूठ को उजागर कर दिया है कि भाजपा और संघ परिवार हिन्दू धर्म और हिन्दुओं के संरक्षक हैं। अगर संघ परिवार और भाजपा का हिन्दू धर्म से लेना देना होता तो ये संघी स्वामी अग्निवेश पर हमला क्यों करते? अगर इनका हिन्दू आबादी से लेना देना होता तो क्या इस देश के 84 प्रतिशत हिन्दुओं की ज़िन्दगी की हालत में सुधार नहीं होता? क्यों इस देश की बहुतायत हिन्दू आबादी बेरोज़गारी, गरीबी और बदहाली में जी रही है? इनका गौरक्षा से भी कोई लेना देना नहीं है! अगर इनका मकसद गाय की सेवा होता गाय के नाम पर सड़कों पर लोगों की हत्या करने के बाद बजरंग दल और भाजपा के लोग क्यों बीफ़ सप्लाई करने वाली अल दुआ कंपनी के मालिक संगीत सोम को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुख्य नेता बनाते? वे क्यों देश के सबसे बड़े बूचडखानों से चंदा लेते?

”गौमाता” के नाम पर हत्याओं का सिलसिला

”गौमाता” के नाम पर हत्याओं का सिलसिला मुस्लिमों का खुलेआम विरोध करने वाली मोदी सरकार के सत्ता में आने से ही देशभर में फासीवादी हिन्दुत्ववादी गोभक्तों का आतंक बढ़ गया…

बढ़ते असन्तोष से बौखलाये मोदी सरकार और संघ परिवार

अब ये साफ़ हो गया है कि 2019 के चुनाव तक मोदी सरकार और संघ परिवार देशभर में साम्‍प्रदायिक तनाव बढ़ाने, धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकरण को तेज़ करने और हर तरह के विरोधियों को कुचलने के लिए किसी भी हद तक जाने से गुरेज़ नहीं करेंगे। अगले आम चुनाव में अब एक वर्ष से भी कम समय बचा है और जनता के बढ़ते असन्‍तोष से भारतीय जनता पार्टी और उसके भगवा गिरोह की नींद हराम होती जा रही है। कई उपचनुावों और कर्नाटक में हार तथा जगह-जगह सरकार-विरोधी आन्‍दोलनों से उन्‍हें जनता के ग़ुस्‍से का अन्‍दाज़ा बख़ूबी हो रहा है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : भारतीय फ़ासीवादियों की असली जन्मकुण्डली

आरएसएस ने भी खुले तौर पर जर्मनी में नात्सियों द्वारा यहूदियों के क़त्लेआम का समर्थन किया। हेडगेवार ने मृत्यु से पहले गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइण्ड’ और बाद में प्रकाशित हुई ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ में जर्मनी में नात्सियों द्वारा उठाये गये क़दमों का अनुमोदन किया था। गोलवलकर आरएसएस के लोगों के लिए सर्वाधिक पूजनीय सरसंघचालक थे। उन्हें आदर से संघ के लोग ‘गुरुजी’ कहते थे। गोलवलकर ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में मेडिकल की पढ़ाई की और उसके बाद कुछ समय के लिए वहाँ पढ़ाया भी। इसी समय उन्हें ‘गुरुजी’ नाम मिला। हेडगेवार के कहने पर गोलवलकर ने संघ की सदस्यता ली और कुछ समय तक संघ में काम किया। अपने धार्मिक रुझान के कारण गोलवलकर कुछ समय के लिए आरएसएस से चले गये और किसी गुरु के मातहत संन्यास रखा। इसके बाद 1939 के क़रीब गोलवलकर फिर से आरएसएस में वापस आये। इस समय तक हेडगेवार अपनी मृत्युशैया पर थे और उन्होंने गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। 1940 से लेकर 1973 तक गोलवलकर आरएसएस के सुप्रीमो रहे।

मोदी सरकार के चार साल : अच्छे दिनों का सपना दिखाकर लूट-खसोट के नये कीर्तिमान

संघ परिवार की इस बढ़ी ताक़त के साथ ही साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में भी तेज़ वृद्धि हुई है। संघ परिवार ही नहीं बल्कि इसे सीधे या परोक्ष ढंग से जुड़े अनेक हिन्दुत्ववादी कट्टरपन्थी संगठन साम्प्रदायिक नफ़रत फैला रहे हैं और हिंसा की घटनाओं को अंजाम दे रहै हैं। विभिन्न पार्टियों की सरकारें व पुलिस प्रशासन भी इनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की बजाय इनका साथ देते हैं। भाजपा की केन्द्र व राज्य सरकारें हिन्दुत्ववादी कट्टरपन्थियों को हवा दे रही हैं। पिछले चार वर्ष में बर्बर साम्प्रदायिक हिंसा के ज़्यादातर मामले में दोषियों को सज़ा नहीं हुई, उल्टे उन्हें बचाने की कोशिश की गयी।

हरियाणा में धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों की उड़ रही धज्जियाँ

70 साल की आज़ादी के बाद भी जिस देश (तमाम प्राकृतिक साधन-सम्पन्न) में क़रीब 30 करोड़ नौजवान बेरोज़गार हों और वहाँ रोज़गार कोई मुद्दा ही ना हो और मीडिया दिन-रात हिन्दू-मुस्लिम की फ़ालतू बहस में टाइम पास करता रहे, आये दिन किसान आत्महत्या करते हों, आधी से ज़्यादा महिलाओं में ख़ून की कमी हो तो इस देश के नौजवानों को तय करना है कि वे कैसा समाज चाहते हैं!

कर्नाटक चुनाव और इक्कीसवीं सदी के फासीवाद की अश्लील राजनीति के मुज़ाहरे

ये पूरा घटनाक्रम इक्कीसवीं सदी में फासीवादी उभार की चारित्रिक विशेषता है। उन्हें कोई असाधारण क़ानून बनाने और संसदीय जनतन्त्र के खोल को ही उठाकर फेंक देने की कोई ज़रूरत नहीं है। वे नाज़ियों की तमाम हरकतों को (नये ढंग से) इस खोल को छोड़े बिना ही कर सकते हैं। ऊपरी आवरण बना हुआ है लेकिन उसकी अन्तर्वस्तु बदल गयी है। भारत में हिन्दुत्व फासीवाद ऐसा ही रहा है, और यूरोप के कुछ देशों में फासीवाद की अन्य धाराएँ भी इसी तरह से एक लम्बी प्रक्रिया में ‘’नीचे से तूफ़ान’’ लाने में जुटी हुई हैं जिससे उन्हें समाज के पोर-पोर में जगह बनाने, राज्य तन्त्र में गहरी घुसपैठ करने और इस तरह बुर्जुआ संसदीय जनतन्त्र के ढाँचे को छोड़े बिना फासीवादी उभार लाने का मौका मिल रहा है।

वारसा घेट्टो के नौजवानों का फासिस्ट-विरोधी वीरतापूर्ण विद्रोह हमें प्रेरित करता रहेगा!

 पोलैंड पर कब्जे के कुछ सप्ताह में ही जर्मन नाजियों ने वारसा की 4 लाख यहूदी आबादी को शेष आबादी से अलग कर 10 फुट ऊँची दीवारों से घिरे एक छोटे से  बाड़े में जाने को विवश कर दिया था। इसके बाद इसमें अन्य स्थानों से लाये गये 5 लाख और यहूदियों को भी भर दिया गया था। हालत ऐसे समझी जा सकती है कि वारसा शहर की 30% आबादी उसके 2.6% स्थान में ठूँस दी गई थी। ढाई मील लम्बी इस बस्ती में इससे पहले सिर्फ डेढ़ लाख आबादी थी। कई-कई परिवार एक ही कमरे में रहने को मजबूर थे, भोजन की बेहद कमी थी, ग़रीबी, भुखमरी और बीमारी चरम पर थी। 1942 आते-आते हालत यह थी कि हर महीने 5 हज़ार लोग बीमारी व कुपोषण से जान गँवा रहे थे।