Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

पुरोला की घटना और भाजपा के “लव जिहाद” की सच्चाई!

जहाँ तक “लव जिहाद” जैसे शब्द और अवधारणा की बात है तो ये हिन्दुत्ववादी दक्षिणपंथी संगठनों की तरफ से मुस्लिमों के ख़िलाफ़ फैलाया गया एक मिथ्या प्रचार है। इसकी पूरी अवधारणा ही साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली, घोर स्त्री-विरोधी और हिन्दुत्व की जाति व्यवस्था की पोषक अवधारणा है। इसके अनुसार मुस्लिम युवक अपना नाम और पहचान बदलकर हिन्दू लड़की को बरगलाकर, बहला-फुसलाकर अपने जाल में फँसाता है और उसके बाद जबरन हिन्दू लड़की का धर्म परिवर्तन करवाता है। यानी इस अवधारणा के अनुसार स्त्री का कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व और विचार ही नहीं होता! स्त्रियों को कोई भी बहला-फुसलाकर अपने जाल में फँसा सकता है! “लव जिहाद” के अनुसार मुस्लिम युवक जानबूझकर अपना “नाम” बदलते हैं ताकि “हिन्दू लड़कियों को फँसा सकें”। यानी प्यार “नाम” पर टिका है। जैसे दो व्यक्तियों का कोई व्यक्तित्व ही न हो! उनकी अपनी पसन्दगी-नापसन्दगी ही न हो! “नाम” अगर मुस्लिम होगा तो प्यार नहीं होगा! हिन्दू होगा तो हो जायेगा!

कर्नाटक चुनावों के नतीजे, मोदी सरकार की बढ़ती अलोकप्रियता, फ़ासिस्टों की बढ़ती बेचैनी, साम्प्रदायिक उन्माद व अन्धराष्ट्रवादी लहर पैदा करने की बढ़ती साज़िशें और हमारे कार्यभार

कर्नाटक चुनावों में भाजपा और मोदी-शाह की जोड़ी ने एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया लेकिन इसके बावजूद उसे चुनावों में क़रारी हार का सामना करना पड़ा। नरेन्द्र मोदी ने सारा कामकाज छोड़कर कर्नाटक चुनावों के प्रचार में अपने आपको झोंक दिया और हमेशा की तरह प्रधानमन्त्री की बजाय प्रचारमन्त्री की भूमिका निभायी। हार की आशंका होते ही नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने सीधे साम्प्रदायिक प्रचार और धार्मिक उन्माद पैदा करने की कोशिश की। लेकिन कुछ भी काम नहीं आया। इसकी कई वजहें थीं। पहली वजह यह थी कि जनता महँगाई, बेरोज़गारी और कर्नाटक में भाजपा द्वारा भ्रष्टाचार की नयी मिसालों को देखकर त्रस्त थी, दूसरा, हिन्दू-मुस्लिम और मन्दिर-मस्जिद के मुद्दे अब किसी नयी आबादी को भाजपा के पक्ष में नहीं जीत पा रहे थे और तीसरा, इन्हीं वजहों से लोग बदलाव चाहते थे।

भाजपा के ‘लव जिहाद’ की नौटंकी की सच्चाई

आपको पता ही होगा कि भाजपा पिछले कई वर्षों से ‘लव जिहाद’ को लेकर दंगे-फ़साद और हत्याएँ करवाती रही है। यह ‘लव जिहाद’ क्या है? अगर किसी मुसलमान पुरुष की किसी हिन्दू स्त्री से शादी होती है, तो उसे भाजपा वाले ‘लव जिहाद’ बोलते हैं। अगर इसका उल्टा हो, यानी अगर हिन्दू पुरुष मुसलमान स्त्री से शादी कर ले, तो भाजपा वाले उसे ‘प्रेम धर्मयुद्ध’ नहीं बोलते। युद्ध या जिहाद इलाके, सम्पत्ति, देश जीतने के लिए होते हैं। तो फिर इस ‘लव जिहाद’ शब्द का मतलब क्या हुआ? परायी धर्म की स्त्री को जीतना! मानो स्त्री ज़मीन-जायदाद, इमारत, सम्पत्ति या ऐसी कोई चीज़ हो! प्यार करना सभी का स्वाभाविक अधिकार है। यदि कोई स्त्री अलग धर्म के पुरुष से प्यार करती है, तो यह उसका व्यक्तिगत मसला है। स्त्री किसी धार्मिक समुदाय की सम्पत्ति नहीं है और न ही उस धार्मिक समुदाय का “सम्मान” या “प्रतिष्ठा” स्त्री की देह या उसकी योनि में समायी होती है। अगर किसी को ऐसा लगता है, तब तो कहना होगा कि ऐसा सोचने वाले व्यक्ति को अपने धार्मिक समुदाय की “प्रतिष्ठा” या “सम्मान” या “इज़्ज़त” की सोच के बारे में सोचना पड़ेगा कि यह कैसा समुदाय है जिसकी इज़्ज़त, प्रतिष्ठा या सम्मान किसी गुप्तांग में समाया हुआ हो!

2024 के आम चुनावों के पहले अन्धराष्ट्रवाद व साम्प्रदायिक उन्माद की लहर उठाने की कोशिशों से सावधान रहें!

जब भी भाजपा की कोई सरकार ख़तरे में होती है तो या तो पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ होती है, या फिर कोई आतंकी हमला हो जाता है या कहीं दंगा फैल जाता है! याद करें कि गोधरा की घटना और फिर गुजरात-2002 साम्प्रदायिक नरसंहार भी 2002 के गुजरात विधानसभा चुनावों के ठीक पहले ही हुआ था। ऐसा लगता है मानो जब-जब भाजपा हार रही होती है और उसके नेता दिलो-जान से चाहते हैं कि कोई ऐसी आकस्मिक घटना घट जाये, उसी समय ऐसी आकस्मिक घटना घट ही जाती है! लेकिन पुलवामा हमले के समय जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे भाजपा नेता सत्यपाल मलिक के साक्षात्कार और डीएसपी देविन्दर सिंह को बाद में मिली जमानत से इस आकस्मिकता पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं। ये घटनाएँ कितनी इत्तेफ़ाकन थीं, इस पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं। और बार-बार भाजपा और उसकी सरकारों के संकट में आने पर अचानक “देश संकट में” कैसे आ जाता है, इस पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं।

मज़दूर वर्ग को आरएसएस द्वारा इतिहास और प्राकृतिक विज्ञान को विकृत करने का विरोध क्यों करना चाहिए? 

डार्विन का सिद्धान्त जीवन और मानव के उद्भव के बारे में किसी पारलौकिक हस्तक्षेप को खत्म कर जीवन जगत को उतनी ही इहलौकिक प्रक्रिया के रूप में स्थापित करता है जैसे फसलों का उगना, फै़क्ट्री में बर्तन या एक ऑटोमोबाइल बनना। यह जीवन के भौतिकवादी आधार तथा उसकी परिवर्तनशीलता को सिद्ध करता है। यह विचार ही शासक वर्ग के निशाने पर है। संघ अपनी हिन्दुत्व फ़ासीवादी विचारधारा से देशकाल की जो समझदारी पेश करना चाहता है उसके लिए उसे जनता की धार्मिक मान्यताओं पर सवाल खड़ा करने वाले हर तार्किक विचार से उसे ख़तरा है। जनता के बीच धार्मिक पूर्वाग्रहों को मज़बूत बनाकर ही देश को साम्प्रदायिक राजनीति की आग में धकेला जा सकता है।

अतीक अहमद की हत्या और “माफ़िया-मुक्त” उत्तर प्रदेश के योगी के दावों की असलियत

पूँजीवादी समाज व्यवस्था में अपराधमुक्त, गुंडामुक्त, माफिया मुक्त समाज की कल्पना करना एक मुग़ालते में ही जीना है। वैसे भी जब सबसे बड़ी गुण्‍डावाहिनी ही सत्‍ता में हो, तो प्रदेश को गुण्‍डामुक्‍त व अपराधमुक्‍त करने की बात पर हँसी ही आ सकती है। पूँजीवादी समाज की राजनीतिक-आर्थिक गतिकी छोटे-बड़े माफियाओं को पैदा करती है। भारत के पिछड़े पूँजीवादी समाज में बुर्जुआ चुनावों में धनबल-बाहुबल की भूमिका हमेशा प्रधान रही है और इस कारण तमाम बुर्जुआ क्षेत्रीय पार्टियों से लेकर राष्ट्रीय पार्टियों तक में इन माफियाओं की जरूरत हमेशा से मौजूद रही है। यह भी गौर करने वाली बात है कि 90 के दशक में जैसे-जैसे उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को आगे बढ़ाया गया वैसे-वैसे भू माफिया, शराब माफिया, खनन माफिया, शिक्षा माफिया, ड्रग्स माफिया…आदि-आदि का जन्म तेजी से होता रहा। समय के साथ-साथ माफियाओं की आपसी रंजिश या उनके राजनीतिक संरक्षण में परिवर्तन से किसी माफिया की सत्ता का जाना और उस क्षेत्र में नये माफियाओं का आना चलता रहा है।

भाजपा और संघ परिवार के गाय-प्रेम और गोरक्षा के बारे में सोचने के लिए कुछ सवाल

अगर आपके दरवाज़े कोई गोरक्षा, लव जिहाद, ‘चीन का ख़तरा’, ‘पाकिस्तान का ख़तरा’ जैसे फ़र्ज़ी मसले लेकर आता है तो उसे उचित रूप में “खर्चा-पानी” देकर दफ़ा करें। हमारा दुश्मन हमारे देश के भीतर है। जब हम कम मज़दूरी के ख़िलाफ़ लड़ते हैं तो हमें दबाने के लिए पूँजीपति और फासीवादी सरकार की पुलिस और गुण्डे आते हैं; जब हम बेहतर कार्यस्थितियों की माँग करते हैं, तो हमें मौजूदा व्यवस्था और सरकार दबाती है; जब हम समानता और इज़्ज़त से भरी ज़िन्दगी माँगते हैं तो हमें कुचलने के लिए मालिक, ठेकेदार, जॉबर, व्यापारी, धनी फ़ार्मर व ज़मीन्दार आ जाते हैं। तो हम किसी चीनी या पाकिस्तानी नकली दुश्मन से लड़ने को क्यों बावले हों? चीन और पाकिस्तान के मज़दूर-मेहनतकश भी अपने हुक्मरानों से उसी क़दर तंग हैं, जिस क़दर हम यहाँ के फ़ासीवादी शासकों से तंग हैं। वे तो हमारे भाई-बहन हैं। उनसे हमारी भला क्या दुश्मनी? क्या वे हमें यहाँ दबाने और लूटने आते हैं? कौन हमें यहाँ दबा और लूट रहा है? कौन हमें गोरक्षा और लव-जिहाद जैसे फ़र्ज़ी मसलों पर लड़ा रहा है ताकि हम टूट जायें और कमज़ोर रहें?

असली सवाल डिग्री होने या न होने का नहीं, बल्कि फ़र्ज़ीवाड़ा करने और झूठ बोलने का है

राजनीति में किसी विश्वविद्यालय या स्कूल की डिग्री होना अनिवार्य नहीं हैं। हमने राजनीति के भीतर भारी-भरकम डिग्रियों वाले भारी-भरकम मूर्ख पर्याप्त मात्रा में देखे हैं। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की डिग्री को लेकर अभी भारी विवाद जारी है। ‘आम आदमी पार्टी’ के भारी नेता केजरीवाल ने इसको भारी मुद्दा बनाया है कि भारत के प्रधानमन्त्री को पढ़ा-लिखा होना चाहिए तभी वह सरकार चला सकता है। नोटबन्दी, जीएसटी के फ़ैसलों आदि को केजरीवाल ने प्रधानमन्त्री के भारी अनपढ़पन की निशानी बताया। केजरीवाल के इस स्टैण्ड ने एक बार फिर से आम आदमी पार्टी के मध्यवर्गीय चरित्र को ही उजागर किया है। मध्यवर्ग के राजनीतिक चेतना से रिक्त मूर्ख ही राजनीति में डिग्री के आवश्यक होने पर इस प्रकार ज़ोर दे सकते हैं।

हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को ख़ामोश करने की मोदी-शाह सत्ता की कोशिशें

जनवाद पर होने वाला हर हमला अन्तत: और दूरगामी तौर पर सर्वहारा वर्ग के हितों के विपरीत जाता है और सर्वहारा वर्ग व आम मेहनतकश जनता ही उसकी सबसे ज़्यादा क़ीमत चुकाती है। जब भी हम जनवाद पर होने वाले फ़ासीवादी हमले पर चुप रहते हैं तो हम फ़ासीवादी सत्ता के “दमन के अधिकार” का आम तौर पर वैधता प्रदान कर रहे होते हैं, चाहे हमारा ऐसा इरादा हो या न हो। इसलिए राहुल गाँधी की सदस्यता रद्द होने का प्रश्न हो या फिर जनपक्षधर पत्रकारों, जाति-उन्मूलन कार्यकर्ताओं, कलाकारों-साहित्यकारों के फ़ासीवादी मोदी-शाह सत्ता द्वारा उत्पीड़न का प्रश्न हो, सर्वहारा वर्ग को उसका पुरज़ोर तरीके से विरोध करना चाहिए। लेनिन ने बताया था कि जनवादी अधिकारों पर होने वाले हर हमले का विरोध किये बग़ैर, शोषक-शासक वर्गों व उनकी सत्ता द्वारा दमन-उत्पीड़न की हर घटना पर आवाज़ उठाये बग़ैर, और हर जगह दमित व शोषित लोगों के साथ खड़े हुए बग़ैर, सर्वहारा वर्ग समूची मेहनतकश जनता की अगुवाई करने और उसका हिरावल बनने की क्षमता अर्जित नहीं कर सकता है।

मलियाना हत्याकाण्ड के सभी अभियुक्त बरी – इस देश के इंसाफ़पसन्द लोग ऐसे झूठे फ़ैसलों को कभी स्वीकार नहीं करेंगे!

मलियाना का मामला एक बार फिर हमें याद दिलाता है किसी भी रंग के झण्डे वाली चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियाँ न तो साम्प्रदायिक दंगों को रोक सकती हैं और न ही उन्हें सज़ा दिला सकती हैं। मेहनतकशों के नेतृत्व वाली क्रान्तिकारी पार्टी की अगुवाई में कड़ा किया गया जनता का आन्दोलन ही इसके लिए दबाव बना सकता है और सच्चे सेक्युलर आधार पर समाज के नवनिर्माण का रास्ता खोल सकता है।