Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

मुण्डका (दिल्ली) की फैक्ट्री में लगी आग: कौन है इन 31 मौतों का ज़िम्मेदार?

बीते दिनों मुण्डका औद्योगिक क्षेत्र में जो हुआ वह महज़ हादसा नहीं है। इससे पहले भी दिल्ली और देश के अलग-अलग फैक्ट्री इलाकों में मज़दूरों की मौत की घटनाएँ सामने आती रहीं हैं और इसके बाद भी थ जारी है। मुण्डका में जिस फैक्टरी में आगजनी की यह भयानक घटना हुई उसमें चार्जर और राउटर बनाने का काम होता था। इस काम के लिए ज्यादा संख्या में महिला मज़दूरों को रखा गया था। आधिकारिक तौर पर 31 मज़दूरों की मौत हुई है, पर कई मज़दूर अभी तक लापता हैं।

आरटी पैकेजिंग के श्रमिकों का संघर्ष

गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा की औद्योगिक पट्टी में शायद ही ऐसा कोई दिन गुज़रता है, जब श्रमिकों का संघर्ष न होता हो! एक कारख़ाने का संघर्ष थमा नहीं कि दूसरे में शुरू हो जाता है। जेएनएस, हुण्डई मोबिस के मज़दूरों का संघर्ष थमा ही था कि एक अन्य कारख़ाने से विरोध के स्वर उभरकर सामने आने लगे। पहली अप्रैल को धारूहेड़ा स्थित आरटी पैकेजिंग लिमिटेड (ए रोलोटेनरस् ग्रुप कम्पनी) के मज़दूर संघर्ष की राह पर चल पड़े।

दुनिया की सबसे ताक़तवर कम्पनियों में से एक को हराकर अमेज़न के मज़दूरों ने कैसे बनायी अपनी यूनियन

दुनिया की सबसे बड़ी कम्पनियों में से एक अमेज़न लगातार अपने यहाँ मज़दूरों की यूनियन बनने से रोकने की कोशिश करती रही है। यूनियन न बन पाये इसके लिए वह अरबों रुपये अदालती कार्रवाई पर और तरह-तरह की तिकड़मों पर ख़र्च करती रही है। मज़दूरों को डराने-धमकाने, उनके बीच फूट डालने के लिए उसने बाक़ायदा कई फ़र्मों को करोड़ों के ठेके दिये हुए हैं।

ऑटो सेक्टर के मज़दूरों के लिए कुछ ज़रूरी सबक़ और भविष्य के लिए एक प्रस्ताव

कोविड काल के बाद शुरू हुए कई आन्दोलनों में से एक आन्दोलन धारूहेडा में शुरू हुआ। 6 से लेकर 22 साल की अवधि से काम कर रहे 105 ठेका मज़दूरों को बीती 28 फ़रवरी 2022 को हुन्दई मोबिस इण्डिया लिमिटेड कम्पनी ने बिना किसी पूर्वसूचना के काम से निकाल दिया। प्रबन्धन के साथ मज़दूरों का संघर्ष पिछले साल से ही चल रहा था। लेकिन प्रबन्धन ने 28 फ़रवरी को सभी पुराने मज़दूरों का ठेका ख़त्म होने का बहाना बनाकर छँटनी कर दी।

मई दिवस 1886 से मई दिवस 2022 : कितने बदले हैं मज़दूरों के हालात?

इस वर्ष पूरी दुनिया में 136वाँ मई दिवस मनाया गया। 1886 में शिकागो के मज़दूरों ने अपने संघर्ष और क़ुर्बानियों से जिस मशाल को ऊँचा उठाया था, उसे मज़दूरों की अगली पीढ़ियों ने अपना ख़ून देकर जलाये रखा और दुनियाभर के मज़दूरों के अथक संघर्षों के दम पर ही 8 घण्टे काम के दिन के क़ानून बने। लेकिन आज की सच्चाई यह है कि 2022 में कई मायनों में मज़दूरों के हालात 1886 से भी बदतर हो गये हैं। मज़दूरों की ज़िन्दगी आज भयावह होती जा रही है। दो वक़्त की रोटी कमाने के लिए 12-12 घण्टे खटना पड़ता है।

हैदराबाद में कबाड़ गोदाम में लगी आग में झुलसकर 11 मज़दूरों की मौत, एक की हालत गम्भीर

गत 23 मार्च को हैदराबाद के भोईगुड़ा इलाक़े में एक कबाड़ गोदाम में भोर के क़रीब 3 बजे आग लग गयी जिसमें झुलसकर 11 मज़दूरों की मौत हो गयी। एक अन्य मज़दूर अपनी जान बचाने के लिए गोदाम की पहली मंज़िल पर स्थित कमरे से नीचे कूद गया और उसे बेहद गम्भीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया है। बताया जा रहा है कि आग इलेक्ट्रिक शॉर्ट-सर्किट की वजह से लगी थी। गोदाम में आसानी से आग पकड़ने वाली तमाम ज्वलनशील चीज़ें (जैसे केबल, अख़बार, प्लास्टिक आदि) पड़ी हुई थीं जिसकी वजह से आग जल्द ही पूरी इमारत में फैल गयी। बिहार के कटिहार और छपरा ज़िले से आकर गोदाम में काम करने वाले 12 मज़दूर गोदाम की पहली मंज़िल पर एक छोटे-से कमरे में रहते थे।

नोएडा-ग्रेटर नोएडा औद्योगिक क्षेत्र : लगातार बढ़ रहे शोषण के ख़िलाफ़ जारी है मज़दूरों का असंगठित प्रतिरोध

दिल्ली के ओखला औद्योगिक क्षेत्र के विस्तार के तौर पर नवीन ओखला औद्योगिक विकास प्राधिकरण (न्यू ओखला इण्डस्ट्रियल डेवलपमेण्ट अथॉरिटी) की स्थापना की गयी। आपातकाल के दौर में 17 अप्रैल 1976 को नोएडा अस्तित्व में आया। प्रारम्भ में 12 सेक्टर बसाये गये जिसमें सेक्टर 1 से 10 औद्योगिक थे और 11 मिश्रित तथा 12 आवासीय सेक्टर था। दूसरे दौर 1985 में फ़ेज़-2 को औद्योगिक क्षेत्र के रूप में तैयार किया गया जो भारत का पहला विशेष आर्थिक क्षेत्र (NSEZ) था।

नोएडा के निर्माण की दास्तान : चमचमाती आलीशान इमारतों के पीछे छिपी मेहनतकशों की अँधेरी दुनिया

दिल्ली से जब हम नोएडा में प्रवेश करते हैं तो गगनचुम्बी इमारतें, बड़े-बड़े आलीशान मॉल, मार्केट, चमचमाती सड़कें, एक्सप्रेस-वे आदि को देखकर लगता है तेज़ी से विकसित हो रहा नोएडा-ग्रेटर नोएडा विकास की एक नयी इबारत लिख रहा है। जब आप नोएडा-ग्रेटर नोएडा के चमकदार इलाक़ों से होकर गुज़रते हैं तो दिल्ली में बड़े-बड़े होर्डिंगों के माध्यम से उत्तर प्रदेश के विकास की जो तस्वीर पेश करने की कोशिश फ़ासिस्ट योगी सरकार कर रही है वह सच लगने लगती है। पर जैसे-जैसे आप राजधानी से सटी इस औद्योगिक नगरी के अन्दर घुसते जायेंगे, इस चमक के पीछे का अँधेरा नज़र आने लगेगा।

फ़रीदाबाद औद्योगिक क्षेत्र की एक आरम्भिक रिपोर्ट

आज़ादी के बाद 1949 से फ़रीदाबाद को एक औद्योगिक शहर की तरह विकसित करने का काम किया गया। भारत-पाकिस्तान बँटवारे के समय शरणाथिर्यों को यहाँ बसाया गया था। उस दौर से ही यहाँ छोटे उद्योग-धन्धे विकसित हो रहे थे। जल्द ही यहाँ बड़े उद्योगों की भी स्थापना हुई और 1950 के दशक से इसका औद्योगीकरण और तीव्र विकास आरम्भ हुआ। मुग़ल सल्तनत के काल से ही फ़रीदाबाद दिल्ली व आगरा के बीच एक छोटा शहर हुआ करता था। आज की बात की जाये तो फ़रीदाबाद देश के बड़े औद्योगिक शहरों में नौवें स्थान पर है। फ़रीदाबाद में 8000 के क़रीब छोटी-बड़ी पंजीकृत कम्पनियाँ हैं।

कोरोना काल में मज़दूरों की जीवनस्थिति

आज देशभर के मज़दूर कोरोना की मार के साथ-साथ सरकार की क्रूरता और मालिकों द्वारा बदस्तूर शोषण की मार झेल रहे हैं। बीते वर्ष से अब तक पूरे कोरोनाकाल में मज़दूरों-मेहनतकशों का जीवन स्तर नीचे गया है। खाने-पीने में कटौती करने से लेकर वेतन में कटौती होने या रोज़गार छीने जाने से मज़दूरों के हालात बद से बदतर हुए हैं। कोरोना महामारी से बरपे इस क़हर ने पूँजीवादी व्यवस्था के पोर-पोर को नंगा करके रख दिया है।