Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

पूर्व श्रम मन्‍त्री की फ़ैक्‍ट्री में श्रम क़ानून ठेंगे पर!

दाल मिल होने के कारण कारख़ाने में चारों तरफ फैली धूल से दमघोंटू माहौल हो जाता है और भयंकर गर्मी होती है। लेकिन न तो पर्याप्त मात्रा में एग्ज़ास्ट पंखे चलाये जाते हैं और न ही मज़दूरों को मास्क आदि दिये जाते हैं। मज़दूर ख़ुद ही मुँह पर कपड़ा लपेटकर काम करते हैं। मज़दूरों को ई.एस.आई., पीएफ़ जॉब कार्ड आदि कुछ भी नहीं मिलता। कुछ बोलो तो सुपरवाइज़र सीधे धमकाते हैं कि जानते नहीं हो, लेबर मिनिस्टर की फ़ैक्‍ट्री है! वैसे तो सभी कारख़ाना मालिक श्रम विभाग को अपनी जेब में लेकर घूमते हैं लेकिन जब मामला पूर्व श्रम मन्‍त्री की फ़ैक्‍ट्री का हो तो उधर भला कौन देखने की जुर्रत करेगा?

करावलनगर की वॉकर फ़ैक्ट्रियों में मज़दूरों के हालात

मालिक द्वारा गाली-गलौज आम बात है। कभी-कभी तो कुछ मज़दूरों की पिटाई भी मालिकों के हाथों हुई है। आपस में कोई एकता न होने से मज़दूर कुछ कर नहीं पाते हैं। मज़दूरों के बीच से ही कुछ मज़दूरों को नाम भर का ठेकेदार बनाकर और फिर इन ‘मज़दूर ठेकेदारों’ की आपस में होड़ करवाकर मालिक अपनेआप को हर तरह की ज़िम्मेदारी से बरी कर लेता है और फिर बेगारी भी करवाता है। कुशल मज़दूर यह नहीं समझ पाते कि कुशल मज़दूरों को अर्द्धकुशल मज़दूर या अकुशल मज़दूर को साथ में लेकर ही अपना अधिकार मिल सकता है। मालिक जानबूझकर सभी काम ठेके पर करवाना चाहता है ताकि मज़दूरों को ज़्यादा अच्छी तरह निचोड़ सके और उसे कोई दिक्कत भी न हो।

मौत के मुहाने पर : अलंग के जहाज़ तोड़ने वाले मज़दूर

अलंग-सोसिया शिप-ब्रेकिंग यार्ड में रोज़ाना जानलेवा हादसे होते हैं। विशालकाय समुद्री जहाज़ों को तोड़ने का काम मज़दूरों को बेहद असुरक्षित परिस्थितियों में करना पड़ता है। अपर्याप्त तकनीकी सुविधाओं, बिना हेल्मेट, मास्क, दस्तानों आदि के मज़दूर जहाज़ों के अन्दर दमघोटू माहौल में स्टील की मोटी प्लेटों को गैस कटर से काटते हैं, जहाज़ों के तहख़ानों में उतरकर हर पुर्ज़ा, हर हिस्सा अलग करने का काम करते हैं। अकसर जहाज़ों की विस्फोटक गैसें तथा अन्य पदार्थ आग पकड़ लेते हैं और मज़दूरों की झुलसकर मौत हो जाती है। क्रेनों से अकसर स्टील की भारी प्लेटें गिरने से मज़दूर दबकर मर जाते हैं। कितने मज़दूर मरते और अपाहिज होते हैं इसके बारे में सही-सही आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अधिकतर मामलों को तो पूरी तरह छिपा ही लिया जाता है। लाशें ग़ायब कर दी जाती हैं। कुछ के परिवारों को थोड़ा-बहुत मुआवज़ा देकर चुप करा दिया जाता है। ज़ख्मियों को दवा-पट्टी करवाकर या कुछ पैसे देकर गाँव वापस भेज दिया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक अलंग यार्ड में रोज़ाना कम से कम 20 बड़े हादसे होते हैं और कम से कम एक मज़दूर की मौत होती है। एक विस्फोट में 50 मज़दूरों की मौत होने के बाद सरकार ने अलंग में मज़दूरों का हेल्मेट पहनना अनिवार्य बना दिया। लेकिन हेल्मेट तो क्या यहाँ मज़दूरों को मामूली दस्ताने भी नहीं मिलते। चारों तरफ आग, ज़हरीली गैसों और धातु के उड़ते कणों के बीच मज़दूर मुँह पर एक गन्दा कपड़ा लपेटकर काम करते रहते हैं। ज्यादातर प्रवासी मज़दूर होने के कारण वे प्राय: बेबस होकर सबकुछ सहते रहते हैं। इन मज़दूरों की पक्की भर्ती नहीं की जाती है। उन्हें न तो कोई पहचान पत्र जारी होते हैं न ही उनका कोई रिकार्ड रखा जाता है।

कड़वे बादाम : दिल्ली के बादाम उद्योग में मज़दूरों का शोषण

बादाम से छिलका उतारने का काम बेहद कठिन और जोखिमभरा होता है। बादाम निकालने के लिए जो खोल तोड़ा जाता है वह काफ़ी सख्त होता है और उसे नरम बनाने के लिए रसायनों का प्रयोग किया जाता है। यह पूरा काम नंगे हाथों से किया जाता है और लम्बे समय तक काम करने से लगभग सभी मज़दूरों की उँगलियों के पोरों पर घाव हो जाते हैं और दरारें पड़ जाती हैं जिनमें सर्दियों में बहुत अधिक दर्द होता है। ये घाव खोल के खुरदुरेपन और/या रसायनों के प्रभाव, दोनों ही वजहों से हो सकते हैं। हड़ताल के दौरान भी हम जितने मज़दूरों से मिले, उनमें से अधिकांश के हाथें और उंगलियों में घाव के निशान थे। उनके हाथों में ये घाव बादाम तोड़ते समय पडे थे। ये मज़दूर लगभग एक हफ्ते से काम पर नहीं गये थे फिर भी उनके ये घाव बहुत पीड़ादायी बने हुए थे।

आन्दोलन को थकाकर तोड़ने की पुरानी कहानी फिर दोहरायी जा रही है

मज़दूरों के शोषण-उत्पीड़न की यह सच्चाई उस कम्पनी की है जहाँ एच.एम.एस. पिछले लगभग तीन साल से काम कर रही है और जहाँ मज़दूरों की एक ट्रेड यूनियन भी पंजीकृत है। मज़दूरों के अधिकार लगातार छीने जा रहे है, मज़दूरों में असंतोष लगातार बढ़ रहा है, और एच.एम.एस., एटक, सीटू जैसी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें चुप्पी साधे रहती हैं। लेकिन जब मज़दूरों का दबाव ज्यादा बढ़ जाता है, तब प्रतीकात्मक हड़तालों का सहारा लेकर मज़दूरों के गुस्से को शान्त करने की कोशिश करती हैं। बजाय इसके कि इन आन्दोलनों के माध्यम से वर्तमान व्यवस्था के मज़दूर और जन-विरोधी चरित्र का पर्दाफाश करें और उन्हें व्यापक स्तर पर संगठित करने का प्रयास करें। गुड़गाँव में 20 कम्पनियों में एच.एम.एस. से जुड़ी यूनियनें हैं, जो कभी हरसोरिया जैसे आन्दोलन तो कभी एक दिन के प्रतीकात्मक विरोध जैसी कार्रवाइयाँ करके मज़दूरों के गुस्से पर पानी के छींटे मारने का काम कर रही हैं। अगर एच.एम.एस. अपने साथ जुड़ी सभी यूनियनों को भी मज़दूरों के साझा सवालों पर एक साथ कार्रवाई करने के लिए लामबन्द नहीं कर सकता तो व्यापक मज़दूर एकता के लिए उससे कुछ करने की उम्मीद करना भी बेकार है।

मज़दूरों में मालिक-भक्ति की बीमारी

मज़दूरों को मालिकों की ऐसी नौटंकियों के झाँसे में नहीं आना चाहिए। मालिक की परख करनी हो तो वेतन बढ़वाने, श्रम कानून लागू करवाने और रिहायशी सुविधाओं के लिए मालिक के मुनाफे में से हिस्सा आदि माँगें मालिक के सामने रखकर देखो। तुरन्त मालिक की अच्छाई और कल्याणकारी प्रवृति पर से मुखौटा उतर जाएगा और पूजा-पाठ करने वाले, देवी-देवताओं के भक्त मालिक के भीतर बैठा जानवर जाग उठेगा और पुलिस-शासन-प्रशासन को साथ लेकर मज़दूरों पर टूट पड़ेगा। मालिक मज़दूर के कल्याण के बारे में कभी नहीं सोच सकता। पँजीवादी व्यवस्था की यही सच्चाई है। मालिक सिर्फ मज़दूरों की एकता के आगे झुकता है। मालिक इसी से डरता है और मज़दूरों को एकता न बनाने देने के लिए और बनी हुई एकता तोड़ने के लिए सभी चालें चलता है। मालिक द्वारा पूजा-पाठ, भण्डारे, जागरण आदि करना भी ऐसी चालों में से एक है।

यहाँ मज़दूर की मेहनत की लूट के साथ ही उसकी आत्मा को भी कुचल दिया जाता है

अगर यहाँ मज़दूरों को कारख़ाना परिसर में दी जाने वाली सुविधाओं की बात करें, तो वे हमारे साथ मज़ाक करती सी लगती हैं। यहाँ हम औरतों की संख्या कोई दो-ढाई हज़ार के आस-पास है। लेकिन शौचालय हैं सिर्फ दो, जिनमें चार-चार टॉयलेट हैं यानि कुल आठ टॉयलेट इतनी औरतों के लिए हैं। इनमें से चार में पानी नहीं आता। इनमें नल को स्थाई रूप से बन्द कर दिया गया है। ये आठों टॉयलेट इतने गन्दे होते हैं कि सड़ाँध मार रहे होते हैं। दोनों शौचालयों के लिए सिर्फ एक-एक टयूब लाइट लगी है। सीलन का साम्राज्य तो, छत, दीवारों को पार करके फर्श तक फैला है। फर्श पर कीचड़ ही कीचड़ होता है। इन कीचड़ भरे, सड़ाँध मारते, सीलन भरे अँधेरे शौचालयों से हम औरतें क्या-क्या बीमारियाँ अपने शरीरों में पाल रही हैं — हमें ख़ुद नहीं पता।

मज़दूरों की असुरक्षा का फ़ायदा उठा रही हैं तरह-तरह की कम्पनियाँ

मालिकों का तो काम ही है लूटना, मगर लगता है जैसे हम मजदूरों ने भी इसी को अपना धर्म मान लिया है कि बाबूजी जो कहें वही सही है। इसके आगे का कोई रास्ता नहीं। आज हर मज़दूर इतना ज्यादा असुरक्षित हो चुका है कि वह अपना अस्तित्व बचाने के लिए तरह-तरह की तीन-तिकड़मों में फँसता चला जा रहा है। तनख्वाह कम होने की वजह से मज़दूरों की सोच में यह बैठ चुका है कि अगर ओवरटाइम, नाइट व डबल डयूटी नहीं लगायेंगे तो गुज़ारा नहीं होगा। और हकीकत भी यह है कि आठ घण्टे काम के लिए 3500-4000 रुपये महीने की तनख्वाह से ज़िन्दगी की गाड़ी रास्ते में ही रुक जायेगी।

मज़दूर कुछ करे तो क़ानून, मालिक लूटें तो कोई क़ानून नहीं

मैं सोचता हूँ कि एक मज़दूर द्वारा एक छोटी सी चोरी करने पर, वह भी पता नहीं किस मज़बूरी में की होगी, पुलिस तुरन्त पहुँच गयी और कानून अपना काम फुर्ती से करने लग पड़ा। जबकि मालिक रोज मज़दूरों को लूटते हैं और गाली-गलौज करते हैं, मज़दूरों को राह में अक्सर लूट लिया जाता है, कारखानों में रोज मालिकों की मुनाफे की हवस के कारण मज़दूरों के हाथ-पैर कट जाते हैं या वे मौत के मुँह में धकेल दिये जाते हैं। मालिक सभी श्रम कानूनों को कुछ नहीं समझते लेकिन पुलिस और कानून कभी किसी मज़दूर की मदद के लिए नहीं आते। अगर कभी मज़दूर शिकायत दर्ज करवाने थाने चले भी जायें तो पुलिस उनकी एक नहीं सुनती और कई बार तो उल्टा मज़दूरों को ही हवालात में बन्द कर दिया जाता है। मज़दूरों की काम की परिस्थितियाँ और रिहायश के इलाके बहुत बुरे हैं लेकिन यह किसी कानून को दिखाई नहीं देता। यह कैसा कानून है जो सिर्फ मज़दूरों पर ही लागू होता है, यह कैसा पुलिस-प्रशासन है जिसे सिर्फ मज़दूरों के गुनाह ही दिखते हैं?

भूख से दम तोड़ते असम के चाय बागान मज़दूर

दुनियाभर में मशहूर असम की चाय तैयार करने वाले असम के चाय बागान मज़दूरों के भयंकर शोषण और संघर्ष की ख़बरें बीच-बीच में आती रही हैं, लेकिन पिछले छह महीने से वहाँ के एक चाय बागान में मज़दूरों के साथ जो हो रहा है वह असम राज्य और देश की शासन-व्यवस्था के लिए बेहद शर्मनाक है। असम के 3000 चाय मज़दूर और उनके परिवार, बागान प्रबन्धन के भयंकर शोषण-उत्पीड़न और सरकारी तन्त्र की घनघोर उपेक्षा की वजह से लगातार भुखमरी की हालत में जी रहे हैं। अभी तक कम से कम 14 मज़दूरों की मौत भूख, कुपोषण और ज़रूरी दवा-इलाज के अभाव में हो चुकी है। यह बागान असम के कछार ज़िले में भुवन वैली चाय बागान नाम से जाना जाता है जिस पर कोलकाता की एक निजी कम्पनी का मालिकाना है।