Category Archives: इतिहास

ज़हर का शिकार बनती स्त्री मज़दूरों के सवाल पर संघर्ष (ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम-4)

मज़दूरों का गुस्सा बढ़ गया और अगले दिन लगभग 120,000 मज़दूरों ने हड़ताल आन्दोलन में भाग लिया। पार्टी प्रकोष्ठ ने सभी फ़ैक्टरियों में शुरुआती आन्दोलन जारी रखे और पुलिस ने किसी भी तरह की कार्रवाई को रोकने के प्रयास किये। मज़दूरों के इलाक़ों में सघन तलाशियाँ ली गयीं और बहुत सारे मज़दूर गिरफ़्तार किये गये। गुप्त पुलिस ने मज़दूर संगठनों और बीमा समितियों के नेताओं पर विशेष ध्यान दिया, जिनमें से अधिकांश पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता थे। सभी नेताओं को ढूँढ़ निकालने की इस कोशिश के बावजूद आन्दोलन ने इतना बड़ा रूप ले लिया कि पुलिस उसका मुक़ाबला करने में सक्षम नहीं रह गयी। 

वे हमारे नेताओं की हत्या कर सकते हैं पर उनके विचारों को कभी नहीं मिटा सकते!

महान कम्युनिस्ट नेत्री और सिद्धान्तकार रोज़ा ने दूसरे इण्टरनेशनल के काउत्स्कीपंथी संशोधनवादियों और अन्ध-राष्ट्रवादियों के विरुद्ध जमकर सैद्धान्तिक-राजनीतिक संघर्ष किया और मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु की हिफ़ाज़त की। साम्राज्यवाद की सैद्धान्तिक समझ बनाने में उनसे कुछ चूकें हुईं और बोल्शेविक पार्टी-सिद्धान्तों और सर्वहारा सत्ता की संरचना और कार्य-प्रणाली पर भी लेनिन से उनके कुछ मतभेद थे (जिनमें से अधिकांश बाद में सुलझ चुके थे और रोज़ा अपनी गलती समझ चुकी थीं), लेकिन रोज़ा अपनी सैद्धांतिक चूकों के बावजूद, अपने युग की एक महान कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी नेत्री थीं।

गोदी मज़दूरों का संघर्ष और बोल्शेविकों का काम (ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम-3)

उनका उदारवाद एक ठकोसला था। उनका मक़सद महज़ बिल्कुल स्पष्ट प्रतिक्रियावादी क़दम उठाकर जनता को क्षुब्ध करने से बचना था। लेकिन असलियत में वे भी मैक्लाकोव, श्चेग्लोवितोव और दूसरे सामूहिक हत्यारों की ही तरह ब्लैक हण्ड्रेड्स की नीति पर अमल करते थे। ग्रिगोरोविच का “तर्कसंगत” रवैया बहुसंख्य अक्टूबरवादियों को इतना प्रिय था कि आगे चलकर जब अक्टूबरवादी विपक्ष में थे, रोड्ज़ियाँको ने ग्रिगोरोविच को ज़िम्मेदार मन्त्रीमण्डल का प्रधानमन्त्री बनाने की पेशकश की।

लेसनर कारख़ाने में हड़ताल और बोल्शेविकों का काम (ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम-2)

प्रथम विश्वयुद्ध के ठीक पहले के वर्षों में ऐसी अनेक घटनाएँ हुईं जब पीटर्सबर्ग शहर के मज़दूरों ने अपनी मज़बूत एकजुटता और संगठित ताक़त का परिचय दिया। लेकिन सघन और बहादुराना संघर्षों के इस दौर में लेसनर के कारख़ाने में हुई हड़ताल का ख़ास महत्व था। यह हड़ताल 1913 की पूरी गर्मियों के दौरान चली थी। इस हड़ताल के कारण, इसकी लम्बी अवधि और आम लोगों के बीच इसने जो व्यापक हमदर्दी हासिल की उसने इसे युद्ध से पहले के वर्षों में मज़दूर आन्दोलन की सबसे शानदार घटनाओं में से एक बना दिया।

टेक्स्टाइल उद्योग में हड़ताल और बोल्शेविकों का काम (ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम-1)

21 जनवरी को, कार्डिंग विभाग के तीस मज़दूरों को बिना कोई नोटिस दिये यह कह दिया गया कि आज से उनकी मज़दूरी 10 कोपेक प्रतिदिन कम कर दी गयी है। अगली सुबह इस विभाग के मज़दूरों ने मज़दूरी की पुरानी दर बहाल करने के लिए हड़ताल की घोषणा कर दी। मैनेजमेंट यही तो चाहता था। उस रात जब नयी शिफ़्ट के लोग काम पर आये, तो भाप की मशीनें रोक दी गयीं, बत्तियाँ बुझा दी गयीं, और आने वाले मज़दूरों से कह दिया गया कि फ़ैक्ट्री में अनिश्चित काल तक काम बन्द रहेगा और सभी मज़दूरों का हिसाब कर दिया जायेगा। ज़ाहिर था कि मालिकान भड़कावे की कार्रवाई कर रहे हैं। तीस मज़दूरों की माँगें पूरी करने में उन्हें सिर्फ़ 3 रूबल प्रतिदिन ख़र्च करना पड़ता, लेकिन इसकी वजह से 1200 मज़दूर, जो हड़ताल में शामिल भी नहीं थे, बेरोज़गारी और भुखमरी की ओर धकेले जा रहे थे।

वाचन संस्‍कृति – मेहनतकशों और मुनाफाखोरों के शासन में फर्क

आखिरकार इतना फ़र्क क्यों है? क्यों एक ऐसा देश जहाँ 1917 की क्रांति से पहले 83% लोग अनपढ़ थे वह महज़ 3 दशकों के अंदर ही दुनिया का सब से पढ़ने-लिखने वाला देश बन गया और क्यों भारत, जिस को कि आज़ाद हुए 70 साल हो गए हैं, वहाँ अभी भी पढ़ने की संस्कृति बेहद कम है? फ़र्क दोनों देशों की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक  व्‍यवस्‍था का है। फ़र्क भारत के पूंजीवाद और सोवियत यूनियन के समाजवाद का है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : भारतीय फ़ासीवादियों की असली जन्मकुण्डली

आरएसएस ने भी खुले तौर पर जर्मनी में नात्सियों द्वारा यहूदियों के क़त्लेआम का समर्थन किया। हेडगेवार ने मृत्यु से पहले गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइण्ड’ और बाद में प्रकाशित हुई ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ में जर्मनी में नात्सियों द्वारा उठाये गये क़दमों का अनुमोदन किया था। गोलवलकर आरएसएस के लोगों के लिए सर्वाधिक पूजनीय सरसंघचालक थे। उन्हें आदर से संघ के लोग ‘गुरुजी’ कहते थे। गोलवलकर ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में मेडिकल की पढ़ाई की और उसके बाद कुछ समय के लिए वहाँ पढ़ाया भी। इसी समय उन्हें ‘गुरुजी’ नाम मिला। हेडगेवार के कहने पर गोलवलकर ने संघ की सदस्यता ली और कुछ समय तक संघ में काम किया। अपने धार्मिक रुझान के कारण गोलवलकर कुछ समय के लिए आरएसएस से चले गये और किसी गुरु के मातहत संन्यास रखा। इसके बाद 1939 के क़रीब गोलवलकर फिर से आरएसएस में वापस आये। इस समय तक हेडगेवार अपनी मृत्युशैया पर थे और उन्होंने गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। 1940 से लेकर 1973 तक गोलवलकर आरएसएस के सुप्रीमो रहे।

क्रान्तिकारी सोवियत संघ में स्वास्थ्य सेवाएँ

सोवियत संघ में स्वास्थ्य सुविधा पूरी जनता को नि:शुल्क उपलब्ध थी। वहाँ गोरखपुर की तरह ऑक्सीजन सिलेण्डर के अभाव में बच्चे नहीं मरते थे और ना ही भूख से कोई मौत होती थी। सोवियत रूस में गृह युद्ध (1917-1922) के दौरान स्वास्थ्य सेवाएँ बहुत पिछड़ गयी थीं। 1921 में जब गृहयुद्ध में सोवियत सत्ता जीत गयी, तब रूस में सब जगह गृहयुद्ध के कारण बुरा हाल था। देशभर में टाइफ़ाइड और चेचक जैसी बीमारियों से कई लोग मर रहे थे। साबुन, दवा, भोजन, मकान, स्कूल, पानी आदि तमाम बुनियादी सुविधाओं का चारों तरफ़़़ अकाल था। मृत्यु दर कई गुना बढ़ गयी थी और प्रजनन दर घट गयी थी। चारों तरफ़़़ अव्यवस्था का आलम था। पूरा देश स्वास्थ्य कर्मियों, अस्पतालों, बिस्तरों, दवाइयों, विश्रामगृहों के अभाव की समस्या से जूझ रहा था। ऐसे में सोवियत सत्ता ने एक केन्द्रीयकृत चिकित्सा प्रणाली को अपनाने का फ़ैसला किया जिसका लक्ष्य था छोटी दूरी में इलाज करना और लम्बी दूरी में बीमारी से बचाव के साधनों-तरीक़ों पर ज़ोर देना ताकि लोगों के जीवन स्तर को सुधारा जा सके।

मौजूदा आर्थिक संकट और मार्क्स की ‘पूँजी’

यह बात तो आज सबके सामने स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था एक बेहद गहन संकट की शिकार है। वर्तमान सत्ताधारी दल के घोर समर्थक भी अब इससे इंकार कर पाने में असमर्थ हैं, क्योंकि भयंकर रूप से बढ़ती बेरोज़गारी, घटती मज़दूरी, आसमान छूती महँगाई, अधिसंख्य जनता के लिए पोषक भोजन का अभाव, शिक्षा-स्वास्थ्य-आवास आदि सुविधाओं से वंचित होते अधिकांश लोग, कृषि में संकट और बढ़ती आत्महत्याएँ – ये सब ऐसे तथ्य हैं जिन्हें झुठलाना अब किसी के बस में नहीं। अभी बहस का मुद्दा इस संकट की वजह और इसके समाधान का रास्ता है। बीजेपी, कांग्रेस, आदि बुर्जुआ पार्टियाँ और उनके समर्थक इसके लिए एक-दूसरे की नीतियों को जि़म्मेदार ठहराते और ख़ुद की सरकार द्वारा इससे निजात दिलाने के बड़े-बड़े गलाफाड़ू दावे करते देखे जा सकते हैं, लेकिन सरकार कोई भी रहे, आम मेहनतकश जनता के जीवन में संकट है कि कम होने के बजाय बढ़ता ही जाता है।

अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस पर पूँजीवादी शोषण के खि़लाफ़ संघर्ष जारी रखने का संकल्प लिया

इस वक़्त पूरी दुनिया में मज़दूर सहित अन्य तमाम मेहनतकश लोगों का पूँजीपतियों-साम्राज्यवादियों द्वारा लुट-शोषण पहले से भी बहुत बढ़ गया है। वक्ताओं ने कहा कि भारत में तो हालात और भी बदतर हैं। मज़दूरों को हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी इतनी आमदनी भी नहीं है कि अच्छा भोजन, रिहायश, स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि ज़रूरतें भी पूरी हो सकें। भाजपा, कांग्रेस, अकाली दल, आप, सपा, बसपा सहित तमाम पूँजीवादी पार्टियों की उदारीकरण-निजीकरण-भूमण्डलीकरण की नीतियों के तहत आठ घण्टे दिहाड़ी, वेतन, हादसों व बीमारियों से सुरक्षा के इन्तज़ाम, पीएफ़, बोनस, छुट्टियाँ, काम की गारण्टी, यूनियन बनाने आदि सहित तमाम श्रम अधिकारों का हनन हो रहा है। काले क़ानून लागू करके जनवादी अधिकारों को कुचला जा रहा है।