Category Archives: इतिहास

माओवादी चीन में रोज़मर्रा का जीवन

बेशक यह एक पूँजीवादी समाज में रह रहे लोगों के लिए अचम्भा था, उनके ख़्याल से परे की बात थी। लेकिन यह महज़ ‘सपना’ नहीं था जैसा कि ‘न्यूज़वीक’ ने लिखा, बल्कि यह हक़ीकत थी या यूँ कहा जाये कि मानव मुक्ति के सपने को अमली जामा पहनाने की की गयी एक बड़ी कोशिश थी। और अपनी इन्हीं कोशिशों के चलते चीनी लोगों ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा और नेपोलियन की इस उक्ति को सच कर दिखाया कि, “चीनी धरती को सोने दो, क्योंकि यदि वह जाग गयी तो पूरी दुनिया को हिलाकर रख देगी।” बकौल इंशा –

पुस्‍तकों की पीडीएफ : कार्ल मार्क्‍स : जीवन और शिक्षाएं

मार्क्स और उनके अभिन्न मित्र एंगेल्स ने सर्वहारा वर्ग के शोषण और पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में अन्तर्निहित अराजकता एवं अन्तरविरोधों को उजागर करते हुए यह दिखलाया कि किस तरह पूँजीपति द्वारा हड़पा जाने वाला अतिरिक्त मूल्य मज़दूरों के शोषण से आता है। उन्होंने राजनीति, साहित्य-कला-संस्कृति, सौन्दर्यशास्त्र, विधिशास्त्र, नीतिशास्त्र – सभी क्षेत्रों में चिन्तन एवं विश्लेषण की द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी पद्धति को स्थापित करके वैज्ञानिक समाजवाद के विचार को समृद्ध किया। मार्क्स और एंगेल्स ने अपने समय की पूँजीवादी क्रान्तियों, सर्वहारा संघर्षों और उपनिवेशों में जारी प्रतिरोध संघर्षों एवं राष्ट्रीय मुक्तियुद्धों का सार-संकलन किया, मज़दूर आन्दोलन को सिर्फ़ सुधारों तक सीमित रखकर मूल लक्ष्य से च्युत कर देने के अवसरवादियों के प्रयासों की धज्जियाँ उड़ा दीं, पूँजीवादी बुद्धिजीवियों और भितरघातियों की संयुक्त बौद्धिक शक्ति का मुक़ाबला करते हुए राज्य और क्रान्ति के बारे में मूल मार्क्सवादी स्थापनाओं को निरूपित किया और सर्वहारा वर्ग के दर्शन को समृद्ध करने के साथ ही उसे रणनीति एवं रणकौशलों की एक मंजूषा भी प्रदान की।

पर्चा – 1 मई, अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस ज़िन्दाबाद! मई दिवस के शहीद अमर रहें!

भारत पर इस समय फ़ासीवादी शिकंजा कसता जा रहा है। फ़ासीवादी बड़ी पूँजी की सेवा करते हैं तथा मज़दूर वर्ग समेत तमाम गरीबों को जाति-धर्म-क्षेत्र के नाम पर आपस में भिड़ा देते हैं। मोदी सरकार एक ओर तो आज मज़दूरों के रहे-सहे श्रम कानूनों को ख़त्म करती जा रही है तथा दूसरी ओर जाति-धर्म के झगड़े-दंगे फैलाने वालों को शह दे रही है। हर तरफ़ वायदा ख़िलाफ़ी, झूठ, जुमलेबाजी का बोलबाला है। इतिहास गवाह है कि फ़ासीवाद को संगठित मज़दूर वर्ग ही परास्त कर सकता है। जाति-मजहब की दीवारों को गिराकर हमें अपने साझे संघर्ष के लिए एकजुट होना होगा।

सोवियत संघ में सांस्कृतिक प्रगति – एक जायज़ा (दूसरी किश्त) 

1917 की समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देने वाली बाेल्शेविक पार्टी कला की अहमियत के प्रति पूरी सचेत थी। वह जानती थी कि कला लोगों के आत्मिक जीवन को ऊँचा उठाने, उनको सुसंकृत बनाने में कितनी सहायक होती है। अभी जब सिनेमा अपने शुरुआती दौर में ही था, तो हमें उसी समय पर ही लेनिन का वह प्रसिद्ध कथन मिलता है, जो उन्होंने लुनाचार्स्की के साथ अपनी मुलाक़ात के दौरान कहा था, “सब कलाओं में से सिनेमा हमारे लिए सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है।” क्रान्ति के फ़ौरन बाद ही से सोवियत सरकार की तरफ़ से बाेल्शेविक पार्टी की इस समझ पर अमल का काम भी शुरू हो गया। जल्द ही ये प्रयास किये गये कि पूरे सोवियत संघ में संस्कृति के केन्द्रों का विस्तार किया जाये।

कविता : लेनिन की मृत्यु पर कैंटाटा / बेर्टोल्ट ब्रेष्ट Poem : Cantata on the day of Lenin’s death / Bertolt Brecht

जिस दिन लेनिन नहीं रहे
कहते हैं, शव की निगरानी में तैनात एक सैनिक ने
अपने साथियों को बताया: मैं
यक़ीन नहीं करना चाहता था इस पर।
मैं भीतर गया और उनके कान में चिल्लाया: ‘इलिच
शोषक आ रहे हैं।’ वह हिले भी नहीं।
तब मैं जान गया कि वो जा चुके हैं।

वारसा घेट्टो के नौजवानों का फासिस्ट-विरोधी वीरतापूर्ण विद्रोह हमें प्रेरित करता रहेगा!

 पोलैंड पर कब्जे के कुछ सप्ताह में ही जर्मन नाजियों ने वारसा की 4 लाख यहूदी आबादी को शेष आबादी से अलग कर 10 फुट ऊँची दीवारों से घिरे एक छोटे से  बाड़े में जाने को विवश कर दिया था। इसके बाद इसमें अन्य स्थानों से लाये गये 5 लाख और यहूदियों को भी भर दिया गया था। हालत ऐसे समझी जा सकती है कि वारसा शहर की 30% आबादी उसके 2.6% स्थान में ठूँस दी गई थी। ढाई मील लम्बी इस बस्ती में इससे पहले सिर्फ डेढ़ लाख आबादी थी। कई-कई परिवार एक ही कमरे में रहने को मजबूर थे, भोजन की बेहद कमी थी, ग़रीबी, भुखमरी और बीमारी चरम पर थी। 1942 आते-आते हालत यह थी कि हर महीने 5 हज़ार लोग बीमारी व कुपोषण से जान गँवा रहे थे।

लेनिन की कविता की कुछ पक्तियाँ

पैरों से रौंदे गये आज़ादी के फूल

आज नष्ट हो गये हैं

अँधेरे की दुनिया के स्वामी

रोशनी की दुनिया का खौफ़ देख ख़ुश हैं

मगर उस फूल के फल ने पनाह ली है

स्मृति में प्रेरणा, विचारों में दिशा : तीसरे इण्टरनेशनल, मास्को के अध्यक्ष को तार

“लेनिन-दिवस के अवसर पर हम सोवियत रूस में हो रहे महान अनुभव और साथी लेनिन की सफलता को आगे बढ़ाने के लिए अपनी दिली मुबारक़बाद भेजते हैं। हम अपने को विश्व-क्रान्तिकारी आन्दोलन से जोड़ना चाहते हैं। मज़दूर-राज की जीत हो। सरमायादारी का नाश हो।

सोवियत संघ में सांस्कृतिक प्रगति – एक जायज़ा (पहली किश्त)

एक ऐसा देश जहाँ क्रान्ति से पहले हालत भारत जैसी ही थी, जहाँ  60% से ज़्यादा लोग अनपढ़ थे वह सिर्फ़़ 36 सालों में सांस्कृतिक लिहाज़ से (इस मामले में ख़ास किताबों की संस्कृति) इतना आगे निकल जाता है कि भारत अपने 70 सालों के ‘आज़ादी’ के सफ़र के बाद भी उसके आगे बेहद बौना नज़र आता है? और यह सब वह क्रान्ति-पश्चात चले तीन वर्षों के गृह-युद्ध को सहते हुए, सत्ता से उतारे शोषक वर्गों की ओर से पैदा की जा रही अन्दरूनी गड़बड़ियों के चलते और नाज़ी फ़ासीवादियों के ख़िलाफ़ चले महान युद्ध का नुक़सान उठाते हुए हासिल किया जिस युद्ध में कि सोवियत संघ की आर्थिकता का बड़ा हिस्सा तबाह और बरबाद हो गया था, 2 करोड़ से ज़्यादा नौजवानों को लामिसाली कुर्बानियाँ देनी पड़ीं थीं।

भीमा कोरेगाँव की लड़ाई के 200 साल का जश्न – जाति अन्त की परियोजना ऐसे अस्मितावाद से आगे नहीं बल्कि पीछे जायेगी!

भारत की जनता को बाँटने के लिए अंग्रेज़ों ने यहाँ की जाति व्यवस्था का भी इस्तेमाल किया था और धर्म का भी। अंग्रेज़ों ने जाति व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए सचेतन तौर पर कुछ ख़ास नहीं किया। ऐसे में कोई अपने आप को जाति अन्त का आन्दोलन कहे (रिपब्लिकन पैन्थर अपने को जाति अन्त का आन्दोलन घोषित करता है) और भीमा कोरेगाँव युद्ध की बरसी मनाने को अपने सबसे बड़े आयोजन में रखे तो स्वाभाविक है कि वह यह मानता है कि अंग्रेज़ जाति अन्त के सिपाही थे! हक़ीक़त हमारे सामने है। ऐसे अस्मितावादी संगठन जाति अन्त की कोई सांगोपांग योजना ना तो दे सकते हैं और ना उस पर दृढ़ता से अमल कर सकते हैं। हताशा-निराशा में हाथ-पैर मारते ये कभी भीमा कोरेगाँव जयन्ती मनाते हैं तो कभी ‘संविधान बचाओ’ जैसे खोखले नारे देते हैं।