Category Archives: समाजवादी प्रयोग

अक्टूबर क्रान्ति की स्मृति और विरासत का आज हम मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए क्या अर्थ है?

रूसी कैलेण्डर के अनुसार, 1917 के अक्टूबर महीने में रूस के सर्वहारा वर्ग ने अपनी कम्युनिस्ट पार्टी, जिसका नाम बोल्शेविक पार्टी था, की अगुवाई में पूँजीपतियों और पूँजीवादी ज़मीन्दारों की सत्ता को एक क्रान्ति के ज़रिए उखाड़ फेंका और मज़दूर राज की स्थापना की। हमारे कैलेण्डर के अनुसार, यह महान घटना 7 नवम्बर 1917 को हुई थी। इस मज़दूर राज के पहले व्यवस्थित प्रयोग का जीवन 36 वर्षों तक चला। उसके बाद पूँजीपति वर्ग ने मज़दूर वर्ग की सत्ता को गिराकर पूँजीवादी व्यवस्था की पुनर्स्थापना कर दी। यह कोई अनोखी बात नहीं थी। जब पूँजीपति वर्ग ने सामन्ती ज़मीन्दारों, राजे-रजवाड़ों और चर्च की सत्ता को दुनिया में पहली बार ज़मीन्दोज़ किया था तो उसकी सत्ता तो एक दशक भी मुश्किल से चली थी।

फिर लोहे के गीत हमें गाने होंगे दुर्गम यात्राओं पर चलने के संकल्प जगाने होंगे

7 नवम्बर 2021 को रूस की महान अक्तूबर समाजवादी क्रान्ति के 104 वर्ष पूरे हो गये। इस क्रान्ति के साथ मानव समाज के इतिहास का एक नया अध्याय शुरू हुआ था और बीसवीं सदी के इतिहास को यदि किसी घटना ने सबसे ज़्यादा परिभाषित किया था, तो वह यह क्रान्ति थी। यह कोई साहित्यिक दावा या मुहावरे के रूप में कही गयी बात नहीं है, बल्कि शब्दश: सच है। इस क्रान्ति ने मानव इतिहास में मज़दूर वर्ग की पहली व्यवस्थित राज्यसत्ता स्थापित की और समाजवाद के पहले महान प्रयोग की शुरुआत की।

क्रान्तिकारी समाजवाद ने किस प्रकार महामारियों पर क़ाबू पाया

पिछले डेढ़ वर्ष से जारी कोरोना वैश्विक महामारी ने न सिर्फ़ तमाम पूँजीवादी देशों की सरकारों के निकम्मेपन को उजागर किया है बल्कि पूँजीवादी चिकित्सा व्यवस्था के जनविरोधी चरित्र को भी पूरी तरह से बेनक़ाब कर दिया है और पूँजीवाद के सीमान्तों को उभारकर सामने ला दिया है। मुनाफ़े की अन्तहीन सनक पर टिके पूँजीवाद की क्रूर सच्चाई अब सबके सामने है। विज्ञान व प्रौद्योगिकी की विलक्षण प्रगति का इस्तेमाल महामारी पर क़ाबू पाने की बजाय ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के नये अवसर तलाशने के लिए किया जा रहा है।

क्रान्तिकारी सोवियत संघ में स्वास्थ्य सेवाएँ

सोवियत संघ में स्वास्थ्य सुविधा पूरी जनता को नि:शुल्क उपलब्ध थी। वहाँ गोरखपुर की तरह ऑक्सीजन सिलेण्डर के अभाव में बच्चे नहीं मरते थे और ना ही भूख से कोई मौत होती थी। सोवियत रूस में गृह युद्ध (1917-1922) के दौरान स्वास्थ्य सेवाएँ बहुत पिछड़ गयी थीं। 1921 में जब गृहयुद्ध में सोवियत सत्ता जीत गयी, तब रूस में सब जगह गृहयुद्ध के कारण बुरा हाल था। देशभर में टाइफ़ाइड और चेचक जैसी बीमारियों से कई लोग मर रहे थे। साबुन, दवा, भोजन, मकान, स्कूल, पानी आदि तमाम बुनियादी सुविधाओं का चारों तरफ़़़ अकाल था। मृत्यु दर कई गुना बढ़ गयी थी और प्रजनन दर घट गयी थी। चारों तरफ़़़ अव्यवस्था का आलम था। पूरा देश स्वास्थ्य कर्मियों, अस्पतालों, बिस्तरों, दवाइयों, विश्रामगृहों के अभाव की समस्या से जूझ रहा था। ऐसे में सोवियत सत्ता ने एक केन्द्रीयकृत चिकित्सा प्रणाली को अपनाने का फ़ैसला किया जिसका लक्ष्य था छोटी दूरी में इलाज करना और लम्बी दूरी में बीमारी से बचाव के साधनों-तरीक़ों पर ज़ोर देना ताकि लोगों के जीवन स्तर को सुधारा जा सके।

माओवादी चीन में रोज़मर्रा का जीवन

बेशक यह एक पूँजीवादी समाज में रह रहे लोगों के लिए अचम्भा था, उनके ख़्याल से परे की बात थी। लेकिन यह महज़ ‘सपना’ नहीं था जैसा कि ‘न्यूज़वीक’ ने लिखा, बल्कि यह हक़ीकत थी या यूँ कहा जाये कि मानव मुक्ति के सपने को अमली जामा पहनाने की की गयी एक बड़ी कोशिश थी। और अपनी इन्हीं कोशिशों के चलते चीनी लोगों ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा और नेपोलियन की इस उक्ति को सच कर दिखाया कि, “चीनी धरती को सोने दो, क्योंकि यदि वह जाग गयी तो पूरी दुनिया को हिलाकर रख देगी।” बकौल इंशा –

सोवियत संघ में सांस्कृतिक प्रगति – एक जायज़ा (दूसरी किश्त) 

1917 की समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देने वाली बाेल्शेविक पार्टी कला की अहमियत के प्रति पूरी सचेत थी। वह जानती थी कि कला लोगों के आत्मिक जीवन को ऊँचा उठाने, उनको सुसंकृत बनाने में कितनी सहायक होती है। अभी जब सिनेमा अपने शुरुआती दौर में ही था, तो हमें उसी समय पर ही लेनिन का वह प्रसिद्ध कथन मिलता है, जो उन्होंने लुनाचार्स्की के साथ अपनी मुलाक़ात के दौरान कहा था, “सब कलाओं में से सिनेमा हमारे लिए सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है।” क्रान्ति के फ़ौरन बाद ही से सोवियत सरकार की तरफ़ से बाेल्शेविक पार्टी की इस समझ पर अमल का काम भी शुरू हो गया। जल्द ही ये प्रयास किये गये कि पूरे सोवियत संघ में संस्कृति के केन्द्रों का विस्तार किया जाये।

सोवियत संघ में सांस्कृतिक प्रगति – एक जायज़ा (पहली किश्त)

एक ऐसा देश जहाँ क्रान्ति से पहले हालत भारत जैसी ही थी, जहाँ  60% से ज़्यादा लोग अनपढ़ थे वह सिर्फ़़ 36 सालों में सांस्कृतिक लिहाज़ से (इस मामले में ख़ास किताबों की संस्कृति) इतना आगे निकल जाता है कि भारत अपने 70 सालों के ‘आज़ादी’ के सफ़र के बाद भी उसके आगे बेहद बौना नज़र आता है? और यह सब वह क्रान्ति-पश्चात चले तीन वर्षों के गृह-युद्ध को सहते हुए, सत्ता से उतारे शोषक वर्गों की ओर से पैदा की जा रही अन्दरूनी गड़बड़ियों के चलते और नाज़ी फ़ासीवादियों के ख़िलाफ़ चले महान युद्ध का नुक़सान उठाते हुए हासिल किया जिस युद्ध में कि सोवियत संघ की आर्थिकता का बड़ा हिस्सा तबाह और बरबाद हो गया था, 2 करोड़ से ज़्यादा नौजवानों को लामिसाली कुर्बानियाँ देनी पड़ीं थीं।

स्त्रियों को पहली बार वास्तविक आज़ादी की राह पर आगे बढ़ाने का काम अक्टूबर क्रान्ति के बाद स्थापित सोवियत समाजवाद ने किया

आज तमाम बुर्जुआ नारीवादी, उत्तर आधुनिकतावादी, अस्मितावादी चिन्तक, वर्ग-अपचयनवादी सूत्रीकरण पेश करते हुए स्त्री-प्रश्न पर मार्क्सवादी चिन्तन को गुज़रे ज़माने की चीज़ बताते हैं। अकादमिक हलक़ाें में भी इस तथ्य का उल्लेख हमें नहीं मिलता है कि रूसी क्रान्ति के बाद इतिहास में सोवियत सत्ता ने पहली बार, स्त्रियों को बराबरी का अधिकार दिया, इसे न केवल क़ानूनी धरातल पर बल्कि आर्थिक-राजनीतिक व सामाजिक धरातल पर इसे सम्भव बनाया। ज्ञात इतिहास में पहली बार स्त्रियों को चूल्हे-चौखट की गुलामी से मुक्त किया गया। विवाह, तलाक व सहजीवन जैसे मामलों में राज्य, समाज और धर्म के हस्तक्षेप को ख़त्म किया गया। भारी पैमाने पर स्त्रियों की उत्पादन और समस्त आर्थिक-राजनीतिक कार्यवाहियों में बराबरी की भागीदारी को सम्भव बनाया। यह कहा जा सकता है कि प्रबोधन कालीन मुक्ति और समानता के आदर्शों को पहली बार इतिहास में वास्तविकता के धरातल पर उतारने का काम अक्टूबर क्रान्ति ने किया।

समाजवादी चीन और पूँजीवादी चीन की दो फैक्टरियों के बीच फर्क

पूँजीवादी देश में फैक्टरियों में निजी हस्तगतीकरण होता है और मज़दूरों के श्रम से पैदा हुआ बेशी मूल्य सीधे मालिक अपनी जेब में रखता है इसलिए इनकी उत्पादन व्यवस्था अधिकतम प्रोडक्शन पर जोर देती है और मज़दूर को मशीन के एक टूकड़े में बदल देती है। उसके बरक्स समाजवाद एक ऐसी व्यवस्था है जो मज़दूरों को उसके जीवन का असली आधार प्रदान करती है। हम आगे इस अंतर को और आगे विस्तारित करेंगे और सिर्फ फैक्टरी स्तर पर ही नहीं बल्कि मज़दूरों के रहने की जगह में, सुविधाओं के ढाँचे के बारे में विस्तार से बात करते हुए समाजवाद और पूँजीवाद के अंतर के बारे में गहनता से समझेंगे। लेकिन एक बात यहाँ जो समझ में आती है कि फैक्टरी फ्लोर के स्तर पर समाजवादी चीन और पूँजीवाद चीन में ज़मीन आसमान का अंतर है। यह हमें समझना होगा कि हमें क्या चाहिए? फोक्स्कोन की फैक्टरी के हालात आज भारत की भी लगभग हर फैक्टरी के हालात हैं। यहाँ भी मैनेजमेंट और मज़दूर के बीच मालिक और गुलाम का सम्बन्ध है न कि किसी समूह के दो सदस्यों सरीखा व्यवहार है। हमें अपनी फैक्टरी के हालातों को बदलना है तो इस मैनेजमेंट को बनाने वाली मुनाफ़ा आधारित व्यवस्था को ही ख़त्म करना होगा।

समाजवादी सोवियत संघ ने वेश्‍यावृत्ति का ख़ात्‍मा कैसे किया ?

क्रान्ति से पहले तक अकेले पीटर्सबर्ग शहर में सरकारी लायसेंसप्राप्त औरतों की संख्या 60,000 थी। 10 में से 8 वेश्याएं 21 साल से कम उम्र की थीं। आधे से ज़्यादा ऐसीं थीं, जिन्होंने 18 साल से पहले ही इस पेशे को अपना लिया था। रूस में नैतिक पतन का यह कीचड़ जहाँ एक तरफ आमदनी का स्रोत था, वहीं दूसरी तरफ यह रूस के कुलीन लोगों के लिए विदेशों से आने वाले लोगों के सामने शर्मिन्दगी का कारण भी बनता था। इसलिए इन कुलीन लोगों ने ज़ार सरकार पर दबाव बनाया और ज़ार द्वारा इस मसले पर विचार करने के लिए एक कांग्रेस भी बुलाई गई। इस कांग्रेस में मज़दूर संगठनों द्वारा भी अपने सदस्य भेजे गये। मज़दूर नुमाइंदों द्वारा यह बात पूरे जोर-शोर से उठाई गई कि रूस में वेश्यावृत्ति का मुख्य कारण ज़ारशाही का आर्थिक और राजनैतिक ढाँचा है। लेकिन ज़ाहिर है कि ऐसे विचारों को दबा दिया गया। पुलिस अधिकारियों का कहना था कि ‘भले घरानों’ की औरतें पर प्रभाव न पड़े, इसलिए ज़रूरी है कि ‘निचली जमात’ की औरतें ज़िन्दगी भर के लिए यह पेशा करती रहें।