Category Archives: विरासत

‘इण्टरनेशनल’ के रचयिता यूजीन पोतिए के 135वें स्मृति दिवस पर लेनिन का लेख

पिछले साल, 1912 के नवम्बर में, फ़्रांसीसी मज़दूर कवि, सर्वहारा वर्ग के प्रसिद्ध गीत, “इण्टरनेशनल” (“उठ जाग, ओ भूखे बन्दी,” आदि) के लेखक यूजीन पोतिए की मृत्यु को हुए पच्चीस वर्ष पूरे हो गये। (उनकी मृत्यु 1887 में हुई थी।) उनके इस गीत का सभी यूरोपीय तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। कोई भी वर्ग चेतन मज़दूर चाहे जिस देश में वह पहुँच जाये, क़िस्मत उसे चाहे जहाँ ढकेलकर ले जाये, भाषा-विहीन, नेत्र-विहीन, अपने देश से दूर कहीं वह चाहे जितना अजनबी महसूस करे – “इण्टरनेशनल” (मज़दूरों के अन्तर्राष्ट्रीय गीत) की परिचित टेकों के माध्यम से वह वहाँ अपने लिए साथी और मित्र ढूँढ़ सकता है।

अक्टूबर क्रान्ति की स्मृति और विरासत का आज हम मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए क्या अर्थ है?

रूसी कैलेण्डर के अनुसार, 1917 के अक्टूबर महीने में रूस के सर्वहारा वर्ग ने अपनी कम्युनिस्ट पार्टी, जिसका नाम बोल्शेविक पार्टी था, की अगुवाई में पूँजीपतियों और पूँजीवादी ज़मीन्दारों की सत्ता को एक क्रान्ति के ज़रिए उखाड़ फेंका और मज़दूर राज की स्थापना की। हमारे कैलेण्डर के अनुसार, यह महान घटना 7 नवम्बर 1917 को हुई थी। इस मज़दूर राज के पहले व्यवस्थित प्रयोग का जीवन 36 वर्षों तक चला। उसके बाद पूँजीपति वर्ग ने मज़दूर वर्ग की सत्ता को गिराकर पूँजीवादी व्यवस्था की पुनर्स्थापना कर दी। यह कोई अनोखी बात नहीं थी। जब पूँजीपति वर्ग ने सामन्ती ज़मीन्दारों, राजे-रजवाड़ों और चर्च की सत्ता को दुनिया में पहली बार ज़मीन्दोज़ किया था तो उसकी सत्ता तो एक दशक भी मुश्किल से चली थी।

तेलंगाना में निज़ाम की सत्ता के पतन की 75वीं बरसी पर जश्न मनाने की होड़ में भाजपा और टीआरएस ने की इतिहास के साथ बदसलूकी

गत 17 सितम्बर को तेलंगाना में निज़ाम की सत्ता के पतन की 75वीं बरसी के मौक़े पर हैदराबाद शहर में भाजपा और टीआरएस के बीच जश्न मनाने की बेशर्म होड़ देखने में आयी। पूरा शहर दोनों पार्टियों के पोस्टरों व बैनरों से पाट दिया गया था। शहर में दोनों पार्टियों द्वारा कई स्थानों पर रैलियाँ निकाली गयीं और जनता की हाड़तोड़ मेहनत से कमाये गये करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाये गये। भाजपा व केन्द्र सरकार ने इस दिन को ‘हैदराबाद मुक्ति दिवस’ के रूप में मनाया, जबकि टीआरएस व तेलंगाना सरकार ने इसे ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के रूप में मनाया। ग़ौरतलब है कि भाजपा पिछले कई सालों से 17 सितम्बर को ‘हैदराबाद मुक्ति दिवस’ के रूप में मनाने की मुहिम चलाती आयी थी।

मज़दूरों और मेहनतकशों की मुक्ति को समर्पित महान क्रान्तिकारी और चिन्तक थे हमारे भगतसिंह

23 साल की उम्र में देश की आज़ादी के लिए फाँसी के फन्दे पर झूल जाने वाले एक बहादुर नौजवान भगतसिंह की तनी हुई मूँछें और टोपी वाली तस्वीर तो आपने देखी होगी। असेम्बली में बम फेंकने और वहाँ से भागने के बजाय अपनी गिरफ़्तारी देकर बहरी अंग्रेज़ी सरकार को चुनौती देने वाली कहानियों से कई लोग परिचित होंगे। भारतीय शासक वर्ग की पूरी जमात हमारे महान पूर्वज शहीदेआज़म भगतसिंह के जन्मदिवस और शहादत दिवस पर उनके जीवन के केवल इन्हीं पक्षों पर ज़ोर देते रहते हैं क्योंकि उन्हें यह डर लगातार सताता रहता है कि कहीं जनता इनके विचारों को जानकर अन्याय के विरुद्ध विद्रोह न कर दे।

‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ : एक जनविद्रोह जो भारतीय पूँजीपति वर्ग के वर्चस्व से निकलकर क्रान्तिकारी दिशा में जा सकता था

‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ जनता के क्रान्तिकारी संघर्षों की विरासत का एक एहम हिस्सा है। 1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में हुए जनउभार ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन का अन्त सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इस आन्दोलन में आम मेहनतकश जनता की बड़े स्तर पर भागीदारी थी। क़रीब 40 प्रतिशत मज़दूरों और किसानों ने इस आन्दोलन में हिस्सेदारी की और यह आन्दोलन सिर्फ़ शहरों तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि गाँव-गाँव में फैल गया था। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का अंग्रेज़ी हुकूमत पर क्या प्रभाव पड़ा इसको हम तभी के वायसराय लिनलिथगो के इस वक्तव्य से जान सकते हैं जो उन्होंने तभी के प्रधानमंत्री चर्चिल को लिखे पत्र में कहा था कि “यह 1857 के बाद का सबसे गम्भीर विद्रोह है जिसकी गम्भीरता और विस्तार को हम अब तक सैन्य सुरक्षा की दृष्टि से छुपाये हुए हैं।”

मई दिवस को मज़दूर वर्ग के जुझारू संघर्ष की नयी शुरुआत का मौक़ा बनाओ!

मई दिवस का नाम हम सभी जानते हैं। हममें से कुछ हैं जो 1 मई, यानी मज़दूर दिवस या मई दिवस, के पीछे मौजूद गौरवशाली इतिहास से भी परिचित हैं। लेकिन कई ऐसे भी हैं, जो कि इस इतिहास से परिचित नहीं हैं। यह भी एक त्रासदी है कि हम मज़दूर अपने ही तेजस्वी पुरखों के महान संघर्षों और क़ुर्बानियों से नावाकि़फ़ हैं। जो मई दिवस की महान अन्तरराष्ट्रीय विरासत से परिचित हैं, वे भी आज इसे एक रस्मअदायगी क़वायदों में डूबता देख रहे हैं। कहीं न कहीं हमारे जीवन की तकलीफ़ों में हम भी जाने-अनजाने इसे रस्मअदायगी ही मान चुके हैं। यह मज़दूर वर्ग के लिए बहुत ख़तरनाक बात है। क्यों?

भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत (23 मार्च) की 91वीं बरसी पर

इलाहाबाद में संगम के बग़ल में बसी हुई मज़दूरों-मेहनतकशों की बस्ती में विकास के सारे दावे हवा बनकर उड़ चुके हैं। आज़ादी के 75 साल पूरा होने पर सरकार अपने फ़ासिस्ट एजेण्डे के तहत जगह-जगह अन्धराष्ट्रवाद की ख़ुराक परोसने के लिए अमृत महोत्सव मना रही है वहीं दूसरी ओर इस बस्ती को बसे 50 साल से ज़्यादा का समय बीत चुका है लेकिन अभी तक यहाँ जीवन जीने के लिए बुनियादी ज़रूरतें, जैसे पानी, सड़कें, शौचालय, बिजली, स्कूल आदि तक नहीं हैं।

पितृसत्ता के ख़िलाफ़ कोई भी लड़ाई पूँजीवाद विरोधी लड़ाई से अलग रहकर सफल नहीं हो सकती!

इस बार 8 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के 111 साल पूरे हो जायेंगे। यह दिन बेशक स्त्रियों की मुक्ति के प्रतीक दिवस के रूप में मनाया जाता है परन्तु जिस प्रकार बुर्जुआ संस्थानों द्वारा इस दिन को सिर्फ़ एक रस्मी कवायद तक सीमित कर दिया गया है, जिस प्रकार स्त्री आन्दोलन को सिर्फ़ मध्यवर्गीय दायरे तक सीमित कर दिया गया है, जिस प्रकार इस दिन को उसकी क्रान्तिकारी विरासत से धूमिल किया जा रहा है और जिस प्रकार उसे उसके इतिहास से काटा जा रहा है, ऐसे में ज़रूरी है कि हम यह जानें कि कैसे स्त्री मज़दूरों के संघर्षों को याद करते हुए अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की शुरुआत हुई थी।

नहीं रहे कॉमरेड रामनाथ! अलविदा कॉमरेड! लाल सलाम!!

कॉमरेड रामनाथ नहीं रहे। 31 अगस्त को तड़के ही सोते समय दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।
कॉमरेड रामनाथ की आयु लगभग 83 वर्ष की थी। अस्वस्थ तो वे विगत कई वर्षों से थे लेकिन पिछले कुछ समय से उनका स्वास्थ्य बहुत ख़राब हो गया था। भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास का. रामनाथ की भूमिका और अवदानों की चर्चा के बग़ैर लिखा ही नहीं जा सकता। निस्सन्देह उनकी भूमिका ऐतिहासिक थी और ‘पाथब्रेकिंग’ थी।

तेलंगाना किसान सशस्त्र संघर्ष के 75 साल उपलब्धियाँ और सबक़ (दूसरी व अन्तिम क़िस्त)

पिछली क़िस्त में हमने देखा कि किस प्रकार 1940 के दशक की शुरुआत में हैदराबाद के निज़ाम की सामन्ती रियासत में आने वाले तेलंगाना के जागीरदारों और भूस्वामियों द्वारा किसानों के ज़बर्दस्त शोषण व उत्पीड़न के विरुद्ध शुरू हुआ आन्दोलन 1946 की गर्मियों तक आते-आते सामन्तों के ख़िलाफ़ एक सशस्त्र विद्रोह में तब्दील हो गया। निज़ाम की सेना और रज़ाकारों द्वारा इस विद्रोह को बर्बरतापूर्वक कुचलने की सारी कोशिशें विफल साबित हुईंं।