Category Archives: प्रवासी मज़दूर

कश्मीर में अल्पसंख्यकों और प्रवासी मज़दूरों की हत्या की बढ़ती घटनाएँ

कहने की ज़रूरत नहीं कि इस प्रकार निर्दोषों की लक्षित हत्या की बदहवास कार्रवाइयों को किसी भी रूप में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है और अन्ततोगत्वा ये कार्रवाइयाँ कश्मीरियों के आत्मनिर्णय की न्यायसंगत लड़ाई को कमज़ोर करने का ही काम करती हैं। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन हत्याओं के लिए सीधे तौर पर हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों के नेतृत्व में लागू की जा रही भारतीय राज्य की तानाशाहाना नीतियाँ ही ज़िम्मेदार हैं क्योंकि ये नीतियाँ ही वे हालात पैदा कर रही हैं जिसकी वजह से कुछ कश्मीरी युवा बन्दूक़ उठाकर निर्दोषों का क़त्ल करने से भी नहीं हिचक रहे हैं। इसलिए कश्मीर में शान्ति क़ायम करने की मुख्य ज़िम्मेदारी भारतीय राज्य के कन्धों पर है जिसे पूरा करने में वह नाकाम साबित हुआ है।

बिना योजना थोपा गया लॉकडाउन और मज़दूरों के हालात

हमारा देश आज ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा धधक रहा है। दूसरी तरफ़ हमारे देश का नीरो बाँसुरी बजा रहा है। कोरोना महामारी से बरपे इस क़हर ने पूँजीवादी स्वास्थ्य व्यवस्था के पोर-पोर को नंगा कर के रख दिया है। एक तरफ़ देश में लोग ऑक्सीजन, बेड, दवाइयों की कमी से मर रहे हैं, दूसरी तरफ़ फ़ासीवादी मोदी सरकार आपदा को अवसर में बदलते हुए पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने में मग्न है। जब कोरोना की पहली लहर के ख़त्म होने के बाद देश भर की स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करना चाहिए था, तब यह निकम्मी सरकार चुनाव लड़ने में व्यस्त थी।

प्रवासी मज़दूरों के ख़ून से रंगा है क़तर में होने वाला अगला फ़ुटबॉल वर्ल्ड कप

एक साल बाद दुनिया का सबसे बड़ा फ़ुटबॉल टूर्नामेंट क़तर में होने वाला है। लम्‍बे समय बाद यह टूर्नामेंट एशिया के किसी देश में हो रहा है। लगभग महीने भर चलने वाले इस टूर्नामेंट के लिए लोगों में पागलों जैसी दीवानगी होती है। सारी दुनिया से पैसे वाले लोग मैच देखने के लिए क़तर पहुँचेंगे। उनके लिए आलीशान स्‍टेडियम, होटल, चमचमाती सड़कें आदि बनाने में एशिया के अनेक ग़रीब देशों के लाखों मज़दूर पिछले कई सालों से जुटे हुए हैं। ये मज़दूर बेहद ख़राब हालात में रहते और काम करते हैं। आये दिन होने वाली दुर्घटनाओं में वे अपनी जान भी गँवाते रहते हैं।

पूँजीवादी व्यवस्था लील रही मज़दूरों की ज़िन्दगियाँ

पिछली 19 जनवरी को गुजरात के सूरत शहर में किम-माण्डवी रोड पर फुटपाथ पर सो रहे 18 मज़दूरों पर ट्रक चढ़ गया जिससे 15 मज़दूरों की मौत हो गयी। बाक़ी मज़दूर भी गम्भीर रूप से घायल हुए। ये सभी मज़दूर राजस्थान के थे, जो अपने और अपने परिवार का पेट भरने के लिए सूरत गये थे। दिन-भर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद वे फुटपाथ पर ही सोते थे। उन्हें क्या पता था कि जिस देश में लाखों तैयार फ़्लैट ख़ाली पड़े हुए हैं, वहाँ उन जैसे मज़दूरों के लिए फुटपाथ पर भी जगह नहीं है।

लॉकडाउन में गुड़गाँव के मज़दूरों की स्थिति

गुड़गाँव के सेक्टर 53 में, ऊँची-ऊँची इमारतों वाली हाउसिंग सोसायटियों के बीच मज़दूरों की चॉल है। छोटे से क्षेत्र में दो से तीन हज़ार मज़दूर छोटे-छोटे कमरों में अपने परिवार के साथ रहते हैं। उसी चॉल में अपने परिवार को भूख, गर्मी, बीमारी से परेशानहाल देख मुकेश ने खु़दकुशी कर ली। तीस वर्षीय मुकेश बिहार के रहने वाले थे, और यहाँ पुताई का काम करते थे। लॉकडाउन का पहला चरण किसी तरह खींचने के बाद जब दूसरा चरण शुरू हुआ तो मुकेश की हिम्मत जवाब दे गयी।

असम में आप्रवासन : मज़दूर वर्गीय दृष्टिकोण

नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) के ख़िलाफ़ देशभर में सबसे उग्र विरोध असम में हो रहा है। लेकिन ग़ौर करने वाली बात यह है कि असम में यह विरोध सीएए के साम्प्रदायिक व ग़ैरजनवादी स्वरूप की वजह से नहीं हो रहा है। यह विरोध इस आधार पर नहीं हो रहा है कि सीएए में मुस्लिमों को नहीं शामिल किया गया है, बल्कि इस आधार पर हो रहा है कि सीएए असम समझौते के ख़िलाफ़ जाता है जिसमें असम में 1971 के बाद आये सभी आप्रवासियों को खदेड़ने की बात कही गयी थी। इसलिए असम में चल रहे इन विरोध-प्रदर्शनों का अनालोचनात्मक महिमामण्डन करने की बजाय इसके पीछे की राजनीति और विचार को समझने की ज़रूरत है और उसके लिए हमें असम में आप्रवासन के इतिहास को समझना होगा।

दुनियाभर में रोज़ बढ़ते करोड़ों शरणार्थी और प्रवासी – पूँजीवाद ही ज़िम्मेदार है इस विकराल मानवीय समस्या का

दक्षिणपन्थी संगठन मज़दूरों को राष्ट्रीयताओं, सांस्कृतिक भेदभाव, भाषाई अन्तर और धार्मिक भिन्नता के आधार पर बाँटने का काम करते हैं, एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करते हैं और इस तरह पूँजीपति वर्ग की सेवा करते हैं। मज़दूरों की असली माँग ये होनी चाहिए कि चाहे वो प्रवासी हों या देशी, सभी मज़दूरों को रोज़गार और जीवन की सभी मूलभूत सुविधाएँ मिलें। असलियत तो ये ही है कि सभी मज़दूरों के अधिकार एक हैं और उनकी लड़ाई भी एक है और वह लड़ाई है इस शोषणकारी पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध।

इंग्लैण्ड में प्रवासी मज़दूरों के बुरे हालात – बेरोज़गारी, शोषण-उत्पीड़न से बचने के लिए परदेस जाने वाले मेहनतकश वहाँ भी पूँजी के ज़ालिम पंजों के शिकार

उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी जब नौकरी नहीं मिलती तो बेरोज़गारी से तंग आकर नौजवान क़र्जे़ लेकर, ज़मीनें, गहने आदि बेचकर विदेशों की ओर कूच करने को मजबूर हैं। जिनके पास थोड़ी-बहुत दौलत है या परिवार के किसी मेम्बर के पास आमदनी का कोई पक्का साधन है, वो आईलेट्स वग़ैरह करके विदेश जाने का तरीक़ा निकालते हैं लेकिन जिनके पास कम पैसा है और बेचने को भी कुछ ख़ास ज़मीन, गहने या सामान नहीं है, वो 5% से 10% भारी भरकम ब्याज दरों पर पैसे क़र्ज़ा लेकर गुप्त तरीक़े से विदेश जाने को मजबूर हैं। लेकिन यह बहुत ही ख़तरनाक रास्ता है। इसे डोंकी लगाना कहते हैं। इसमें नौजवानों के हालात युद्ध पर गये किसी सिपाही जैसे होते हैं जिसे नहीं पता कि कल का सूरज देख पायेगा या नहीं। एजेण्ट नौजवानों के ग्रुप बनाकर भेजते हैं। इंग्लैण्ड आने की क़ीमत 3 लाख से 5 लाख है। लेकिन इस तरीक़े से विदेश जाने वाले नौजवानों को रास्ते में आने वाली मुसीबतों के बारे में नहीं बताया जाता। ज़ाहिर है, एजेण्ट को अपने पैसे तक ही मतलब होता है।

आपस की बात : ब्रिटेन के प्रवासी मज़दूरों के बुरे हालात

बिल्डिंग लाइन में काम करने वाले मज़दूरों की काम करने की मियाद कुछ 5-7 साल ही होती है। कड़कती ठण्ड में लगातार काम करते रहने से उनकी हड्डि‍याँ भी टेढ़ी हो जाती हैं। लगभग सभी को ही पीठ दर्द की शिकायत रहती है, लेकिन काम से निकाले जाने के डर से वो अपनी तकलीफ़ों का जि़क्र किसी से नहीं करते। प्रवासी मज़दूरों की मजबूरियों का फ़ायदा उठाने वाले ठेकेदार और दलाल भी प्रवासी ही होते हैं जो ख़ुद इस प्रक्रिया से गुज़रकर बाद में मालिक बनकर उनके सर पर सवार हो जाते हैं और उन्हें लूटने का कोई मौक़ा हाथ से जाने नहीं देते। मज़दूरों का ख़ून चूस कर अपने घर भरने वालों में पंजाबी सबसे आगे हैं। वह भारतीय प्रवासियों के अलावा रोमेनीयन, स्लोवाकि‍यन और अन्य ग़रीब यूरोपीय मुल्क़ों के मज़दूरों से जानवरों की तरह काम लेते हैं और सारा दिन काम के बदले में उन्हें शराब और सिगरेट देकर मामला निपटा देते हैं। फिर बड़ी बेशरमी से कहते हैं कि इन्हें पैसे जोड़ने का कोई लालच नहीं होता, बस शराब सिगरेट से ही ख़ुश हो जाते हैं।

मेहनतकशों को आपस में कौन लड़ा रहा है, इसे समझो!

बिहार और यूपी के मजबूर मज़दूरों को हाल में मार-पीटकर गुजरात से भगाने वाले गुजराती मालिक नहीं, मज़दूर ही थे। उनकी झोंपड़ियों में आग अडानी ने नहीं लगायी, बल्कि ख़ुद शोषित, बेहाल गुजराती मज़दूरों ने ही ये काम अंजाम दिया। महाराष्ट्र में तो ये वहशीपन पिछले 25-30 साल से होता आ रहा है। पंजाब में भी इसी तरह के हालात बनने की सुगबुगाहट है। कभी भी कोई घटना, जैसे गुजरात में मासूम बच्ची से बलात्कार, आग भड़का सकती है। दरअसल सर्वहारा वर्ग में ये भ्रातृघाती बैर पहले ग़ुलाम राष्ट्र और मालिक राष्ट्र वाला समीकरण पैदा करता था, यूरोप के लुटेरे मुल्क़ोें के मज़दूर ख़ुद को शासक मालिक की ही तरह, भारत जैसे गुलाम मुल्क़ों के मज़दूर का मालिक समझते थे, वैसा ही अन्तर, वैसा ही वैमनस्य आज पूँजीवाद का अन्तर्निहित असमान विकास का नियम कर रहा है। शासक वर्गों के अलग-अलग धड़े और पार्टियाँ अपने निहित स्वार्थों में इस आग को और भड़कायेंगे। इसलिए ज़रूरी है क‍ि मज़दूरों के बीच इस सच्चाई का प्रचार क‍िया जाये कि सभी मज़दूरों के हित एक हैं और उनका साझा दुश्मन वे लुटेरे हैं जो देशभर के तमाम मेहनतकशों का ख़ून चूस रहे हैं।