Category Archives: आन्‍दोलन : समीक्षा-समाहार

दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन के नेतृत्व में दिल्ली की आँगनवाड़ी महिलाओं की शानदार जीत!

सरकार ने हड़ताल को कमजोर करने के लिए सुपरवाइज़र और सीडीपीओ पर दबाव डालकर महिलाओं को डरा-धमकाकर आँगनवाड़ी खुलवाने की कोशिशें कीं। कुछेक महिलाओं ने इनके डर से आँगनवाड़ी खोली भी। इससे निपटने के लिए यूनियन ने भी अपनी कार्रवाई की। महिलाओं की पिकेटिंग टीम बनायी गयी और जगह-जगह सेण्टरों पर जाकर डरी हुई अपनी बहनों को हौसला दिया गया और समझाया गया कि सुपरवाइ़जर और सीडीपीओ की गीदड़ भभकियों से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है, वे आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं, आपके साथ आपकी यूनियन है। इस पिकेटिंग का ज़बरदस्त असर हुआ और जो भी महिलाएँ डर रही थी, उनमें साहस और हिम्मत आयी और वे भी हड़ताल में शामिल हो गयीं।

मौजूदा दौर के किसान आन्दोलन और स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने का सवाल

लाभकारी मूल्य बढ़ाने की बात की जाती है तो यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि ग़रीब किसानों का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है जोकि बाज़ार में बेचता कम है, जबकि बाज़ार से ख़रीदता ज़्यादा है। उदाहरण के लिए हमारी तरफ़ का दो एकड़ का एक किसान अपनी ज़रूरतानुसार अनाज रखकर यदि बाज़ार या मण्डी में साल भर में 50 मन यानी 20 क्विण्टल गेहूँ और 10 मन यानी 4 क्विण्टल बाजरा भले ही बेच लेगा, किन्तु उसे साल-भर बाज़ार से चीनी, चाय पत्ती, तम्बाकू, रिफ़ाइण्ड-सरसों तेल, पशुओं के लिए खल-बिनोला, फ़ल-साग़-सब्ज़ी, दाल-चावल, सूती वस्त्र इत्यादि तो ख़रीदने ही पड़ेंगे और बहुत सारे औद्योगिक उत्पाद में भी कच्चे माल के तौर पर कृषि उत्पाद का ही इस्तेमाल होता है। और ध्यान देने योग्य बात यह है कि ख़रीदी जाने वाली वस्तुओं (कृषि उत्पाद) का कुल मूल्य बाज़ार में बेची जाने कृषि उपज से कहीं ज़्यादा ही बैठेगा! फिर यदि फ़सलों के दाम बढ़ेंगे यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ेगा तो सभी फ़सलों का ही बढ़ेगा। ठीक इसीलिए ग़रीब किसान के लिए लाभकारी मूल्य की माँग एक घाटे का सौदा है। जबकि धनी किसान के मामले में स्थिति अलग होगी। यदि इसी इलाक़े का एक 20 एकड़ वाला किसान 400 क्विण्टल गेहूँ और 80 क्विण्टल बाजरा मण्डी में बेचेगा तो उसके लिए स्थिति मुनाफ़े वाली होगी, क्योंकि वह जितनी उपज बाज़ार में बेचता है, उससे बहुत कम ही ख़रीदता है।

आइसिन मज़दूरों का बहादुराना संघर्ष और ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों लिए कुछ ज़रूरी सबक़

ज्ञात हो कि हरियाणा की रोहतक आईएमटी में स्थित आइसिन ऑटोमोटिव हरियाणा प्राइवेट लिमिटेड जापानी मालिकाने वाली एक वेण्डर कम्पनी है। यह कम्पनी ख़ास तौर पर मारुती, टोयोटा, होण्डा इत्यादि के लिए ‘डोर लॉक’, ‘इनडोर-आउटडोर हैण्डल’ समेत कुछ अन्य उत्पादों की आपूर्ति करती है। 3 मई को धरना शुरू होने से पहले कम्पनी में क़रीब 270 स्थाई मज़दूर, क़रीब 250 ट्रेनी मज़दूर और लगभग 150 ठेका मज़दूर काम कर रहे थे। कहने के लिए यह एक वेण्डर कम्पनी है, किन्तु आइसिन ग्रुप दुनियाभर के 7 सबसे बड़े ग्रुपों में से एक है तथा दुनियाभर में इसकी 195 के क़रीब शाखाएँ हैं। इससे पता चलता है कि कितनी बड़ी पूँजी की ताक़त के साथ उक्त कम्पनी बाज़ार की प्रतिस्पर्धा में खड़ी है। भारत में इसकी दो कम्पनियाँ हैं जिनमें एक रोहतक में तो दूसरी बैंगलोर में स्थित है।

‘आज़ादी कूच’ : एक सम्भावना-सम्पन्न आन्दोलन के अन्तरविरोध और भविष्य का प्रश्न

हम एक बार यह भी स्पष्ट करना चाहेंगे कि हमारी इस कॉमरेडाना आलोचना का मकसद है इस आन्दोलन के सक्षम और युवा नेतृत्व के समक्ष कुछ ज़रूरी सवालों को उठाना जिनका जवाब भविष्य में इसे देना होगा। आज समूचा जाति-उन्मूलन आन्दोलन और साथ ही हम जैसे क्रान्तिकारी संगठन व व्यक्ति जिग्नेश मेवानी की अगुवाई में चल रहे इस आन्दोलन को उम्मीद, अधीरता और अकुलाहट के साथ देख रहे हैं। किसी भी किस्म का विचारधारात्मक समझौता, वैचारिक स्पष्टवादिता की कमी और विचारधारा और विज्ञान की कीमत पर रणकौशल और कूटनीति करने की हमेशा भारी कीमत चुकानी पड़ती है, चाहे इसका नतीजा तत्काल सामने न आये, तो भी।

दिल्ली आँगनवाड़ी महिलाओं का लम्बा और जुझारू संघर्ष!

अरविन्द केजरीवाल सरकार की इस लगातार जारी वायदा-खि़लाफ़ी को देखते हुए हड़ताल की लीडिंग कमिटी ने 4 अगस्त को फिर एक ज़बरदस्त कार्यक्रम की योजना बनायी। ‘दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन’ के नेतृत्व में हज़ारों आँगनवाड़ी वर्कर्स व हेल्पर्स ने राजघाट से दिल्ली सचिवालय तक ‘आँगनवाड़ी आक्रोश रैली’ का आयोजन किया। 15 अगस्त के मद्देनज़र दिल्ली पुलिस कार्यक्रम को लेकर आना-कानी कर रही थी, लेकिन महिलाओं की ताक़त के आगे आखि़र उसे भी झुकना पड़ा। दिल्ली सचिवालय पहुँचकर महिलाओं ने ज़बरदस्त नारेबाज़ी की और अपनी सभा को चलाया। लेकिन केजरीवाल महाशय उस दिन भी नदारद थे।

किसान आंदोलन : कारण और भविष्य की दिशा

सबसे पहले तो हमें इस ग़लत समझ से छुटकारा पाना होगा कि किसान नाम का कोई एकरूप समरस वर्ग है, जिसमें सब किसानों के एक समान आर्थिक हित हैं। 2011 के सामाजिक-आर्थिक सर्वे तथा 2011-12 की कृषि जनगणना के अनुसार गाँवों के कुल 18 करोड़ परिवारों में से 30% खेती, 14% सरकारी/निजी नौकरी व 1.6% ग़ैर कृषि कारोबार पर निर्भर हैं; जबकि बाक़ी 54% श्रमिक हैं। खेती आश्रित 30% (5.41 करोड़) का आगे विश्लेषण करें तो इनमें से 85% छोटे (1 से 2 हेक्टेयर) या सीमान्त (1 हेक्टेयर से कम) वाले किसान हैं। बाक़ी 15% बड़े-मध्यम किसानों के पास कुल ज़मीन का 56% हिस्सा है। ये 85% छोटे-सीमान्त किसान खेती के सहारे कभी भी पर्याप्त जीवन निर्वाह योग्य आमदनी नहीं प्राप्त कर सकते और अर्ध-श्रमिक बन चुके हैं। किसानों के सैम्पल सर्वे 2013 का आँकड़ा भी इसी की पुष्टि करता है कि सिर्फ़ 13% किसान (अर्थात बड़े-मध्यम) ही न्यूनतम समर्थन मूल्य से फ़ायदा उठा पाते हैं।

एमसीडी चुनावों में ‘क्रान्तिकारी मज़दूर मोर्चा’ की भागीदारी : एक राजनीतिक समीक्षा व समाहार

इन सारे कारकों के बावजूद क्रान्तिकारी मज़दूर मोर्चा ने दिल्ली नगर निगम के पूँजीवादी जनवादी चुनावों का क्रान्तिकारी प्रचार के लिए प्रभावी इस्तेमाल किया। क्रान्तिकारी मज़दूर पक्ष के लिए जीत-हार पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर होने वाले चुनावों में प्रमुख मुद्दा नहीं होता। प्रमुख मुद्दा होता है इस मंच का मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष की नुमाइन्दगी के लिए और मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी प्रचार के लिए उपयोग करना; इसके ज़रिये मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश वर्ग के अधिकतम सम्भव हिस्से को इस या उस पूँजीवादी पार्टी का पिछलग्गू बनने से रोकना; मज़दूर वर्ग के दूरगामी क्रान्तिकारी लक्ष्य, यानी समाजवादी व्यवस्था के बारे में शिक्षण-प्रशिक्षण और प्रचार; और पूँजीवादी व्यवस्था की सीमाओं को आम मेहनतकश जनता के समक्ष उजागर करना और उसे एक आमूलगामी क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए तैयार करना। क्रान्तिकारी मज़दूर मोर्चा ने अपने पहले और सीखने के प्रयोग में इन सारे कार्यभारों को पूरा करने का प्रयास किया है। इस प्रयोग में तमाम कमियाँ भी रही हैं, जिन्हें निरन्तर जनसंघर्षों में भागीदारी के साथ दूर किया जायेगा और आगामी पूँजीवादी चुनावों में इससे बेहतर प्रदर्शन की ज़मीन तैयार की जायेगी।

मारुति-सुजुकी के बेगुनाह मज़दूरों को उम्रक़ैद व अन्य सज़ाओं के खि़लाफ़ लुधियाना में ज़ोरदार प्रदर्शन

एक बहुत बड़ी साजि़श के तहत़ क़त्ल, इरादा क़त्ल जैसे पूरी तरह झूठे केसों में फँसाकर पहले तो 148 मज़दूरों को चार वर्ष से अधिक समय तक, बिना ज़मानत दिये, जेल में बन्द रखा गया और अब गुड़गाँव की अदालत ने नाजायज़ ढंग से 13 मज़दूरों को उम्रक़ैद और चार को 5-5 वर्ष की क़ैद की कठोर सज़ा सुनाई है। 14 अन्य मज़दूरों को चार-चार साल की सज़ा सुनाई गयी है लेकिन चूँकि वे पहले ही लगभग साढे़ चार वर्ष जेल में रह चुके हैं इसलिए उन्हें रिहा कर दिया गया है। 117 मज़दूरों को, जिन्हें बाक़ी मज़दूरों के साथ इतने सालों तक जेलों में ठूँसकर रखा गया, उन्हें बरी करना पड़ा है। सबूत तो बाक़ी मज़दूरों के खि़लाफ़ भी नहीं है लेकिन फिर भी उन्हें जेल में बन्द रखने का बर्बर हुक्म सुनाया गया है।

ऑटोमोबाइल सेक्टर में एक और आन्दोलन चढ़ा कुत्सित ग़द्दारी और मौक़ापरस्ती की भेंट

आन्दोलन का नेतृत्व इस हार के लिए उतना ज़िम्मेदार नहीं है, जितना कि ये दलाल और मौक़ापरस्त ताक़तें हैं। हीरो संघर्ष का नेतृत्व करने वाली समिति में स्वतन्त्र विवेक से निर्णय लेने और मज़दूरों की सामूहिक ताक़त में यक़ीन करने का बेहद अभाव तो था ही। साथ ही, ‘बड़े भैय्या’ (ये ‘बड़े भैय्या’ कोई भी ट्रेड यूनियन संघ हो सकता था) की पूँछ पकड़कर चलने की प्रवृत्ति और मानसिकता भी मौजूद थी। लेकिन इन तमाम प्रवृत्तियों को प्रश्रय देने का काम ऐसी ही अवसरवादी ताक़तें करती हैं, जैसी कि इस आन्दोलन में मौजूद थीं।

मारुति मज़दूरों के केस का फ़ैसला : पूँजीवादी व्यवस्था की न्याय व्यवस्था का बेपर्द नंगा चेहरा

इस फ़ैसले ने पूँजीवादी न्याय व्यवस्था के नंगे रूप को उघाड़कर रख दिया है! यह तब है जब हाल ही में अपने जुर्म कबूलने वाले असीमानन्द और अन्य संघी आतंकवादियों को ठोस सबूत होने और असीमानन्द द्वारा जुर्म कबूलने के बाद भी बरी कर दिया जाता है। ये दोनों मुक़दमे बुर्जुआ राज्य के अंग के रूप में न्याय व्यवस्था की हक़ीक़त दिखाते हैं। यह राज्य व्यवस्था और इसलिए यह न्याय व्यवस्था पूँजीपतियों और उनके मुनाफ़े की सेवा में लगी है, मज़दूरों को इस व्यवस्था में न्याय नहीं मिल सकता है। मारुति के 148 मज़दूरों पर चला मुक़दमा, उनकी गिरफ़्तारी और 4 साल से भी ज़्यादा जेल में बन्द रखा जाना इस पूँजीवादी न्यायिक व्यवस्था के चेहरे पर लगा नकाब पूरे तरह से उतारकर रख देता है। यह साफ़ कर देता है कि मारुति के 31 मज़दूरों को कोर्ट ने इसलिए सज़ा दी है ताकि तमाम मज़दूरों के सामने यह मिसाल पेश की जा सके कि जो भी पूँजीवादी मुनाफ़े के तंत्र को नुक्सान पहुँचाने का जुर्म करेगा उसे बख़्शा नहीं जायेगा।